भूकंप किसे कहते हैं?

भूकंप सबसे अधिक विनाशकारी एवं ऐसी आकस्मिक घटना है जिसके आगे आज भी मानव पूरी तरह असहाय है। जहाँ ज्वालामुखी का प्रभाव मात्र स्थान विशेष के आस-पास ही रहता है, वहीं भूकम्प की तरंगों का घातक प्रभाव कुछ सौ वर्ग किलोमीटर से लाखों वर्ग किलोमीटर तक होता है।

भूकंप किसे कहते हैं

भूकंप पृथ्वी की टेक्टोनिक प्लेटों का अचानक हिलने की क्रिया को कहा जाता है। इस झटकों से विभिन्न संरचनाओं जैसे कि इमारतों और घरों को नुकसान हो जाता हैं। एक छोटे क्षेत्र में कई भूकंप आ सकते हैं। टेक्टोनिक प्लेटों में तनाव से अचानक ऊर्जा की तरंग निकलती है जो जमीन के माध्यम से यात्रा करती हैं। और धरातल पर पहुचती हैं। इसके कई कारण हो सकता हैं। भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाना पर मापी जाती है। रिक्टर स्केल का आविष्कार चार्ल्स फ्रांसिस रिक्टर ने 1935 में किया था।

सन् 1737 के कोलकाता के भूकंप में 3 लाख व्यक्ति मारे गये थे एवं सन् 1923 के सगामी खाड़ी व टोकियो के भूकंप में 5 लाख मकान नष्ट हए तथा 25 हजार व्यक्ति मारे गये थे। इससे पता चलता हैं की भूकंप मानव जाती के लिए बहुत ही खतरनाक हैं। यह एक पल मे लाखों जान लेता हैं। 

भूकंप के लाभ और हानि

भूकंप से लाभ - भूकंप के कारण धरातल पर नए द्वीप पठार और झीलों का निर्माण होता है। छिपी हुई बहुमूल्य धातुएं तथा उस से युक्त चट्टाने धरातल के समीप आ जाते हैं जो बाद में आसानी से खोदी जा सकती है। कभी-कभी समुद्र तट के समीप की भूमि धंसने से वहां पर खड़िया बन जाती है इन जगहों पर उत्तम बंदरगाहों का विकास होता है। भूकंप से कभी-कभी पर्वतों की ऊंचाई बढ़ जाती है ऊंचे पर्वत अधिक वर्षा का कारण होते हैं।

भूकंप से हानि - भूकंप द्वारा थोड़े समय में बहुत अधिक जन धन की हानि होती है हाल ही में महाराष्ट्र के लातूर जिले में आए भूकंप से कई हजार लोगों की मृत्यु हो गई। भूकंप के कारण धरातल में कई विलक्षण परिवर्तन हो जाते हैं जल प्रवाह उलट जाता है। कहीं-कहीं नदिया जिले तथा दलदल सुख जाते हैं भूस्खलन से नदी मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। बांध टूट जाने से भयंकर बाढ़ आ जाती है बिजली के खंभों के गिरने से कई घटनाएं हो जाती है।

भूकंप के प्रभाव का वर्णन कीजिए

भूकंप अनेक प्रकार से घातक प्रभाव डालते हैं। इनसे होने वाले घातक प्रभाव मुख्यतः निम्न प्रकार के हैं -

1. मानव निर्मित वस्तुओं का नाश - भूकंप आते ही मकान गिर जाते हैं, सड़क व रेल मार्ग टूट-फूट जाते हैं तथा भवनों व खेत-खलिहानों में आग लग सकती है। सन् 1923 के टोकियो-याकोहोमा क्षेत्र के भूकम्प से 5 लाख भवन नष्टप्रायः हो गये, हजारों व्यक्ति मारे गये और अरबों की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचा। इससे उस क्षेत्र की सम्पूर्ण अर्थ-व्यवस्था पंगु बनकर रह जाती है। कई बार भूकम्प के साथ भयंकर आग लगने से भी सभी कुछ स्वाहा हो जाता है।

2. नगरों का नष्ट होना - कभी-कभी भयंकर भूकंपों का सबसे घातक प्रभाव नगर विशेष पर ही पड़ता है। इससे कुछ ही सेकण्ड में वह नगर नष्ट हो जाता है। यूगोस्लाविया का स्कोपजी नगर, जापान के टोकियो नगर का अधिकांश भाग, टर्की में टेन्जियर्स नगर, आदि सभी नगर कुछ ही सेकण्ड में नष्ट हो गये। सन् 1737 के भूकम्प में कलकत्ता नगर ही नष्ट नहीं हुआ बल्कि इससे तीन लाख व्यक्ति मारे गये।

3. नदियों द्वारा मार्ग परिवर्तन - भूकम्प के प्रभाव से जब नदी का मार्ग ही ऊपर उठने लगता है या उनके मार्ग में भू-स्खलन व अन्य बाधाओं के कारण पानी का बहाव अस्थायी तौर पर रुक जाता है, तब या तो नदी अपना मार्ग बदल लेती है अथवा वहाँ अस्थायी झील बन जाती है। 

दोनों ही दशाओं में निचले क्षेत्रों एवं नवीन क्षेत्रों में भयंकर बाढ़ें आती हैं। वर्तमान काल में सन् 1950 में असम के भूकम्प से दिहांग एवं ब्रहापुत्र के मार्ग बदल गये, सुबंसिरी नदी का बाँध टूट गया। इसी प्रकार अनेक स्थानों पर गढ़वाल-टेहरी के भूकम्प से राफ्ट झीलें बनने से एवं उनके शीघ्र टूट जाने से आई बाढ़ से निचले क्षेत्रों को बहुत अधिक हानि उठानी पड़ती है।

4. भू-तल पर दरार - भूकम्पों से धरती पर दरारें पड़ जाती हैं। इन दरारों में गाँव, भवन, सड़कें आदि समा जाते हैं। मिसीसिपी डेल्टा प्रदेश में सन् 1817 के भूकम्प से, असम में सन् 1897 एवं सन् 1950 के भूकम्प से इसी प्रकार की कई किलोमीटर लम्बी एवं 5 से 20 मीटर चौड़ी दरारें पड़ जाने से महाप्रलय जैसी हानि होने लगती है। कई बार भूमि से रेत बाहर आने लगती है। 

सन् 1819 के सिन्धु डेल्टा के भूकम्प से अपतटीय समुद्र में 80 किलोमीटर लम्बा व 26 किलोमीटर चौड़ा द्वीप बन गया। जापान में सगामी खाड़ी में सन् 1923 के भूकम्प से एवं कच्छ की खाड़ी में सन् 1890 के भूकम्प से सागर तल एवं तटीय भाग नीचे धंस गये । इस प्रकार ऐसे अभूतपूर्व परिवर्तन से सम्पूर्ण प्रदेश के संसाधनों पर अनेक प्रकार से बुरा प्रभाव पड़ता है।

सागर में भयंकर लहरें उठना-महासागरीय तली में अथवा तटीय भागों में भूकम्प आने पर जल लहरें ज्वार लहर की भाँति ऊपर उठती हैं । इससे सम्पूर्ण तटीय भाग में सभी प्रकार की रचनाएँ-भवन सडकें रेलमार्ग, खेत, उद्योग कुछ ही सेकण्डों में नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। अपार जन-धन की हानि होती है। क्राकाटोआ के ज्वालामुखी विस्फोट के पश्चात् भूकम्प एवं भयंकर विस्फोट के सम्मिलित प्रभाव से ज्वारीय लहरों से जावा व सुमात्रा तट के हजारों व्यक्ति मारे गये। कच्छ की खाड़ी के सन् 1819 के भूकम्प से एवं सन् 1755 के पुर्तगाल के तटीय भूकम्प से अधिकांश तटीय कस्बे व लिस्बन नगर नष्ट हो गया।

भूकंप की उत्पत्ति

प्राचीन मान्यता के अनुसार इसे देवीय शक्ति माना जाता था। बहुत पहले ये धारणा बनी कि जब पृथ्वी पर पाप अधिक होने लगते हैं। तो उनके भार से पृथ्वी हिलने लगती है। बाद में लोगों ने माना कि पृथ्वी नाग सर्प के फन के ऊपर है। जब नाग सर्प हिलता है तो पृथ्वी में भी कम्पन होने लगता है। टर्की में पृथ्वी को भैंसे के सींग पर टिकी मानी गई है। उत्तरी अमेरिका में इसे कछुए पर रखा माना जाता था। 

आधुनिक समय में प्राचीन विचारधारा को असत्य साबित किया गया है क्योंकि ये सभी बातें विज्ञान से बहुत दूर है। इसमें रखी गई बातों को मानना सम्भव नहीं है। भूकंप की उत्पत्ति के निम्न कारण होते हैं। 

जल-वाष्प एवं गैसों की क्रियाशीलता 

पृथ्वी की गहराइयो में दरारों या अन्य कारणों से पानी काफी नीचे पहंचने लगता है। तो वह पानी तेजी से गर्म होकर वाष्प में बदलता जाता है। पहले से स्थित ज्वालामुखी के द्वारा पानी नीचे प्रवेश करता है तो वह तेजी से और बहुत ऊचे दबाव में बदलने लगता है।

साथ-साथ अनेको प्रकार की गैसें भी वाष्प के साथ मिल जाती है। ऐसी गैस मिश्रित उच्च दबाव वाली वाष्प गतिशील होती है। यही वाष्प और गैस पृथ्वी की सतह की ओर आने का मार्ग ढूँढ़ता है। 

ऐसा करते समय वह भू-तल की ओर दबाव डालकर एवं भू-तल का का रास्ता खोजकर तेजी से गतिशील होने लगती है। कभी-कभी ये गैसें कमजोर पृथ्वी की पपड़ी से मार्ग ढूंढकर पृथ्वी की सतह से तेजी से बाहर आने लगती हैं। इन सारी क्रियाओं से पृथ्वी में कम्पन होने लगती है और धरती पर भूकंप आता है।

ज्वालामुखी क्रिया

पृथ्वी के असन्तुलित भागों में जहाँ निकटवर्ती गहरे सागरों की तली में सीमा की परत सतह के काफी निकट आ गई है वहाँ स्पष्टतः असन्तुलन को स्थिति में पाई जाती है। इसी कारण ऐसे क्षेत्रों में ज्वालामुखी क्रिया के साथ अथवा बिना ज्वालामुखी फटे ही भूकंप आते रहते हैं।

सम्पीडन की क्रिया 

पृथ्वी की सतह पर अनेक कारणों से भ्रंश एवं सम्पीडन की क्रियाएं होती रहती है। ऐसी क्रियाओं के प्रभाव से पृथ्वी की चट्टानें भ्रंस के प्रभाव से टूटती है। अथवा पृथ्वी की सतह पर दरार घाटी ब्लाक पर्वत विकसित होते रहते हैं। 

इनके प्रभाव से चट्टानों के खिसकाव से भूकंप आते हैं। जब ऐसी क्रियाएँ पृथ्वी की गहराई में होती हैं तो अधिक विस्तृत क्षेत्र में भूकंप आते हैं।

भू-सन्तुलन की अव्यवस्था 

पृथ्वी के अधिकांश भागों में भू सन्तुलन सम्बन्धी थोड़ी बहुत अव्यवस्था पाई जाती है। किन्तु कुछ भाग ऐसे भी हैं जहाँ कि ऊंचे ऊचे पर्वत एवं गहरे सागर पास पास में स्थित है। ऐसे भागों में सन्तुलन की अव्यवस्था सबसे अधिक पाई जाती है। इसी कारण वहाँ संतुलन की स्थिति स्थापित करने के लिए प्राकृतिक शक्तियां निरन्तर प्रभावी रहती हैं। 

इसके कारण कई बार भूकंप आते है। जापान में आने वाले विनाशकारी भूकंप इसी प्रकार की होती हैं। फिलीपीन्स एवं अफगानिस्तान में 4 मार्च1949 में आया भूकंप ऐसी सन्तुलन की अव्यवस्था वाली थी। 

प्रत्यास्थ पुनर्बलन सिद्धांत

यह सिद्धान्त डॉ. रीड का है। इसके अनुसार, प्रत्येक चट्टान में थोड़ी मात्रा में धीमी गति से होने वाली खिंचाव अथवा दबाव को सहन करने की क्षमता होती है। इसी आधार पर डॉ. रीड ने अपना सिद्धान्त चट्टानों में प्रत्यास्थ पुनश्चलन सिद्धान्त प्रस्तुत किया। जब चट्टानों पर क्षमता से अधिक दबाव की स्थिति आ जाती है। या जब तेजी से ऐसा दबाव बढ़ने लगता है। तो ऐसी स्थिति में चट्टानें सहन नहीं कर पाती तथा टूट जाती हैं। 

टूटी हुई चट्टानें पुनः खिंचकर अपनी पुरानी स्थिति में भी आने लगती हैं क्योंकि चट्टानों के लचीलेपन के प्रभाव से ही धीमी गति के दबाव को चट्टान सहन करके दबती रही हैं। पर्वतों में परिवलन एवं प्रीवा खण्डों में होने वाला चट्टानों का चलन इसी का उदाहरण है। चट्टानों के इस क्रिया के साथ पुनः अपनी मूल स्थिति में सिमट जाने से वहाँ कुछ स्थान खाली हो सकता है। इससे भी पृथ्वी की सतह पर कहीं-कहीं भूकंप आते हैं।

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