अधिवास किसे कहते हैं - adhivas kise kahate hain

अधिवास किसे कहते हैं - आश्रय मानव की मूलभूत आयकताओं में से एक है,मानव जिस स्थान को अपने आश्रय हेतु चुनकर वहाँ जिन मकानों, घरों,झोपड़ियों आदि का निर्माण करता है, वह उसका 'आवास' या अधिवास कहलाता है। इन्ही आवासों द्वारा मानवीय बस्तियों का निर्माण होता है।

आवास के अन्तर्गत सभी प्रकार के आश्रयों को सम्मिलित किया जाता है, चाहे वे घास-फूस की झोपड़ियाँ हों या वृक्षों की टहनियों एवं पत्तियों से बनी कुटिया, मिटटी या लकड़ी से बना घर हो या ईट, सीमेण्ट, कांकरीट की बनी इमारत हो या कोई आधुनिक बिल्डिंग हो।

सामान्यतः अधिवासों की तीन विशेषताएँ होती हैं

  1. इन अधिवासों में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी की भाँति रहता है, वह आपस में विचारों एवं वस्तओं का आदान-प्रदान करता है।
  2. इन अधिवासों में मकान प्रारम्भिक इकाई होते हैं।
  3. अधिवासों में सम्पर्क हेतु पगडण्डियाँ, गलियाँ एवं सड़कें बनायी जाती हैं।

ग्रामीण अधिवास

गाँवों में निवास करने वाले लोगों के प्रमुख व्यवसाय प्राथमिक व्यवसाय होते हैं, जैसे-कृषि कार्य, पशुपालन, मछली पकड़ना, लकड़ी काटना, शिकार करना, खनन आदि। इन बस्तियों के निवासी अपनी आजिविका हेतु सीधे प्रकृति पर निर्भर रहते हैं। ग्रामीण बस्तियों की प्रमुख विशेषताएँ निनांकित हैं।

  1. यहाँ के निवासी प्राथमिक व्यवसाय में संलगन रहते हैं।
  2. प्रमुख व्यवसाय कृषि है इसलिए ग्रामीण अधिवासों का वितरण नदियों के उपजाऊ मैदानों में अधिक मिलता है।
  3. ग्रामीण अधिवासों में मकान या घर स्थानीय सामग्रियों से निर्मित होते हैं।
  4. इनमें मकान के दो भाग होते हैं-एक भाग परिवार के सदस्यों के रहने के लिए तथा दूसरा भाग पशुओं आदि के लिए बना होता है।
  5. गाँवों में मकान सुनियोजित ढंग से नहीं बनाए जाते, बल्कि भूमि की उपलब्धता एवं सुविधानुसार मकान बना लिए जाते हैं।
  6. ग्रामीण अधिवास के लोगों में अधिक सहकारिता तथा सहयोग की भावना होती है।

ग्रामीण अधिवास के प्रकार

ग्रामीण अधिवास के चार प्रकार होते हैं जो निम्नलिखित हैं।

1.सघन बस्ती - इस बस्ती में मकान पास-पास एवं आपस में जुड़े होते हैं। गलियाँ सँकरी होती हैं। ऐसीबस्ती में जनसंख्या का संकेन्द्रण गाँव के केन्द्र की ओर होता है।इनमें मकानों को बनाने की कोई योजना नहीं होती है। इस बस्ती की रचना सुरछा, पर्याप्त ऊपजाऊ कृषि भूमि, भूमिगत जल का अभाव आदि कारणों से होता है।

इन गाँवों की जनसंख्या प्राय: अधिक होती है। सिंधु, गंगा,ब्रम्हपुत्र का मैदान नील नदी की घाटी आदि के उपजाऊ कछारी मैदानों में सघन बस्तियाँ मिलती हैं।

2. संयुक्त बस्ती - इसके अन्तर्गत ऐसी ग्रामीण बस्तियाँ आती है, जिनमें एक मुख्य गाँव होता है और उसके निकट उसके पुरवे बने होते हैं मुख्य बस्ती से अलग एक या एक से अधिक पुरवे या टोला के स्थापित होने का कारण मुख्य बस्ती का ज्यादा बढ़ा आकार, सघन बसाव एवं स्थान का अभाव हो जाना होता है।

ऐसी स्थिति में कुछ लोग गाँव की सीमा पर जाकर मकान बनाकर रहने लगते हैं।धीरे-धीरे वहाँ एक पुरवा का विकास हो जाता है ऐसी ग्रामीण बस्ती गंगा, यमुना के मैदान में हजारों की संख्या में पायी जाती है।

3. अपखण्डित बस्ती - अपखण्डित बस्ती में मकान एक-दूसरे से पृथक-पृथक कुछ दूरियों पर बने होते हैं, किन्तु सभी घर मिलाकर एक बस्ती का निर्माण करते हैं। कहीं-कहीं दो-दो या तीन-तीन मकानों के पुरवे भी पाये जाते हैं। इन सबको मिलाकर एक बस्ती बनती है।

अपखण्डित बस्ती के निर्माण में जाति और धर्म संरचना का विशेष महत्व होता है। गंगा- घाघरा के दोआब, उत्तरी गंगा के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र एवं बंगाल के डेल्टाई क्षेत्र में ऐसी बस्तियाँ मिलती हैं।

4. प्रकीर्ण अथवा बिखरी हुई बस्तियाँ - इन्हें एकाकी बस्ती भी कहते हैं। इस प्रकार की बस्ती में घर दूर-दूर बने होते हैं और इनके मध्य में कृषि क्षेत्र होता है। इनबस्तियों का निर्माण बाढ़ के भय,अनुपजाऊ भूमि, सुरक्षा की सुलभता आदि के कारण होता है पर्वतीय क्षेत्रों में प्राय. इसी प्रकार की बस्तियाँ मिलती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में कृषि फर्मो पर बने मकान, ‘फार्म स्टेड' इसके अच्छे उदारण हैं।

ग्रामीण बस्तियों के प्रतिरूप

ग्रामीण बस्तियों के बनावट की विभिन्नता के कारण इसके कई प्रकार के प्रतिरूप दिखाई देते हैं -

1. आयताकार अथवा चौक पटटी प्रतिरूप - आयताकार गाँवों का विकास दो मार्गो या सड़कों के चौराहों पर चारों ओर होता है, जिससे गाँव का आकार आयताकार बन जाता है।इन गाँवो में गलियाँ भी प्रायः सीधी होती हैं तथा वे एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं। भारत में गंगा के मैदान में अधिकांश गाँव इसी प्रकार के पाये जाते हैं।

2.पंक्तिनुमा या रैखिक प्रतिरूप - जब किसी गाँव का विकास किसी सड़क, मार्ग, नदी या नहर के किनारे होता है, तो गाँव का आकार एक रेखा के समान होता है। इन गाँवो में समानान्तर गलियां होती हैं और मकान एक-दुसरे से सटे-सटे होते हैं। इन गलियों के दोनों ओर प्रायः: मकानों के द्वार या दुकानें आदि होती हैं। इस प्रकार की रैखिक ग्रामीण बस्तियाँ समुद्री किनारों पर भी पायी जाती हैं।

3. त्रिभूजाकार प्रतिरुप - सड़कों के मिलन स्थल पर सड़कों के किनारे - किनारे अधिवास विकसित हो जाते हैं अथवा सड़कों के मिलन स्थल में बने त्रिभुजाकार भूखण्ड पर अधिवास विकसत हो जाने पर त्रिभुजाकार गाँब बन जाता है। पर्वतीय प्रदेशो तथा नदी के मध्य त्रिभुजाकार क्षेत्र में ऐसे अनेक गांव मिलते हैं।

4. अरीय प्रतिरूप - जिस स्थान पर कई दिशाओं से कच्ची या पक्की सड़के आकर मिलती हैं तो इस मिलन स्थल को केंद्र बनाकर इससे निकले मार्गो के किनारे -किनारे ,माकन बनते जाते हैं। इससे एक अरीय आकर का गांव बन जाता हैं।

5. तारा प्रतिरूप - गांव का अरीय प्रतिरूप और अधिक विकसित हो जाने पर तारा प्रतिरूप में परिणित हो जाता है।

6. वृत्ताकार अथवा गोलाकार प्रतिरूप - कभी कभी किसी गोलाकार झील या तालाब के किनारे बस्ती बस जाती हैं।

7. पंखा नुमा प्रतिरूप - नदियों के डेल्टाई भागों और पर्वत पाद भागों में कछारी पंखो के प्रदेश में इस प्रकार के गांव बन जाते हैं।

8. चौकोर प्रतिरूप - मरुस्थलों में गाँव के बीच खुली आयताकार भूमि छोड़ दी जाती है और इसके चारों ओर आंधी से उड़ने वाली बालु से बचने हेत गाँव के चारों ओर चारदीवारी बना ली जाती हैं।

9. सीढ़ीनुमा प्रतिरूप - पर्वतीय ढालों पर विभिन्न ऊँचाइयों पर बने मकानों के गाँव सीढ़ीनुमा आकार के बन जाते हैं।

ग्रामीण बस्तियों के कार्य

वास्तव में ग्रामीण बस्तियाँ तथा नगरीय बस्तियाँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं। ग्रामीण बस्तियों से नगरीय बस्तियों को अनेक प्रकार की कृषि-उपजें, उद्योगों के लिए कच्चा माल, दुग्ध पदार्थ, लकड़ी आदि पहुँचायी जाती है, तो नगरों से निर्मित माल ग्रामीण-बस्तियों को पहुँचाया जाता है।

गाँवो से निकटवर्ती नगरों 'को श्रम की भी पूर्ति होती है। गाँवों में व्यापार नगण्य होता है। किसी - किसी गाँव में तो एक या दो दुकानों और कुछ बाजार आदि के अतिरिक्त कोई सुविधाएँ नहीं होती हैं। वर्तमान में गाँवों में विभिन्न सुविधाएं उपलब्ध करायी जा रही हैं।

नगरों एवं ग्रामों की पारम्परिक निर्भरता

किसी देश के विकास में ग्रामीण एवं नगरीय दोनों क्षेत्रों का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। कुछ देशों में ग्रामीण जनसंख्या अधिक है, तो विकसित देशों में 90% तक जनसंख्या नगरों में निवास करती है। ऐसे नगरीय प्रधान देश युरोप महाद्वीप के उतरी-पश्चिमी, सयुक्त राज्य अमरीका और आस्ट्रेलिया में हैं।

युरोप के कुछ अति विकसित देशो में केवल 5% जनसंख्या ही ग्रामीण क्षेत्र में रहकर कृषि कार्य करती है। विकासशील देशों में ग्रामीण जनसंख्या अधिक है तथा नगरीय जनसंख्या कम। ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में अन्तसंम्बन्ध पाया जाता है।

ग्रामीण क्षेत्र अपनी विभिन्न आवश्यकताओं, जैसे-र्निर्मित वस्तुएँ, मशीनें, उपकरण, परिवहन इत्यादि के लिए नगरों पर आश्रित होते हैं, वहीं नगर विभिन्न प्रकार के कच्चे पदार्थो जैसे-लकडी , खनिज, वनोपज,दुध इत्यादि के लिए ग्रामो पर आश्रित होते हैं, यही नगरों व ग्रामों के बीच पारस्परिक निर्भरता है। नगरों और ग्रामो का पारस्परिक संबंध निम्ण रुप से परिलक्षित होता है -

  1. ग्रामीण क्षेत्र से नगरों को भोज्य-पदार्थ, जैसे-अनाज, दाले,दुग्ध उत्पाद, शाक-सब्जियाँ, मांस आदि उपलब्ध होते हैं।
  2. नगरों को ग्रामीण-क्षेत्र से कच्चा माल, जैसे- कपास,गन्ना, तम्बाकू, जूट, तिलहन, लकडी, रबर आदि प्राप्त होता हैं।
  3. नगरों को ईधन की प्राप्ति होती हैं।
  4. गॉंवो से नगरों को श्रम -सक्ति मिलती है।
  5. नगरों से ग्रामीण क्षेत्रों को निम्नांकित वरस्तएँ तथा सेवाएँ उपलब्ध होती हैं-
  6. निर्मित माल, जैसे- कृषि यंत्र, वस्त्र, बीज, औसधियाँ, मशीने, उनके कलपुर्जे एवं व्यापारिक माल, जैसे- किराना सम्बन्धी।
  7. सेवा जैसे-चिकित्सा, कानूनी, शैक्षणिक आदि अनेक सेवाएं।
  8. प्रशासनिक सेवाएँ।
  9. परिवहन सेवाएँ।
  10. कला, मनोरंजन एवं संचार सेवाएँ।
  11. वित्तीय सेवाएँ, जैसे-बैंकिंग सेवा।
  12. मशीनों आदि की मरम्मत सम्बन्धी सेवाएँ।

उपर्युक्त सब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि नगर किसी क्षेत्र के आर्थिक तन्त्र के ही एक भाग होते हैं तथा नगर एवं ग्राम अपने विभिन्न कार्यों तथा आवश्यकताओं के लिए परस्पर निर्भर होते हैं।

शहरी अधिवास

शहरी अधिवास की जनसंख्या द्वितीयक तथा तृतीयक व्यवसायों में लगी होती है जनसंख्या भी अधिक होती है। नगरीय अधिवास के मकान पक्के तथा सुन्दर होते हैं। अधिकांश लोग शिक्षित होते हैं। नगरीय अधिवास का तात्पर्य उस बस्ती से होता है जो अपने क्षेत्र में सबसे बड़ी, क्षेत्र में सबसे अधिक सुविधा संपन्न, सभ्यता तथा संस्कृति में उन्नत और परिवहन-साधनों से युक्त होती है।

नगरीय बस्तियों का वर्गीकरण

आकार के आधार पर वर्गीकरण - नगरीय अधिवासों को निम्नलिखित सात भागों में वर्गीकृत किया जाता है-.

1. पल्ली या पुरवा -किसी नगर के सनिनकट सड़क मार्ग के सहारे कुछ उप-बस्तियाँ बस जाती हैं। इस छोटी नगरीय बस्ती की जनसंख्या 20से150 तक होती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में इस प्रकार की नगरीय बस्तियाँ पायी जाती हैं।

2, नगरीय गाँव - वे बस्तियाँ जिनकी जनसंख्या150 से 500 तक होती है, उसे नगरीय गाँव कहते हैं। ऐसे गाँवों में नगरों की कुछ विशेषताएँ पायी जाती हैं जैसे-दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं की दुकानें, स्कुल, डाकघर, चिकित्सालय आदि। इस प्रकार के गाँव सयुंक्त राज्य अमेरिका में पाये जाते हैं।

3. कस्बा - कस्बो की जनसंख्या 500से 10,000 तक होती है,परन्तु कुछ विद्वान 50,000 से कम जनसंख्या वाले नगरीय अधिवासों को कस्बो की श्रेणी में रखते हैं। कस्बा निकटवर्ती गावों का मुख्य केंद्र होता है और अधिकांश प्राथमिक सेवाओं से युक्त होता है।

बैंक, स्कूल, पोस्ट ऑफिस, पुलिस चौकी , चिकित्सालय, पुस्तकालय , प्रशासनिक कार्यालय, संचार एवं मनोरंजन के साधन आदि होते हैं।

4.नगर - सामान्यतः 50 हजार से10 लाख तक की जनसंख्या को नगरों के अंतर्गत रखा जाता है। भारत में एक लाख से अधिक जनसंख्या अधिवास को नगर कहा जाता है। कस्बो एवं नगरों में उनके कार्यो के आधार पर परिलक्षित होता है। नगर अपने समीपवर्ती क्षेत्र के लिए शिक्षा ,उद्योग, व्यापार, परिवहन,प्रशासन चिकित्सा, मनोरंजन आदि सुविधाएं प्रदान करता हैं। जबक़ि कस्बा का कार्य क्षेत्र स्पष्ट नहीं होता।

5. महानगर - 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगर महानगर कहलाते हैं। ऐसे नगर प्रदेश की राजधानियां, औद्योगिक नगर या व्यापारिक मण्डी होते हैं।

सन्नगर- जब कोई नगर या महानगर फैलकर अपने समीपवर्ती कस्बो या नगरों से मिल जाती है, तोसन्नगर का निर्माण होता है। से-कोलकाता सन्ननगर में अलीपुर, हावड़ा, दमदम, बराह नगर, रघुनाल, श्रीरामपुर, हुगली, नैहाटी आदि उपनगर सम्मिलित किये गये हैं।

7. विराट नगर - जब कसी नगर की जनसंख्या 50 लाख से अधिक होती है, तो उसे विराट नगर या मेगालोपोलिस कहा जाता है।टोकियो, न्यूयार्क, मैकिसको सिटी, लन्दन, पैरिस, मास्को, मुम्बई, दिल्ली, ब्यून्सआयर्स आदि इसी प्रकार के नगर हैं।

कार्य के आधार पर नगरों का वर्गीकरण

1. औद्योगिक नगर - कुछ नगरों का विकास किसी उद्योग के विकास के साथ-साथ हो जाता है, जैसे- लौह-इस्पात उद्योग के साथ-साथ भिलाई एक नगर बन गया, इसी प्रकार से जमशेदपुर लौह-इस्मात उद्योग के लिए, सूती वस्त्र उद्योग के लिए अहमदाबाद आदि।

2. व्यापारिक नगर - व्यापारिक केन्द्र बन जाने से अनेक नगरों का विकास होता है, जैसे - हॉगकॉग, सिंगापुर, कोलकाता, सहारनपुर आदि।

3. प्रशासनिक नगर- प्रशासनिक केन्द्र बनने पर ऐसे नगरों का विकास होता है, जैसे- भोपाल, चण्डीगढ़ आदि।

4. पत्तन या बन्दरगाह - सागर तट पर आयात-निर्यात व्यापार के फलस्वरूप ऐसे नगरों का विकास होता है, जैसे-विशाखापट्टनम आदि।

5. प्रतीक्षा- नगर सैनिक छवनीयं नगरों के रूप में विकसित हो जाती हैं जैसे - बरेली आदि।

6. शिक्षा नगर - कई नगर अनेक प्रकार की शिक्षा देने के केन्द्र के रूप में प्रसिध्दि पाकर बड़े नगर बन जाते हैं। प्राचीन काल में नालन्दा तथा तक्षशिला ऐसे ही नगर थे। आजकल अलीगढ़, वाराणसी, इलाहाबाद आदि हैं।

7. स्वास्थ्य केन्द्र - अपनी उत्तम जलवायु, प्राकृतिक दृश्यों आदि के कारण अनेक स्थान स्वास्थ्य केन्द्र के रूप में विकसित हो जाते हैं, से-दार्जिजलिंग, देहरादून, शिमला, माउण्ट आबू आदि।

8. धार्मिक नगर - धार्मिक दृस्टि से अनेक पवित्र नगरों का विकास हुआ है, जैसे-वाराणसी, प्रयाग, मक्का, मदीना, वेटिकन सिटी, रोम, हरिद्वार आदि।

9, खनन केन्द्र - खनिज पदार्थों के खनन क्षेत्रों में नगरों का विकास होता है। जैसे-कालगुर्डी, कूलगार्डी, रानीगंज, झरिया आदि।

10. मत्य ग्रहण केन्द्र - सागर तट पर मत्स्य केन्द्र नगरों के रूप में विकसित हो जाते हैं, जैसे- बैंकूवर, कोपेनहेगन आदि।

11. निवास नगर - महानगरों के आस-पास अनेक निवास नगरों का विकासहो जाता है, जैसे-दिल्ली के आस-पास गाजियाबाद, फरीदाबाद, गुड़गाँव आदि।

नगरीय संरचना

किसी नगर की भौगोलिक जानकारी हेतु उसकी संरचना को समझना आवश्यक होता है। नगर की संरचना के दो पक्ष होते हैं -

आकृतिक संरचना

इसके अन्तर्गत नगर की स्थिति आकृति, आकार तथा प्रारूप आदि का अध्ययन किया जाता है। इस दृस्टि से नगरों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है -

1. प्राचीन नगर - प्राचीन काल में नगरों का विकास अपने आप बिना किसी पूर्व निर्धरित योजना के होता था। विश्व के कुछ नगर इसके अपवाद हो सकते हैं, परन्तु अधिकांश प्राचीन नगर इसी प्रकार स्वतः विकसित हुए हैं।

2. आधुनिक नगर - आधुनिक काल में नगरों का विकास पूर्व निर्धारित योजना नुसार किया जाता है इससे नगर का सम्भावित आकार, सड़कों एवं रेलमार्गो का जाल, भवनों की बनावट यहाँ तक कि उनकी ऊँचाई तक पूर्व निर्धारित कर ली जाती है।

उदाहरण - दोनों प्रकार के नगरों का एक साथ उदारण पुरानी दिल्ली तथा नई दिल्ली में देखने को मिल जाता है केवल आधुनिक नगर का उदाहरण चण्डीगढ़ है।

आकार की दूष्ट से दो प्रतिरूप महत्त्वपूर्ण हैं -

(A) ग्रिड प्रतिरुप - इस प्रतिरुप के नगरों में सड़के एक-दूसरे को समकोग पर काटती हैं, जैसे-चपण्डीगढ़ तथा जयपुर। (B) त्रिज्यात्मक प्रतिरूप - इस प्रकार के नगर में नगरको केन्द्र मानकर उसके चारों ओर सड़के इस प्रकार निकलती हैं, जिस प्रकार साइकल के चक्के के केन्द्र से तिलि बाहर को ओर निकलती हैं। इसका उदाहरण नई दिल्ली है, रोप में पेरिस तथा बर्लिन भी इसी प्रतिप के नगर हैं।

क्रियात्मक संरचना

प्रत्येक नगर एक सेबा केन्द्र होता है, अतः नगर में अनेक सेवा-कार्य सम्पन्नन होते हैं भिन्न-भिन्न कायों के लिए भवन भी अलग-अलग बने होते हैं, किन्तु किसी क्षेत्र विशेष में किसी विशेष प्रकार के कार्य की प्रधानता होती है, अतः उस कार्य के नाम से ही उस क्षेत्र विशेष को पहचाना जाता है,जैसे-औद्योगिक क्षेत्र, व्यापारिक क्षेत्र आदि। इस दृष्टिष्ट से नगर को निनांकित भागों में विभाजित किया जाता है।

1. नगर कोड - नगर के केन्द्रीय भाग में प्रायः: दुकानों तथा व्यापारिक संस्थानों के भवन पाये जाते हैं। यह बाजार केन्द्र होता है।

2. आवासीय क्षेत्र - नगर में निवास करने वाले लोगों के आवासीय भवन नगर के खुले एवं स्वच्छ वायु वाले क्षेत्रों में बनाये जाते हैं। ये क्षेत्र औद्योगिक क्षेत्र से अलग बनाये जाते हैं।

3. औद्योगिक क्षेत्र - इस क्षेत्र में मुख्य रूप से कारखाने, मिले, ऊर्जा केन्द्र, कार्यशालाएँ आदि के भवन होते हैं।

4, व्यापारिक क्षेत्र - इस भाग में बैंक, बीमा कम्पनियों, आदतें तथा मंडिया होती हैं।

5. बाजार क्षेत्र - नगरवासियों के दैनिक उपयोग की वस्तुओं की आपूर्ति हेतु बाजार होता है, इसमेंखाद सामग्रियां, साक-सब्जिया, फल, मसाले आदि मिलते हैं।

6. प्रशासनिक क्षेत्र - इस क्षेत्र में सरकारी कार्यालय, न्यायालय, डाकधर, पुलिस कार्यालय, टेलोफोन केन्द्र आदि होते है।

7. परिवाहन क्षेत्र - यह नगर का वह क्षेत्र होता है, जहाँ पर बस स्टेण्ड, रेलवे स्टेशन, टेक्सी स्टैंड आदि के लिएभवन बने होते है।

8. शिक्षा क्षेत्र - नगर के खुले एवं शांत वातावरण वाले क्षेत्र में विश्वविद्यालय, कालेज, स्कूल एवं अन्य प्रकार की शिक्षण संस्थाओं के भवन बने होते हैं।

आजकल नगरों की योजना का प्रारूप तैयार करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि नगर उद्यान नगर के रुप में विकसित हो।

वृहद् नगरों का वर्गीकरण

जनसंरखा के आधार पर नगरों का वर्गी करण किया जाता है जो निम्नानुसार है -

एक लाख से 10 लाख जनसंख्या वाले नगर = महानगर।
10 लाख से 50 लाख जनसंख्या वाले नगर = विशाल नगर।
50 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगर = वृहत महानगर।

विरव में एक लाख की जनसंख्या में कल 1785 नगर हैं, जिनमें 1660 एक लाख से 10 लाख तक
जनसंख्या वाले हैं। 10 लाख से अधिक जनसंख्या के कुल 129 नगर हैं, जिनमें 10 महानगरों की जनसंख्या 70
लाख से अधिक है।

दस लाखी नगर - विरश्व में 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले विशालकाय नगरों को दस लाखी नगर की संज्ञा दी जाती है। सन 1970 में इनकी संख्या 10 थी जो 1960 में 61 हो गई और 1970 में 125 हो गई विगत 100 वर्षों में विश्व में नगरीकरण में तीव्र विकास के कारण नगरीय जनसँख्या में पर्याप्त वृदि हुई है।

नगरों का आकार बढ़ा है और इनको संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है साथ ही साथ नगरों के क्षेत्रफ़ल में भी विस्तार हुआ जिससे सन्नगर का अभुदय हुआ है।

विकासशील देशों में मानव-अधिवास की समस्यायें

विकासशील देशों में प्रगति के साथ-साथ मानव अधिवास की समस्यायें भी सामने आई है। इन समस्याओं को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है -

1. ग्रामीण क्षेत्रों की समस्यायें,
2. नगरीय क्षेत्रों की समस्यान्यायें।

1. ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याएं - विकासशील देशों में जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ रही है जिसके फलस्वरूप अधिवास की समस्यायें उत्पन्न हुयी हैं ये निम्नलिखिखत है -

(i) मकानों का बंटकर छोटे-छोटे होते जाना - जनसंख्या वृद्धि के कारण एक-एक मकान में बटवारे के फलस्वरूप मकानों का स्वरुप छोटा होता जा रहा है। एक छोटे से कमरे में आवश्यकता से अधिक लोग निवास करते हैं जिससे स्थानाभाव हो जाता है।

(ii) मकान निर्माण हेत भूमि की कमी - गाँवों में मकान बनते जाते हैं। फलस्वरूप और अधिक मकान निर्माण हेतु भूमि की कमी हो जाती है।

(iii) इमारती लकडी का अभाव - वनों की कटाई के कारण अवन बहुत कम हो गए हैं जिससे मकान निर्माण हेतु लकड़ी की कमी हो गई है या बहुत महंगी हो गई है निर्धन ग्रामीण जो पहले वनों से लकड़ी प्राप्त कर मकान बना लेते थे उनके लिए अब आवश्यकता अनुसार लकड़ी प्राप्त करना कठिन हो गया है।

(iv) धन अभाव - गांव में अधिकांश कृषक और मजदूर वर्ग निवास करते हैं इसके पास जीवन यापन के सीमित साधन होते हैं अतः इनके पास पर्याप्त धन नहीं होता है जिससे मकान बनाना इसके लिए समस्या होती है।

(v) स्वच्छ एवं हवादार मकानों का अभाव - गांवों में प्रायः बंद कमरों के मकान बनाए जाते हैं जिनमें सूर्य का प्रकाश एवं स्वच्छ वायु का प्रवेश नहीं हो पाता है अतः उन में नमी सी लाना दी बनी रहती है।

(vi) ग्रामीण बस्तियों का व्यवस्थित ना होना - गांव में लोगों को जहां जगह मिलती है वही मकान बना लेते हैं जिससे इन बस्तियों में ना तो कोई क्रम होता है और नहीं आने जाने के लिए पर्याप्त मार्ग होता है।

(vii) जल निकासी का अभाव - ग्रामीण क्षेत्रों में जल निकासी की व्यवस्था भी नहीं होती है जिससे गंगाजल यत्र तत्र बहता रहता है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है शुद्ध पेयजल की भी कमी होती है।

उपयुक्त समस्याएं प्रायः सभी विकासशील देशों का भारत बांग्लादेश पाकिस्तान श्रीलंका आदि में पाई जाती है।

2 नगरीय क्षेत्रों की समस्याएं - ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरीय क्षेत्रों की समस्याएं अधिक जटिल होती है प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं।

  1. नगरों की जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि।
  2. मकानों की कमी।
  3. झोपड़पट्टी समस्या।
  4. जीवन यापन की सुविधाओं में कमी।
  5. कानून एवं व्यवस्था की समस्या।
  6. नगरों की साफ सफाई की समस्या।
  7. स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी।
  8. शुद्ध पेयजल की कमी।
  9. परिवहन साधनों पर भारी दबाव।

उपयुक्त समस्याएं प्राय: सभी बड़े नगरों यथा कदाचित मुंबई-दिल्ली ढाका बीजिंग आदि में पाई जाती है। प्रायः लोग रोजगार की तलाश में नगरों की ओर पलायन करते हैं अतः वहां लोगों की भीड़ हो जाती है। में मकानों की कमी तो होती ही है इन भीड़ को सोने के लिए भी स्थान नहीं मिल पाता है।

यह लोग सड़कों के किनारे तथा फुटपाथ ऊपर ही रात गुजारते हैं। बहुत से लोग नगरों के किनारे झोपड़पट्टी बनाकर रहने लगते हैं जिससे अनेक गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो जाती है। चारों ओर प्रत्येक क्षेत्र में जीवन यापन के संसाधनों में कमी होती जाती है कानून व्यवस्था की समस्या जटिल हो जाती है। पेयजल की कमी हो जाती है।

अधिवास की समस्या का समाधान

तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण विकासशील देशों में प्रगति के साथ-साथ ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में अधिवास संबंधी नित्य नहीं समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं का समाधान आवश्यक है इसके लिए निम्नलिखित उपाय बताए गए हैं।

1. सर्वप्रथम जनसंख्या के तीव्र वृद्धि को रोकना आवश्यक है इसके लिए जनसंख्या नियंत्रण संबंधी उपाय जैसे परिवार नियोजन कार्यक्रम संतति सुधार कार्यक्रम संतान की संख्या निर्धारण विवाह की आयु में वृद्धि समाज में प्रचलित अंधविश्वासों को हतोत्साहित करना स्वास्थ्य सेवाओं एवं मनोरंजन संसाधनों का विस्तार आदि को अपनाया जाना चाहिए।

2. शिक्षा की समुचित व्यवस्थाएं हो ऐसी व्यवस्था हो कि देश का प्रत्येक नागरिक शिक्षित हो। के प्रचार से जनता में जागरुकता आएगी। कई समस्याओं का समाधान हो जाएगा।

3. नगरीय क्षेत्रों में अधिवास की समस्या का एक बड़ा कारण गांव में शहर की ओर जनसंख्या का पलायन है। इस प्रवृत्ति को रोकने हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में ही शहरी सुविधाएं जैसे चिकित्सा शिक्षा मनोरंजन एवं रोजगार के अवसर आदि का विस्तार किया जाना चाहिए।

4. कृषकों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने हैं तो उनके आय स्रोतों को बढ़ाना आवश्यक है। इस हेतु गांव में कृषि के साथ-साथ कृषि से संबंधित एवं क्षेत्र में उपलब्ध स्थानीय सामग्री के अनुरूप सहायक एवं कुटीर उद्योगों का विकास किया जाना चाहिए।

5. गांव एवं शहरों में पर्याप्त मात्रा में शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराया जाए। गंदे जल की निकासी हेतु समुचित व्यवस्था भी आवश्यक है। जनता को जल संरक्षण एवं जल संचयन के उपायों से परिचित किया जाना नितांत आवश्यक है।

6. बस्तिया क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित हो। मकान स्वच्छ एवं हवादार हो, प्रकश की समुचित व्यवस्था हो।

7. आवागमन के संसाधनों का विकास किया जाए प्रत्येक गांव को सड़क एवं रेल मार्ग द्वारा निकटवर्ती शहरों से जोड़ा जाए।

8. आम जनता में पर्यावरण संरक्षण के प्रति विशेष जागरूकता अभियान चलाया जाए।

9 संपूर्ण देश में एक जैसे कानून की व्यवस्था हो।

10. जल निकासी की व्यवस्था हो।

Related Posts