जनजाति क्या है इसकी विशेषताएं - jankari kya hai

जनजाति क्या है

साधारणतया जनजाति का अर्थ एक ऐसे मानव समूह से समझ लिया जाता है जिसकी संस्कृति, रीति-रिवाज और व्यवहार के तरीके आदि विशेषताओं से युक्त होते हैं।

वास्तव में, एक जनजाति उतनी आदिम नहीं होती जितनी कि इसे कुछ व्यक्तियों के द्वारा कल्पना और सुनी-सुनायी बातों के आधार पर इसे एक मनोरंजन के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर दिया जाता है। 

इतना अवश्य है कि जनजाति सभ्य समाजों की चमक-दमक से दूर किसी दुर्गम या भौगोलिक रूप से पिछड़े क्षेत्र में जीवन व्यतीत करने वाला समूह है तथा इसकी सांस्कृतिक विशेषताएँ भी दूसरे समुदायों से भिन्न होती हैं, लेकिन केवल इसी आधार पर जनजाति को एक आदिम या असभ्य समूह नहीं कहा जा सकता हैं।

जनजातियों का जीवन सांस्कृतिक रूप से उतना पिछड़ा हुआ नहीं होता जितना कठिन आर्थिक प्राकृतिक दशाओं के कारण पिछड़ा हुआ बना हुआ है। इसी आधार पर डॉ. श्यामाचरण दुबे ने लिखा है “जनजातियों का अध्ययन एक जीवित समाज के जीवित अंग के रूप में किया जाना चाहिए, संग्रहालय की नुमायशी वस्तुओं के रूप में नहीं।” 

जनजाति की परिभाषाएँ

1 मजूमदार के अनुसार, “कोई जनजाति परिवारों तथा पारिवारिक वर्गों का एक ऐसा समूह जिसका एक सामान्य नाम है, जिसके सदस्य एक निश्चित भू-भाग पर निवास करते हैं। एक सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं, जिन्होंने एक आदान-प्रदान सम्बन्धी तथा पारस्परिक कर्त्तव्य विषयक एक निश्चित व्यवस्था का विकास कर लिया है। साधारणतया एक जनजाति अन्तर्विवाह क सिद्धान्त का समर्थन करती है और उसके सभी सदस्य अपनी ही जनजाति के अन्तर्गत विवाह करते हैं।"

2 रिवर्स के अनुसार, “यह एक साधारण प्रकार का सामाजिक समूह है, जिसके सदस्य एक सामान्य बोली का प्रयोग करते हैं तथा युद्ध आदि जैसे सामान्य उद्देश्यों के लिए सम्मिलित रूप से कार्य करते है। 

जनजाति की प्रमुख विशेषताओं की व्याख्या कीजिये

1 जीविका

 जीविका के स्रोत-छत्तीसगढ़ में निवास कर रही जनजातियों के जीविकोपार्जन के विविध साधन हैं। वे कृषि, पशुपालन, आखेट और वनोपज संचयन आदि माध्यमों से अपनी आजीविका चलाते हैं। 

कुछ जातियाँ स्थानान्तरीय कृषि में संलग्न रहती हुई पशुपालन का कार्य भी करती हैं। इसके साथ ही धनुष-बाण के द्वारा छोटे-बड़े पशु-पक्षियों का शिकार, साथ ही पूरे परिवार की सहायता से मछली पकड़ने का भी कार्य किया जाता है। संचयन की प्रवृत्ति भी इन जातियों में देखी जाती है। 

जंगली पदार्थों में तेंदूपत्ता अचार, महुआ, चिरौंजी, शहद, गोंद, कुकुरमुत्ता आदि संगृहीत कर उससे भी अपना व परिवार का जीवनयापान करते हैं, इसके साथ ही श्रमिकों के रूप में भी कार्य करते हैं। विविध वस्तुओं का निर्माण भी इनके द्वारा किया जाता है।

2 वैवाहिक प्रणाली

अन्य जातियों की तरह जनजातियों में विवाह प्रथा का विशेष महत्व है यदि किसी जनजाति में विवाह साधारण ढंग से युवक तथा युवती की इच्छानुसार किया जाता है तो वहीं अपहरण-विवाह या राक्षस-विवाह का प्रचलन है, परन्तु अधिकांशतः क्रय-विवाह होते हैं। 

इनमें कन्या का मूल्य देकर विवाह सम्पन्न होता है। गोंड तथा बैगा जनजातियों में जो व्यक्ति निर्धन होने के कारण  कन्या का मूल्य नहीं दे पाते वे कन्या के घर जाकर नौकर के रूप में कार्य करते हैं। प्रायः वधू मूल् परम्परागत रीति से निर्धारित होता है।

अपहरण-विवाह में युवक जिस युवती से प्रेम करता है उसे लेकर भाग जाता है और फिर पत्नी स्वीकार कर लेता है। बाद में समाज भी उन्हें पति-पत्नी के रूप में मान लेता है। बैगा जनजाति में व्यक्ति को कन्या-मूल्य सेवा द्वारा चुकाना पड़ता है।

इसे ही सेवा-विवाह कहते हैं। इस प्रकार छत्तीसगढ़ की जनजातियों में अनेक माध्यमों से अपना जीवन-साथी चुनने की प्रथा प्रचलित है।

3 युवागृह

यह एक ऐसी सामाजिक संस्था है जो जनजाति समाजों के अतिरिक्त कही नहीं पायी जाती। जनजातियों में अविवाहित युवक-युवतियों के लिए पृथक्-पृथक् या मिश्रित निवास स्थान होते हैं, जिन्हें युवागृह कहते हैं। 

ये युवागृह भिन्न-भिन्न जनजातियों में भिन्न-भिन्न नामों से - पुकारे जाते हैं; जैसे-घोटुल, मोरग, रंगबंग, गितिउमेश, किशोरगृह, शयनागार और कुमारगृह आदि। छत्तीसगढ़ में ये युवा गृह उरांव, खड़िया, गोंड, मरिया और भुइया जनजातियों में पाये जाते हैं।

बस्तर में घोटुल युवागृह के नाम से जाना जाता है। यह एक मकान होता है जो गाँव से बाहर होता है। उसमें 15-16 वर्ष तक के युवक-युवतियाँ रात्रि में इकट्ठा होते हैं और पूरी रात्रि यहीं रहते हैं।

घोटुल में युवकों को चेनिक और युवतियों को मुनियारी नाम से पुकारा जाता है। युवक-युवतियाँ सायंकाल घर के कार्यों से निवृत्त होकर शृंगार करके यहाँ पहुँचते हैं, फिर छोटे-छोटे समूहों में विभक्त हो समूह गान एवं नृत्य करते हैं। 

विविध कार्यक्रम देर रात्रि तक चलते रहते हैं। ये वहीं सोते हैं और प्रायः अपने-अपने घरों को चले जाते हैं। 

ये युवागृह जनजातीय सामाजिक संगठन की प्रमुख इकाई है। इससे जनजाति युवा आमोद-प्रमोद के साथ ही सामाजिक जीवन की शिक्षा ग्रहण करते हैं। यौन-ज्ञान के साथ ही इन्हें यहाँ अनुशासन की भी शिक्षा मिलती है।

4 धार्मिक स्थिति

धर्म किसी भी समाज की सबसे महत्वपूर्ण संस्था है। जनजातीय धार्मिकता के सन्दर्भ में मानावाद, जीववाद, प्रकृतिवाद, टोटमवाद, आत्मा की अमरता में विश्वास प्रमुख रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। 

मानावाद एक अलौकिक तथा अप्राकृतिक शक्ति में विश्वास करते हैं जो मनुष्य से परे हैं, मुण्डा जनजाति इसका अनुकरण करती है। जीववाद को मानने वाले संथाल एवं उरांव जनजाति के लोग हैं। ये शक्तिशाली देवताओं के अतिरिक्त अन्य आत्माओं में विश्वास करते हैं। 

ये पूजा आदि से बलि भी देते हैं। जीववाद अनेक व्यक्तियों और वस्तुओं में एक रहस्यमय अज्ञात तथा अवैयक्तिक शक्ति को मानता है। 

प्रकृतिवाद को मानने वाले प्राकृतिक वस्तुओं की पूजा उपासना करते हैं। टोटमवाद टोटक प्रथाओं तथा विश्वासों पर वंश की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तरह-तरह की कल्पनाएँ स्वीकारते हैं।

कुछ जनजातियाँ आत्मा की अमरता स्वीकार करती हैं। इसलिये ये दो बार दाह-संस्कार की प्रथा का अनुसरण करते हैं। संथाल और अन्य जनजातियाँ मृतक की अस्थियाँ नदी में प्रवाहित करते हैं। 

कुछ एक जनजातियाँ जादू-टोना को संस्कार के रूप में ग्रहण कर मानव इच्छा को सन्तुष्ट करती हैं। भील मृतात्माओं को स्वीकार करते हुए इन्द्रजाल तथा जादू-टोना, विद्या पर अटूट आस्था रखते हैं।

जनजातीय धर्मों एवं विश्वासों और हिन्दू धर्म में कुछ साम्यता दिखती है। इस प्रकार विविध जनजातियाँ अपनी-अपनी परम्परानुसार धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों का अनुकरण करती दृष्टिगोचर होती हैं

5 भाषाई दृष्टि

भाषाई दृष्टिकोण से जनजातियों को तीन रूपों में देखा जा सकता है-द्रविड़ भाषा-भाषी जनजातियाँ, इनमें गोंडी, उरांव और माल्टों भाषा के जन छत्तीसगढ़ में रहते हैं। 

इस भाषा समूह में अनेक अन्य भाषाएँ भी प्रयुक्त होती हैं। आस्टो एशियाटिक भाषा-भाषी, जनजातियाँ, इसमें अनेक जनजातियाँ आती हैं जोकि मध्य प्रदेश में निवास करती हैं, 

जिसमें कोल, मुंडा, संथाली, कोरथ, खरिया, मीना, कामनी आदि हैं। चीनी-तिब्बती भाषा-भाषी जनजातियाँ, इसको बोलने वाले मध्य प्रदेश में नहीं पाये जाते। छत्तीसगढ़ में निवास करने वाली जनजातियाँ द्रविड़ भाषा एवं आस्टो एशियाटिक भाषा के समूहों का ही प्रयोग करती हैं। 

6 सांस्कृतिक विशिष्टता

सांस्कृतिक दृष्टि से प्रथम जनजातीय समुदाय में वे जनजातियाँ रखी गई हैं जो आज भी आदिम अवस्था में हैं। ये जातियाँ दुर्गम तथा घने जंगलों में रहती हैं तथा झूम खेती और शिकार करके अपना जीवन-यापन करती हैं। बस्तर क्षेत्र में पहाड़ी मढ़िया बोडो इसी श्रेणी में आती हैं। 

ये सभ्य समाज से दूर रहने में ही अपनी सुरक्षा का अनुभव करती हैं। द्वितीय, अर्द्ध-जनजातीय समुदाय में वे जनजातियाँ आती हैं जो जंगलों में रहती हैं। झूम खेती करके जीवन-यापन करती हैं तथा सभ्य समाज में भयभीत नहीं होती। 

इनमें गरीब तथा अमीर होते हैं और ये खेती के लिये कुल्हाड़ी का प्रयोग बहुत कम करते हैं। तृतीय, पर-संस्कृति ग्रहण की हुई जनजातीय समुदाय की जनजातियाँ जिन्होंने आधुनिक सभ्यता तथा संस्कृति के सम्पर्क के बाद भी अपनी मौलिकता को सुरक्षित रखा है। 

ये लोग  जातियो से अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं। इनमें भील जाति प्रमुख है। ये स्वयं को प्रशासक वर्ग का मानते हैं। चतुर्थ, पूर्णतः आत्मसात् जनजातियाँ जो आधुनिक सभ्यता के रूप भी बदल चुके हैं।

7. साहित्यिक स्थिति

जनजातियों का साहित्य सामान्यतया मौखिक साहित्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक ढंग से चलता रहता है। अशिक्षा के प्रभाव में होने के कारण ये जनजातियाँ अपने मौखिक साहित्य को लिपिबद्ध नहीं कर पाते हैं।

किन्तु आज आधुनिक सभ्यता के संसर्ग में आने के बावजूद भी इन्होंने अपने साहित्य को संगृहीत नहीं किया है, फिर भी इनके साहित्य के विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। 

छत्तीसगढ़ की विविध जनजातियों में आख्यान एवं कल्पित कथाएँ प्रचलित हैं जो इनकी उत्पत्ति एवं सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न धारणाएँ प्रस्तुत करती हैं। 

इसी तरह लोक कथाओं के माध्यम से जनजातीय विषय-वस्तु की भिन्नता मिलती है। ये पौराणिक कथाएँ देवी-देवताओं, प्राकृतिक घटनाओं से सम्बद्ध हैं। जनजातीय लोककथाओं का उद्देश्य शिक्षाप्रद, मनोविनोद और सत्य के रहस्योद्घाटन से सम्बन्धित है। 

अनेक जनजातियाँ कल्पित तथा दंतकथाओं को नाटक के रूप में भी करती हैं परन्तु ये आधुनिक नाटक से भिन्न होते हैं। इसी तरह जनजातियों में कहावतें और पहेलियाँ मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हैं। ये जनजातीय साहित्यिक धरोहर हैं। 

8 मूर्ति एवं चित्रकला

भारत की अन्य जनजातियों की तरह छत्तीसगढ़ की जनजातियों में भी मूर्ति एवं चित्रकला के प्रति आकर्षण देखने को मिलता है। 

गोंड, संथाल तथा भील जनजातियाँ देवी-देवताओं की पत्थरों, मिट्टी तथा लकड़ी की मूर्तियाँ बनाते हैं। युवागृहों में मूर्तिकला के प्रमाण कहीं-कहीं देखने को मिलते हैं। आज के लोग हाथी, घोड़ा, मानव मूर्तियाँ बनाकर देवताओं को अर्पित करते हैं। इनके द्वारा निर्मित मूर्तियाँ इनकी जीविका के स्रोत भी हैं।

छत्तीसगढ़ की जनजातियों ने चित्रकला के माध्यम से अपनी ललितकला को काफी अभिव्यक्त किया है। दरवाजों, दीवारों, फर्श, बर्तन, वस्त्रों और आभूषण आदि को रंग-बिरंगे चित्रों द्वारा सुशोभित किया है। 

माडिया जनजाति के लोगों के सिर का पहनावा चित्रकारी से सज्जित रहता है। ये इसके सींगों को विविध रंगों से रँगते हैं। सौन्दर्य प्रसाधन के लिए आभूषणों में की गई चित्रकारी अपना महत्व रखती है।

9 संगीत एवं नृत्यकला

जनजातीय समाज में संगीत का विशेष महत्व है। ये सामाजिक अवसरों पर नगाड़े, ढोल, बंशी आदि वाद्य द्वारा गाते-बजाते हैं। संगीत कला को जीवित रखने के उद्देश्य से ही ये जनजातियाँ इसे महत्वपूर्ण मानती हैं। 

युवागृहों में संगीत एवं नृत्य कला का विधिवत् प्रशिक्षण दिया जाता है। संगीत एवं नृत्य कला छत्तीसगढ़ की जनजातियों में विशेष देखी जा सकती है। विविध अवसरों पर इन कलाओं के दर्शन किये जा सकते हैं।

पशु नृत्य की परम्परा मण्डला के गोंड तथा बैगा जनजाति में प्रचलित है। कृषि नृत्य कृषि कर्म की सम्पूर्ण प्रक्रिया को व्यक्त करता है। उरांव और मुण्डा जनजातियाँ अपने कर्म नृत्य द्वारा कृषि कर्म को प्रस्तुत करती हैं शिकार विविध शिकारों की क्रिया प्रस्तुत करता है। 

उरांव,खड़िया, मुण्डा जनजातियाँ इस नृत्य मे बहुत नृत्य रूचि रखते है धार्मिक नित्य प्राय:सभी जनजातियों में देखने को मिलती है विवाह-नृत्य सभी जनजाति में विवाह के अवसर पर प्रस्तुत की जाती है। संगीत एवं नृत्य की यह कला छत्तीसगढ़ जनजातियों में  अभिव्यक्त करती है।

10 वर्तमान शैक्षिक एवं सामाजिक स्थिति

छत्तीसगढ़ की जनजातियाँ शैक्षणिक दृष्टि से उन्नति की ओर अग्रसर हो रही हैं। अनेक जनजातियों में शैक्षणिक विकास तीव्र गति से देखने को मिला है।

आधुनिक समाज के संसर्ग में आकर गोंड, उरांव, मुरिया, हलवा आदि अनेक जनजातियों का शैक्षणिक स्तर पर उन्नति कर रहा है, परन्तु उसे व्यापक पैमाने पर विकसित करने की आवश्यकता है जिससे अत्यधिक जनजातियाँ अशिक्षा के अन्धकार से मुक्ति पा सकें।

सामाजिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ की जनजातियाँ अपने उत्थान के लिए संघर्षरत हैं। भारत सरकार ने 5 जनजातियों को अत्यन्त पिछड़ा हुआ स्वीकार किया है। ये अबूझमाडिया पटेल, कोटिया, हिल कोरबा, बैगा और सहरिया हैं। 

इनके विकास के लिए विशेष सामाजिक संगठनों का निर्माण कर इन्हें लाभान्वित करने का प्रयास किया जा रहा है। भारत सरकार द्वारा इन जनजातियों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं जिसके माध्यम से ये जनजातियाँ अपनी सांस्कृतिक धरोहर को समेटे हुए उन्नति की ओर आगे बढ़ रही हैं।

भारत में कितनी जनजाति है

भारत में अनुसूचित जनजाति की कुल संख्या 532 है। इसमें से लगभग 56 जनजातियाँ मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में निवास करती हैं। मध्य प्रदेश में अबूझमाड़, बैगाचक और पातालकोट आदि कुछ ऐसे स्थान हैं जहाँ के आदिवासी नवीन सभ्यता के सम्पर्क से अभी भी बहुत दूर हैं। 

छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियां

मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में शहडोल, सरगुजा, बिलासपुर, बस्तर, छिंदवाड़ा, धार और झाबुआ में जनजातियों की संख्या सर्वाधिक है। 

इनमें सबसे अधिक जनसंख्या गोंड, भील, बैगा और उरांव लोगों की है। अन्य आदिवासी जातियों में अगरिया, हलवा, मैना, भुरिया, भतरा, बनसा, गटावा, कमार, कँमार, खरिया, अमनी, मीना, मुंडा, नगसिया, मनिका, परिधान, बटेलिया, परसा, सहरिया, सौर, विराट और मीर प्रमुख हैं। 

1. गोंड

गोंड स्वयं को गोंड न कहकर कोमतोर कहते हैं। इनकी अनेक उपजातियाँ हैं परन्तु सबके साथ कोमतोर शब्द लगा हुआ है। अबूझमाड़ी गोंडों का सबसे प्राचीन वर्ग है। बस्तर में पाये जाने वाले गोंड कोमतोर कहलाते हैं। 

ये लोग बस्तर जिले के भानुप्रतापपुर, बीजापुर, दन्तेवाड़ा, जगदलपुर, के काँकेर, कोंडागाँव और नारायणपुर एवं मण्डला जिले की मण्डला और रामगढ़ तहसीलों में निवास करते हैं। मध्य प्रदेश शासन ने 1981 में गोंडों को 51 समूहों में विभक्त किया है। 

इनके प्रमुख अगरिया, माड़िया, ओझा, परधान, खिरवार, मुड़िया, मुरिया, नागवंशी आदि हैं। अविभाजित मध्य प्रदेश में इनकी संख्या 15 लाख थी। इनका भोजन मोटा अनाज, माँस, जंगली कंदमूल, फल, मछली तथा अण्डे हैं। सामान्यतः चावल और कुटकी का भोजन अधिक प्रचलित है। 

गोंड जीविकोपार्जन के लिये आखेट, स्थानान्तरित कृषि, मुर्गीपालन, मिट्टी के बर्तन, मोटे कपड़े, मधु और लाख का संचयन करते हैं।

2. भील

भील शब्द द्रविड़ भाषा के बील शब्द से बना है। इसका अर्थ कमान है। तीर कमान के व्यवहार में निपुण होने के कारण यह जनजाति भील कहलायी। मध्य प्रदेश में इनकी संख्या 12,29,930 है। 

भील शारीरिक रूप से सुगठित होते हैं। इनकी लम्बाई 5 फुट से 5 फुट 6 इंच तक होती । झाबुआ में इनकी संख्या अधिकतम है। सामाजिक दृष्टि से भीलों के तीन संस्तर होते हैं-पटलिया, साधारण और नायक। 

ये मुख्यतः माँसाहारी होते हैं। इनका प्रमुख खाद्यान्न मक्का तथा अन्य मोटे अनाज है। ये मदिरा प्रेमी भी होते हैं। जीविकोपार्जन के लिये कृषि, मछली पकड़ना, मुर्गी पालन, लकड़ी काटना, शिकार करना प्रमुख कार्य हैं।

3. बैगा

बैगा आदिवासी मध्य प्रदेश में मण्डला, बालाघाट और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में पाये जाते हैं। बैगा शब्द अनेकार्थी हैं। यह एक जाति विशेष का सूचक है। अधिकांश मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में गुनिया और ओझा का पर्याय है। बैगाओं में बिंझवार बड़े जमींदार होते हैं। 

मण्डला में बैगाओं का एक छोटा समूह भारिया कहलाता है। बैगा आदिवासी की मुख्य सात शाखाएँ हैं-बिंझवार, भारोटिया, नारोटिया, रायमैना, कटमैना, कोरमान और गोंडमैना। जीविकोपार्जन के लिये कृषि, आखेट, मछली मारना, बाँस काटना, ओझा का कार्य करना, मजदूरी करना, शहद एकत्र करना प्रमुख कार्य हैं। 

4. उराँव

उराँव छोटा नागपुर के प्रमुख आदिवासियों में से एक है। ये रायगढ़ जिले की धर्मजयगढ़, , घरघोड़ा, जशपुर नगर, खरसिया एवं सरगुजा जिले की अम्बिकापुर, बैकुण्ठपुर, भरतपुर, जनकपुर, मनेन्द्रगढ़, पाल, सुकरी, सीतापुर तहसीलों में निवास करते हैं। 

मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में इनकी जनसंख्या लगभग 3,50,000 आँकी गई है। यहाँ इन्हें धाँगर या धाँगर उराँव कहा जाता है। इनकी आजीविका का प्रमुख साधन कृषि श्रम है। इनका राष्ट्रीय नृत्य जल है।

Related Posts