आर्थिक विकास से आप क्या समझते हैं?

साधारण बोलचाल की भाषा में आर्थिक विकास तथा आर्थिक संवृद्धि में कोई अन्तर नहीं पाया जाता है। ये दोनों ही पर्यायवाची माने जाते हैं । किन्तु इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में मतभेद पाया जाता है। प्रो. शुम्पीटर, श्रीमती उर्मिला हिक्स तथा डॉ. ह्वाइट आदि विद्वानों ने इन दोनों में अन्तर किया है। 

प्रो. शुम्पीटर का कथन है कि आर्थिक संवृद्धि से तात्पर्य परम्परागत, स्वचालित एवं नियमित विकास से होता है। परन्तु आर्थिक विकास का आशय एक नियोजित तथा नवीन तकनीक पर आधारित होने वाले विकास से होता है। इस प्रकार आर्थिक विकास का अर्थ भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से लगाया जाता है। फिर भी अध्ययन की दृष्टि से इसकी कुछ परिभाषाएँ निम्न हैं—

प्रो. रोस्टोव के अनुसार, “आर्थिक विकास एक ओर पूँजी कार्यशील शक्ति में वृद्धि की दरों के बीच तथा दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि की दर के बीच एक ऐसा सम्बन्ध है जिससे प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि होती है।" में डॉ. पाल एल्बर्ट के शब्दों में, “किसी देश के द्वारा अपनी वास्तविक आय को बढ़ाने के लिए सभी उत्पादक साधनों को अनुकूलतम उपयोग करना आर्थिक विकास है।"

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मतानुसार, “विकास मानव की केवल भौतिक आवश्यकताओं से ही नहीं बल्कि उसके जीवन की सामाजिक दशाओं की उन्नति से भी सम्बन्धित होना चाहिये । अतः विकास में सामाजिक, सांस्कृतिक, संस्थागत तथा आर्थिक परिवर्तन भी शामिल हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि आर्थिक विकास एक सतत् प्रक्रिया है, जिससे वास्तविक राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है । इस प्रकार जीवन स्तर तथा सामान्य कल्याण में भी वृद्धि होती है। 

अतएव संक्षेप में कहा जा सकता है कि आर्थिक विकास एक दीर्घकालीन निरन्तर प्रक्रिया है। इस सम्बन्ध में प्रो. ओकोन एवं रिचर्डसन का कथन है कि “आर्थिक विकास से तात्पर्य वस्तुओं तथा सेवाओं को अधिक-से-अधिक मात्रा में उपलब्ध कराने से है जिससे कि जनसामान्य के भौतिक कल्याण में निरन्तर - एवं दीर्घकालीन वृद्धि हो सके।"

आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले तत्व

किसी देश के आर्थिक विकास पर अनेक बातों तथा तत्वों का प्रभाव पड़ता है। इन तत्वों को ही आर्थिक विकास निर्धारित करने वाले तत्वों के नाम से जाना जाता है । यह तत्व आर्थिक तथा अनार्थिक दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। इसीलिये अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से आर्थिक विकास के घटकों को दो भागों में विभाजित किया जाता है

  • (अ) आर्थिक विकास के आर्थिक तत्व तथा 
  • (ब) आर्थिक विकास के अनार्थिक तत्व ।

आर्थिक विकास के आर्थिक तत्व

आर्थिक विकास निर्धारित करने वाले आर्थिक तत्व निम्न पाये जाते हैं1. प्राकृतिक साधन

— किसी देश का आर्थिक विकास उस देश में पाये जाने वाले प्राकृतिक साधनों पर निर्भर करता है। इन साधनों में भौगोलिक स्थिति, खनिज सम्पत्ति, वन सम्पदा, जलवायु, घरातल तथा मिट्टी सम्मिलित होते हैं। जिन देशों में पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक साधन पाये जाते हैं उनका आर्थिक विकास तेजी से होता है। किन्तु इसके लिए साधनों का उचित शोषण किया जाना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में प्रो. लुईस का कथन है कि “एक साधन का मूल्य उसके उपयोग पर निर्भर करता है तथा उसकी उपयोगिता रुचि में परिवर्तन या अनुसन्धान के साथ परिवर्तित होती रहती है।"

2. मानवीय साधन — किसी देश का आर्थिक विकास उस देश में पायी जाने वाली श्रम शक्ति पर भी निर्भर करता है । यदि श्रम शक्ति निर्बल तथा आलसी है तो उस देश का आर्थिक विकास मन्द गति से होगा। इस प्रकार आर्थिक विकास मानव शक्ति की क्षमता पर निर्भर करता है। 

प्रो. गिल के शब्दों में, “आर्थिक विकास कोई यान्त्रिक प्रक्रिया मात्र नहीं है गुणों, दृष्टिकोणों तथा अभिरुचियों पर निर्भर करती है जो इसको साकार स्वरूप प्रदान करते हैं। किन्तु यह यह तो एक मानवीय उपक्रम है, जिसकी प्रगति उन लोगों की कुशलता, आवश्यक है कि जनसंख्या का नियोजन एवं सर्वोत्तम उपयोग किया जाय ।” अतएव मानव एक वरदान शक्ति हैं के समान है।

3. पूँजी संचय — आर्थिक विकास के लिए पूँजी संचय या निर्माण की आवश्यकता पड़ती है। यह तभी सम्भव है जबकि देश अपनी कुल राष्ट्रीय आय का एक भाग पूँजीगत वस्तुओं में विनियोग करता रहता है । इससे उत्पादन में वृद्धि होती है तथा आर्थिक विकास को गति प्राप्त होती है। भारतीय योजना आयोग ने कहा है कि “किसी भी देश का आर्थिक विकास पूँजी उपलब्धता पर ही निर्भर करता है। 

आय एवं रोजगार अवसरों में वृद्धि तथा उत्पादन में वृद्धि की कुंजी पूँजी के अधिकाधिक निर्माण में है।” साथ-ही-साथ श्रम शक्ति को शिक्षित तथा प्रशिक्षित करके मानव शक्ति पूँजी को बढ़ाया जा सकता है। अतएव पूँजी संचय आर्थिक विकास को आधार प्रदान करता है ।

4. तकनीकी परिवर्तन – एक देश का आर्थिक विकास तकनीकी परिवर्तन पर निर्भर करता है। आज वैज्ञानिक आविष्कारों ने केवल यन्त्रों व मशीनों को नहीं दिया है वरन् इसने उत्पादन के स्वरूप को ही परिवर्तित कर दिया है। 

डॉ. रिचर्ड गिल के शब्दों में, “आर्थिक विकास अपने लिये महत्वपूर्ण पौष्टिकता मूलतः नवीन विचारों, तकनीकों, आविष्कारों तथा उत्पादन विधियों के स्रोतों से प्राप्त होता है, जिनके अभाव में अन्य साधन कितने ही विकसित क्यों न हों आर्थिक विकास असम्भव ही बना रहता है।" इस प्रकार तकनीकी विकास समस्त सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन ला देता है तथा विकास होता है।

5. उद्यमशीलता — आर्थिक विकास में साहसी का भी पर्याप्त योगदान होता है । वह जलयान के समान होता है। वह समस्त तूफानों से बचता हुआ विकास को आगे बढ़ाता है। आज की अर्थव्यवस्था का विकास साहसियों पर निर्भर होता है। साहसी वर्ग जितनी अधिक जोखिम उठाने को तैयार होता है विकास की गति भी उतनी ही अधिक होती है। 

प्रो. शुम्पीटर ने इस सम्बन्ध में कहा है कि “साहसी विकास का मुख्य प्रेरक है, वह नवीनताओं का सृजनकर्ता है, उत्पादन की तकनीक में क्रान्ति का अधिष्ठाता है तथा बाजार का श्रेय भी उसे ही जाता है।” इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक साहसी इस प्रकार आर्थिक विकास को दिशा प्रदान करता है ।

6. बाजार का आकार — आर्थिक विकास के लिये एक व्यापक बाजार का होना भी आवश्यक होना है। इसका कारण यह है कि उत्पादन की मात्रा का निर्धारण बाजार के स्वरूप पर निर्भर करता है। यदि किसी वस्तु विशेष का बाजार व्यापक है तो उत्पादक द्वारा उत्पादन में उच्च तकनीकी का आसानी से उपयोग किया जा सकता है तथा उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है। इस सम्बन्ध में प्रो. एडम स्मिथ का कथन है कि श्रम विभाजन बाजार के विस्तार पर निर्भर करता है। इसका तात्पर्य यह है कि बाजार के व्यापक होने पर ही श्रम विभाजन के सभी लाभों को प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार विनियोग करने का परिणाम पर भी बाजार आश्रित होती है। -

7. व्यावसायिक स्वरूप – व्यावसायिक स्वरूप से तात्पर्य वर्तमान कार्यशील जनसंख्या का उत्पादन को विभिन्न क्षेत्रों में वितरण से होना है। साधारण तथा व्यावसायिक क्रियाओं को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है

(i) प्राथमिक क्षेत्र,(ii) द्वितीयक क्षेत्र तथा (iii) तृतीयक क्षेत्र । विभिन्न व्यावसायिक स्वरूपों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि विकासशील देशों में आर्थिक ढाँचे प्राथमिक क्षेत्र की प्रधानता होती है।

एक विकसित देश में द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्रों के व्यवसाय की प्रधानता होती है। जैसे-जैसे किसी देश में विकास की प्रक्रिया लागू होती है वैसे कार्यशील जनसंख्या द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्रों की ओर हस्तान्तरित होती है । इसके आर्थिक विकास को गति मिलती है तथा देश का आर्थिक विकास तेज होता है।

8. संगठन – देश के आर्थिक विकास में संगठन करने की क्षमता का भी प्रभाव पड़ता है। संगठन का प्रधान कार्य उत्पादन के विभिन्न साधनों को उचित ढंग से उत्पादन कार्य में लगाना होता है। कुशल संगठन द्वारा ही देश के प्राकृतिक साधनों का उचित उपयोग किया जाना सम्भव होता है तथा उत्पादन रोजगार एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि करना सम्भव होता है। 

जिन देशों में कुशल संगठन का अभाव पाया जाता है वे आगे भी नवीनतम उत्पादन विधियों के पाये जाने के बावजूद भी अविकसित या अल्पविकसित राष्ट्र कहे जाते हैं। इस प्रकार यह कहना गलत न होगा कि उत्पादन के विभिन्न साधनों के समुचित ढंग से संगठित एवं समन्वय करके देश के आर्थिक विकास में तेजी लायी जा सकती है।

आर्थिक विकास के अनार्थिक तत्व 

आर्थिक विकास की गति पर न केवल आर्थिक तत्वों का ही प्रभाव पड़ता है वरन् अनार्थिक बातों का भी प्रभाव पड़ता है। कुछ अर्थशास्त्रियों ने अनार्थिक तत्वों को अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण बताया है। डॉ. नर्कसे का मत है कि “आर्थिक विकास मानवीय गुणों, सामाजिक प्रवृत्तियों, राजनीतिक परिस्थितियों तथा ऐतिहासिक संयोगों से बहुत निकट सम्बन्ध रखना है।” आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ अनार्थिक तत्व निम्नलिखित प्रकार के पाये जाते हैं—

9. सामाजिक तत्व — आर्थिक विकास पर सामाजिक तत्व का उसी प्रकार प्रभाव पड़ता है जिस प्रकार आर्थिक तत्वों का होता है। आर्थिक विकास की कोई भी नीति तब तक समान नहीं हो सकती है जब तक कि वह सामाजिक संगठन के अनुकूल न हो। इस सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ का मत है कि “एक उपयुक्त वातावरण की उपस्थिति के बिना आर्थिक प्रगति सम्भव नहीं है। 

आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है कि लोगों में प्रगति की प्रबल इच्छा हो,इसके लिए त्याग करने को तत्पर हो, वे अपने अपने विचारों के अनुकूल बनाने के लिए जागरूक हो ।” इस प्रकार कहा जा सकता है कि देश के आर्थिक विकास के लिए सामाजिक वातावरण का उनमें पाया जाना आवश्यक है। इसके बगैर देश में तीव्र गति से आर्थिक विकास की आशा नहीं की जा सकती है।

10. धार्मिक तत्व – किसी भी देश में वहाँ के धार्मिक भावनाओं तथा विश्वासों का भी आर्थिक विकास पर प्रभाव पड़ता है । प्रायः यह देखा गया है कि धार्मिक तत्व एक विकासशील देश की प्रगति में बाधक सिद्ध हुये हैं यह धार्मिक भावनाएँ रूढ़िवादिता तथा अन्धविश्वास को जन्म देती हैं जो नवीनता का विरोध करती है। 

डॉ. लुईस का इस सम्बन्ध में कथन है कि “कोई देश असंगत धार्मिक सिद्धान्तों को अपनाकर अपनी आर्थिक उन्नति का गला घोंट सकता है या नये उन्नतिशील विचार अपनाकर अपने आर्थिक विकास की गति को तेज कर सकता है।" इस प्रकार यह कहना गलत न होगा कि एक देश के आर्थिक विकास पर धार्मिक बातों का भी विशेष प्रभाव पड़ता है।

11. राजनैतिक घटक–– देश के आर्थिक विकास पर राजनीतिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति, कुशल प्रशासन, राजनैतिक स्थिरता से विकास में तेजी आती है। यह एक सामान्य सत्य है कि जहाँ प्रशासन एवं शासन जितना अधिक स्थिर होगा वहाँ पर विकास की गति उतनी ही तीव्र पायी जायेगी। 

साथ-ही-साथ देश में बाह्य तथा आन्तरिक सुरक्षा का भी पाया जाना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में प्रो. नर्कसे का कथन है कि “कोई भी देश योग्य सरकार के प्रया के बिना आर्थिक प्रगति नहीं कर सकता है।” अतः यदि देश में राजनैतिक वातावरण अच्छा पाया जाता है तो देश का आर्थिक विकास अपने आप हो जाता है क्योंकि आर्थिक विकास एक प्रक्रिया है ।

उपर्युक्त विवेचन से इस प्रकार स्पष्ट होता है कि किसी देश का आर्थिक विकास पर विभिन्न आर्थिक तथा 'से अनार्थिक तत्वों का प्रभाव पड़ता है। इस सन्दर्भ में प्रो. बी. शैपर्ड ने ठीक ही कहा है कि “किसी एक घटक से नहीं अपितु विभिन्न महत्वपूर्ण घटकों को उचित अनुपात में मिलाने से आर्थिक विकास होता है।" यही आर्थिक विकास के घटक कहे जाते हैं। इसे आर्थिक विकास की कुंजी भी कहा जा सकता है ।

Related Posts