मुद्रा के आर्थिक तथा सामाजिक महत्व का वर्णन कीजिये

प्रश्न 1. मुद्रा के आर्थिक तथा सामाजिक महत्व का वर्णन कीजिये।

अथवा

"मुद्रा वह धुरी है जिसके चारों ओर आर्थिक क्रिया चक्कर लगाती है।" इस कथन की व्याख्या कीजिए। 

मुद्रा का महत्व

मुद्रा के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में मतभेद पाया जाता है। एक वर्ग इसे अत्यन्त अनावश्यक तथा महत्वहीन मानता है। दूसरा वर्ग इसे अत्यन्त महत्वपूर्ण बताता है। प्रो. क्राउथर ने इस सम्बन्ध में कहा है कि “ज्ञान की प्रत्येक शाखा की अपनी एक मूल खोज है। 

जैसे - यन्त्र कला में पहिया, विज्ञान में अग्नि, राजनीति में वोट, उसी प्रकार अर्थशास्त्र में मुद्रा सबसे उपयोगी आविष्कार है, जिस पर बहुत सी बातें आधारित हैं।" वास्तव में मुद्रा के अभाव में हमारा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक जीवन ठीक से नहीं चल सकता है। इसके कुछ महत्व निम्न हैं

1. उपभोग के क्षेत्र में - मुद्रा उपभोग की क्रिया को सरल एवं सुविधाजनक बनाती है। इसके द्वारा वस्तुओं का मूल्य निश्चित किया जाता है तथा इसका भुगतान भी इसी में किया जाता है। 

इसके अतिरिक्त मुद्रा वस्तुओं को क्रय करने की स्वतन्त्रता प्रदान करती है। मुद्रा के कारण प्रत्येक व्यक्ति को सीमान्त उपयोगिता का अनुमान होता है तथा वह अपने साधनों को इस प्रकार उपयोग करता है कि उसे अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त हो । इस प्रकार मनुष्य सीमित साधन का अधिकतम उपयोग करता है।

2. उत्पादन के क्षेत्र में— वर्तमान काल में उत्पादन क्रिया अत्यन्त जटिल हो गयी है क्योंकि उत्पादन विभिन्न साधनों के सहयोग से किया जाता है। उत्पादन में किन-किन साधनों का कितना सहयोग होना चाहिये इसका अनुमान साधनों के मूल्य या लागत से लगाया जाता है। मुद्रा सभी वस्तुओं के मूल्य तथा लागत का निर्धारण करती है । 

अतएव उत्पादक मुद्रा की सहातया से मूल्य कम या अधिक निश्चित कर सकता है । इसीलिये कहा जाता है कि उत्पादन का आर्थिक विज्ञान में जितना अधिक महत्व है उससे अधिक महत्व मुद्रा का उत्पादन के क्षेत्र में पाया जाता है । उत्पादन के क्षेत्र में मुद्रा वरदान के समान है ।

3. विनिमय के क्षेत्र में - मुद्रा का आविष्कार विनिमय को सरल तथा सुविधाजनक बनाने के लिये हुआ। मुद्रा के कारण वस्तुओं की बिक्री एवं भुगतान बहुत ही सुविधाजनक हो गया है। व्यापार के क्षेत्र में आज जो प्रगति हुई है उसका एकमात्र कारण मुद्रा ही है। 

द्रव्य में समाज स्वीकृति पायी जाती है तथा यह सभी के लिये सामान्य मूल्य मापन का कार्य करती है। द्रव्य द्वारा देश-विदेश में क्रय-विक्रय की जाने वाली वस्तुओं का भुगतान करना सरल हो गया है। 

इसका सबसे उत्तम साधन या माध्यम बैंक है जो चैक, ड्राफ्ट, विनिमय की सुविधाएँ प्रदान करता है । वास्तव में इन साख-पत्रों का आधार भी मुद्रा ही होता है।

4. वितरण के क्षेत्र में वर्तमान युग में उत्पादन संयुक्त रूप से किया जाता है। इसमें उत्पादन के विभिन्न साधनों का सहयोग होता है। विभिन्न साधनों के सहयोग से जो वस्तुएँ उत्पादन की जाती हैं उनको बाजार में बेचकर द्रव्य प्राप्त किया जाता है ।

तत्पश्चात् इस धन को सहयोग देने वाले साधनों में बाँट दिया जाता है । इन सभी साधनों को जितना पुरस्कार या लाभ मिलना चाहिये उसका निर्धारण भी मुद्रा में ही होता है । इस प्रकार मुद्रा वितरण को सरल व सुविधाजनक बनाता है।

5. राजस्व के क्षेत्र में— सार्वजनिक कार्यों में निरन्तरता के साथ वृद्धि होने के कारण राजस्व में सार्वजनिक व्यय का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है । सार्वजनिक व्यय को पूरा करने के लिए सरकार कई साधनों से आय प्राप्त करती है । 

जनता को मुद्रा द्वारा कर चुकाने में आसानी होती है। इसी कारण सार्वजनिक आय मुद्रा के रूप में प्राप्त की जाती है जो मुद्रा के अभाव में असम्भव है । अतएव सार्वजनिक आय तथा व्यय की राशि मुद्रा द्वारा स्वतन्त्रतापूर्वक व्यय की जाती है। 

6. वस्तु विनिमय के दोषों से मुक्ति - मुद्रा के चलन से अदल-बदल की प्रथा की समस्त कठिनाइयाँ दूर हो गयी हैं। अब आर्थिक क्रिया दो भागों में बँट गयी है – क्रय व विक्रय । साथ-ही-साथ आज सभी वस्तुओं की कीमत मुद्रा में मापी जाती है। प्रो. कैंट के शब्दों में, “द्रव्य मानव जाति के इतिहास में एक असाधारण इतिहास है।

इसने अदल-बदल की कठिनाइयों का दूर किया तथा मूल्य के संचय तथा उद्योग के उत्पादन व वितरण को सम्भव बना दिया। अब न तो दोहरे संयोग की आवश्यकता होती है और न ही मूल्य के संचय में ही असुविधा होती है।

7. पूँजी की गतिशीलता में वृद्धि द्रव्य के प्रचलन के कारण पूँजी की गतिशीलता में वृद्धि हुई है। आज वृहत् पैमाने पर संयुक्त पूँजी कम्पनियों के माध्यम से संचय की जाती है। 

उत्पादन कार्य के लिये अत्यधिक मात्रा में पूँजी एकत्रित करनी पड़ती है। मुद्रा की कमी व अभाव में पूँजी को एकत्रित करने में कठिनाई आती है क्योंकि मुद्रा पूँजी को सरल रूप देती है। बैंक बचतों को एकत्र करके उस स्थान पर भेज देता है जहाँ पर इसकी आवश्यकता होती है। 

प्रो. राबर्टसन के शब्दों में, “सर्वसाधारण से उधार लिया और दिया जाता है इसीलिये द्रव्य के आविष्कार से सुगमतापूर्वक अन्तरित किया जा सकता है। 

8. साख का आधार – वर्तमान युग में समस्त लेन-देन, उद्योग-धन्धे साख पर आधारित हैं। बैंक लोगों की जमा पूँजी को एकत्र करके साख का निर्माण करता है । 

इसीलिये कहा जाता है कि मुद्रा साख की जन्मदात्री है। इसी साख से समस्त व्यावसायिक जगत की आवश्यकता की पूर्ति की जाती है । यदि मुद्रा नहीं होती तो साख का विस्तार नहीं हो पाता तथा व्यवसाय व व्यापार में प्रगति नहीं होती । इसीलिये कहा जाता है कि मुद्रा आधुनिक व्यापार का मशीन के लिये तेल का काम करती है । यह साख के सृजन का कार्य करती है। 

9. सामाजिक कल्याण का मापक - मुद्रा सामाजिक कल्याण की मापक तथा प्रगति का द्योतक होता है। इसके उपयोग द्वारा अनेक कुरीतियों को दूर किया गया है तथा यह समाज की प्रगति में सहायक सिद्ध हुई है। 

इससे वस्तुओं के लेन-देन में सुविधा उत्पन्न हुई तथा श्रमिकों की गतिशीलता में वृद्धि हुई है। यही नहीं आपसी आदान-प्रदान, सहयोग तथा एकता प्रदान करने में पर्याप्त सहयोग दिया है। इसीलिये इसे सामाजिक कल्याण का मापक माना जाता है ।

10. मुद्रा का राजनैतिक महत्व — सरकार को मुद्रा के रूप में कर देकर मनुष्य राजनैतिक चेतना तथा स्वतन्त्रता प्राप्त करता है। वह चाहता है कि उसके द्वारा दिये गये धन का सदुपयोग किया जाये। इस प्रकार राष्ट्रीय भावना का विकास होता है।

साथ ही एक देश की सरकार योजनाएँ तभी बनाती है तथा उन्हें क्रियान्वित करती है जब उसके पास पर्याप्त मात्रा में मुद्रा होती है। प्रजातन्त्रीय सरकारों की स्थापना का उद्देश्य भी यही होता है। इस प्रकार मुद्रा का राजनैतिक महत्व भी होता है।

11. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि राष्ट्रीय एकता के साथ मुद्रा के उपयोग ने अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को भी प्रोत्साहन दिया है। दो देशों के बीच पारस्परिक भुगतान व्यवस्था मुद्रा के कारण अत्यन्त सुविधाजनक हो गयी। 

आज अनार्थिक क्षेत्रों में भी मुद्रा का रूप हमें देखने को मिलता है। दान, पूजा, दक्षिणा तथा व्यक्तियों की पहचान तथा आदर आजकल द्रव्य के आधार पर की जाती है। इससे अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि मुद्रा का आधुनिक अर्थव्यवस्था के संचालन में महत्वपूर्ण योगदान है। इसी कारण डॉ. ट्रेसकाट का कथन है कि “यदि मुद्रा हमारी अर्थव्यवस्था का हृदय नहीं है तो एक स्रोत तो अवश्य है।

मुद्रा के दोष

वर्तमान युग में मुद्रा का इतना आर्थिक महत्व होते हुये भी वह दोषमुक्त नहीं है । अन्य शब्दों में, यह मानव व समाज के लिये अभिशिप्त वरदान नहीं है। इसीलिये कहा जाता है कि मुद्रा एक आवश्यक बुराई है। वास्तव में मुद्रा से निम्नलिखित बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं।

(i) धन का असमान वितरण - मुद्रा के आविष्कार के कारण पूँजी का संचय सम्भव होता है जिससे पूँजीवाद को बढ़ावा मिलता है। आज बड़े-बड़े उद्योग-धन्धे स्थापित हो गये हैं जिसके फलस्वरूप धन का वितरण असमान होता जा रहा है। 

इसीलिये कहा जाता है कि “धनी और अधिक धनवान होता जाता है तथा निर्धन और निर्धन।” इस विषमता का एकमात्र कारण मुद्रा है। इससे देश में अशान्ति, संघर्ष तथा क्रान्ति होने का भय बना रहता है। आज सामाजिक अशान्ति का एक बड़ा कारण यही है।

(ii) ऋण को प्रोत्साहन - मुद्रा के प्रचलन के कारण ऋण लेना व देना दोनों ही सरल हो गया है। इससे ऋण लेने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिला है। 

मनुष्य दिन-प्रतिदिन अपव्ययी तथा ऋणी होता जा रहा है। इससे अनावश्यक व्यय को बढ़ावा मिला है। इसीलिये कहा जाता है कि "मुद्रा एक बहुमूल्य किन्तु एक भयानक आविष्कार है।

(iii) वर्ग-संघर्ष–आर्थिक साधनों का केन्द्रीकरण कुछ ही हाथों में हो जाने के कारण समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया है— पूँजीपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग । 

दोनों वर्ग अपने-अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये अपने पक्ष की महत्ता का प्रदर्शन करते हैं। इससे वर्ग-संघर्ष होता है तथा देश में अशान्ति फैलती है। इसी कारण देश में आये-दिनों हड़तालें,नारेबाजी, घेराबन्दी, तालाबन्दी आदि की घटनाएँ होती रहती हैं।

(iv) अत्यधिक उत्पादन का भय – अति पूँजीकरण के द्वारा आज उत्पादन की समस्या उत्पन्न होती है। इससे माँग तथा पूर्ति में असन्तुलन हो जाता है तथा मन्दी आ जाती है । उत्पादन कम होने लगता है। 

इस कारण बेरोजगारी, भुखमरी आदि की समस्याएँ उत्पन्न होने का भय बना रहता है । इस प्रकार देश तथा व्यक्ति को कमजोर बना देती है। अतएव इससे अत्यधिक उत्पादन का भय बना रह है।

(v) भौतिक दृष्टिकोण - मुद्रा के आविष्कार तथा प्रचलन के कारण भौतिक दृष्टिकोण को भी प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। मनुष्य धन के अर्जित तथा एकत्रित करने में, उचित तथा अनुचित का ध्यान न रखते हुये व्यस्त है। 

वास्तव में मुद्रा ने मानव को लालची तथा स्वार्थी तथा बना दिया है। इस प्रकार मनुष्य की मानसिक शान्ति का अन्त हो गया है । इस सम्बन्ध में प्रो. रस्किन का कथन है कि “मुद्रा के शैतान ने आत्माओं को दबा दिया है आज मानव अत्यन्त भौतिकवादी बन गया है । 

(vi) शोषण की प्रवृत्ति - मुद्रा द्वारा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का जन्म तथा विकास हुआ है। इससे समाज में स्पष्ट रूप से दो वर्ग दिखायी पड़ने लगे हैं—एक पूँजीपति वर्ग तथा दूसरा श्रमिक वर्ग । आज उत्पादन तथा विनिमय की बागडोर पूँजीपति वर्ग के हाथों में पायी जाती है। 

इससे एकाधिकारी की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है जिससे श्रमिकों को उचित मजदूरी नहीं मिल पाती है अर्थात् श्रमिकों का शोषण होता है । इस प्रकार समाज इन दोनों वर्गों अर्थात् पूँजीपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग में संघर्ष चलता रहता है । इसके फलस्वरूप समाज में अशान्ति का दातावरण पाया जाता है।

(vii) दासता — आज मुद्रा सेविका से स्वामी का रूप धारण करती जा रही है। व्यक्ति की दिनों-दिन द्रव्य की लालसा बढ़ती जा रही है। इस प्रकार यह कहना गलत न होगा कि व्यक्ति दिन-प्रतिदिन मुद्रा रूपी जाल में अपने आपको जकड़ता जा रहा है।

 अन्य शब्दों में, आज का व्यक्ति मुद्रा का दास बन गया है। इसके फलस्वरूप मनुष्य प्रलोभी बनता जा रहा है। यही नहीं मुद्रा ने लोगों में भौतिकता को प्रोत्साहन दिया है।

(viii) शत्रुता - मुद्रा ने आपस में ईर्ष्या, द्वेष, मन-मुटाव पैदा करने के साथ-साथ शत्रुता को भी जन्म दिया है। अनेक सुखी परिवारों को अस्त-व्यस्त कर दिया है। 

अपहरण की घटनाएँ एक आम बात हो गयी है। यही नहीं मुद्रा ने व्यक्ति को इनका प्रलोभी बना दिया है कि आज पिता, भाई, बहिन, स्त्री आदि को जान से मार डालना एक साधारण घटना मानी जाती है । इस प्रकार समाज का वातावरण दूषित व अशान्त हो गया है।

(ix) नैतिक पतन- आर्थिक तथा सामाजिक बुराइयों के अतिरिक्त मुद्रा ने नैतिक गुणों को भी नष्ट किया है। यह मानव को नैतिक पतन की ओर ले जाती है। अधिक धन कमाने की लालसा में गबन, चोरी, घूसखोरी आदि का सहारा लिया जाता है। 

आज लोग उचित और अनुचित का बिना ध्यान रखे धन अर्जित करने में व्यस्त हैं। इस प्रकार मुद्रा मानव को नैतिक पतन की ओर ले जाती है। 

प्रो. गुडविक के शब्दों में, “मुद्रा का दोष उस समय ज्ञात होता है जब वैश्या अपने शरीर को बेचती है, जज घूस लेकर न्याय के विरुद्ध फैसला देता है।” यही पतन का सार है ।

मुद्रा के उपर्युक्त दोषों के अध्ययन व विश्लेषण से पता चलता है कि यह समाज में पायी जाने वाली समस्त बुराइयों की जड़ है। इसी कारण आज मानव पतन की ओर है तथा समाज के लिये मुद्रा अभिशाप बन के गयी है । 

परन्तु यदि ध्यानपूर्वक देखा जाये तो उपर्युक्त दोष मुद्रा के नहीं हैं। मुद्रा में पाये जाने वाले समस्त दोष मानव स्वभाव के हैं। इस सम्बन्ध में प्रो. राबर्टसन ने ठीक ही कहा है कि “मुद्रा जो समाज के लिये अनेक लाभ का स्रोत है, नियन्त्रण के अभाव में हमारे लिये संकट एवं अशान्ति का कारण बन सकती है।”

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