गाँधी जी ने नशे के शौक की पूर्ति के लिए क्या-क्या किया

मनुष्य अपने शौक की पूर्ति के लिए जीवनभर की पूँजी लगा देता है । मनुष्य की छोटी-छोटी और बड़ी-बड़ी आदत उसके आस-पास रहने वाले लोगों की देन है। वास्तविक अर्थों में मनुष्य की मानसिकता का बदलना आस-पास के परिवेश पर निर्भर करता है। 

यही परिवेश हमारा भविष्य निर्धारित करता है। गाँधी जी अपने आस-पास बीड़ी पीते हुए लोगों को देखा करते थे और सोचते थे कि बीड़ी पीते हुए लोगों को आनंद की प्राप्ति होती है । गाँधी जी सोचते कि बीड़ी पीने से फायदा होता है या बीड़ी के गंध से आनंद मिलता है। 

धुआँ उड़ाने में आनंद की तलब ने बीड़ी पीने की इच्छा प्रबल की। गाँधी जी की उम्र उस समय बारह-तेरह वर्ष की थी। गाँधी जी के पास बीड़ी खरीदने के पैसे नहीं थे। 

पैसों के अभाव में अपने काका जी के बीड़ी पीने के बाद बची उसकी दूंठ को चुराकर पीने लगे। दूंठ को पीने से कम धुआँ निकलता इस कारण धुआँ उड़ाने का आनंद उन्हें नहीं मिला।

गाँधी जी को बीड़ी खरीदने की चाह में चोरी करना प्रारंभ करना पड़ा। नौकर की जेब में पड़े दो-चार पैसों से एकाध पैसे रोज चुराने लगे। अब बीड़ी खरीदने के बाद उसे रखने की समस्या हुई क्योंकि बड़ों के सामने बीड़ी रख नहीं सकते थे और न ही पी सकते थे। कुछ हफ्ते पैसे चुराने का काम चलता रहा और चोरी-छिपे बीड़ी पीते रहे।

फिर किसी से पता चला कि एक पौधा होता है, जिसके डंठल बीड़ी की तरह जलते हैं और उससे भी धुआँ निकलता है। उस पौधे का डंठल ढूँढ कर लाया गया और फूंकने लगे, पर इससे भी आनंद नहीं मिला। कुछ समय बाद बीड़ी पीने का शौक समाप्त हो गया। 

लेकिन कुछ समय के इस शौक ने गाँधी जी को चोरी करने पर मजबूर कर दिया था, नशे के शौक में जूठी बीड़ी चुराकर पीने लगे, नौकर की जेब से पैसा चुराने लगे। उस समय गाँधी जी चोरी कर हिंसा के मार्ग पर चल पड़े थे। 

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