समाज के नवनिर्माण में वृद्धों की क्या भूमिका होनी चाहिए

भारतीय समाज में वृद्धों को बड़ा महत्वपूर्ण और आदरणीय स्थान दिया गया है। वृद्धों के विषय में कहा गया है कि जिस सभा में वृद्ध नहीं हैं वह सभा, सभा नहीं है। 

आचार्य जी का विचार है कि जब तक सराज के आधारभूत मौखिक सिद्धान्तों में परिवर्तन नहीं होता तथा जब तक समाज के क्रान्तिकारी ढाँचे में बदलाव नहीं होता तब तक नए समाज के निर्माण की कल्पना नहीं की जा सकती।

क्रातिकारी क्रान्तिकारी परिवर्तन के इस कार्य में वृद्धजन अधिकतर बाधक ही सिद्ध होते हैं, साधक नहीं। इसका कारण यह है कि वृद्धजन परम्परा प्रिय होते हैं और अतीत के मोह से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते। 

आचार्य जी के मतासार परम्परा की रक्षा के लिए वृद्धों का रहना भी आवश्यक है, किन्तु उनको यह स्वीकार करना चाहिए कि अब समय आ गया है कि उन्हें युवकों को जिम्मेदारी के पदों पर बैठाना चाहिए और युवकों के अधिकारों को स्वीकार कर उन्हें मान्यता देनी चाहिए।

आर्य कथनानुसार वृद्धों को चाहिए कि वे अपने उत्तराधिकारियों को पहले से ही तैयार करना प्रारम्भ कर हैं। यदि वे ऐसे नहीं करेंगे तो, उनके अर्थात् वृद्धों के हर जाने पर, उनकी जगह लेने वाले अनुभवी और योग्य व्यक्त नहीं मिलेंगे। 

युवकों को दायित्व सौंपने के प्रश्न पर आचार्य जी लिखते हैं कि भारत के स्वतंत्र होने परजो जिम्मेदारी उन पर आ गई है, उनका भार सहन करने की शक्ति कुछ वृद्धों को छोड़कर अन्य वृद्धों में नहीं है। 

पुन: नूतन समाज की रचना का और प्रचलित सामाजिक पद्धति को तोड़ने की युवक में सामर्थ्य है, जो समाज नया उपक्रम करना चाहता है और जिसको क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है, उसको युवकों का सहयोग अवश्य चाहिए और यह सहयोग पुवकों के अधिकार को स्वीकार करके ही प्राप्त हो सकता है। 

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