चोरी और प्रायश्चित का उद्देश्य लिखिए

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कुशल अध्येता, साहित्यप्रेमी, कुशल विचारक और एक सफल लेखक भी थे। भारत में उन्होंने 'नवजीवन' नामक मासिक पत्रिका प्रकाशित की। आगे चलकर इसका हिन्दी प्रकाशन भी प्रारंभ हुआ।

उन्होंने सत्य के प्रयोग का लेखन किया। इसी आत्मकथा का अंश है चोरी और प्रायश्चित। महात्मा गाँधी ने समस्त विश्व को सत्य,अहिंसा, त्याग का पाठ पढ़ाया। 

चोरी क्या है

जब कोई व्यक्ति, किसी अन्य व्यक्ति की अनुमति के बिना उसकी चल सम्पत्ति को बेईमानी पूर्वक अपने पास रख लेता है अथवा अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए किसी अन्य की चल संपत्ति पर अपना अधिकार जताना चोरी कहलाता है। 

किसी कार्य को छिपाकर करना भी चोरी ही है। प्रायश्चित-जब अपने किसी व्यवहार से सामने वाले को ठेस पहुँचे या पीड़ा हो उस भाव को महसूस करना और उस भूल को सुधारने के लिए प्रयास करना प्रायश्चित है मन में पीड़ा का भाव उत्पन्न होना और अपनी गलतियों की क्षमा याचना करना भी प्रायश्चित है

चोरी और प्रायश्चित का उद्देश्य लिखिए

महात्मा गाँधी द्वारा रचित उनकी आत्मकथा के अंश में यह स्पष्ट होता है कि गाँधी जी सत्य की आराधना करते थे। अपने जीवन के महत्वपूर्ण भाग में जब उनके भीतर नशे की महत्वाकांक्षा उद्घटित हुई तो उन्होंने चोरी का मार्ग अपनाया। 

कुविचार, उतावलापन, झूठ बोलना, द्वेष करना, किसी का बुरा चाहना, संसार की आवश्यक वस्तुओं को अपनाने के लिए हिंसा का मार्ग चुनना, आत्महत्या का प्रयास कर गा ये सारे विचार युवामन में उठना स्वाभाविक है, पर इन भावों को उनके दुर्गामी परिणामों पर यदि समय रहते विचार कर लिया जाए तो यह सारे मार्ग गलत नजर आते हैं। 

जीवन दर्शन के गूढ़ रहस्य को इस अंश में बखूबी व्याख्यायित किया गया। गलती पर पछतावा करना और अपनी गलती को स्वीकारना सहज नहीं पर प्रायश्चित के माध्यम से गलती को सुधारने का प्रयास अवश्य किया जा सकता है। 

आत्महत्या का विचार करना आसान है इसलिए ऐसे विचार बहुत आसानी से मानव मस्तिष्क में आ जाते हैं पर इस विचार के मन में आने की वजह ही हमारी अनावश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति की चाहत है। यदि हम मन को संयमित रख विचार करें तो गलत राह हमें अपनी ओर आकर्षित नहीं करेगी। प्रायश्चित वो माध्यम है, जिससे मन में उठी पीड़ा का हल पाया जा सकता है।

महात्मा गाँधी का जीवन परिचय

महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 में गुजरात राज्य के पोरबन्दर नामक स्थान में हुआ। उनकी आरम्भिक शिक्षा गृह क्षेत्र में हुई। मोहनदास का लालन-पालन वैष्णव मत में रमे परिवार में हुआ। 

1887 में मोहनदास गाँधी ने बॉम्बे यूनिवर्सिटी से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की किंतु वकालत की शिक्षा के लिए वे विलायत गये। स्वदेश लौटकर उन्होंने वकालत शुरू की। 

सत्यनिष्ठा और राष्ट्रभक्त होने के नाते वे राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। अहिंसा को अपना अस्त्र बनाकर, सत्य के मार्ग में चलते हुए उन्होंने अंग्रेजों से अहिंसात्मक लड़ाई लड़ी। भारत को स्वतंत्र कराने में उन्होंने अपनी अहम् भूमिका निभाई। 30 जनवरी, 1948 को गोली लगने से उनका स्वर्गवास हुआ।

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