संघीय वित्त व्यवस्था क्या है?

3. संघीय वित्त व्यवस्था से क्या आशय है ? उसकी विशेषताएँ बताते हुए एकात्मक व संघीय प्रणाली में अन्तर बताइए । 

अथवा

संघीय वित्त व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ? इस वित्त व्यवस्था के निदेशक सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए ।

जब किसी शासन व्यवस्था के अन्तर्गत एक से अधिक सरकारें कार्य करती हों तब उसे संघीय शासन व्यवस्था कहते हैं । यह व्यवस्था आज अनेक देशों में प्रचलित है। इस समय भारत में भी यही व्यवस्था है।

इसी प्रकार संघीय वित्त व्यवस्था वह व्यवस्था है जो आय तथा व्यय की समस्त मदों को केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों व स्थानीय निकायों के बीच बाँट देती है। इस व्यवस्था में तीनों इकाइयों को अपने-अपने क्षेत्र में आय प्राप्त करने व व्यय करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है।

संघीय वित्त व्यवस्था के रूप —– संघीय वित्त व्यवस्था में आय एवं व्यय की सम्पूर्ण मदों को केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों एवं स्थानीय निकायों के मध्य विभाजित कर दिया जाता है। शासन व्यवस्था के अनुरूप वित्त व्यवस्था को भी निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । (1) एकात्मक वित्त, (2) संघीय वित्त ।

(1) एकात्मक वित्त इस व्यवस्था के अन्तर्गत देश की समस्त आय एवं समस्त व्यय को केन्द्रीय सरकार के कोष में लिखा जाता है।

(2) संघीय वित्त — इसके अन्तर्गत आय-व्यय की समस्त मदों को केन्द्रीय, प्रान्तीय एवं स्थानीय सरकारों के मध्य विभाजित कर दिया जाता है और विभिन्न सरकारें अपने-अपने क्षेत्रों में पूर्ण रूप से स्वतन्त्र होती हैं। इस प्रकार की वित्त व्यवस्था को संघीय वित्त व्यवस्था कहते हैं । संघीय प्रणाली की विशेषताएँ

(1) विभाजन-संघ एवं राज्य सरकारों के मध्य अधिकारों एवं कर्त्तव्यों का उचित ढंग से विभाजन कर दिया जाता है।

(2) सर्वोच्च संविधान-संघीय संविधान सर्वोच्च प्रलेख होता है और भिन्न मतों में अन्तर होने पर इनकी सहायता प्राप्त की जाती है।

( 3 ) स्वतन्त्र व्यापार – संघ की विभिन्न इकाइयों के मध्य व्यापार आवागमन की पूर्ण स्वतन्त्रता बनी रहती है।

(4) समान अधिकार –इस व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार दिये जाते हैं ।

(5) पृथक् होने के अधिकार - शासन की किसी भी इकाई को संघ से पृथक् होने के अधिकार प्राप्त नहीं हो पाते हैं।

एकात्मक व संघीय प्रणाली में अन्तर — एकात्मक व संघीय प्रणाली में प्रमुख अन्तर इस प्रकार हैं(1) स्वतन्त्रता – एकात्मक व्यवस्था में विभिन्न इकाइयाँ स्थायी रूप से स्वतन्त्र नहीं होती हैं, जबकि संघीय व्यवस्था में विभिन्न इकाइयाँ स्वतन्त्र होती हैं ।

(2) सामूहिक प्रयत्न—संघीय व्यवस्था में सामूहिक प्रयास किये जाते हैं, जबकि एकात्मक व्यवस्था में अलग-अलग प्रयास किये जाते हैं।

(3) कुशलतापूर्वक कार्य — प्रत्येक कार्य को संघ कुशलतापूर्वक सम्पन्न नहीं कर सकता,जबकि एकात्मक व्यवस्था में यह सम्भव है।

(4) राष्ट्रीय महत्व के कार्य — राष्ट्रीय महत्व के कार्यों को संघ द्वारा कुशलतापूर्वक चलाया जा सकता है, परन्तु राज्य द्वारा यह सम्भव नहीं है ।

(5) समन्वय — संघ द्वारा विभिन्न राज्यों के कार्यों में समन्वय लाया जा सकता है, परन्तु एकात्मक व्यवस्था में यह सम्भव नहीं है ।

संघीय वित्त व्यवस्था में कार्यों का वितरण–संघ सरकार तथा राज्य सरकारों के बीच कार्यों एवं अधिकारों का बँटवारा करना एक जटिल समस्या है। इस जटिलता को हल करने के लिए निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान देना चाहिए।

(1) केन्द्र व राज्यों के बीच सौहार्द्र—दोनों के कार्यों व अधिकार क्षेत्र का बँटवारा इस प्रकार किया जाना चाहिए कि दोनों के बीच कम-से-कम मनमुटाव हो ।

(2) कार्य करने की योग्यता — दोनों की कुशलता को ध्यान में रखते हुए कार्यों का बँटवारा किया जाना चाहिए । अर्थात् जो जिस कार्य को करने की योग्यता रखता हो उसे वही कार्य देना चाहिए ।

(3) समन्वय—कुछ ऐसे कार्य भी हो सकते हैं जो संघीय तथा राज्य सरकारों को साथ-साथ करने होते हैं । इसीलिए ऐसे कार्यों के सम्पादन में दोनों का उत्तरदायित्व होगा ।

संघीय वित्त व्यवस्था में साधनों का वितरण —सभी कार्य साधनों की सहायता से ही पूर्ण किये जाते हैं। किन्तु संघ व राज्यों के सामने यह समस्या आती है कि इन कार्यों का सम्पादन करने हेतु दोनों के पास कम-से-कम इतने साधन उपलब्ध हों कि आसानी से कार्यों का सम्पादन सम्भव हो सके। आय के साधनों का बँटवारा करते समय दो बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए—

(1) आय के स्रोतों के विभाजन की समस्या, (2) आय एवं व्यय के बीच समायोजन ।

(1) आय के स्रोतों के विभाजन की समस्या केन्द्र एवं राज्य सरकारों को अलग-अलग प्रकार के करों का सम्पादन करना होता है, जिसके लिए उन्हें अलग-अलग साधनों की आवश्यकता होती है, किन्तु साधन एक ही होते हैं, अत: ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि देश में उपलब्ध साधनों का प्रत्येक के लिए पृथक्-पृथक् बँटवारा कर दिया जाए । इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये हैं।

सैलिगमैन का मत है कि “चाहे किसी नीति का उद्देश्य कितना ही अच्छा क्यों न हो, यदि प्रशासन में व्यय नीति ठीक से काम नहीं करती है तो वह नीति असफल हो जाती है।” यदि संघ सरकार द्वारा लगाये गये करों से प्रशासनिक कठिनाइयाँ आती हैं, तो ऐसे करों को राज्य सरकार द्वारा लगाया जाना चाहिए। देश के आय के साधनों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है—(1) केन्द्रीय आय, (2) राज्य की आय, (3) सम्मिलित आय ।

(2) आय व व्यय में समायोजन - प्रत्येक संघीय शासन व्यवस्था में यह प्रयास किया जाता है कि संघ तथा राज्यों के मध्य साधनों का बँटवारा इस ढंग से किया जाए कि प्रत्येक इकाई को समुचित आय प्राप्त हो सके और वह अपने व्ययों की पूर्ति कर सके। अतः वित्तीय आयोगों की सहायता से संघीय सरकार ऋणी राज्यों का आर्थिक एवं सामाजिक अध्ययन करती रहती है। साधन-सम्पन्न व साधनहीन राज्यों की स्थिति को ध्यान में रखकर उनके मध्य न्यायोचित सामंजस्य स्थापित किया जाता है।

संघीय वित्त व्यवस्था के सिद्धान्त–संघीय वित्त व्यवस्था कुछ सिद्धान्तों पर आधारित है। इनमें से कुछ प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं।

(1) एकरूपता का सिद्धान्त केन्द्र सरकार द्वारा जब राज्य सरकारों को अनुदान दिये जाते हैं, उस समय एकरूपता की नीति का पालन करना चाहिए । इसी प्रकार संघ सरकार की प्रत्येक इकाई को चाहिए कि वह संघ सरकार को समानता के आधार पर अपना अपना अंशदान दे। संघ सरकार को भी करों का भार सभी राज्यों पर एकसमान डालना चाहिए और उनमें किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए।

( 2 ) स्वतन्त्रता का सिद्धान्त - संघीय राज्य की प्रत्येक इकाई अपने आन्तरिक वित्तीय मामलों में पूर्णतः स्वतन्त्र होनी चाहिए। अर्थात् प्रत्येक राज्य के पास अपने कार्यों को पूरा करने हेतु अपने-अपने साधन होने चाहिए । स्वतन्त्रता के अभाव में प्रत्येक इकाई अपने विकास के कार्यक्रमों का निर्माण करने में असमर्थ होगी। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से संघ सरकार द्वारा विभिन्न राज्य सरकारों के कार्यों में उचित समन्वय स्थापित करना चाहिए।

(3) हस्तान्तरण का सिद्धान्त — इसके अन्तर्गत धनी वर्ग से करारोपण के रूप में अधिक आय प्राप्त करके उसका हस्तान्तरण निर्धन वर्ग को कर दिया जाता है, जिससे देश में आय की असमानता को समाप्त किया जा सके। इस सम्बन्ध में केन्द्र एवं राज्यों में साधनों का आदर्श विभाजन विभिन्न राज्यों में रहने वाले व्यक्तियों में राष्ट्रीय न्यूनतम सिद्धान्त के आधार पर किया जाना चाहिए ।

 देश में अत्यधिक असमानता राष्ट्रीय सम्पन्नता में बाधक बन जाती है, अतः असमानता को दूर किया जाना चाहिए परन्तु व्यवहार में धनी वर्ग द्वारा इसका विरोध करने से इसके पालन करने में कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं ।

(4) लोच का सिद्धान्त केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय सरकारों को अपने कार्यों और आवश्यकता के अनुरूप वित्तीय स्रोत प्रदान किये जाते हैं। सरकारों के पास वित्तीय स्रोत इस प्रकार पर्याप्त एवं लोचदार होने चाहिए कि वे अपनी वर्तमान एवं भविष्य दोनों ही आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकें । प्रायः राज्य सरकारों को व्यय की मदें तो लोचूपर्ण सौंपी जाती हैं, परन्तु इनके आय के साधनों में लोच का अभाव पाया जाता है। अतः इस सिद्धान्त के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि आवश्यकता के अनुरूप ही साधनों का पुनर्वितरण किया जाये जिससे इन साधनों में पर्याप्त लोच बनी रहे ।

(5) प्रशासन की कुशलता का सिद्धान्त – वित्तीय प्रशासन ऐसा होना चाहिए कि जिसमें करदाताओं के. हित सुरक्षित रहें, कर चोरी की सम्भावना न हो, व्यापार व उद्योगों पर बुरे प्रभाव न पड़े । यह व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि राष्ट्रीय महत्व के कार्यों पर संघ सरकार द्वारा तथा प्रान्तीय महत्व के कार्यों पर राज्य सरकार द्वारा ही करारोपण किया जाना चाहिए । प्रशासन की कुशलता की दृष्टि से यह आवश्यक है कि जो कर एक राज्य में लगाये जायें उनका दूसरे राज्य के व्यक्तियों पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े ।

(6) संघीय प्रबन्ध का सिद्धान्त—संघीय राज्य में यद्यपि अर्द्ध-स्वतन्त्र राज्य होते हैं, किन्तु संघ के अन्तर्गत प्रत्येक राज्य का अपनी सीमा के भीतर स्वतन्त्र अस्तित्व होता है। उनके अपने बजट होते हैं। वे स्वयं करारोपण करते हैं, आय प्राप्त करते हैं तथा व्यय भी करते हैं। देश की एकता को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि राज्यों को लोक वित्त का पालन करना होता है। संघ सरकार जिस प्रकार की मौद्रिक नीति बनायेगी, राज्य सरकारें उन नीतियों का पालन करेंगी। सरकार की बजट नीति का देश में उत्पादन, वितरण, रोजगार आदि पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है। राज्यों की बजट नीति यदि संघ सरकार की बजट नीति से सम्बन्धित नहीं होगी तो देश की आर्थिक नीति सफल नहीं हो पायेगी। इसलिए राज्यों को संघ की सलाह पर ही चलना चाहिए।

भारत में संघीय वित्त व्यवस्था - ब्रिटिश काल में भारत में एकात्मक शासन प्रणाली विद्यमान थी । कार्य संचालन की कुशलता की दृष्टि से साधनों का विकेन्द्रीकरण करने के लिए तथा समय-समय पर की जाने वाली स्वायत्त शासन प्रणाली की माँग के सन्दर्भ में यहाँ संघीय शासन व्यवस्था तथा इस प्रकार संघीय वित्त व्यवस्था का क्रमशः विकास हुआ । 

इस प्रणाली में समय-समय पर तत्सम्बन्धी संशोधन एवं सुधार होते गए । वर्तमान समय में केन्द्र एवं राज्यों के बीच आय के स्रोतों एवं व्यय के मदों में सन्दर्भ में भारतीय संविधान में जो व्यवस्था की गयी है वह इस दिशा में किए जाने वाले दीर्घकालीन क्रमिक विकास की चरम सीमा है। इस प्रकार वर्तमान समय में भारत में एक विकसित संघीय वित्त व्यवस्था प्रचलन में है जो कि संघीय वित्त व्यवस्था के सभी सिद्धान्तों पर आधारित है।

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