पिताजी को पत्र देते हुए गांधी जी की मन स्थिति कैसी थी

'मोती की बूंदों के उस प्रेम बाण ने मुझे बेध डाला' उक्त वाक्य गाँधी जी के मुख से अपने पिताजी के प्रेमाश्रु देखकर निकला। पिता-पुत्र के रिश्ते की प्रगाढ़ता को अभिव्यक्त करता यह कथन प्रेम से सराबोर है। 

गाँधी जी ने अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने का निश्चय किया। अपनी गलतियाँ स्वीकार करने से कोई मनुष्य छोटा नहीं हो जाता है लेकिन गलतियों को छुपाने से प्रत्येक पल भय अवश्य बना रहता है कि गलती पकड़ लिए जाने पर सजा अवश्य मिलेगी।

गाँधी जी ने अपना चोरी करना स्वीकार किया। पिताजी के सम्मुख मुँह से अपनी गलती बोलने की हिम्मत नहीं बँध पाई। इसलिए पिताजी को पत्र लिखा। मौखिक रूप से नहीं तो लिखित रूप में अपनी बातों को कहा जा सकता है। 

गाँधी जी ने चिट्ठी में लिखकर अपने पिछले दिनों में किए गए अपराध को स्वीकार किया। बारहतेरह वर्ष में जूठी बीड़ी की चोरी, नौकर की जेब से पैसों की चोरी और पंद्रह वर्ष के उम्र में भाई के सोने के कड़े से एक टुकड़े की चोरी कर बेचकर कर्ज अदा किया जाना, इन सभी बातों को लिखकर अंत में पिताजी के लिए विनतीपूर्वक यह लिखा ‘मेरे इस अपराध से आप स्वयं को दोषी न मानें और दुखी न हों, मैं भविष्य में ऐसा फिर नहीं करूँगा, यह प्रतिज्ञा करता हूँ।'

पिताजी को पत्र देकर स्वयं उनके सामने बैठ गए। पत्र पढ़ते ही उनकी आँखों से मोती टपकने लगे। उनको देखकर मैं भी रोने लगा। उस पल के अश्रु जल से मैं शुद्ध बन गया। 

अश्रु में भी प्रेमानुभव होता है, इस बात को कोई अनुभवी मनुष्य ही समझ सकता है। उक्त घटना को गाँधी जी शुद्ध अहिंसा की संज्ञा देते हैं। गाँधी जी ने झूठ बोलना, द्वेष करना, किसी का बुरा चाहना, कुविचार आदि को हिंसा माना है।

 गाँधी जी ने सच को छिपा कर हिंसा की थी, अत: वे इसका प्रायश्चित करना चाहते थे।

पिताजी ने गाँधी जी को माफ कर दिया। इसकी प्रमाणिकता उनके आँखों से बहने वाले अश्रु थे। अतएव गाँधी जी ने कहा कि 'मोती की बूंदों के उस प्रेम बाण ने मुझे बेध डाला।'

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