भूपर्पटी किसे कहते हैं?

हमारी वसुन्धरा पर जो धरातलीय विषमताएँ दिखाई देती हैं, वे बहुत ही विलक्षण हैं क्योंकि जहाँ ये सामान्य रूप में स्थिर दिखाई देती हैं. वहीं इनमें थोड़े समय में ही भूकम्प एवं ज्वालामुखी की क्रिया के माध्यम से प्रलय जैसे दृश्य दिखाई देते हैं। 

भूपर्पटी किसे कहते हैं 

ऊँचे गगनचुम्बी पर्वत घिस-घिसकर अरावली एवं अप्लेशियन जैसी निचली पहाड़ियों में बदलते जाते हैं एवं उनके स्थान पर पृथ्वी के नवीन भागों में आल्पस व हिमालय जैसे महान पर्वतों की उत्पत्ति होती है। 

इस प्रकार धीमी एवं आकस्मिक गतियों के द्वारा नया निर्माण और निर्मित धरातलीय स्वरूपों का अपरदन या कटाव द्वारा समतलीकरण होता रहता है । 

सृष्टि और विनाश का यह क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है। इसके पीछे जिन शक्तियों का हाथ है वे सभी शक्तियाँ भू-संचलन के अन्तर्गत आती हैं। 

संक्षेप में,धरातल पर होने वाले परिवर्तन का कारण मुख्यतः वे शक्तियाँ हैं जिनका जन्म पृथ्वी की सतह के नीचे से है, अन्तर्जात शक्तियाँ कहलाती हैं। इसी भाँति धरातल पर जो विविध स्वरूप बने हैं उनको समतल करने वाली शक्तियों का जन्म पृथ्वी की सतह पर ही होता है 

अतः इन्हें बहिर्जात शक्तियाँ  कहते हैं। इस प्रकार धरातल पर निरन्तर होने वाले परिवर्तन का कारण अन्तर्जात एवं बहिर्जात शक्तियों का प्रभावी परिणाम है। इसे पटल विरूपण भी कहते हैं।

ऊपर के वर्णन से स्पष्ट है कि भू-संचलन या भूतल पर होने वाली गतियों का आधारभूत कारण अन्तर्जात शक्तियाँ हैं जबकि बहिर्जात शक्तियाँ तो भूतल पर समतलीकरण का काम करती हैं। अतः यहाँ अन्तर्जात शक्तियों को विस्तार से समझाया गया है ।

अन्तर्जात शक्तियाँ

इन शक्तियों की उत्पत्ति या विकास पृथ्वी के आन्तरिक भागों में होता है। 

भूगर्भ में ताप, दबाव, जलवाष्प एवं गैसों की क्रिया, संकुचन एवं चट्टानों का चटकना, रेडियोधर्मी पदार्थों से निकले ताप का विशिष्ट प्रभाव एवं उनका परिणाम सभी मिलकर पृथ्वी पर दीर्घकालिक एवं अल्पकालिक परिवर्तन लाते रहते हैं।

अन्तर्जात शक्तियाँ दो प्रकार की गतियों द्वारा विशेष प्रभाव डालती हैं। ये हैं।

(A) दीर्घकालिक या पटल विरूपण शक्तियाँ (गतियाँ) 

जिनके द्वारा बहुत लम्बे समय में धीमी गति से भूतल पर परिवर्तन होता रहता है। 

इसमें महाद्वीपीय व पर्वत निर्माणकारी शक्तियाँ, स्थानीय भूतल के ऊपर उठने (उत्थान) एवं नीचे धंसाव (निमज्जन) की घटनाएँ, लम्बवत् वलन, भ्रंश, वलन जैसी घटनाएँ मुख्यतः आती हैं। 

(B) आकस्मिक शक्तियों (गतियाँ) 

के अन्तर्गत भूतल पर अचानक या यकायक तेजी से परिवर्तन या प्रलय जैसा दृश्य घटित हो जाता है। ज्वालामुखी विस्फोट व उद्गार एवं भूकम्प ऐसी ही शक्तियाँ हैं। इनसे कुछ ही समय में अपार जन-धन हानि एवं सतह पर परिवर्तन देखे जा सकते हैं ।

दीर्घकालिक या पटल विरूपण शक्तियाँ (गतियाँ) 

पृथ्वी के आन्तरिक भागों में होने वाले निरन्तर परिवर्तन एवं विशेष शक्तियों के क्रियाशील होने से ही पृथ्वी सतह पर निरन्तर क्षैतिज एवं लम्बवत् दोनों प्रकार की गतियाँ अनेक प्रकार के स्थल रूपों का निर्माण या विकास करती रहती हैं। 

यह निर्माण बहुत धीमी गति से, किन्तु निरन्तर होता रहता है, जैसे पौराणिक सरस्वती की तली का उत्थान 3-4 हजार वर्षों में 60 से 80 मीटर तक ऊपर उठा है। 

इसी भाँति मुम्बई के निकट का । तट कुछ सदियों में (लगभग 500 वर्षों में) 20 से 25 मीटर नीचे फँसा है। संयुक्त राज्य का न्यूजर्सी राज्य का तट प्रति सौ वर्षों में 60 सेण्टीमीटर नीचे धंस रहा है, आदि। 

इसी भाँति महासागरों में द्वीपों का डूबना एवं समुद्र तल तक ऊपर उठना, आदि घटनाएँ कहीं-कहीं प्राचीन रिकार्ड के आधार पर देखी जा सकती हैं। 

पटल विरूपण या लम्बवत् गतियों के प्रभाव से ही निचल भागों में सागरों का क्षेत्रीय प्रभाव या अतिक्रमण एवं उनके पीछे हटने की घटना घटित होती है । 

पृथ्वी पर वलन या वलन एवं पर्वतों का विकास भी क्षैतिज घटना एवं लम्बवत् घटनाओं के सम्मिलित प्रभाव का ही परिणाम कहा जा सकता है। ऐसी गतियों को पुनः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

(i) महाद्वीप निर्माणकारी लम्बवत् गतियाँ, तथा 

(ii) पर्वत निर्माणकारी या क्षैतिज गतियाँ ।

(i) महाद्वीप निर्माणकारी या लम्बवत् गतियाँ 

इन गतियों के द्वारा सामान्यतः विशाल क्षेत्र में महाद्वीप नीचे धंसते व ऊपर उठते हैं। इनसे मन्द गति से धरातल ऊपर उठते हैं।

पर्वतों की ऊँचाइयाँ बढ़ती जाती हैं, किन्तु जब लम्बवत् गतियों का प्रभाव छोटे क्षेत्रों में प्रभावी होता है तो उन्हें स्थानीय गतियाँ कहते हैं। 

किसी देश के विशेष सागर तट के विशेष क्षेत्र, सागर क्षेत्र विशेष के द्वीपों में स्थानीय रूप से उत्थान या ऊपर उठने अथवा निमज्जन या नीचे धंसने की जो क्रियाएँ विश्व के सभी महाद्वीपों व सागरों में स्थान विशेष में होती हैं वे इसमें आती हैं। 

इनका प्रभाव कुछ सदियों के आलेख से ही देखा जा सकता है। महासागरों में उठे हुए चबूतरे या बैंक, भारत के पूर्वी तट के निकट का न्यूमूर जलमग्न द्वीप ऐसी ही गतियों का परिणाम है। इसी भाँति कुछ तट नीचे डूब जाते हैं ।

(ii) पर्वत निर्माणकारी या क्षैतिज गतियाँ 

शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के Oroge पर्वत एवं genesis उत्पत्ति से हुई है। इसमें मुख्यतः सतह पर तनाव या खिंचाव एवं भिंचाव या दबाव से सम्बन्धित गतियाँ एवं उनसे बनने वाली आकृतियाँ और उनकी प्रक्रिया सम्मिलित है। 

जब गति या दबाव बाहरी दिशा की ओर होता है तो उससे तनाव उत्पन्न होने से पृथ्वी पर फटन या विभंग (Fracture) पड़ जाते हैं। इसे फटन भी कहते हैं। इसी प्रकार जब गति या दबाव आमने-सामने से आकर मिलता है तो उसे भिंचाव एवं दबाव या सम्पीडन कहते हैं।

 इन गतियों से पृथ्वी की सतह पर स्पष्ट वलन या वलन, कम ढालू विशाल क्षेत्रीय वलन या संचलन का विकास होता है। सामान्यतः वलन एवं भ्रंश की क्रियाएँ किसी विशाल क्षेत्रीय क्रिया की अन्तःसम्बन्धित प्रभावकारी घटना है । 

अत: वलन वाले क्षेत्रों में भ्रंश भी पाये जाते हैं, किन्तु जब तनाव छोटे क्षेत्र में प्रभावी होता है तो वहाँ स्थानीय रूप से ही भ्रंश की घटना विकसित हो सकती है। यहाँ पर वलन एवं भ्रंश से सम्बन्धित घटनाओं को विस्तार से समझाया गया है ।

वलन या मोड़

जब किसी प्रदेश की क्षैतिज गतियों में आमने-आमने से दो स्थल खण्ड या प्लेट आपस में टकराते तो इससे सम्पीडन या भिंचाव की घटना होती है। इससे धीरे-धीरे चट्टानें उसी प्रकार मुड़ने लगती हैं जिस प्रकार कि एक साफ रूमाल या कपड़े को धीरे-धीरे वलनने पर उस पर सिलवटें पड़ जाती हैं। 

अतः सम्पीडनात्मक गतियों के प्रभाव से शैल स्तरों में निरन्तर विकसित वलन को ही वलन कहते हैं। फिंच के मतानुसार, शैल है स्तरों के इस प्रकार बहुत अधिक मुड़ जाने को ही वलन  कहा जाता हैं।

अतः स्पष्टतः वलन की घटना में कुछ भाग तेज ढालू बनकर ऊपर उठता है । इसकी आकृति या स्वरूप गुम्बदाकार या शंकु के आकार जैसी हो सकती है। 

इसके ऊपर उठे भाग को अपनति एवं उल्टे गुम्बद की भाँति नीचे फंसे भाग को अभिनति कहते हैं। ऐसी अपनति का क्षैतिज तल के सन्दर्भ में विशेष ढाल होता है। ऐसे ढाल को ही नमन या नति कहते हैं। 

ऐसे कोणीय झुकाव की दिशा व कोण को स्पष्टतः मापा जा सकता है। इसी भाँति उपर्युक्त नमन या नति से समकोण पर खींची गई रेखा को नति लम्ब रेखा कहते हैं।

नति एवं नति लम्ब रेखा की सहायता से चट्टानों की संरचना, उनका वलन, वलन की दिशा एवं भू-वैज्ञानिक संरचना एवं कालक्रम का अध्ययन सरलता से किया जा सकता है।

 वलन के प्रकार 

(i) सममित या सुडौल वलन या वलन 

(ii) असममित या बेडौल वलन

(iii) एकनत वलन

(iv) समनत वलन

(v) परिवलित वलन

 (vi) पंखाकार वलन 

(vii) जटिल पंखाकार वलन

 (viii) प्रतिवलन वलन

(ix) अवनमन वलन

 (x) खुला वलन

 (xi) बन्द वलन 

(xii) प्रीवा खण्ड

1 सममित या सुडौल वलन 

जब किसी क्षेत्र के वलन का ढाल एवं स्वरूप समरूपी हो एवं वलन की दोनों भुजाओं का झुकाव या कोण एकसमान हो तो उसे सममित वलन कहते हैं। इन वलन की भुजाएँ अक्ष रेखा पर लम्बवत् होती हैं। ऐसे वलन खुले हुए होते हैं।

2 असममित या बेडौल वलन 

जब किसी पर्वतीय भाग के वलन विषम एवं विविध प्रकार के हों अर्थात् उनकी भुजाओं की लम्बाई व झुकाव का कोण समान न हो तो उन्हें असममित अर्थात् बेडौल वलन कहते हैं।

इसमें लम्बी भुजा का ढाल धीमा एवं छोटी भुजा का ढाल तेज होता है। इस प्रकार इनकी भुजाओं के झुकाव में में स्पष्ट अन्तर बना रहता है।

3 एकनत वलन 

इससे सभी वलनों का झुकाव एक ही प्रकार से एक दिशा की ओर ही रहता है अर्थात् एक भुजा का झुकाव कम या ढाल धीमा होता है, जबकि दूसरी भुजा का झुकाव अधिक या प्रायः लम्बवत् (खड़ा) बना रहता है। एकनत वलन का निर्माण सम्पीडन गति द्वारान होकर पृथ्वी की उदय गति द्वारा होता है।

4 समनत वलन 

यदि वलन के विकास के समय दबाव आमने-सामने से अर्थात् दोनों ओर से समान रहा हो तो ऐसे में वलन की दोनों भुजाओं के झुकाव का स्वरूप एक दिशा में रहेगा अर्थात् दोनों ही भुजाएँ एक ही दिशा में झुककर प्राय: समानान्तर हो जाती हैं। इन्हें ही समनत वलन कहते है।

5 परिवलित वलन 

विशेष बहु तसम्पीडन के कारण जब दवाब एक ही दिशा में एवं तीव्र गति से रहता है, तो वलन  अधिक झुककर आगे वाले वलन पर छा जाते हैं। इससे वलन की भुजा धरातल से प्रायः समानान्तर या क्षेतिज दिशा में झुकी नजर आती है। ऐसे वलन को परिवलित (बहुत अधिक झुकाव वाला वलन) कहते हैं। ऐसी स्थिति विशेष दशा में विकसित हो पाती है

6 पंखाकार वलन 

जब बहुत ही तीव्र सम्पीडन लम्बे समय तक चलता रहे एवं ऐसे में संकुचित हुए वलन एक साथ मेहराव की भाँति ऊपर उठ जाएँ तो इससे पंखाकार वलन का विकास होता है। 

इसमें वलन अधिक संकुचित होने से चटक सकते हैं या उनमें भ्रंश भी पड़ सकते हैं। इस प्रकार पंखाकार वलन विशेष वलनों का मेहराबदार मिश्रित ऐसा स्वरूप है जहाँ वलन एवं भ्रंश दोनों क्रियाएँ साथ-साथ होती हैं।

(vii) जटिल पंखाकार वलन

ये दोहरे पंखाकार वलन कहे जा सकते हैं। इनमें वलन का उभार वाला भाग ऊपर वर्णित पंखाकार वलन या मेहराबदार वलन जैसा होता है । इसे समअपनति कहते हैं ।

वलन का विकास जब अभिनति वाले भाग में या उल्टे मेहराबों की भाँति हो एवं उसमें छोटे-छोटे वलन (अपनतियाँ व अभिनतियाँ) बने हों तो उसे सम-अभिनति  कहते हैं। ऐसी रचना अपवाद स्वरूप ही विकसित हो पाती है।

(viii) प्रतिवलन वलन 

जब वलन के विकास के समय सम्पीडन का दबाव इतना अधिक रहता है कि वलन झुकने के पश्चात् भी सम्पीडन को सह नहीं पाते । इससे वलन की एक भुजा भ्रंशित होकर (टूटकर) क्षैतिज भुजा पर उलटकर छा जाती है। इस प्रकार शैलों के क्रम में परिवर्तन हो जाने को उत्क्रम कहते हैं। इस प्रकार इसमें वलन व भ्रंश दोनों ही प्रभावी होते हैं। इसमें भुजाएँ भ्रंश तल से अलग हो जाती हैं। ऐसे वलन को ही प्रतिवलन कहते हैं।

(ix) अवनमन वलन 

ऐसे वलन विषम परिस्थितियों में ही विकसित हो पाते हैं क्योंकि इसमें वलन की अक्ष क्षैतिज तल के समानान्तर नहीं होती। ऐसे वलन क्षैतिज तल से कोण अवश्य बनाते हैं। इसीलिए इसे अवनमन वलन कहते हैं।

(x) खुले वलन 

जब वलन बनते समय दोनों भुजाओं के वलन के बीच का अभिनति तल पर कोण 90° से अधिक एवं 180° से कम हो तो उसे खुला वलन कहते हैं। प्रायः सुडौल या सममित वलन ऐसे ही होते हैं।

(xi) बन्द वलन 

वलन के, विकास के समय जब सम्पीडन अधिक होने से वलन अधिक पास-पास बनते हैं एवं भुजाओं का ढाल भी तीव्र रहता है । ऐसी स्थिति में वलनों के बीच की भुजाओं का कोण 90° से कम या न्यूनकोण का होता है। इसे ही बन्द वलन कहते हैं।

(xii) ग्रीवा खण्ड 

इसे नापे या ग्रीवा खण्ड भी कहते हैं। फ्रांसीसी भाषा में नापे का अर्थ 'मेजपोश' है। जिस प्रकार मेजपोश मेज पर बिछे होने के बाद भी उससे अलग रहता है उसी प्रकार ग्रीवा खण्ड (नापे) की शैलें अपने नीचे की शैल से अलग रहती हैं। 

इसका विकास अत्यधिक सम्पीडन के साथ-साथ विशेष भ्रंश की सम्मिलित क्रिया से होता है। परिवलन में वलन की भुजाएँ क्षैतिज होकर प्रायः समानान्तर हो जाती हैं । 

प्रतिवलन में सीमित भ्रंश से वलन एक-दूसरे पर छा जाते हैं, किन्तु इसमें वलन की चट्टानें विपरीत दिशा में परिवलित वलन से भी आगे खिसककर दूसरे खण्ड पर फैल जाती हैं। इस प्रकार यह अवस्था प्रतिवलन की ही अगली अवस्था है। 

इसमें भ्रंश के प्रभाव से चट्टानें खिसकने से ग्रीवा खण्ड की चट्टानों की संरचना अपने नीचे की चट्टानों से पूर्णतः भिन्न होती है, क्योंकि इसमें ऊपरी चट्टानें कई किलोमीटर दूर तक आगे बढ़ जाती हैं। 

संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी कार्डिलेरा पर्वत, स्विस आल्पस एवं मध्यवर्ती महाहिमालय में ऐसे ग्रीवा खण्डों के अनेक उदाहरण पाये जाते हैं।

विभंग एवं भ्रंश 
विभंग

जब पृथ्वी की सतह पर तनाव के कारण क्षैतिज भू-संचलन होता है तो उससे पृथ्वी की सतह चटकने लगती है। इससे बिना स्थान परिवर्तन के ऊपरी तल पर दरारें भी पड़ सकती हैं। इसका प्रभाव केवल ऊपरी सतह तक ही रहता है। 

जब तनाव अधिक बढ़ने लगता है तो चट्टाने निश्चित तल के सहारे टूटने लगती हैं। यदि ऐसी चट्टानें अपना स्थान नहीं बदलें तो वहाँ सन्धियाँ  पड़ जाती हैं। जिस तल के सहारे ऐसी चट्टानें टूटती हैं उसे विभंग या विभंग तल कहते हैं। 

चट्टानों में खनिजों की बनावट एवं संरचना की एकरूपता एवं विविधता के आधार पर ही विभंग तल का स्वरूप बनता-बदलता है। 

इसी कारण चूने का पत्थर, ग्रेनाइट, संगमरमर जैसे पत्थरों के विभंग सरल होंगे एवं वहाँ सन्धियाँ लम्बी व समकोण पर होंगी,जबकि बलुआ पत्थर, गेबो, कोंग्लोमरेट, पेग्मेटाइट जैसी चट्टानों की सन्धियाँ विविध आकृति वाली शंकाभ या अन्य आकार की होंगी। 

इनका विभंग तल इसी कारण जटिल बना रहेगा। इस प्रकार संक्षेप में जब तनाव द्वारा भूतल पर चट्टानों पर प्रभाव तो पड़े, किन्तु उससे चट्टानों का स्थान परिवर्तन न हो अर्थात् भू-संचलन न होता है तो उसे विभंग कहते हैं,

किन्तु जब विभंग तल के सहारे चट्टानों में स्थान परिवर्तन होने लगता है और विभंग एवं चटक या दरार का प्रभाव गहराई तक होता है तब उस क्रिया को भ्रंश या ग्रंशन कहते हैं। 

जब चट्टान में तनाव वृद्धि के कारण फटन के साथ-साथ स्थान परिवर्तन भी होने लगता है अथवा जब तनाव एवं सम्पीडन की तीव्रता के कारण चट्टानें टूटकर दूर तक खिसकती हैं या उनमें विस्थापन होता है तो उसे भ्रंश कहते हैं। 

होम्स के अनुसार, “भ्रंश वह विभंजित धरातल जिसके विरुद्ध चट्टानें आपेक्षिक रूप से ऊपर-नीचे हो गई हैं।” जिस सतह या तल के सहारे भ्रंश होता है

उसे अंश तल या विधेग तल कहते हैं। भ्रंश तल किसी भी दिशा में एवं किसी भी कोण पर हो सकता है।अंश नति या अंश नमन प्रभावित भूतल के क्षैतिज एवं भ्रंश के बीच के कोण को कहते है।सम्बन्धित निम्न शब्दावली का ज्ञान भी भ्रंश को समझने के लिए आवश्यक है 

 1 उत्क्षेपित या ऊपरी खण्ड 

भ्रंश तल से ऊपर की ओर के उठे भाग को उत्क्षेपित खण्ड कहते हैं।

2 अधः क्षेपित या निचला खण्ड 

भ्रंश तल से नीचे की ओर के भाग को निचला या अधः क्षेपित खण्ड कहते हैं।

3 पाद भित्ति या निचली दीवार 

भ्रंश की ऊपरी दीवार को शीर्ष भित्ति एवं अवलेपित या निचले खण्ड से निचली दीवार को पाद भित्ति या निचली दीवार कहते हैं।

 (iv) अंश कगार

भ्रंश के जिस खण्ड में भृगु जैसा या तेज ढालू भाग पाया जाय तो उस खड़े ढाल वाले भाग को यहाँ भ्रंश कगार कहते हैं। वैसे कंगार अपरदन क्रिया से भी कहीं भी बन सकता है।

भ्रंश के प्रकार

भ्रंश मुख्यतः भ्रंश तल की विविधता एवं वहाँ बनी आकृति के अनुसार विशेष नाम से पुकारा जाता है। मुख्य प्रकार के भ्रंश निम्नांकित हैं।


(i) सरल या सामान्य भ्रंश 

किसी क्षेत्र की चट्टान जब भ्रंश तल के सहारे विपरीत दिशा में खिसकती है अथवा एक सामान्य भाग भ्रंश तल के सहारे खिसकता है तो उसे सामान्य भ्रंश कहते हैं।

इसमें भ्रंश तल का नमन या तो कगार जैसा या तेज ढालों वाला होता है । ऊपरी भाग को भ्रंश कगार  कहते हैं। इसकी ऊँचाई सैकड़ों मीटर तक हो सकती है।

(ii) विपरीत या व्युत्क्रम भ्रंश  

इसे उत्क्रम या क्षैतिजिक भ्रंश भी कहते हैं। इसमें सम्पीडन की क्रिया विशेष महत्वपूर्ण रहती है।

इस क्रिया में चट्टान में दरार पड़ने के पश्चात् दोनों चट्टानी भाग या दोनों खण्ड आमने-सामने खिसकते हुए एक-दूसरे की ओर बढ़ते हैं। इसमें इस प्रकार चट्टान का एक भाग दूसरे पर छाया हुआ दिखाई देता है।

इसमें भ्रंश कगार वास्तव में लटकती दीवार की भाँति दिखाई देती है। सम्पीडन शक्ति की मुख्य भूमिका होने के कारण इन्हें सम्पीडन भ्रंश भी कहते हैं।

(iii) समानान्तर या सोपानी भ्रंश 

जब भिंचाव के अतिरिक्त तीव्र सम्पीडन की क्रिया बार-बार प्रभावी हो तो सम्पीडन की अधिकता से वहाँ थोड़ी-थोड़ी दूरी पर समानान्तर भ्रंश तल पर दरारें पड़ेंगी। 

ऐसे स्थान पर सीढ़ीनुमा अंशों का विकास होगा। ऐसे भ्रंश की क्रिया अपवादस्वरूप ही होती है। इसमें कगार बहुत छोटे-छोटे होते हैं, क्योंकि भ्रंश तल के मध्य दूरी कम रहती है। पर्वत निर्माण की जटिलता बढ़ने पर ऐसे भ्रंश का विकास हो सकता है।

(iv) नमन या नति ग्रंश 

जब किसी भ्रंश की क्रिया के समय चट्टानें नमन की दिशा में अर्थात् क्षैतिज तल के सहारे कुछ डिग्री का कोण बनाकर ही खिसकें तो उसे नमन भ्रंश कहते हैं। ऐसे भ्रंश कायान्तरित या परतदार चट्टानों में अधिक विकसित होते हैं।

(v) नतिलम्ब भ्रंश या अनुदैर्ध्य अंश 

इसमें भ्रंश तल के सहारे क्षैतिज दिशा में ही चट्टानें खिसकती या सरकती हैं। अतः इसमें कगार या तो पाये ही नहीं जाते या नाममात्र के मिलते हैं। अत: ऐसे भ्रंशों के विकास में पृथ्वी की सतह की चट्टानें काफी गहराई तक एक-दूसरे से रगड़ खाती हुई किनारों या भ्रंश तल पर खिसकती हैं। अतः यह भ्रंश की एक विशेष स्थिति भी है।

(vi) तिर्यक या तिरछे अंश

ऐसे भ्रंशों का विकास भूकम्प एवं ज्वालामुखी प्रभावित क्षेत्रों में अधिक होता है। इसमें लम्बवत् एवं क्षैतिज दोनों प्रकार से चट्टानों में भ्रंश तल के सहारे खिसकाव हो सकता है।

इसमें भ्रंश तल तिरछा या वक्राकार या विषम रचना वाला रहता है। पर्वतीय घाटियों में भी चट्टानें खिसकने से भ्रंश तल पर इससे अधिक्षेप भ्रंश बन सकते हैं।

(vii) अधिक्षेप अंश एवं ग्रीवा खण्ड 

जब सम्पीडन का दबाव बहुत अधिक बढ़ जाता है तो चट्टानों का एक खण्ड एक ओर से आगे बढ़कर भ्रंश तल को आगे उछालकर आगे की ओर के चट्टानी भाग पर चढ़ जाता है तो ऐसे भ्रंश का विकास होता है। इसी की अगली अवस्था ग्रीवा खण्ड का विकास है।

भ्रंश से बनी स्थलाकृतियाँ

भ्रंश से मुख्यतः ब्लाक या भ्रंशोत्य पर्वत, दरार घाटी एवं विशेष दशा में भ्रंश कगार का विकास ) होता है।

(i) ब्लॉक या अंशोत्थ पर्वत

इसे जर्मन भाषा में हॉर्ट भी कहते हैं। जब भ्रंश की क्रिया द्वारा या तो दो दरारों के मध्य का भाग ऊपर उठ जाय अथवा मध्य का भाग स्थिर रहे एवं भ्रंश तल के सहारे दोनों ओर की चट्टानें नीचे की ओर खिसक जायें तो ब्लॉक पर्वत बनता है। 

इस प्रकार के पर्वत के दो ओर तेज ढाल एवं ऊपरी तल समतलप्रायः होते हैं। यूरोप में बॉस्जेज, ब्लेक फोरेस्ट एवं हॉर्ट ब्लॉक इसके विशेष उदाहरण हैं।

भ्रंश या दरार घाटी

भ्रंश या दरार घाटी के निर्माण में दो समानान्तर भ्रंश प्रायः काफी दूरी तक विकसित होते हैं। इनके बीच का भाग नीचे धंस जाता है। इसी नीचे धंसे भाग को भ्रंश घाटी या दरार घाटी कहते हैं। इसे ग्राबेन भी कहा जाता है ।

सर्वप्रथम प्रेगरी नामक भूगोलविद् ने पूर्वी अफ्रीका की महान दरार घाटी को देखने के पश्चात् दरार घाटी या रिफ्र घाटी शब्द का प्रयोग किया था। 

अधिकांशत: ये घाटियाँ अधिक लम्बी, संकरी एवं पर्याप्त गहरी होती हैं । विश्व की सबसे लम्बी एवं आश्चर्यजनक दरार घाटी इजराइल व जोर्डन से प्रारम्भ होकर लाल सागर होकर पूर्वी अफ्रीका के ऊँचे पठारी भाग की पश्चिमी सीमा पर जाम्बिया तक लगभग 4,500 किलोमीटर लम्बाई में फैली हुई है। 

इसमें अनेक झीलें एवं लाल सागर फैला है। इसी भाँति राइन नदी की घाटी भी दूसरी प्रसिद्ध भ्रंश घाटी है। यह घाटी 32 किलोमीटर चौड़ी एवं 320 किलोमीटर लम्बी है। ग्राबेन भ्रंश घाटी का छोटा रूप होता है। भ्रंश घाटी एवं ग्राबेन महासागरों की गहरी तली में भी खाइयों के रूप में या गहरे गर्त के नाम के फैले हैं। 

भ्रंश कगार

भ्रंश कगारों का निर्माण विशेष दशा में ऊँचे धरातल में एक ओर भ्रंश एवं साव के कारण होता है। भारत के पश्चिमी घाट के किनारे का खड़ा ढाल वाला भाग भ्रंश कगार का ही हिस्सा है।

क्योंकि करोड़ों वर्ष पहले दक्षिण का पठार अधिक चौड़ाई में दूर पश्चिम तक फैला था, किन्तु महाद्वीपीय विस्थापन के समय पश्चिमवर्ती भाग एक विशाल दरार एवं भ्रंश तल के सहारे टूट गया। इसी कारण पश्चिमी घाट के समुद्र की ओर के खडे ढालों को भ्रंश कगार भी कहते हैं।

 बहिर्जात शक्तियाँ

जहाँ पूर्व वर्णित अन्तर्जात शक्तियाँ भूतल पर वलन (वलन), भ्रंश, एवं घुसाव, आदि घटनाओं के द्वारा असमानताएँ एवं विषमताओं का विकास करती रही हैं। 

उसी के साथ- भूतल पर ही बहिर्जात शक्तियाँ विविध प्रकार से अपरदन  एवं जमाव या निक्षेपण  द्वारा ऊपर उठे हुए एवं ऊबड़- भागों का समतलीकरण करती रही हैं। इस प्रकार इन दोनों ही शक्तियों का कार्य एक- से पूर्णतः विपरीत होते हुए भी एक-दूसरे का पूरक एवं समन्वयकारी है,। 

क्योंकि दोनों ही शक्तियाँ समय- पर पृथ्वी की सतह पर होने वाली असन्तुलन की स्थिति को भू-सन्तुलन की आदर्श स्थिति के निकट या उसके क्षेत्र विशेष को लाने का प्रयास करती हैं, किन्तु पृथ्वी के कुछ कमजोर एवं असन्तुलित भाग ही भूतल के एक भाग पर परिवर्तन लाते रहते हैं। वहाँ अन्तर्जात शक्तियाँ निरन्तर विषमताएँ पैदा कर हैं। 

अतः ऐसे भागों में एवं अन्यत्र बहिर्जात शक्तियाँ अपने कारकों या अभिकर्ताओं के माध्यम ऐसी विषमताओं का पुनः समतलीकरण करती रहती हैं। इनके ऐसे सभी कार्य अनाच्छादन के नाम से पुकारे जाते हैं। 

इसी कारण बहिर्जात शक्तियों को समतल स्थापक शक्तियाँ  भी कहते हैं । 

अतः “समतल स्थापक शक्तियाँ भूतल की विविधताओं एवं धरातलीय असमानताओं को न्यूनतम कर भूतल को समतलप्राय: करने का प्रयास करती रहती हैं।

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