चट्टान किसे कहते हैं
पृथ्वी सतह का निर्माण करने वाली रचना सामग्री को चट्टान कहा जाता है
सामान्यतः चट्टान शब्द का प्रयोग किसी कठोर वस्तु के लिए किया जाता हैं। किन्तु
भूगोल विषय में इसका प्रयोग बालू कंकड़ मिट्टी तथा ग्रेनाइट आदि सभी के लिए किया
जाता है।
आर्थर होम्स के अनुसार, “अधिकांश चट्टानें खनिजों का ही मिश्रित अंश होती हैं अतः
उनमें कई खनिजों का पाया जाना स्वाभाविक होता है। इन खनिजों में रासायनिक तत्वों
का योग रहता है। प्रत्येक चट्टान में एक से अधिक खनिजों का सम्मिश्रण पाया जाता
है ।"
वॉरसेस्टर के अनुसार, सभी चट्टानों में दो या अधिक खनिज होते हैं अर्थात चट्टानें
चट्टान निर्मित करने वाले खनिजों का मिश्रण होती हैं।
प्रसिद्ध विद्वान लोबक के अनुसार, “चट्टान अपने वातावरण का प्रतिफल होती है। जब
वातावरण बदलता है, तो चट्टान भी बदलती है ।" प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता नूफ के
अनुसार, "चट्टान वह पदार्थ है जिससे पृथ्वी का बाह्य आवरण निर्मित हुआ है।"
होम्स का मानना है कि चट्टानों का निर्माण विभिन्न खनिजों के योग से हुआ है।
पृथ्वी में अनेक खनिजों का पाया जाना स्वाभाविक है किन्तु निम्न दस
खनिजो-सिलिका, एल्युमिना, चूना, आयरन ऑक्साइड, सोडा, आयरन ऑक्साइड-हेमेटाइट,
मैग्नीशिया, पोटेशियम, पोटाश, पानी एवं रिटेनिया आदि का विशेष योगदान होता
है।
चट्टानों की रचना में सहयोग करने वाले रासायनिक तत्व भी अनेक हैं किन्तु उनमें
अम्ल, ऑक्सीजन, सिलिका, एल्यूमिनियम, लोहा, कैल्सियम, सोडियम पोटेशियम तथा
मैग्नीशियम शैल खनिजों का लगभग 98.59% भाग है।
चट्टानों को परिभाषित करते हुए आर. एस. पवार लिखते हैं “चट्टाने खनिजों का
प्राकृतिक मिश्रण हैं जिससे भूपटल की संरचनात्मक इकाई का निर्माण होता है
।”
चट्टानों का वर्गीकरण
चट्टानों का निर्माण खनिजों के मिश्रण से होता है। इनके रंग-रूप में अन्तर
खनिजों को भिन्नता के कारण ही होता है । खनिजों की संख्या के आधार पर इनके कई
भाग हैं। उत्पत्ति एवं निर्माण विधि के आधार पर इनके निम्नलिखित तीन प्रकार
हैं।
(1) आग्नेय चट्टानें
(2) परतदार चट्टानें
(3) कायान्तरित चट्टानें
(1) आग्नेय चट्टानें
आग्नेय' शब्द लैटिन भाषा के इग्निस शल्द से सम्बन्धित है जिसका अर्थ 'अग्नि'
होता है । पृथ्वी के भीतरी भागों से आन्तरिक क्रिया जब पिघला हुआ पदार्थ
ठोस रूप धारण करता है तो द्वारा पृथ्वी के ऊपरी परत या ऊपरी धरातल पर आग्नेय
चट्टानें बनती हैं।
पृथ्वी के भीतरी भाग में मध्यवर्ती गहराइयों में बहुत उच्च तापमान एवं दबाव के
मध्य जो पदार्थ अर्ध द्रव अवस्था में एकत्रित है उसे मैग्मा कहते हैं।
जब यह मैग्मा ज्वालामुखी के मुख से बाहर आता है तो उससे गैसें निकल जाती हैं,
अतः शेष द्रव पदार्थ लावा कहलाता है। मैग्मा और लावा के ठण्डे होने पर आग्नेय
चट्टाने बनती हैं।
वॉरसेस्टर महोदय के अनुसार, 'आग्नेय चट्टानें पिघले पदार्थों के ठोस होने की
क्रिया से बनती हैं।”
यद्यपि आग्नेय चट्टानें धरातल पर सबसे पहले बनी हैं, तथापि ज्वालामुखी की
क्रिया द्वारा इनका निर्माण-क्रम अभी भी जारी है। इनमें से कुछ चट्टानें बहुत
ही प्राचीन और कुछ नवीन हैं।
आग्नेय चट्टानों के प्रकार
आग्नेय चट्टानों का निर्माण विभिन्न परिस्थितियों में मैग्मा एवं लावा के ठण्डा
होने से होता है। अतः चट्टानों की स्थिति तथा संरचना के आधार पर आग्नेय
चट्टानों के निम्नलिखित भेद हैं :
(1) अन्तर्वेधी आग्नेय चट्टानें
(2) बहिर्वेधी आग्नेय चट्टानें
(1) अन्तर्वेधी आग्नेय चट्टानें
पृथ्वी के आन्तरिक भाग से निकला हुआ मैग्मा एवं लावा जब भूगर्भ की दरारों में
ही ठण्डा होकर जमा हो जाता है तो उसे अन्तर्वेधी आग्नेय चट्टान कहा जाता है,
जैसे ग्रेनाइट, स्फटिक एवं फेल्सपार आदि । मैग्मा के धीरे-धीरे जमा होने के
आधार पर अन्तर्वेधी आग्नेय चट्टानों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जाता है।
(अ) पातालीय आग्नेय चट्टानें
पृथ्वी की अत्यधिक गहराई में जमने वाला मैग्मा ठोस होकर जिस चट्टान को जन्म
देता है, वह पातालीय चट्टान है। अधिक गहराई में मैग्मा के धीरे-धीरे जमा होने
के कारण यहाँ कणों के आकार बड़े होते हैं।
पृथ्वी के आन्तरिक भाग में बनने वाली इन चट्टानों में विभिन्न रूप होते हैं। ये
चट्टानें ग्रेनाइट की बनी होती हैं जो ज्यादातर पठारी भागों में पायी जाती हैं।
भारत में ये चट्टानें राँची के पठार, सिंहभूम एवं राजस्थान में पायी जाती हैं ।
(ब) मध्यवर्ती आग्नेय चट्टानें
भूगर्भ से निकलने वाला मैग्मा जब धरातल पर न आकर भूगर्भ को सन्धियों में जमा
होकर ठोस हो जाता है तो वे मध्यवर्ती चट्टानें कहलाती हैं।
पातालीय चट्टानें तुलना में इनके जमा होने में समय कम लगता है अतः इनमें पाए
जाने वाले रवे मोटे होते हैं । इनके प्रमुख रूप लैकोलिथ, लैपोलिथ, फैकोलिथ,
डाइक तथा सिल आदि हैं।
(2) बहिर्वेधी आग्नेय चट्टानें
भूगर्भ से निकला मैग्मा जब किन्हीं कारणों से अन्दर जमा न होकर पृथ्वी सतह पर
लावा के रूप में ठोस होकर जमा हो जाता है तो उसे बहिर्वेधी आग्नेय चट्टानें
कहा जाता है।
ज्वालामुखी उद्गार के समय निकलने वाले पदार्थ लैपिली, ज्वालामुखी बम्ब तथा
ज्वालामुखी राख आदि हैं। ये पदार्थ शीघ्र ही धरातल पर जमा हो जाते हैं अतः
इनमें रवे नहीं पाए जाते हैं। इनका निक्षेपण अधिकतर महासागरीय ज्वालामुखियों
एवं द्वीपों पर पाया जाता है।
बेसाल्ट इनका उत्तम उदाहरण है । इन चट्टानों में क्षार की मात्रा कम तथा
लोहा, चूना एवं मैग्नीशियम की मात्रा अधिक पायी जाती है।
(अ) रासायनिक संरचना के आधार पर
रासायनिक संरचना की दृष्टि से आग्नेय चट्टानों के दो भेद हैं
(1) अम्ल आग्नेय चट्टानें (2) पैठिक आग्नेय चट्टानें
(1) अम्ल आग्नेय चट्टानें
अम्ल आग्नेय चट्टानें वे हैं जिनमें सिलिका की मात्रा 80% से अधिक पायी जाती
है तथा अन्य खनिज 20% से कम। इन चट्टानों पर ऋतु अपक्षय का प्रभाव बहुत कम
होता है।
इसमें लोहा, मैग्नीशियम एवं सोडियम की कमी पायी जाती है अतः इनका रंग फीका
होता है। ऋतु अपक्षय का प्रभाव कम होने के कारण इसका उपयोग इमारतों के
निर्माण में किया जाता है। ग्रेनाइट इसका उत्तम उदाहरण है।
(2) पैठिक आग्नेय चट्टानें
इन चट्टानों में सिलिका का अंश 95% से 55% के मध्य पाया जाता है।
एल्युमिनियम, चूना, सोडियम, मैग्नीशियम तथा पोटेशियम जैसे अन्य ऑक्साइड
सम्मिलित होते हैं। ये चट्टानें गहरे रंग की तथा भारी होती हैं। इनमें सिलिका
की कमी होती है अतः देर में जमती है। इससे इनके द्वारा अधिकतर पठारों का
निर्माण होता है । बेसाल्ट इसका उत्तम उदाहरण है ।
(ब) कणों की बनावट के आधार पर
कणों की बनावट के आधार पर आग्नेय चट्टानें निम्न हैं :
(1) फेनेरिटिक आग्नेय चट्टाने
ये बड़े कणों वाली आग्नेय चट्टाने हैं। इनमें पाए जाने वाले कणों को बिना
किसी यन्त्र की सहायता से देखा जा सकता है। इनमें कणों का आकार प्रायः
सूक्ष्म से 1'' तक होता है। पातालीय आग्नेय चट्टाने फेनेरिटिक आग्नेय
चट्टानें हैं। इनमें ग्रेनाइट तथा डायोराइट प्रमुख हैं।
(2) पेगमेटिटिक आग्नेय चट्टानें
ये बहुत बड़े कणों वाली आग्नेय चट्टानें हैं। वॉरसेस्टर ने इनमें फेल्सपार
तथा क्वार्ट्स की अधिकता वाली ग्रेनाइट समूह की चट्टानों को सम्मिलित किया
है।
पेगमेटिटिक साइनाइट, पेगमेटिटिक डायोराइट तथा पेगमेटिटिक ग्रेनाइट इसके
उदाहरण हैं।
(3) एफेनिटिक आग्नेय चट्टानें
ये बारीक कणों वाली आग्नेय चट्टानें हैं। इनमें पाए जाने वाले कण इतने छोटे
होते हैं कि उन्हें बिना किसी यन्त्र के नहीं देखा जा सकता है। डाइक, सिल,
स्टॉक आदि इसके उदाहरण हैं।
(4) ग्लासी अथवा कणविहीन आग्नेय चट्टानें
प्रायः इन चट्टानों में कणों का अभाव पाया जाता है किन्तु कभी-कभी
इनमें कण भी पाए जाते हैं। आब्सीडियन, पिचस्टोन, प्यूमिस तथा सीट इसके
उदाहरण हैं
(5) पोरफाइरिटिक आग्नेय चट्टानें
ये मिश्रित कणों वाली चट्टानें हैं। इनमें बड़े तथा सूक्ष्म एवं ग्लासी
चट्टानें साथ-साथ पायी जाती हैं।
(6) फ्रेगमेण्टल आग्नेय चट्टानें
चट्टानों का यह प्रकार ज्वालामुखी के केन्द्रीय उद्गार से सम्बन्धित है।
इसमें ब्रेसिया बम, प्यूमिस, लैपिली आदि सम्मिलित हैं।
आग्नेय चट्टानों की विशेषताएँ
(1) इन चट्टानों का सम्बन्ध प्रायः ज्वालामुखी क्रिया से होता है अतः इनका
वितरण मुख्यतः ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाया जाता है।
(2) आग्नेय चट्टानों में कण गोल नहीं होते । ये भिन्न-भिन्न रूप तथा भिन्न
प्रकार के स्फटिकों से बनी होती हैं। चट्टानों के टूटकर घिसने से ही कण गोल
बनते हैं।
(3) इन चट्टानों में परतें नहीं होतीं। ये पूर्णतया सघन होती हैं किन्तु
इनमें वर्गाकार सन्धियाँ होती हैं। ये सन्धियाँ ही चट्टानों के निर्बल स्थल
होती हैं; जहाँ ऋतु-अपक्षय का प्रभाव होता है।
(4) ये चट्टानें कठोर तथा आरन्ध्र होती हैं, अतः जल कठिनाई से सन्धियों के
सहारे इनमें पहुँच पाता है परन्तु यान्त्रिक अथवा भौतिक अपक्षय का प्रभाव
इन पर पड़ता है अतः विखण्डन के फलस्वरूप इनके टुकड़े हो जाते हैं ।
(5) इन चट्टानों में किसी प्रकार के जीवाश्म नहीं पाये जाते क्योंकि इनका
निर्माण गर्म और तरल मैग्मा के ठण्डे होने से होता है होती है अतः अत्यधिक
गर्मी के कारण जीवांश यदि हों भी तो नष्ट हो जाते हैं।
(6) इन चट्टानों में बहुमूल्य खनिज पदार्थ पाये जाते हैं एवं उनके चूर्ण से
बनी लावा मिट्टी बड़ी उपजाऊ होती है।
1. आग्नेय चट्टानों के क्षेत्र
विश्व में प्राचीनतम आग्नेय चट्टानों की आयु लगभग 15 अरब वर्ष आँकी गयी है।
इस प्रकार की चट्टानें प्रायद्वीपीय भारत में अधिक पायी जाती हैं।
राजस्थान का अरावली पर्वत, छोटा नागपुर की गुम्बदनुमा पहाड़ियाँ, राजमहल की
श्रेणी और राँची का पठार इस प्रकार की चट्टानों के बने हैं । अजन्ता की
गुफाएँ इन्हीं को काटकर बनायी गयी हैं।
आग्नेय चट्टानों का आर्थिक उपयोग
आग्नेय चट्टानों होती में विभिन्न प्रकार के खनिज पाये जाते हैं। अधिकांश
खनिज इसी प्रकार की चट्टानों में पाये जाते हैं। लौह,
अयस्क, हीरा, सोना, चाँदी, सीसा, जस्ता, ताँबा, मैंगनीज आदि महत्वपूर्ण
खनिज आग्नेय चट्टानों में पाये जाते हैं। प्रमुख आग्नेय चट्टानें
निम्नलिखित हैं।
(1) ग्रेनाइट
प्रेनाइट चट्टान सतह के नीचे गहराई में होती है। इसमें सिलिका की मात्रा
अधिक होती है, अतः इसे अम्ल चट्टान भी कहा जाता है । इसकी स्थिति अधिक
गहराई में होने के कारण इसे पातालीय चट्टान भी कहा जाता है ।
यह खुरदरे एवं बड़े कणों वाली आग्नेय चट्टान है। इनका निर्माण गहराई में
होता है अतः लावा धीरे-धीरे जमा होता है इसीलिए दनके कणों की बनावट ठीक
प्रकार से होती है।
ये आग्नेय शैलों के उदाहरण चट्टानें गहराई में पायी जाने वाली सबसे
प्राचीन चट्टानें हैं किन्तु पिघला हुआ मैग्मा पूर्व स्थित चट्टान में
घुसकर जमा हो जाता है।
इस चट्टान में पाए जाने वाले मुख्य खनिज फेल्सपार 52.3%, क्वार्ट्स
31.3%, अभ्रक 11.5%, हार्नब्लेण्ड 2.4%, लौह खनिज 2.0% तथा अन्य ग्रेनाइट
बैसाल्ट डोलोमाइट आबसीडियम 0.51% हैं।
सामान्य तौर पर इसका रंग हल्का होता है किन्तु आर्थोक्लेज की मात्रा
चित्र 12.5 की अधिकता के कारण इसका रंग गुलाबी तथा हार्नब्लेण्ड एवं
बायोराइट की अधिकता के कारण काला हो जाता है।
ग्रेनाइट का सर्वाधिक उपयोग भवन निर्माण में होता है। यह चट्टान भारत में
आन्ध्रप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा तमिलनाडु में
पायी जाती हैं।
(2) बेसाल्ट
इसका निर्माण ज्वालामुखी क्रिया से होता है। यह बाह्य आग्नेय चट्टान है।
है। जब लावा धरातल पर ठण्डा होकर जमा होने लगता है तो वह बेसाल्ट चट्टान
को जन्म देता है।
लावा बाहर शीघ्रता से जमा हो जाता है अतः कणों का आकार अत्यन्त छोटा पाया
जाता है अथवा नहीं पाया जाता है। इसमें पाए जाने वाले कण बहुत चमकीले
होते हैं। यह ग्रेनाइट की तुलना में मुलायम होती है।
यह अधिक गहरे रंग में पायी जाती है। कुछ बेसाल्ट हरे व नीले रंग की भी
होती है । नीले बेसाल्ट को ट्रेप भी कहा जाता है । इसमें फेल्सपार
सर्वाधिक मात्रा में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त अगाइट, ऑलविन, खनिज लौह
तथा अन्य खनिज पाए जाते हैं।
इस चट्टान का उपयोग इमारती पत्थर के रूप में होता है। इसका उपयोग बाँध,
पुल, राजमार्ग आदि बनाने में किया जाता है। इसका सर्वाधिक विस्तार भारत
के दक्षिणी भाग में पाया जाता है।
(3) ग्रेबो
यह आन्तरिक (पातालीय) आग्नेय चट्टान है जिसमें पाए जाने वाले कण मोटे
होते हैं। इसका निर्माण फेल्सपार तथा अगाइट नामक खनिजों से हुई है। इसका
रंग काला होता है क्योंकि इसमें पाइरोक्लीन तथा ऑलविन की अधिकता होती है।
इसका रंग काले के अतिरिक्त गहरा हरा एवं धूसर होता है।
(4) डायोराइट
यह बड़े कण वाली पातालीय चट्टान है। यह ग्रेनाइट से भी अधिक भारी होती
है। इसमें फेल्सपार सर्वाधिक मात्रा में पाया जाता है।
फेल्सपार के अतिरिक्त हार्नब्लैण्ड नामक खनिज भी पाया जाता है। इनके
अतिरिक्त बायोराइट, अगाइट तथा पाइरोक्लीन नामक खनिज भी पाए जाते हैं।
इसका रंग काला, गहरा भूरा तथा हरा होता है।
(5) पेरिडोटाइट
यह ऑलविन तथा अगाइट नामक खनिज की अधिकता से बनी है। इनके अतिरिक्त
हार्नब्लेण्ड, बायोराइट भी पाए जाते हैं। इसमें सिलिका की मात्रा कम होती
है तथा कण मोटे होते हैं। यह महत्वपूर्ण चट्टान है क्योंकि इसमें निकिल,
क्रोमि प एवं प्लेटिनम जैसी महत्वपूर्ण धातुएँ भी पायी जाती हैं।
इनके अतिरिक्त डोलोराइट एवं राओलाइट भी महत्वपूर्ण आग्नेय चट्टानें हैं।
(2) परतदार चट्टानें
धरातल पर पायी जाने वाली अधिकांश चट्टानें पतरदार हैं। इनकी रचना अवसाद
के जमा होने से होती है अतः इन्हें अवसादी या तलछटी चट्टानें कहा जाता है
।
पृथ्वी धरातल के लगभग 75% भाग र अवसादी चट्टानें तथा शेष भाग में आग्नेय
व कायान्तरित चट्टानें पायी जाती हैं। इनमें पायी जाने वाली परत के आधार
पर इन्हें परतदार चट्टानें कहा जाता है। अंग्रेजी में इन्हें Sedimentary
Rocks कहा जाता है ।
यह शब्द लैटिन भाषा के Sedimentum से बना है जिसका तात्पर्य Setting down
(नीचे बैठना) होता है। इनका निर्माण लगातार एवं धीरे-धीरे निक्षेपण के
कारण ही होता है।
वारसेस्टर महोदय के अनुसार “अवसादी चट्टानें जैसा कि अवसाद का तात्पर्य
है, प्राचीन चट्टानों के टुकड़ों और खनिज पदार्थों के किसी न किसी रूप
में संगठित हो जाने तथा परतों में व्यवस्थित हो जाने से बनती
हैं।"'
प्रारम्भ में जब पृथ्वी द्रव अवस्था से ठोस अवस्था में आयी तो पृथ्वी का
समस्त भूपृष्ठ का बना हुआ था, बाद में अनाच्छादन प्रक्रिया के प्रभाव से
धीरे-धीरे आग्नेय चट्टानों का विनाश होने लगा जिससे वे टूटकर चूर्ण रूप से
बदलने लगीं।
आग्नेय चट्टानों àका चूर्ण जल, पवन एवं हिम द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान
पर लगातार एक के ऊपर एक जमा किया गया जिससे इसमें परतें पायी गयीं। इस प्रकार
लगातार जमा किए गए अवसाद से बनी चट्टानें परतदार या अवसादी कहलाती हैं।
चट्टानों में परतें कणों के वजन तथा आकार के अनुसार पड़ती हैं। समुद्रों में
पायी जाने वाली वनस्पति एवं जीव-जन्तु भी इन चट्टानों के निर्माण में योगदान
देते हैं।
समुद्रों में इन जीव-जन्तुओं के मरकर इकट्ठा होने से परतें लग जाती हैं जो
कालान्तर में कठोर हो जाती हैं तथा पुनः यही क्रिया होती है तथा प्रथम परत के
ऊपर दूसरी परत लगती है।
इन चट्टानों का निर्माण प्रायः तीन प्रमुख चरणों में होता है :
(i) पहले चरण में सभी अवसाद वायु, जल अथवा अन्य कारकों द्वारा एक स्थान से
दूसरे स्थान पर ले जाये जाते हैं,।
(ii) दूसरे चरण में इन्हें जमाया जाता है।
(iii) अवसाद जमकर कठोर बनते जाते हैं।
परतदार चट्टानों में पाए जाने वाले प्रमुख खनिज क्ले, क्वार्ट्स तथा केल्साइट
हैं। इनके अतिरिक्त डोलोमाइट, फेल्सपार, लौह अयस्क, जिप्सम आदि खनिज पाये
जाते हैं।
परतदार चट्टानों के प्रकार
परतदार चट्टानों को निम्नांकित आधारों पर विभाजित किया जा सकता है।
अवसादों की उत्पत्ति के आधार पर
परतदार चट्टानों की उत्पत्ति में सहायक अवसादों के आधार पर परतदार चट्टानें
को निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है :
(A) यान्त्रिक क्रियाओं द्वारा निर्मित अथवा चट्टान चूर्ण निर्मित परतदार
चट्टानें।
(B) रासायनिक विधि द्वारा निर्मित परतदार चट्टानें।
(C) जैविक तत्वों से निर्मित परतदार चट्टानें।
(A) यान्त्रिक क्रियाओं द्वारा निर्मित अथवा चट्टान चूर्ण निर्मित परतदार चट्टानें
चट्टान चूर्ण निर्मित परतदार चट्टानें निम्नलिखित हैं :
(1) गुटिकामय चट्टानें
गुटिकामय परतदार चट्टानें वें हैं जिनका निर्माण बड़े कणों से होता है।
प्रायः देखा जाता है कि रेत के साथ बड़े-बड़े कण भी होते हैं । गोलाकार चिकने
पत्थरों को गुटिका कहा जाता है।
इनका व्यास 4 मिलीमीटर से 64 मिलीमीटर तक होता है। इनके बड़े पत्थरों को
गोलाश्मिका कहा जाता है जो व्यास में 64 से 256 मिलीमीटर तक होते हैं। इनसे
भी बड़े पत्थरों को गोलाश्म कहा जाता है।
जो व्यास में 256 मिलीमीटर से भी अधिक पाए जाते हैं। जब कणों में क्वार्ट्ज
खनिजों की अधिकता होती है तो वह बजरी से कांग्लोमरेट में बदल जाता हैं।
(2) बालुकामय चट्टानें
बालू तथा बजरी के मिश्रण से बनी चट्टानें बालुकामय चट्टानें कहलाती हैं।
इनमें क्वार्ट्स की प्रधानता होती है। ये सरन्ध्रमय होती हैं। बलुआ पत्थर
इसका उत्तम उदाहरण है। बालू के कण सिलिका, कैल्सियम कार्बोनेट द्वारा मिलकर
बालुकामय चट्टान निर्मित करते हैं।
(3) मृण्मय चट्टानें
ये चीकामय चट्टानें हैं। इनका निर्माण मृदा के बारीक कणों के निक्षेपण से होता
है । जल में बड़े-बड़े कण भी घुलकर मिट्टी का रूप ले लेते हैं। इनका निर्माण
बारीक कणों से होता है,।
अतः ये असरन्ध्री होती हैं किन्तु कोमल होने से शीघ्रता से अपरदित हो जाती हैं
।
(B) रासायनिक विधि द्वारा निर्मित परतदार चट्टानें-ये चट्टानें निम्नलिखित हैं।
(1) चूना प्रधान चट्टानें
विश्व के उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय छिछले सागरों के जल में घुले हुए चूने तथा
जीव-जन्तुओं के अवशेषों से बनी होने के कारण इन्हें चूना प्रधान चट्टाने कहा
जाता है।
ये चट्टानें कठोर होती हैं किन्तु जल के सम्पर्क में आने से सरलता से घुल जाती
हैं । चूना, पत्थर, खडिया, डोलोमाइट आदि इस प्रकार की चट्टानें हैं।
(2) सिलिका प्रधान चट्टाने
इन चट्टानों में सिलिका की मात्रा अधिक होती है। इनमें नोवा क्यूलाइट तथा फ्लिट
प्रमुख हैं। गर्म पानी के स्रोतों में घुले हुए सिलिका के जमाव से नोवाक्यूलाइट
का निर्माण होता है।
सिलिका का जमाव यलोस्टोन नेशनल पार्क तथा आइसलैण्ड के आस-पास बहुत पाया जाता
है। सामुद्रिक जल में होने वाले सिलिका के जमाव से फ्लिट का निर्माण होता है।
(3) क्षारीय चट्टानें
जब बहता हुआ जलं मार्ग में मिलने वाले खनिज लवणों को घोलकर किसी झील या आन्तरिक
सागर में मिलता है जिससे वाष्पीकरण द्वारा जल तो उड़ जाता है किन्तु खनिज लवण
नीचे रह जाते हैं जिससे वे नीचे परत के रूप में जमा हो जाते हैं। नमक, जिप्सम,
पोटाश तथा शोरा ऐसी ही चट्टानों के रूप हैं।
(C) जैविक तत्वों से निर्मित परतदार चट्टाने
जब वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के अवशेषों के निक्षेपण से चट्टानों का निर्माण
होता है तो उन्हें जैविक तत्वों से निर्मित चट्टानें कहा जाता है। इनमें प्रमुख
निम्नलिखित हैं।
(1) चूना प्रधान
इन चट्टानों में चूना पत्थर तथा खड़िया प्रमुख हैं। चूना पत्थर सागरों में पाए
जाने वाले प्रवाल तथा मौलस्क आदि जीवधारियों तथा वनस्पतियों द्वारा बनता है।
सागरों में चूना प्रधान जीवों में प्रमुख ग्लोबिजेरिना तथा टैरोपोड होते हैं
।
इनमें कैल्सियम (ग्लोबिजेरिना) की मात्रा 64.6% होती है। टैरोपोड की शारीरिक
रचना में कैल्सियम कार्बोनेट की मात्रा 80% तक होती है। ये अधिकतर उष्ण
कटिबन्धीय महासागरों में पाए जाते हैं।
(2) सिलिका प्रधान
सागरों में पाए जाने वाले कुछ जीवों में सिलिका की मात्रा अधिक होती है। इनमें
डायटम एवं रेडियोलोरिया प्रमुख हैं। ये मरकर नीचे जमा होते जाते हैं जो एक
चट्टान का रूप ले लेते हैं।
(3) कार्बनयुक्त चट्टानें
इनमें कार्बन की प्रधानता होती है। दलदल एवं कीचड़ में पेड़ पौधों के संचयन से
इनका निर्माण होता है। भूमि के उथल-पुथल के कारण जल के समीप उगे हुए पेड़-पौधे
जल में दब जाते हैं तथा इनके ऊपर मिट्टियों का जमाव हो जाता है।
निर्माण में सहायक साधन एवं जमाव स्थान के आधार पर
इस आधार पर परतदार चट्टानों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है :
(1) वायूढ़ चट्टानें
वायु द्वारा उड़ाकर लाए गए कणों के किसी स्थान पर जमा होने से निर्मित चट्टानें
वायूढ़ चट्टानें कहलाती हैं। चीन में लोयस मिट्टी का क्षेत्र इसका सर्वोत्तम
उदाहरण है।
(2) जलीय चट्टानें
जल का कार्य वायु की अपेक्षा अधिक क्षेत्र पर होता है। जल द्वारा अवसाद के जमाव
के आधार पर इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है।
(i) समुद्री चट्टानें
इनका निर्माण सागरों में नदियों द्वारा अवसाद जमा करने से होता है।
(ii) झीलकृत चट्टानें
नदियों एवं पवनों द्वारा झीलों में जमा किए गए निक्षेपण से बनी चट्टाने झीलकृत
चट्टानें कहलाती हैं।
(iii) नदी कृत चट्टानें
नदियों के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में नदियों के जल में अवसाद के जमा होने से
निर्मित चट्टानें नदीकृत चट्टानें कहलाती हैं। भारत में जलोढ़ या कॉप मिट्टी के
जमाव इस प्रकार की चट्टानों के रूप हैं।
(3) हिमानी चट्टानें
नदियों की भाँति हिमानियाँ भी अपने साथ कंकड़-पत्थर आदि बहाकर लाती हैं जिन्हें
यत्र-तत्र छोड़ती है। इस अवसाद के जमा होने से निर्मित चट्टानें हिमानी चट्टान
कहलाती हैं।
परतदार चट्टानों सिलिकन वितरण
परतदार चट्टानें विश्व के लगभग 75% भाग पर फैली हैं। ये केवल पृथ्वी के ऊपरी
धरातल पर ही पायी जाती हैं। भारत में इनके क्षेत्र नर्मदा, तापी (ताप्ती),
महानदी दामोदर, कृष्णा, गोदावरी आदि नदियों की घाटियों में पाये जाते हैं।
परतदार चट्टानों की विशेषताएँ
(1) ये चट्टानें भिन्न-भिन्न रूप की होती हैं जिनका निर्माण छोटे-बड़े
भिन्न-भिन्न कणों से होता है।
(2) इन चट्टानों में परत अथवा स्तर होते हैं जो एक-दूसरे पर समतल रूप में जमे
रहते हैं।
(3) इन चट्टानों में वनस्पति एवं जीव-जन्तुओं के जीवाश्म पाये जाते हैं। इन्हीं
चट्टानों से कोयला, स्लेट, संगमरमर, नमक, पैट्रोलियम आदि खनिज प्राप्त किये
जाते हैं।
(4) समुद्र-जल में निर्मित होने के कारण इनमें लहरों और धाराओं के चिह्न
एक-दूसरे को काटती क्यारियाँ, पगडंडियाँ, चूहों आदि के बिल उसी तरह मिलते हैं
जिस प्रकार समुद्र तट की बालू में ।
(5) ये चट्टानें अपेक्षतया मुलायम होती हैं । इनका निर्माण सामान्यतः जल,पवन,
हिम, जीव-जन्तु अथवा रासायनिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप होता है ।
(6) ये चट्टानें स्थूल और छिद्रमय होती हैं।
(7) इन चट्टानों में साधारणतः स्फटिक का अंश अधिक होता है तथा आग्नेय चट्टानों
में पाए जाने वाले खनिजों का अंश कम पाया जाता है।
(8) परतदार चट्टानों को तोड़ने पर परतें अलग-अलग हो जाती हैं।
परतदार चट्टानों का आर्थिक उपयोग
अवसादी चट्टाने अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। बलुआ पत्थर, चूने के पत्थर आदि का
उपयोग भवन निर्माण में किया जाता है। भवन निर्माण में चूने का सीमेण्ट खूब
उपयोग किया जाता है जो चूने के पत्थर से तैयार किया जाता है।
चूने एवं डोलोमाइट व अन्य मिट्टियाँ इस्पात उद्योग में काम में आती हैं। है
परतदार चट्टानों में चूने के पत्थर का उपयोग सीमेंट बनाने में किया जाता है।
सीमेंट उद्योग आज विश्व के प्रमुख उद्योगों में गिना जाता है।
जिप्सम का उपयोग विविध प्रकार के उद्योगों में किया जाता है
चीनी मिट्टी के बर्तन, सीमेंट आदि में इसका उपयोग किया जाता है।
प्रमुख परतदार चट्टानें निम्नलिखित हैं
(1) चूना पत्थर
यह कैल्सियम कार्बोनेट का निक्षेप होता है, यह चूर्ण विहीन चट्टान इसका निर्माण
जैविक पदार्थों अथवा रासायनिक अवक्षेप से होता है। इसमें पाया जाने वाला मुख.
कालेज कार है। इसके अलावा क्वार्ट्स, फेल्सपार, चीका आदि खनिज पाए जाते हैं।
समुद्रों में शैवाल
मौलस्क, प्रवाल, घोंघा, सीप आदि जीवों के मर जाने से उनके कवच महाद्वीपीय
मानतटों की तली पर जमा हो जाते हैं जो कालान्तर में चूना पत्थर का रूप धारण कर
लेते हैं।
इनमें कुछ चट्टानों के कण बारीक तथा रवे बारीक होते हैं। चूना पत्थर कई रंगों
में पाया जाता है, जिसमें पीला, हल्का भूरा, लाल एवं काले रंग प्रमुख हैं।
यह चट्टान कोमल है तथा सरलता से चाकू द्वारा खुरची जा सकती है। चूना पत्थर भवन
निर्माण के लिए बहुत उपयोगी है, इसके अतिरिक्त लोहा-इस्पात निर्माण, सीमेन्ट
निर्माण आदि में भी इसका उपयोग होता है।
हमारे देश में चूना पत्थर उड़ीसा में सर्वाधिक मात्रा में पाया जाता है, इसके
अलावा बिहार, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश तथा राजस्थान में भी
चूना पत्थर मिलता है।
(2) बलुआ पत्थर
यह प्रमुखतः बालू के कणों के संयोजन से बनता है, निर्माण किसी भी प्रकार के
रेत-कणों से हो सकता है, किन्तु अधिकांश बलुआ पत्थर मुख्यतः क्वार्ट्ज के कणों
से निर्मित होते हैं,।
क्वार्ट्स के अतिरिक्त इनमें फेल्सपार क्ले' कैल्साइट एवं डोलोमाइट, अभ्रक,
लोहा आदि खनिज पाए जाते हैं। इन खनिजों के कण संयोजक पदार्थों द्वारा संयुक्त
होकर चट्टान का निर्माण करते हैं।
बलुई कणों के अत्यधिक दानेदार होने से इनके जुड़ते समय बीच में जगह खाली रह
जाती है, इसमें बलुआ पत्थर पारगम्य होता है।
बलुआ पत्थर का उपयोग अधिकतर भवन निर्माण में किया जाता है। दिल्ली का लाल किला,
आगरा का किला बलुआ पत्थर द्वारा निर्मित है।
(3) कांग्लोमरेट
यह पूर्णतः जलीय उत्पत्ति की चट्टान हैं। विभिन्न आकार के गुटिका या गोलाश्म का
जमाव कांग्लोमरेट कहलाता है। ये कुछ इंच से लेकर कई फुट व्यास तक के होते हैं
इनके गोल कणों के आधार पर ही पता चलता है कि ये नदियों द्वारा बहुत लम्बी दूरी
तक बहाए गए हैं।
रेत तथा भिन्न-भिन्न आकार की गुटिकाओं द्वारा निर्मित यह चट्टान ऐसी मालूम
पड़ती है जैसे सीमेण्ट एवं कंकरीट मिलाकर रख दी गई हो।
अच्छी प्रकार से सीमेण्टित कांग्लोमरेट चट्टान बहुत चीमड़ एवं स्थायी होती है।
कांग्लोमरेट का रंग भूरा, लाल एवं पीला होता है। जब इनके कण गोल न होकर कोण
वाले होते हैं तो इनसे बनी चट्टान ब्रेसिया कहलाती है ।
(4) शैल
मिट्टी की सबसे बारीक कण वाली परत बारीक होते हैं अतः इनके जुड़ते समय पातदार
शैलों बीच में कोई रिक्त स्थान नहीं होता है इसीलिए इनकी सतह बहुत चिकनी होती
है। इसमें मिट्टी के साथ क्वार्टज, फेल्सपार, कैल्साइट, डोलोमाइट तथा अन्य खनिज
भी मिले रहते हैं।
यह चट्टान कई रंगों की होती है जिनमें भूरा, पीला, हरा एवं काला प्रमुख है। यह
मुलायम चट्टान है तथा परिवर्तित होकर स्लेट चट्टान बन जाती है। इनके महीन चूरे
से सीमेण्ट तथा चित्र टाइलें बनायी जाती हैं।
उपर्युक्त चट्टानों के अतिरिक्त कोयला भी परतदार चट्टान का उत्तम उदाहरण है।
(3) कायान्तरित चट्टानें
ये चट्टाने मेटा तथा मोरफे शब्द से बनी हैं जिनका अर्थ परिवर्तित रूप से
है अर्थात् जो चट्टानें परिवर्तित रूप से बनती हैं, वे कायान्तरित चट्टानें हैं
। रूप परिवर्तन के कारण इन्हें रूपान्तरित कहा जाता है।
चट्टानों का रूपान्तरण अत्यधिक ताप, सम्पीडन तथा विलयन द्वारा होता है। उच्च
तापमान,दबाव अथवा दोनों के प्रभाव से आग्नेय तथा परतदार (अवसादी) चट्टानों का
मूल रूप परिवर्तित हो इन परिवर्तनों के कारण बनी चट्टानें कायान्तरित चट्टानें
कहलाती हैं।
वॉरसेस्टर महोदय के अनुसार, "रूपान्तरित चट्टानों के अन्तर्गत उन चट्टानों को
सम्मिलित किया जाता है, जिनके आकार तथा संघटन में विघटन बिना ही परिवर्तन होता
है ।"
डॉ. पवार के अनुसार, "रूपान्तरण वह प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप पूर्ववर्ती
चट्टानों ही उसके मूल खनिजात्मक संघटन, गठन तथा संरचना में परिवर्तन होता है,
इस परिवर्तन द्वारा चट्टानों का जो नवीन स्वरूप प्राप्त होता है उसे रूपान्तरित
चट्टानें कहते हैं।"
चट्टानें कायान्तरित होकर पहले की अपेक्षा अधिक कठोर हो जाती हैं। इनमें
कभी-कभी रबे भी उत्पन्न हो जाते हैं।
कायान्तरण के अभिकर्ता
जिन तत्वों से परिवर्तन होता है । उन्हें रूपान्तरण के अभिकर्ता कहा जाता है।
ये ताप, दबाव तथा घोल आदि हैं।
(1) ताप
ताप रूप परिवर्तन का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। इससे चट्टानों में ढीलापन आता
है। कठोर से कठोर चट्टान ताप से फैलती है। चट्टानों में रूपान्तरण ताप की
मात्रा पर निर्भर करता है।
तापमान अधिक होने पर रूपान्तरण भी अधिक होता है। तापमान की अधिकता से
चट्टानें पिघलती हैं एवं उनके कणों का रूप परिवर्तित होने लगता है।
(2) दबाव या सम्पीडन
पर्वत निर्माणकारी हलचलों एवं भूकम्प आदि से चट्टानों पर अधिक दबाव पड़ता है।
दबाव के कारण चट्टानें न केवल टूटती अपितु उनमें स्थानान्तरण होता है जिससे वे
टूटती हैं एवं परिवर्तित हो जाती हैं।
(3) घोल
जल का स्वाभाविक गुण है कि वह सभी वस्तुओं को घोलने का प्रयास करता है।
कार्बन-डाइ-ऑक्साइड व ऑक्सीजन के जल में मिल जाने से इसकी घुलनशील शक्ति में
वृद्धि हो जाती है अतः चट्टानों का रूप परिवर्तन होने लगता है।
कायान्तरित चट्टानों के प्रकार
कायान्तरित चट्टानों को निम्नलिखित आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
(अ) मूल चट्टानों के आधार पर
मूल चट्टानों के आधार पर कायान्तरित चट्टानें निम्नलिखित हैं।
(1) परिआग्नेय चट्टानें
परिआग्नेय चट्टानें वे हैं जो आग्नेय चट्टानों के रूप परिवर्तन से बनती हैं.
यथा नीस जो ग्रेनाइट चट्टान का परिवर्तित रूप है।
(2) परिअवसादी चट्टानें
ये चट्टानें अवसादी चट्टानों से बनती
हैं। उदाहरणार्थ-शैल चट्टान स्लेट में तथा चूना पत्थर संगमरमर में बदल जाता है
।
(3) पुन: परिवर्तित चट्टानें
एक बार चट्टानों में परिवर्तन हो जाने के बाद यदि उनमें दोबारा परिवर्तन हो जाता है तो उन्हें पुनः परिवर्तित चट्टानें कहा जाता है।
(ब) तहों की बनावट के आधार पर
तहों की बनावट के आधार पर चट्टानें निम्नलिखित हैं।
(1) पत्राभिकृत चट्टानें
(2) अपत्राभिकृत चट्टानें
(1) पत्राभिकृत चट्टानें
इन चट्टानों के कण बारीक होते हैं। जब इन्हें तोड़ा जाए तो सतह के समानान्तर
निश्चित क्रम में टूटती हैं। प्रायः अभ्रक की अधिकता से चट्टान में यह गुण
विकसित होता है। इनके उदाहरण स्लेट, फाइलाइट, शिष्ट तथा नीस आदि हैं । ।
(2) अपत्राभिकृत चट्टानें
ये भद्दे कणों वाली कठोर चट्टानें होती हैं। जिनकी रचना जल में परिवर्तन के कारण होती है. इनमें कण व्यवस्थित नहीं होते हैं अतः तहों का विकास नहीं हो पाता है। इनमें प्रमुख संगमरमर, क्वार्ट्साइट, एन्थेसाइट, सर्पेण्टाइन आदि हैं।
(स) परिवर्तन के अभिकर्ता के आधार पर
इस आधार पर कायान्तरित चट्टानों के निम्न उप विभाग हैं
(1) तापीय कायान्तरण
ताप से किसी पदार्थ की वास्तविक स्थिति में परिवर्तन हो जाता है। इसके भौतिक
एवं रासायनिक गुणों में परिवर्तन हो जाता है। जब भूगर्भ से मैगमा निकलता है तो
वह मार्ग की चट्टानों का रूप परिवर्तित कर देता है। चूना पत्थर ताप के कारण
संगमरमर में बदल जाता है।
(2) गतिज रूपान्तरण
जब परतदार चट्टानों पर क्षैतिज बलों के कारण पाश्विक दबाव पड़ता है तो उनमें
मोड़ पड़ते हैं एवं वे अधिक गहराई तक चली जाती हैं। गहराई पर जाती है जिससे
उनका रूपान्तरण हो जाता है। उदाहरणार्थ-कोयला ग्रेफाइट में तथा शैल स्लेट में
परिवर्तित हो जाती है।
(3) स्थिर कायान्तरण
स्थिर कायान्तरण वह है जिसमें चट्टान में अपने स्थान पर ही रूप परिवर्तन हो
जाय। ऊपरी दबाव के कारण आन्तरिक भाग की चट्टानों में होने वाला परिवर्तन स्थिर
कायान्तरण कहलाता है।
(4) उष्ण जलीय कायान्तरण
जब तप्त जल के सम्पर्क में चट्टानें आती हैं तो खनिज जल से रासायनिक क्रिया
करते हैं। इस रासायनिक क्रिया के कारण चट्टानों में रूप परिवर्तन होता है। यही
उष्ण जलीय अथवा रासायनिक कायान्तरण है।
(द) कायान्तरण के क्षेत्र के आधार पर
(1) स्थानीय कायान्तरण
स्थानीय कायान्तरण वह है जिसमें कायान्तरण किसी सीमित क्षेत्र पर ही होता है।
(2) प्रादेशिक कायान्तरण
जब कायान्तरण की क्रिया किसी विस्तृत क्षेत्र में होती है तो उसे प्रादेशिक
कायान्तरण कहा जाता है । भूगर्भ में पर्वत निर्माणकारी हलचल द्वारा ताप एवं
दबाव के कारण बड़े पैमाने पर परिवर्तन हो जाता है अर्थात् वहाँ पायी जाने वाली
आग्नेय एवं परतदार चट्टानों में कायान्तरण हो जाता है ।
(3) स्पर्श कायान्तरण
स्पर्श कायान्तरण वह है जिसमें कुछ चट्टानें ताप एवं दबाव के स्पर्श मात्र से
अपना रूप बदल लेती हैं। जब भूगर्भ से मैग्मा एवं लावा निकलता है तो उसके स्पर्श
में आने वाली अनेक चट्टानें पिघल जाती हैं तथा उनका रूप परिवर्तन हो जाता है।
लैकोलिथ अथवा लैपोलिथ के स्पर्श के सिल एवं डाइक सदैव के लिए परिवर्तित हो जाती
हैं।
कायान्तरित चट्टानों की विशेषताएँ
इनकी निम्न विशेषताएँ हैं।
(1) इन चट्टानों पर ताप एवं दबाव का बहुत प्रभाव पड़ता है अतः परतदार (अवसादी)
चट्टानों के जीवाश्म नष्ट हो जाते हैं और कुछ आग्नेय चट्टानों के खनिज द्रव्य
पिघलकर एकत्रित हो जाते हैं।
(2) इन चट्टानों में स्फटिक भी पाए जाते हैं।
(3) कायान्तरित होकर ये चट्टानें पहले से अधिक कठोर एवं असरन्ध्री हो जाती
हैं।
(4) रूपान्तरण होने से मूल चट्टानों के मौलिक एवं रासायनिक गुण परिवर्तित हो
जाते हैं ।
(5) इन चट्टानों में पाए जाने वाले कण प्रायः व्यवस्थित रूप में पाए जाते हैं
।
(6) ये चट्टानें ऋतु अपक्षय की क्रिया से अप्रभावित रहती हैं।
कायान्तरित चट्टानों का वितरण
विश्व के प्रायः सभी प्राचीन पठारों पर कायान्तरित चट्टानें मिलती हैं। भारत
में ऐसी चट्टानें दक्षिण के प्रायद्वीप, दक्षिण अफ्रीका के पठार और दक्षिणी
अमेरिका के ब्राजील के पठार, उत्तरी कनाडा, स्केण्डेनेविया, अरब, उत्तरी रूस
और पश्चिमी आस्ट्रेलिया के पठार पर पायी जाती हैं। इनमें सोना, हीरा, संगमरमर
चाँदी आदि खनिज पाये जाते हैं।
कायान्तरित चट्टानों का आर्थिक उपयोग
कायान्तरित चट्टानों में अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण धातु खनिज पाये जाते हैं
जो मानव के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। अधिकांश बहुमूल्य खनिज सोना,
चाँदी और हीरा कायान्तरित चट्टानों से प्राप्त होते हैं। संगमरमर जो एक
प्रमुख कायान्तरित चट्टान है, भवन निर्माण के लिए उपयोग में आता है।
विश्व प्रसिद्ध ताजमहल एवं अनेक महत्वपूर्ण मन्दिर इसी प्रकार की चट्टान
(संगमरमर) से निर्मित हैं। एन्थेसाइट कोयला, ग्रेनाइट एवं हीरा भी बहुउपयोगी
कायान्तरित चट्टान है। अभ्रक जैसे खनिज बार-बार कायान्तरण होने से बनते हैं।
कठोर क्वार्ट्साइट का निर्माण अवसादी चट्टान के कायान्तरण से हुआ है। प्रमुख
कायान्तरित चट्टानें निम्न हैं।
1) संगमरमर
संगमरमर चूना पत्थर या डोलोमाइट के रूप में परिवर्तन से बनता है। चूना पत्थर
की तरह संगमरमर भी प्रायः कैल्साइट से बना होता है जिससे इसे अम्लीय परीक्षण
द्वारा पहचाना जा सकता है, यह अधिक कठोर, घना रवेदार और चिकना होता हैl
चूना पत्थर की तुलना में यह अधिक कठोर क्रस्टलीय होता है। शुद्ध संगमरमर रंग
का होता है, किन्तु कार्बन, हेमेटाइट व लिमोनाइट आदि अपद्रव्यों से कई आकर्षक
रंगों में मिलता है, यथा हरा, काला, भूरा और लाल आदि ।
इस चट्टान में तापमान द्वारा जीवावशेष के सभी चिन्ह प्रायः नष्ट हो जाते हैं
। यह अत्यन्त कठोर एवं संगठित चट्टान है जिसमें क्लीवेज नहीं होते हैं।
संगमरमर का उपयोग अच्छी इमारतों में किया जाता है।
(2) स्लेट
स्लेट का निर्माण शैल तथा अन्य जलीय अवसादी चट्टानों से क्षेत्रीय रूपान्तरण
के कारण होता है। इसका निर्माण प्रादेशिक स्थानान्तरण से होता है। यह अत्यन्त
सूक्ष्ण कणों से बनने वाली कठोर, सघन एवं पत्राभिकृत चट्टान है ।
इस चट्टान में रंगहीन अभ्रक की अधिकता होती है। अभ्रक के अतिरिक्त क्वार्ट्ज
क्लोराइड भी पाए जाते हैं। स्लेट का रंग धूसर, काला या हरा होता है। इसका
उपयोग गृह निर्माण में होता है।
(3) शिष्ट
शिष्ट बारीक कणों वाली रूपान्तरित चट्टान है जिसमें पोलिएशन का विकास अच्छी
तरह होता है। शैल नामक जलज की चट्टान में अल्प क्रम के रूपान्तरण द्वारा इसका
निर्माण होता है।
शिष्ट चट्टान में अनेक खनिज, यथा अभ्रक, बायोराइट, क्लोराइड, हॉर्नब्लैण्ड
आदि पाए जाते हैं। किसी खनिज विशेष की अधिकता के आधार पर इसे उसी नाम से जाना
जाता है, यथा हॉर्नब्लैण्ड शिष्ट, क्लोराइड शिष्ट, माइका शिष्ट तथा क्वार्ट्ज
शिष्ट आदि ।
(4) नीस
यह खुरदरे कण वाली कायान्तरित चट्टान है। इसका प्रमुख खनिज फेल्सपार है। इसका
निर्माण कांग्लोमरेट तथा बड़े कणों वाली ग्रेनाइट चट्टान के रूपान्तरण से
होता है। इसमें पत्राभिकृत
का विकास पूर्णतः नहीं हो पाता है। इसका निर्माण करने वाले खनिज एक-दूसरे
के समानान्तर होते हैं जिससे इसमें पट्टियों का विकास होता है। क्वार्ट्ज,
फेल्सपार, अभ्रक तथा हार्नब्लेण्ड आदि खनिजों द्वारा नीस का निर्माण होता
है। इनमें खनिजों के कण हल्के व भारी रंग के खनिजों के क्रमवार समानान्तर
मोड़ों में पुनः व्यवस्थित हो जाते हैं।
नीस का उपयोग सड़क निर्माण में सर्वाधिक होता है। तमिलनाडु, मध्य प्रदेश
तथा झारखण्ड में यह चट्टान प्रमुखता से पायी जाती है।
(5) क्वार्ट्साइट
यह बलुआ पत्थर का रूपान्तरित रूप है । इसमें क्वार्ट्स की अधिकता होती है।
ताप की अधिकता के कारण बलुआ पत्थर के कण द्रवित हो जाते हैं जिससे इनका
रूपान्तरण हो जाता है । यह बहुत कठोर चट्टान है । इसके कण आपस में चिपके
रहते हैं तथा तोड़ने पर मध्य से टूट जाते हैं।