सुंदरकांड के 60 दोहे
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस सुन्दरकाण्ड से यहा लिया गया हैं। सुन्दरकाण्ड भगवन राम और हनुमान से सम्बंधित रामचरित मानस का एक खंड है। इसमें संकट मोचन हनुमान का राम प्रति प्रेम और आज्ञा का वर्णन मिलता हैं।
सुंदरकांड के दोहे अर्थ सहित
हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ।।
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ।।
भावार्थ : तुम श्री रामचंद्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के
भंडार हो।
यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्जी हर्षित होकर
चले॥2॥
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ।।
भावार्थ : नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान्जी ने मन में
विचार
किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश
करूँ॥3॥
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिली जो सुख लव सतसंग ।।
भावार्थ : हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा
जाए,
तो भी वे सब मिलकर उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र
के सत्संग से होता है॥4॥
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ ।।
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर।।
भावार्थ:-हे माता! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथजी का संदेश सुनिए।
[ दोहा 15 ]
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयं धीर धरु जरे निसाचर जानु।।
भावार्थ : राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्री रघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं।
[ दोहा 16 ]
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।
[ दोहा 17 ]
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।
भावार्थ : हनुमान्जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा - जाओ।
[ दोहा 18 ]
कछु मारेसी कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।
भावार्थ : उन्होंने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड़-पकड़कर
[ दोहा 19 ]
ब्रम्ह अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रम्हसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।
कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूँ तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी॥19॥
[ दोहा 20 ]
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।
भावार्थ :हनुमान्जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा।
[ दोहा 21 ]
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झरि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।
भावार्थ : जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत् को जीत लिया
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहँ तव अपराध बिसारि।।
भावार्थ : खर के शत्रु श्री रघुनाथजी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं।
[ दोहा 23 ]
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।
भावार्थ : मोह ही जिनका मूल है ऐसे अज्ञानी, बहुत पीड़ा देने वाले,
[ दोहा 24 ]
कपि कें ममता पूँछपर सबहि कहउँ संमुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधी पुनि पावक देहु लगाई।।
भावार्थ : मैं सबको समझाकर कहता हूँ कि बंदर की ममता पूँछ पर होती है।
[ दोहा 25 ]
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्ठहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।
भावार्थ : जब हनुमान जी ने लंका को अग्नि के हवाले कर दिया तो,
[ दोहा 26 ]
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।
भावार्थ : पूँछ बुझाकर, थकावट दूर करके
[ दोहा 27 ]
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरज दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।
भावार्थ : हनुमान्जी ने जानकीजी को समझाकर
[ दोहा 28 ]
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।
भावार्थ : उन सबने जाकर पुकारा कि युवराज अंगद वन उजाड़ रहे हैं।
[ दोहा 29 ]
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।।
[ दोहा 30 ]
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।
भावार्थ : आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही दरवाजा है।
[ दोहा 31 ]
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल जीति।।
भावार्थ : हे प्रभु। माता सीता का एक-एक पल कल्प के समान बीत रहा है।
अतः आप तुरंत चलिए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों का संहार कर सीताजी को ले आइए।
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।
भगवान् राम हनुमान जी से कहने हैं। हे पुत्र,
मैं तुम्हारे ऋण को नहीं चुका सकता हूँ।
और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भर जाता है।
भावार्थ : प्रभु के वचन सुनकर और उनके मुख को देखकर हनुमानजी
हर्षित हो गए और प्रेम में विलीन होकर कहते हैं -
हे भगवन मेरी रक्षा करो, रक्षा करो' कहते हुए श्री रामजी के चरणों में गिर पड़ते हैं।
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल।।
भावार्थ : हे प्रभु जिस पर आपकी कृपा हों, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है।
आपके प्रभाव से रूई भी प्रबल आग को नितचित ही जला सकती है।
असंभव कार्य भी आपकी कृपया से संभव हो सकता है।
कपिपति बेगि बोलाए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।
भावार्थ : वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही सभी वानरों को बुलावा भेजा जिसके बाद
सभी वानर-भालुओं के अनेक रंगों वाले झुंड आए हैं और उनमें अतुलनीय बल समाहित है।
भावार्थ : सभी वानरों से साथ भगवान कृपानिधान श्री रामजी समुद्र तट पर गए।
और वह सभी वीर वानर इधर उधर फल खाने के लिए भागने लगे॥
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।
भावार्थ : मंदोदरी रावण से कहती हैं ! भगवान श्री राम के बाण सर्पों के समान हैं
और राक्षसों का समूह मेंढक के समान हैं। जब तक उनके बाण इन्हें डस नहीं लेते
तब तक आप अपने हट को छोड़कर उपाय कर लीजिए।
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भी आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।
भावार्थ : मंत्री, वैद्य और गुरु ये तीनो भय, लाभ या स्वार्थ के कारण राजा के सामने मीठा बोलते हैं।
ये सभी शासन हित की बात न कहकर चापलूसी करते हैं,
तो राज्य, शरीर और धर्म को नाश होने में समय नहीं लगता हैं।
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।
भावार्थ : हे नाथ ! काम, क्रोध, मद और लोभ ये सब नरक जाने के रास्ते हैं।
इन सबको छोड़कर आप भगवान श्री रामचंद्रजी की शरण में जाइये। जिन्हें संत और तपस्वी भजते हैं।
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।
भावार्थ : हे दशानंद मैं बार-बार आपके चरण पड़ता हूँ और विनती करता हूँ
कि मान-सम्मान, मोह और मद को छोड़कर आप कोसलपति रामजी का भजन कीजिए।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरू तात।।
भावार्थ : विभीषण जी रावण को समझाते हैं - मुनि पुलस्त्य जी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है।
की हे तात! सुंदर अवसर पाकर मैंने तुरंत ही वह बात प्रभु से कह दी हैं।
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।
भावार्थ : हे तात! मैं चरण पकड़कर आपसे विनती करता हूँ।
कि आप मुझ बालक के आग्रह को स्वीकार कीजिए
और श्री रामजी को सीताजी दे दीजिए, कही इस कारण आपका कोई अहित न हो जाये।
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाऊँ देहु जनि खोरि।।
[ दोहा 42 ]
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।
[ दोहा 43 ]
सरनागत कहुँ तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।
[ दोहा 44 ]
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपालु कहि कपि चले अंगद हनू समेत।।
[ दोहा 45 ]
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।
[ दोहा 46 ]
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।
[ दोहा 47 ]
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज।।
[ दोहा 48 ]
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।
[ दोहा 49]
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड।।
जो सम्पति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ सम्पदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।।
[ दोहा 50 ]
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।
[ दोहा 51 ]
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।
[ दोहा 52 ]
कहेहु मुख़ार मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न टी आवा कालु तुम्हार।।
[ दोहा 53 ]
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।
[ दोहा 54 ]
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।
[ दोहा 55 ]
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम।।
[ दोहा 56 ]
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।
की तजि मान अनुज इब प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।
[ दोहा 57 ]
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।
[ दोहा 58 ]
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।
[ दोहा 59 ]
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।
[ दोहा 60 ]
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।