सुंदरकांड के 60 दोहे - sunderkand ke dohe

तुलसीदास जी के द्वारा लिखा गया रामचरित मानस का पंचम सोपान जिसे सुंदरकाण्ड के नाम से जाना जाता है। यहां पर गोरखपुर प्रकाशन से प्रकाशित सुंदरकाण्ड को लिखा गया है। दोहा का अर्थ उदाहरण सहित जनेने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करे। 

सुंदरकांड के 60 दोहे

गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस सुन्दरकाण्ड से यहा लिया गया हैं। सुन्दरकाण्ड भगवन राम और हनुमान से सम्बंधित रामचरित मानस का एक खंड है। इसमें संकट मोचन हनुमान का राम प्रति प्रेम और आज्ञा का वर्णन मिलता हैं।

सुंदरकांड के 60 दोहे - sunderkand ke dohe

सुंदरकांड के दोहे अर्थ सहित

[ दोहा 1 ]

हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ।।

अर्थ - हनुमान्‌जी ने उसे हाथ से छू कर प्रणाम किया, फिर कहा - भाई! 
श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ मिलगा॥1॥

[ दोहा 2 ]

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ।।

भावार्थ : तुम श्री रामचंद्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो। 
यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्‌जी हर्षित होकर चले॥2॥

[ दोहा 3 ]

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ।।

भावार्थ : नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान्‌जी ने मन में विचार 
किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥3॥

[ दोहा 4 ]

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिली जो सुख लव सतसंग ।।

भावार्थ : हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, 
तो भी वे सब मिलकर उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है॥4॥

[ दोहा 5 ]

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ ।।

भावार्थ : वह महल श्री रामजी के धनुष-बाण के चिह्नों से अंकित था, 
उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन 
तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमान जी हर्षित हुए॥5॥

[ दोहा 6 ]

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम ।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ।।

भावार्थ तब हनुमान जी ने श्री रामचंद्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। 
सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और श्री रामजी के गुण 
समूहों का स्मरण करके दोनों के मन (प्रेम और आनंद में) मग्न हो गए॥6॥

[ दोहा 7 ]

अस मैं अधम सखा सुनु मोहु पर रघुबीर।
किन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।

भावार्थ : हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ, पर श्री रामचंद्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। 
भगवान्‌ के गुणों का स्मरण करके हनुमान्‌जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥7॥

[ दोहा 8 ]

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।

भावार्थ : श्री जानकी जी नेत्रों को अपने चरणों में लगाए हुए हैं 
और मन श्री राम जी के चरण कमलों में लीन है। 
जानकी जी को दुःखी देखकर पवनपुत्र हनुमान जी बहुत ही दुःखी हुए॥8॥

[ दोहा 9 ]

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान। 
परुष बचन सुनि काढि असि बोला अति खिसिआन।।

भावार्थ : अपने को जुगनू के समान और रामचंद्रजी को सूर्य के समान सुनकर 
और सीताजी के कठोर वचनों को सुनकर 
रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला-॥9॥

[ दोहा 10 ]

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद। 
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद।।

भावार्थ : रावण घर चला गया। यहाँ राक्षसियों के समूह 
बहुत से बुरे रूप धरकर सीताजी को भय दिखलाने लगे॥10॥

[ दोहा 11 ]

जहँ तहँ गई सकल तब सीता कर मन सोच। 
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच।।

भावार्थ : तब वे सब जहाँ-तहाँ चली गईं। सीताजी मन में सोच करने लगीं 
कि एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा॥11॥

[ दोहा 12 ]

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब। 
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ।।

भावार्थ : तब हनुमानजी ने हदय में विचार कर सीताजी के सामने अँगूठी डाल दी,
मानो अशोक ने अंगारा दे दिया। सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया॥12॥

[ दोहा 13 ]

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वासा। 
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।

भावार्थ : हनुमानज के प्रेम युक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, 
 उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से श्री रघुनाथजी का दास है॥13॥

[ दोहा 14 ]

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर।।

भावार्थ:-हे माता! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथजी का संदेश सुनिए। 
ऐसा कहकर हनुमान्जी प्रेम से गद्गद हो गए। उनके नेत्रों में जल भर आया॥14॥

[ दोहा 15 ]

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयं धीर धरु जरे निसाचर जानु।।

भावार्थ : राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्री रघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं। 
हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो॥15॥

[ दोहा 16 ]

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।

[ दोहा 17 ]

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।

भावार्थ : हनुमान्जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा - जाओ। 
हे तात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ॥17॥

[ दोहा 18 ]

कछु मारेसी कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।

भावार्थ : उन्होंने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड़-पकड़कर 
धूल में मिला दिया। कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बंदर बहुत ही बलवान् है॥18॥

[ दोहा 19 ]

ब्रम्ह अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रम्हसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।

भावार्थ : अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, तब हनुमान्‌जी ने मन में विचार किया 
कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूँ तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी॥19॥

[ दोहा 20 ]

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।

भावार्थ :हनुमान्‌जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा। 
फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया॥20॥

[ दोहा 21 ]

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झरि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।

भावार्थ : जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत् को जीत लिया 
और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूँ॥21॥

[ दोहा 22 ]

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहँ तव अपराध बिसारि।।

भावार्थ : खर के शत्रु श्री रघुनाथजी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं।
शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे॥22॥

[ दोहा 23 ]

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।

भावार्थ : मोह ही जिनका मूल है ऐसे अज्ञानी, बहुत पीड़ा देने वाले, 
तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, 
कृपा के सागर भगवान् श्री रामचंद्रजी का भजन करो॥23॥

[ दोहा 24 ]

कपि कें ममता पूँछपर सबहि कहउँ संमुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधी पुनि पावक देहु लगाई।।

भावार्थ : मैं सबको समझाकर कहता हूँ कि बंदर की ममता पूँछ पर होती है। 
अतः तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फिर आग लगा दो॥24॥

[ दोहा 25 ]

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्ठहास करि गर्जा कपि बढ़ि  लाग अकास।।

भावार्थ : जब हनुमान जी ने लंका को अग्नि के हवाले कर दिया तो, 
भगवान की प्रेरणा से उनपचासों पवन चलने लगे। हनुमान जी 
अट्टहास करके गर्जे और आकार बढ़ाकर आकाश मे जाने लगे।

[ दोहा 26 ]

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।

भावार्थ : पूँछ बुझाकर, थकावट दूर करके 
और फिर छोटा सा रूप धारण कर हनुमान्‌जी 
श्री जानकीजी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए॥26॥

[ दोहा 27 ]

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरज दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।

भावार्थ : हनुमान्‌जी ने जानकीजी को समझाकर 
बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरणकमलों में 
सिर नवाकर श्री रामजी के पास गमन किया॥27॥

[ दोहा 28 ]

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।

भावार्थ : उन सबने जाकर पुकारा कि युवराज अंगद वन उजाड़ रहे हैं। 
यह सुनकर सुग्रीव हर्षित हुए कि वानर प्रभु का कार्य कर आए हैं॥28॥

[ दोहा 29 ]

प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।।

भावार्थ : दया की दाता श्री रघुपति सबसे प्रेम के साथ गले लगकर मिले और किशहाली पूछी। 
वानरों ने कहा - हे नाथ! आपके चरण कमलों के दर्शन पाने से अब सब कुशल है॥29॥

[ दोहा 30 ]

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान  केहिं बाट।।

भावार्थ : आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही दरवाजा है। 
जो नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से?॥30॥

[ दोहा 31 ]

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल जीति।।

भावार्थ : हे प्रभु। माता सीता का एक-एक पल कल्प के समान बीत रहा है। 
अतः आप तुरंत चलिए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों का संहार कर सीताजी को ले आइए।

[ दोहा 32 ]

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।

भगवान् राम हनुमान जी से कहने हैं। हे पुत्र, 
मैं तुम्हारे ऋण को नहीं चुका सकता हूँ। 
और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भर जाता है।

भावार्थ : प्रभु के वचन सुनकर और उनके मुख को देखकर हनुमानजी 
हर्षित हो गए और प्रेम में विलीन होकर कहते हैं - 
हे भगवन मेरी रक्षा करो, रक्षा करो' कहते हुए श्री रामजी के चरणों में गिर पड़ते हैं।

[ दोहा 33 ]

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल।।

भावार्थ : हे प्रभु जिस पर आपकी कृपा हों, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। 
आपके प्रभाव से रूई भी प्रबल आग को नितचित ही जला सकती है। 
असंभव कार्य भी आपकी कृपया से संभव हो सकता है।

[ दोहा 34 ]

कपिपति बेगि बोलाए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।

भावार्थ : वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही सभी वानरों को बुलावा भेजा जिसके बाद 
सभी वानर-भालुओं के अनेक रंगों वाले झुंड आए हैं और उनमें अतुलनीय बल समाहित है।

[ दोहा 35 ]

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।

भावार्थ : सभी वानरों से साथ भगवान कृपानिधान श्री रामजी समुद्र तट पर गए। 
और वह सभी वीर वानर इधर उधर फल खाने के लिए भागने लगे॥

[ दोहा 36 ]

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।

भावार्थ : मंदोदरी रावण से कहती हैं ! भगवान श्री राम के बाण सर्पों के समान हैं 
और राक्षसों का समूह मेंढक के समान हैं। जब तक उनके बाण इन्हें डस नहीं लेते 
तब तक आप अपने हट को छोड़कर उपाय कर लीजिए।

[ दोहा 37 ]

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भी आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।

भावार्थ : मंत्री, वैद्य और गुरु ये तीनो भय, लाभ या स्वार्थ के कारण राजा के सामने मीठा बोलते हैं। 
ये सभी शासन हित की बात न कहकर चापलूसी करते हैं, 
तो राज्य, शरीर और धर्म को नाश होने में समय नहीं लगता हैं।

[ दोहा 38 ]

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।

भावार्थ : हे नाथ ! काम, क्रोध, मद और लोभ ये सब नरक जाने के रास्ते हैं। 
इन सबको छोड़कर आप भगवान श्री रामचंद्रजी की शरण में जाइये। जिन्हें संत और तपस्वी भजते हैं।

[ दोहा 39 ]

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।

भावार्थ : हे दशानंद मैं बार-बार आपके चरण पड़ता हूँ और विनती करता हूँ 
कि मान-सम्मान, मोह और मद को छोड़कर आप कोसलपति रामजी का भजन कीजिए।

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरू तात।।

भावार्थ : विभीषण जी रावण को समझाते हैं - मुनि पुलस्त्य जी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है।
की हे तात! सुंदर अवसर पाकर मैंने तुरंत ही वह बात प्रभु से कह दी हैं।

[ दोहा 40 ]

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।

भावार्थ : हे तात! मैं चरण पकड़कर आपसे विनती करता हूँ।
कि आप मुझ बालक के आग्रह को स्वीकार कीजिए 
और श्री रामजी को सीताजी दे दीजिए, कही इस कारण आपका कोई अहित न हो जाये।

[ दोहा 41 ]

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाऊँ देहु जनि खोरि।।

[ दोहा 42 ]

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।

[ दोहा 43 ]

सरनागत कहुँ तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।

[ दोहा 44 ]

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपालु कहि कपि चले अंगद हनू समेत।।

[ दोहा 45 ]

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।

[ दोहा 46 ]

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।

[ दोहा 47 ]

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज।।

[ दोहा 48 ]

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।

[ दोहा 49]

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड।।

जो सम्पति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ सम्पदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।।

[ दोहा 50 ]

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।

[ दोहा 51 ]

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।

[ दोहा 52 ]

कहेहु मुख़ार मूढ़ सन मम संदेसु उदार। 
सीता देइ मिलहु न टी आवा कालु तुम्हार।।

[ दोहा 53 ]

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर। 
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।

[ दोहा 54 ]

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि। 
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।

[ दोहा 55 ]

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम। 
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम।।

[ दोहा 56 ]

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस। 
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।

की तजि मान अनुज इब प्रभु पद पंकज भृंग। 
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।

[ दोहा 57 ]

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। 
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।

[ दोहा 58 ]

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। 
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।

[ दोहा 59 ]

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ। 
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।

[ दोहा 60 ]

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। 
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।
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