प्राथमिक एवं द्वितीयक समंकों में अंतर समझाइए

समंक अकड़ो का समूह हैं। जिसे गिना या अनुमानित लगाया जा सकता हैं। समंकों के संकलन से अभिप्राय समंकों को एकत्रित करने से है। सांख्यिकी रीतियों से समंकों को एकत्र करना महत्वपूर्ण कार्य है, क्योंकि इसी के ऊपर सांख्यिकी अनुसन्धान रूपी भवन का निर्माण होता है।

क्रियाओं की सफलता निर्भर करती है। यदि एकत्रित समंक अपूर्ण, अशुद्ध तथा त्रुटिपूर्ण है तो उनसे निकाले गये निष्कर्ष भी भ्रमात्मक होंगे। अतः समंकों से संग्रहण की प्रक्रिया में सतर्कता एवं सावधानी की आवश्यकता होती है।

प्राथमिक एवं द्वितीयक समंकों में अन्तर

सांख्यिकीय सामग्री दो वर्गों में विभाजित की जा सकती है - प्राथमिक एवं द्वितीयक। इन दोनों में अन्तर को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।

प्राथमिक समंक द्वितीयक समंक
प्राथमिक समंक वे समंक हैं, जो अनुसन्धानकर्ता द्वारा स्वयं अपने प्रयोग के लिए मौलिक रूप से एकत्रित किये जाते हैं।  इसके विपरीत, द्वितीयक समंक वे समंक हैं जो अनुसन्धानकर्ता द्वारा स्वयं संकलित नहीं किये जाते बल्कि पहले से संकलित होते हैं।
प्राथमिक समंक मौलिक होते हैं, क्योंकि इनका प्रयोग अनुसन्धानकर्ता द्वारा प्रथम बार किया जाता है। इसके विपरीत, द्वितीयक समंकों में मौलिकता नहीं पायी जाती है, क्योंकि द्वितीयक समंक सांख्यिकीय यन्त्रों से लेकर एक बार गुजर चुकते हैं।
प्राथमिक समंक अनुसन्धान के उद्देश्य के अनुकूल होते हैं, जबकि द्वितीय समंक अनुसन्धान के उद्देश्य के पूर्णतया अनुकूल नहीं होते हैं द्वितीयक समंक एकत्रित किसी अन्य उद्देश्य से किये जाते हैं।
प्राथमिक समंक संकलित करने में समय, धन और परिश्रम की अधिक आवश्यकता होती है जबकि द्वितीयक समंक बिना समय, धन व श्रम लगाये ही प्राप्त हो जाते हैं।

समंकों के प्रकार

संकलन की दृष्टि से समंक निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं। प्राथमिक और द्वितीय।

1. प्राथमिक समंक 

इस प्रकार के समंक अनुसन्धानकर्ता द्वारा प्रारम्भ में योजना बनाकर एकत्रित किये जाते हैं। इसीलिए इन्हें मौलिक समंक भी कहा जाता है। प्राथमिक समंकों को अनुसन्धानकर्ता स्वयं अपने उपयोग के लिए प्रथम बार संकलित करता है। इसमें समस्त सामग्री प्रारम्भ से अन्त तक नये सिरे से एकत्रित की जाती है। 

चूंकि यह समंक प्रथम बार संकलित किये जाते हैं इसी कारण इन्हें प्राथमिक समंक कहा जाता है। इस सम्बन्ध में क्राइस्ट ने लिखा है, “प्राथमिक समंकों से यह आशय है कि वे मौलिक हैं, अर्थात् जिनका समूहीकरण बहुत ही कम या नहीं हुआ है, घटनाओं का अंकन या गणन उसी प्रकार किया गया है, जैसा पाया गया है। मुख्य रूप से वे कच्चे पदार्थ होते हैं।

उदाहरणस्वरूप यदि हमें ग्रामीण किसानों के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त करनी है तो हम प्राथमिक समंकों के संकलन के लिए किसानों से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करेंगे।

2. द्वितीयक समंक

ऐसे समंक जो पहले संकलित किये जा चुके हैं, लेकिन उन्हें दुबारा अनुसन्धानकर्ता अपने उपयोग में लाता है, द्वितीयक समंक कहलाते हैं। वास्तव में यह समंक पहले से ही किसी अन्य व्यक्ति द्वारा संकलित किये हुए होते हैं और उन्हें आगे अनुसन्धान में प्रयोग किया जाता है। इसमें आँकड़ों का संग्रहण नहीं किया जाता, बल्कि किसी अन्य उद्देश्य के लिए संकलित सामग्री को प्रयोग में लाया जाता है।

इसके सम्बन्ध में ब्लेयर ने कहा है, "द्वितीयक समंक वे हैं जो पहले से अस्तित्व में हैं और जो वर्तमान प्रश्नों के उत्तर में नहीं बल्कि किसी दूसरे उद्देश्य के लिए एकत्रित किये गये हैं। द्वितीयक समंक या तो प्रकाशित हो सकते हैं या अप्रकाशित। इस प्रकार के समंक अपने मौलिक रूप में नहीं होते हैं, बल्कि पहले से ही सारणी या प्रतिशत या अन्य किसी रूप में होते हैं।

प्राथमिक समंकों का संकलन

प्राथमिक समंक संकलन की निम्नलिखित पद्धतियाँ हैं -

1. प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान - इस पद्धति के अन्तर्गत जिन व्यक्तियों से सूचना प्राप्त करनी होती है, संकलनकर्ता उनसे प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित करता है। वह वस्तुस्थिति का निरीक्षण उसका अंग बनकर करता है। यदि कारणवश प्रत्यक्ष अनुसन्धान सम्भव न हो अर्थात् परिस्थितियों से प्रश्न पूछकर सामग्री संकलित की जा सकती है। यह पद्धति उन परिस्थितियों से प्रश्न पूछकर सामग्री संकलित की जा सकती है। 

यह पद्धति उन परिस्थितियों में उपयुक्त है, जहाँ हम शुद्ध, स्पष्ट तथा विश्वसनीय परिणाम प्राप्त करना चाहते हो, अनुसन्धान का क्षेत्र सीमित हो, संकुचित सामग्री को गुप्त रखता हो तथा आँकड़ों की मौलिकता पर विशेष बल देता हो।

2. अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान - इस पद्धति में अनुसन्धानकर्ता स्वयं मौके पर जाकर सम्बन्धित व्यक्तियों के आँकड़े इकडे नहीं करता वरन् ऐसे लोगों से जानकारी प्राप्त करता है, जिन्हें उस क्षेत्र के बारे में जानकारी है; जैसे-मजदूरी से सम्बन्धित आँकड़े इकट्ठे करने के लिए मजदूरों के पास न जाकर इनके नेताओं, मिल-मालिकों से मौखिक पूछताछ की जाये।

3. सूचना देने वालों के द्वारा ही अनुसूचियाँ भरना - इस पद्धति में जिन बातों की जानकारी एकत्रित की जानी है उन बातों की एक अनुसूची या प्रश्नावली छपवाकर उन व्यक्तियों को हाथों-हाथ दे दी जाती है या डाक से भेज दी जाती है, जिनसे ना लेनी है। प्रश्नावली के साथ-साथ एक अनुरोध-पत्र भी भेजा जाता है तथा सूचनाएँ गुप्त रखने का आश्वासन भी दिया जाता है।

4. प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाकर सूचना प्राप्ति - इस रीति में प्रश्नों की अनुसूचियाँ बनाकर प्रगणकों के पास भेज दी जाती हैं। यह गणक लोग घर-घर जाकर सूचकों से जानकारी प्राप्त कर अनुसूचियाँ भरते हैं। भारत में जनगणना इसी प्रणाली द्वारा की जाती है। यह रीति अत्यधिक विस्तृत क्षेत्र के लिए उपयुक्त है तथा अधिक खर्चीली होने के कारण सरकार ही इस प्रणाली द्वारा आँकड़े एकत्र करती है।

5. स्थानीय स्रोतों या संवाददाताओं द्वारा सूचना प्राप्त करना - इस रीति के अन्तर्गत अनुसन्धानकर्ता न तो प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित व्यक्तियों से सम्बन्ध स्थापित करता है और न ही परोक्ष रूप से सम्बन्धित व्यक्तियों से ही जाँच-पड़ताल की जाती है।

बल्कि इसके विपरीत निश्चित क्षेत्र में अनुसन्धानकर्ता द्वारा स्थानीय आधार पर कुछ व्यक्तियों या संवाददाताओं की नियुक्ति कर दी जाती है जो कि विषय की छानबीन करते हैं। वांछित सूचना को अनुसन्धानकर्ता के पास भेजने का काम इन संवाददाताओं का होता है। इस रीति का प्रयोग अधिकतर समाचार-पत्रों तथा पत्रिकाओं एवं आकाशवाणी वालों के द्वारा किया जाता है।

द्वितीयक समंकों का संकलन

द्वितीयक समंकों को निम्न दो स्रोतों से प्राप्त किया जाता है। प्रकाशित स्रोत और अप्रकाशित स्रोत

प्रकाशित स्रोत

यह सामग्री अत्यधिक उपयोगी होती है तथा उनका प्रयोग सम्बन्धित विषय के शोधकर्ता करते हैं। प्रकाशित समंकों के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं।

  • सरकारी प्रकाशन - Statistical Abstract of India, Annual Survey of Industries.
  • आयोगों के प्रतिवेदन - Labor Commission, Guardian Commission.
  • परिषदों के प्रकाशन - Federation of Indian Chambers of Commerce and Industry. 
  • पत्र-पत्रिकायें - Economics Times, Commerce, Eastern Economist.
  • शोध संस्थाओं के शोध कार्य - National Council of Applied Economics Research.

अप्रकाशित स्रोत

अनेक अनुसन्धानकर्ता विभिन्न उद्देश्यों से सांख्यिकीय सामग्री संकलित करते हैं, किन्तु किन्हीं कारणवश उन्हें प्रकाशित नहीं करते। अधिकांश अप्रकाशित सामग्री व्यक्तियों या व्यापारिक संघों के सदस्यों के निजी उपयोग के लिए ही होती हैं।

उपयुक्त या विश्वसनीय रीति का चयन

अनुसन्धान के लिए आँकड़े एकत्रित करने की कौन-सी प्रणाली विश्वसनीय या उपयुक्त है यह कह पाना बहुत ही कठिन है। समय अवस्था के साथ-साथ सम्पूर्ण रीति अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। 

किसी एक प्रणाली को अच्छा मानना दूसरी प्रणालियों के लिए अन्याय होगा, किन्तु समस्या के हल के लिए समस्या का हल भी निकालना अनिवार्य है। उपयुक्त या विश्वसनीय रीति का चुनाव करते समय निम्न बातों पर ध्यान दिया जाता है।

1. अनुसन्धान की प्रकृति - अनुसन्धान की प्रकृति यदि व्यक्तिगत सम्पर्क पर आधारित है तो प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान ही ठीक है किन्तु यदि शिक्षित व्यक्ति से सूचना प्राप्त करना है तो अनुसूचियाँ भरवाई जाती हैं, इसके विपरीत सूचनाकर्ता के अशिक्षित होने पर प्रगणकों की सहायता ली जाती है।

2. अनुसन्धान का क्षेत्र - क्षेत्र सीमित होने व्यक्तिगत निरीक्षण या अनुसन्धान रीति उपयुक्त होगी जबकि विस्तृत क्षेत्र होने से अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान रीति उपयुक्त होगी।

3. शुद्धता का स्तर - अधिक शुद्धता के लिए व्यक्तिगत निरीक्षण या अनुसन्धान रीति उपयुक्त होगी।

4. उपलब्ध धन - कम धन से सम्बन्ध हो तो कम खर्चीली रीति अप्रत्यक्ष मौखिक रीति किन्तु यदि धन की कमी नहीं है तो प्रत्यक्ष व्यक्ति व्यक्तिगत रीति या प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाने वाली रीति अपनानी चाहिए।

5. उपलब्ध समय - कम समय में अप्रत्यक्ष मौखिक रीति अपनानी चाहिए। 

6. अनुसन्धान का उद्देश्य - अनुसन्धान या खोज का उद्देश्य समंक संकलन की रीति के चुनाव के समय भारी महत्व रखता है। इससे स्पष्ट है कि किसी एक रीति को विश्वसनीय या उपयुक्त मानना ठीक नहीं है।

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