बादल कविता की व्याख्या - सुमित्रानन्दन पन्त

1. कभी चौकड़ी भरते मृग से भरपूर चरण नहीं धरते, 
मत मजगंज कभी झूमते सजग शशक नभ को चलते।

संदर्भ - प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ पन्त जी की प्रसिद्ध कविता 'बादल' से अवतरित की गई है। 

प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में कवि पन्त जी ने बादलों की तुलना हिरण और खरगोश की चंचलता से किया है।

संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश में कवि के माध्यम से बादल कह रहे हैं कि हम हिरण की तरह चौकड़ी भरते हुए पृथ्वी पर चरण नहीं धरते हैं अर्थात् जब मृग दौड़ते हैं तब मानो ऐसा लगता है कि उसके चरण धरती पर नहीं पड़ रहे हैं। 

हम कभी मतवाले हाथियों की तरह आसमान में झूमते हैं और कभी खरगोश की तरह सजग होकर चला करते हैं। जिस तरह खरगोश वन में बड़ी सजगता से विचरण करते हैं, उसी प्रकार हम बादल भी नभ में सजगता से विचरण करते हैं।

विशेष - (1) हिरण और खरगोश की तुलना अत्यंत ही सार्थक है। दोनों ही अत्यंत सजगता और चंचलता के साथ विचरण करते हैं। इसी का बादल भी अनुकरण करते हैं। (2) प्रकृति का मानवीकरण तथा भाषा का प्रवाह देखने को मिलता है।

2.सुरपति के हम ही हैं अनुचर, 
जगत्प्राण के भी सहचर; मे
घदूत की सजल कल्पना, 
चातक के चिर-जीवन घर । 
मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर, 
सुभग स्वाति के मुक्माहार, 
विहग वर्ग के गर्भ विधायक, 
कृषक बालिका के जलधर ।।

सन्दर्भ - प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ पन्त जी की प्रसिद्ध कविता 'बादल' से अवतरित हैं। 

प्रसंग-इन पंक्तियों में बादल अपना स्वयं परिचय देते हैं और अपने कार्यों को बताते हैं। 

व्याख्या - हम इन्द्र देवता की आज्ञा का पालन करने वाले हैं। (हिन्दुओं के शास्त्रों में इन्द्र को वर्षा ऋतु का देवता बताया गया है, अतः उसकी ही आज्ञा से वर्षा होती तथा बन्द होती है, इसीलिए बादल ने स्वयं को इन्द्र का अनुचर बताया है)। हम वायु के साथ चलने वाले हैं। वायु ही बादलों को इधरउधर उड़ाती रहती है। 

हमसे ही मेघदूत काव्य के कारूणिक प्रसंग का आविर्भाव हो सका (मेघदूत में विरही यक्ष का विरह-सन्देश मेघ के द्वारा ही विरहिणी यक्षिणी को पहुँचाया गया है)। हम ही चातक को सदैव से प्राणदान देते आए हैं, (चातक वर्षा की बूँद ही ग्रहण करता है, अन्यथा वह प्यासा रहकर अपने प्राण त्याग देता है)।

हम ही मस्त मोर के मनोहर नृत्य के कारण हैं। (बादलों को उमड़ता देखकर मोर मस्त होकर नाचने लगते हैं)। हम ही सुन्दर-स्वाति नक्षत्र के मोतियों के समूह हैं ( स्वाति नक्षत्र की बूँद अगर केले में पड़ती है तो कपूर बन जाती है और यदि शुक्ति (सीप) में पड़ती है तो मोती बन जाती है)। 

हम ही पक्षियों की जाति में गर्भ का विधान करते हैं (वर्षाकाल में ही पक्षियों में काम-उत्तेजना सजग होती है और हम ही कृषक बालिका के बादल हैं, अर्थात् हमारे द्वारा ही उसकी फसल पानी प्राप्त करके फलती-फूलती है।

विशेष – (1) कविता का वर्णन प्रथम पुरुष में होने के कारण अत्यन्त प्रभावपूर्ण बन गया है। 

(2) वर्षाकाल में होने वाले कार्यों का वर्णन बड़ी काव्यमयता के साथ किया गया है । 

(3) 'मेघदूत की सजल कल्पना' एक अति कारुणिक प्रसंग की याद दिलाकर पाठक की मस्तिष्क-शिखाओं को झकझोर देती है।

3. जलाशयों में कमल दलों-सा 
हमें खिलाता नित दिनकर, 
पर बालक-सा वायु सकल-दल, 
बिखेर देता, चुन सत्वर; 
लघु लहरों के चल-पलनों में 
हमें झुलाता जब सागर, 
वही चील-सा झपट, बाँह गह, 
हमको ले जाता ऊपर।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में चील और बादलों की तुलना कवि पन्तजी कर रहे हैं।

व्याख्या - जिस प्रकार तालाबों में उगे हुए कमलों का विकास सूर्य से होता है, उसी प्रकार वह सूर्य हमें भी विकास प्रदान करता है (सूर्य के ताप के कारण ही बादलों का निर्माण होता है, यह वैज्ञानिक मान्यता है), किन्तु जिस प्रकार बालक अपनी इकट्ठी की हुई वस्तुओं को तितर-बितर कर देता है, उसी प्रकार वायु हमें एकत्रित करके फिर शीघ्र ही बिखेर देती है।

जब सागर हमें अपनी छोटी-छोटी लहरों के चंचल पालनों में झुलाता है (अर्थात् जब सागर की लहरों से बादल बनकर ऊपर उठते हैं) तो वही वायु हम पर इस प्रकार झपट पड़ती है, जिस प्रकार चील अपने शिकार पर झपटती है और हमारा हाथ पकड़ कर हमें ऊपर ले जाती है।

विशेष - (1) चील और वायु की तुलना अत्यन्त सार्थक है। चील अपने शिकार पर झपटती है और उसे अपने पंजों में दबाकर एकदम ऊपर उड़ जाती है, इसी प्रकार वायु बादलों को एकदम ऊपर ले जाती है।

( 2 ) प्रकृति का मानवीकरण, भाषा का प्रवाह, परम्परागत उपमानों का नवीनतम ढंग से प्रयोग. आदि ।

4. भूमि-गर्भ में छिप विहंग-से, 
फैला कोमल, रोमिल पंख, 
हम असंख्य अस्फुट बीजों में 
सेते साँस, छुड़ा जड़ पंक, 
विपुल कल्पना - से त्रिभुवन की 
विविध रूप घर, भर नभ-अंक, 
हम फिर क्रीड़ा-कौतुक करते, 
छा अनन्त - उर में निःशंक।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्य पंक्तियों में बादलों के असीम आकार का रूप प्रस्तुत किया गया है । 

व्याख्या - जिस प्रकार पक्षी अपने कोमल और रोएँदार पंखों में अपने अण्डों को सेकर उनसे बच्चे निकालते हैं, उसी प्रकार हम पृथ्वी के हृदय में छिपकर पड़े हुए अविकसित असंख्य बीजों को उनकी जड़तापूर्ण कीचड़ छुड़ाकर उन्हें जीवन-दान करते हैं, अर्थात् उन्हें पल्लवित करते हैं (नमी पाकर ही तो बीज विकसित होता है और इस नमी का कारण है बादल और उसका पानी) ।

यदि तीनों लोक मिलकर किसी विशाल कल्पना की कल्पना करें तो उसका जो रूप होगा, उसी जैसे विशाल एवं विविध रूपों से सम्पन्न होकर हम आकाश को अपनी गोद में भरकर (आकाश में चारों ओर से छाकर) निःसंकोच उसके असीम हृदय में कौतूहल से भरे हुए खेल किया करते हैं, अर्थात् हम असीम आकाश में इधर से उधर उमड़ते फिरा करते हैं।

विशेष - (1) प्रथम चार पंक्तियों की उपमा में गुण-साम्य होने से अत्यन्त प्रभावशीलता आ गई

(2) विपुल कल्पना से त्रिभुवन की इस पंक्ति से बादलों के असीम आकार का रूप प्रस्तुत कर दिया गया है।

5. कभी अचानक, भूतों का सा 
प्रकटा विकट महा-आकार,
कड़क, कड़क, जब हँसते हम सब, 
थर्रा उठता है संसार;
फिर परियों के बच्चों से हम 
सुभग सीप के पंख पसार, 
समुद पैरते शुचि ज्योत्स्ना में, 
पकड़ इन्दु के कर सुकुमार !

संदर्भ - पूर्ववत् ।

प्रसंग- बादलों के असीम आकार तथा वर्षा के बाद के बादलों का रूप वर्णन यहाँ कवि कर रहा है।

व्याख्या - कभी-कभी हम अचानक भूतों का-सा विकट विशाल शरीर धारण कर लेते हैं और जब हम कड़-कड़ाकर हँसते हैं तो हमारी भयानक हँसी को सुनकर सारा संसार डर के मारे काँप उठता है। 

( यह कल्पना उस समय की है जब बादल चारों ओर से घिर आते हैं, बिजली गड़गड़ाने लगती है।) इसके बाद फिर हम परियों के बच्चों के-से सुन्दर सीप-जैसे स्वच्छ पंखों को पसार कर चन्द्रमा के किरण-रूपी कोमल हाथों को पकड़कर निर्मल चाँदनी में प्रसन्न होकर विचरण करने लगते हैं। 

इन पंक्तियों में कवि की सूक्ष्म दृष्टि विचारणीय है। जब बादल बरसते हैं तो चारों ओर से घिरकर अत्यन्त भयानक रूप धारण कर लेते हैं। बिजली चमकती है और गड़गड़ाती है जो बहुत ही भयंकर लगती है। 

बरसने के बाद बादल हल्के हो जाते हैं। उनकी कालिमा नष्ट हो जाती है। चाँद निकल आता है और स्वच्छ चाँदनी में बादल के छोटे-छोटे टुकड़े इधर से उधर दौड़ते फिरा करते हैं। इस यथातथ्य घटना का वर्णन कवि ने बहुत ही काव्यमय ढंग से प्रभावपूर्ण शब्दों में किया है।

विशेष - (1) यह विश्वास किया जाता है कि भूतों का रंग काला होता है और उनकी देह बड़ी विशाल होती है। आकार की इसी विशालता और भयंकरता को प्रकट करने के लिए कवि ने 'आ' ध्वनि का प्रयोग किया है

प्रकटा विकट महा-आकार

इसी प्रकार 'पर्वत प्रदेश में पावस' नामक कविता में भी पर्वत की विशालता दिखाने के लिए 'आ' ध्वनि का प्रयोग किया गया है।

मेखलाकार पर्वत अपार 
अपने सहस्र दृग सुमन फार, 
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार।

(2) भूतों की हँसी बड़ी भयानक सुनी जाती है। 'कड़क-कड़क' शब्दों में वह भयानकता सन्निहित हो गई है।

(3) कवि ने प्रथम चार पंक्तियों में बादलों के विकट आकार का वर्णन किया है, इसीलिए वर्णनोपयुक्त प्रयोग किया गया है। अन्तिम चार पंक्तियों में बादलों के कोमल रूप का वर्णन है, इसलिए कोमल शब्दों का चयन किया गया है। 

इस भयानकता और कोमलता के बीच व्यवधान सूचित करने के लिए 'फिर' शब्द आया है जो नाटक में पटाक्षेप की भाँति हृदय - परिवर्तन कर देता है। 

(4) वर्षा के उपरान्त बादलों का रूप-वर्णन करने के लिए उनकी परियों के बच्चों से तुलना बहुत ही साम्यपूर्ण एवं भावपूर्ण बन गई है।

(5) भाषा में भावानुकूल प्रवाह है। उपमा अलंकार की प्रधानता है। 

6. बुद्बुद्-द्युति तारक-दलतरलित 
तम के यमुना-जल में श्याम 
हम विशाल जम्बाल - जाल से 
बहते हैं अमूल, अविराम;
दमयन्ती - सी कुमुद - कला के 
रजत-करों में फिर अभिराम 
स्वर्ण-हंस से हम मृदु ध्वनि कर, 
कहते प्रिय-संदेश ललाम !

संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग - तारों के सुन्दर समूह का वर्णन यहाँ कवि कर रहा है। 

व्याख्या - जिस प्रकार अँधेरे में यमुनाजी के काले जल में बुलबुलों की कांति के मध्य बिना जड़ की विशाल काई निरन्तर गति से बहती रहती है, उसी प्रकार हम तारों के समूह के प्रकाश में आकाशरूपी श्याम यमुना में बिना किसी आधार (जड़) के अनवरत गति से विचरण करते रहते हैं। 

फिर दमयन्ती सी चन्द्रकला की चाँदी जैसी चमकती हुई सुन्दर किरणों के स्वर्ण हंस की भाँति मधुर स्वरों से प्रिय का मनोहर सन्देश देते हैं (जिस प्रकार दमयन्ती ने अपना सन्देश हंस के द्वारा अपने प्रियतम राजा नल के पास भेजा था, उसी प्रकार हम चन्द्रकला के सन्देशों को उसके प्रियतम के पास तक पहुँचाते हैं।)

विशेष - (1) प्रथम चार पंक्तियों में उपमा अलंकार है जो बहुत ही साम्यपूर्ण एवं भावपूर्ण हैं।  

(2) 'दमयन्ती - सी कुमुद - कला' में प्रतीप अलंकार है।

7. दुहरा विद्युद्दाम चढ़ा द्रुत, 
इन्द्रधनुष की कर टंकार; 
विकट-पटह-से निर्घोषित हो, 
बरसा विशिखों-सा आसार; 
चूर्ण-चूर्ण कर वज्रायुध से 
भूघर को, अति भीमाकार 
मदोन्मत्त वासव-सेना-से 
करते हम नित वायु-विहार।

संदर्भ- पूर्ववत् ।

 प्रसंग - पुराणों में एक कथा आती है कि प्राचीन काल में पर्वतों के पंख हुआ करते थे। वे जहाँ भी चाहते, उड़कर पहुँच जाते। कभी वे किसी नगर में जा बैठते और कभी किसी गाँव में। 

इससे बहुत लोग मारे जाते। उनके इस विध्वंस को देखकर इन्द्र को बहुत क्रोध आया और उसने एक विशाल सेना लेकर पर्वतों पर चढ़ाई कर दी तथा उनके पंख काट डाले। 

महाराज भर्तृहरि ने 'नीतिशतक' में इस कथा का उल्लेख किया है। इन पंक्तियों में कवि ने भी इसी गाथा की ओर संकेत किया है ।

व्याख्या - इन पंक्तियों में बादलों को विजयी इन्द्र की सेना के रूप में चित्रित किया गया है। बादल कहता है कि हम शीघ्रता से बिजली रूपी डोरी की दुहरी प्रत्यंचा चढ़ा करके और इन्द्रधनुष की टंकार करके तथा भयंकर नगाड़ों की-सी अपनी गर्जना द्वारा घोषणा करके और बूँद रूपी बाणों को अपार वर्षा करके अपने वज्र (इन्द्र-वज्र) के समान कठोर शस्त्र से पहाड़ों को चूर्ण-चूर्ण करके हम अति विशाल शरीर धारण करके तथा विजय से मदोन्मत्त होकर इस प्रकार वायु में सदैव विचरण करते हैं जिस प्रकार इन्द्र की विशाल सेना पर्वतों के पक्षच्छेद करके विजय में झूमकर उन्मुक्त विचरण करती है।

विशेष-रूपक अलंकार का सुन्दर निर्वाह हुआ है। 

8. व्योम - विपिन में जब वसन्त - सा 
खिला नव-पल्लवित-प्रभात,
बहते हम तब अनिल-स्रोत में 
गिर तमाल-तम के-से पात, 
उदयाचल से बाल-हंस फिर 
उड़ता अम्बर में अवदात, 
फैल स्वर्ण - पंखों से हम भी, 
करते द्रुत मारुत से बात ।

सन्दर्भ - पूर्ववत् ।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में प्रातःकालीन बेला में बादलों के सुन्दर रूप का वर्णन कवि कर रहा है । व्याख्या-जब आकाश रूपी वन में नये पत्तों के समान नयी आभा से युक्त प्रातःकाल आता है तो हम वायु के प्रवाह में श्यामवर्ण तमाल वृक्ष के पत्तों के समान टूटकर दूर उड़ जाते हैं। 

जिस प्रकार बसन्त के आने पर तमाल के वृक्षों के पत्ते गिरने लगते हैं, उसी प्रकार प्रातःकाल होने पर उषा के प्रकाश से हम बिखर जाते हैं। फिर हंस- शिशु के समान उदयाचल से नवोदित सूर्य निकलकर और अपनी श्वेत किरणों को सँजोकर ऊपर चढ़ने लगता है तो हम भी अपने स्वर्ण पंखों को फैलाकर वायु से बातें करने लगते हैं, अर्थात् वायु के साथ हम भी शीघ्रता से उड़ने लगते हैं ।

विशेष - (1) इन पंक्तियों में उपमानों का प्रयोग बहुत ही भाव-व्यंजक है । 

(2) 'करते द्रुत मारुत से बात' में मुहावरे का प्रयोग सार्थक है। इसमें 'मारुत' और 'बात' शब्द का प्रयोग पुनरुक्तवदाभास अलंकार से युक्त है।

(3) 'स्वर्ण - पंखों' में स्वर्ण विशेषण प्रातःकालीन लालिमा का द्योतक है जो कवि की सूक्ष्म दृष्टि है।

9.  धीरे- धीरे संशय - से उठ
बढ़-अपयश से शीघ्र अघोर, 
नभव के उर में उमड़ मोह से 
फैल लालसा-से निशि भोर,
इन्द्र-चाप सी व्योम भृकुटि पर 
लटक मौन चिन्ता से घोर 
घोष भरे विप्लव भय से हम 
छा जाते द्रुत चारों ओर।

 संदर्भ- पूर्ववत् ।

प्रसंग - इन पंक्तियों द्वारा आकाश का मानवीकरण करते हुए बादलों कि चिन्ता को बताया गया हैं।

व्याख्या - बादल कह रहे हैं कि जिस प्रकार मानव के हृदय में किसी के प्रति शंका बहुत धीरेधीरे उठना प्रारम्भ होती है, उसी प्रकार आकाश के हृदय में हम उमड़ उठते हैं। किसी की बुराई के फैलने में समय नहीं लगता ठीक उसी प्रकार हम भी आकाश में शीघ्र ही छा जाते हैं। हम आकाश में इस प्रकार उमड़ते हैं जिस प्रकार मनुष्य के हृदय में मोह। क्या मानव की लालसाओं की कभी परिसमाप्ति होती है ? 

हम भी आकाश में लालसा की ही भाँति रात-दिन फैले रहते हैं। बादल चिन्ता की भाँति आकाश की भौंह पर लटके रहते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि जब हम किसी बात का गम्भीर चिन्तन करते हैं तो हमारी भौंहें कुछ नीचे की ओर लटक जाती हैं। कविवर पन्त जी ने अपने सूक्ष्म निरीक्षण के द्वारा बादलों को मौन चिन्ता बतलाया है। 

आगे चलकर उसकी उपमा विद्रोह के भय से दी गई है। वास्तविकता यह है कि विद्रोह का भय बड़ी शीघ्रता से चारों ओर व्याप्त हो जाता है। इसी प्रकार बादल भी समस्त आकाश में शीघ्र ही फैल जाते हैं ।

विशेष-उक्त पंक्तियाँ अत्यन्त ही श्रेष्ठ एवं अपूर्व हैं। आकाश का मानवीकरण है। अमूर्त-मूर्त की उपमा देना छायावाद का वैशेष्य है। संशय से धीरे और कौन-सी चीज उठती है, अपयश कितना शीघ्र फैल जाता है, मोह का उमड़ना तो विख्यात ही है और लालसा । क्या इसका छोर कभी हो सकता है ? इनसे सुन्दर अपमान विश्व में शायद कहीं हो। 

10. पर्वत से लघु- धूलि, धूलि से 
पर्वत बन, पल में, साकार 
काल - चक्र से चढ़ते, गिरते, 
पल में जलधर, फिर जलधार, 
कभी हवा में महल बनाकर, 
सेतु बाँध कर कभी अपार, 
हम विलीन हो जाते सहसा 
विभव-भूति ही से निस्सार ।

सन्दर्भ - पूर्ववत् ।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने स्पष्ट किया है कि ध्वंस व निर्माण प्रकृति की क्रियाएँ हैं। 

व्याख्या - इन पंक्तियों में बादल अपने ध्वंस और निर्माण की कहानी बताता हुआ कहता है कि कभी तो हम पर्वत-जैसे महाकार से धूल के कण-जैसे लघुतम आकार में आ जाते हैं और कभी धूल-कण के लघुतम आकार से पर्वत-जैसे भीमाकार को प्राप्त हो जाते हैं। 

 हमारा यह उत्थान - पतन साकार काल-चक्र के समान है। इन्हीं के बन्धन में बँधकर कभी तो हमारा निर्माण होता है और हम जलधर बन जाते हैं तथा कभी विध्वंस होता है और हम पानी की बूँदों में बदलकर नष्ट हो जाते हैं। 

कभी हम हवा में ऊँचे उड़कर इकट्ठे हो जाते हैं, मानो महल बना लेते हैं, कभी अपने अपार विस्तार के कारण असीम आकाश में पुल-सा बाँध देते हैं और कभी अचानक इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार संसार का सार-रहित वैभव नष्ट हो जाता है। 

विशेष - इन पंक्तियों में कवि का उपदेशक रूप बिल्कुल स्पष्ट है। ध्वंस और निर्माण यही तो सृष्टि की प्रक्रिया है तथा संसार की विभूति कितनी क्षणभंगुर है, इन्हीं तथ्यों को कवि ने बादल के माध्यम से व्यक्त किया है। छायावादी काव्य में प्रकृति का उपदेशात्मक रूप भी एक प्रमुख तत्व है।

11. नग्न गगन की शाखाओं में 
फैला मकड़ी का-सा जाल, 
अम्बर के उड़ते पतंग को 
उलझा लेते हम तत्काल
फिर अनन्त-उर की करुणा से 
त्वरित द्रवित हो कर, उत्ताल
आतप में मूर्छित कलियों को 
जाग्रत करते हिम-जल डाल ।

संदर्भ - पूर्ववत् ।

प्रसंग - इन पंक्तियों में बादलों के कठोर एवं मृदुल दोनों प्रकार के रूपों का वर्णन किया गया है। 

व्याख्या - जैसे मकड़ी सूखे पेड़ पर बैठे हुए पतंग (कीड़ा विशेष) को अपने जाल में फँसा लेती है उसी प्रकार हम निर्मल आकाश में विचरण करने वाले सूर्य को अपने जाल में तुरन्त उलझा लेते हैं।

अर्थात् उसे चारों ओर से घेर लेते हैं। बादल सूर्य को तभी घेरते हैं जब आकाश स्वच्छ और निर्मल रहता है, इसीलिए उसे 'नग्न गगन' कहा गया है।

फिर अपने अनन्त हृदय की करुणा से तुरन्त पिघल जाते हैं और भीषण गर्मी में मुरझाई हुई कलियों को ठंडा पानी देकर उनमें फिर से प्राणों का संचार कर देते हैं। 

विशेष – (1) 'नग्न गगन' का प्रयोग अत्यन्त भावपूर्ण है। (2) 'पतंग' शब्द श्लिष्ट है।

12. हम सागर के धवल-हास हैं 
जल के धूम, गगन की धूल, 
अनिल फेन ऊषा के पल्लव, 
वारि वसन, वसुधा के मूल,
नभ में अवनि, अवनि में अम्बर, 
सलिल - भस्म, मारुत के फूल, 
हम ही जल में थल, थल में जल, 
दिन के तम, पावक के तूल।

संदर्भ - पूर्ववत् ।

प्रसंग - प्रस्तुत काव्य पंक्तियों में बादल अपना परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं ।

व्याख्या-अपना परिचय देता हुआ बादल कहता है कि हम सागर की शुभ्र हँसी के समान बादल का निर्माण जल सागर से ही होता है, अतः सागर के ऊपर उड़ते हुए वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो सागर हँस रहा हो। 

हम जल के धुएँ के समान हैं। जल की भाप गर्मी पाकर बादल में परिणत होती है, अतः वह उठती हुई भाप ही मानो धुआँ है। हम आकाश की धूल के समान हैं। 

जिस प्रकार पृथ्वी पर धूल इधर से उधर उड़ी फिरा करती है, इसी प्रकार आकाश में बादल भी इधर-उधर दौड़ते हैं। हम हवा के फेन हैं। हवा के झकोरों से ही पानी में फेन बनकर हवा के साथ उड़ते हैं, ऐसा लगता है मानो वे हवा के ही फेन हों, हम प्रातःकाल में उदित होने वाली उषा के पत्ते हैं। 

जिस प्रकार नये पत्ते लाल और मुलायम होते हैं, उस प्रकार उषाकालीन बादल हल्के और लाल होते हैं। हम पानी के वस्त्र हैं। वस्त्रों का काम है किसी को छिपाना । बादल अपने हृदय में पानी को छिपाता है। 

बादल अपने हृदय में पानी को छिपाए रहते हैं, इसलिए वे पानी के वस्त्र कहे जा सकते हैं। हम पृथ्वी के आधार हैं बादलों से पानी प्राप्त करके ही पृथ्वी हरी-भरी रहती है, इसलिए उन्हें पृथ्वी का आधार कहना उचित ही है। 

जब हम हवा के साथ ऊपर जाते हैं तथा नीचे आते हैं तो आकाश में पृथ्वी और पृथ्वी में आकाश का अवतरण-सा प्रतीत होता है। 

हम पान की भस्म है, पानी ही गर्मी पाकर बादल बनता है। इसीलिए उन्हें पानी की भस्म कहा गया है) हम हवा के फूल हैं। हवा बादलों को इधर-उधर बिखेर देती है। 

वे बिखरे हुए टुकड़े ही मानो फूल हैं। जल के ऊपर ओछा करके उसे थल के समान दृश्यमान बना देते हैं, और अपनी वर्षा के कारण थल को जल में परिवर्तित कर देते हैं।

हम दिन के अन्धकार हैं। अर्थात् बादलों के छा जाने से दिन में भी अँधेरा हो जाता है। हम आग की रुई हैं। जिस प्रकार रुई में आग लग जाती है, उसी प्रकार बादल भी परस्पर संघर्षित होने से आग उत्पन्न कर देते हैं। अतः उन्हें आग की रुई कहा गया है।

विशेष - (1) समस्त उपमायें लक्षणामूलक है। 

(2) सारी उपमानों में कवि की सूक्ष्म दृष्टि सन्निहित है। 

(3) समास-पद्धति होने से भावों में गाम्भीर्य है। फिर भी भाषा का प्रवाह अक्षुण्ण है। 

13. व्योम-बेलि, ताराओं की गति, 
चलते-अचल, गगन के गान, 
हम अपलक-तारों की तन्द्रा, 
ज्योत्स्ना के हिम, शशि के यान; 
पवन-धेनु, रवि के पांशुल-श्रम, 
सलिल अनल के विरल-वितान, 
व्योम-पलक, जल-खग, बहते-थल 
अम्बुधि की कल्पना महान्।

प्रसंग- पूर्ववत् ।

संदर्भ- कवि ने नवीनतम उपमानों के माध्यम से बादलों के स्वरूप का परिचय अत्यंत काव्यमय ढंग से किया है।

व्याख्या - हम आकाश की लता है (जिस प्रकार लता चारों ओर फैल जाती है, उसी प्रकार बादल भी आकाश में चारों ओर फैले रहते हैं), हम तारों की गति हैं, उनके चलने की शक्ति हैं। जब बादल दौड़ते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो तारे दौड़ रहे हों); हम चलते हुए पर्वत हैं (बादलों का आकार भीमाकार पर्वत के समान ही होता है। 

इसीलिए उन्हें आकार- साम्य के कारण पर्वत कहा गया है, किन्तु दोनों में एक भेद भी है - पर्वत अचल होता है, बादल चलते हैं। अतः उन्हें चलते ‘अचल' कहा गया है, हम आकाश के गीत हैं। बादलों की गर्जना ही मानो आकाश के गीत हैं, हम निर्निमेष दृष्टि से देखते हुए तारों की हल्की नींद हैं। 

जिस प्रकार तन्द्रा में मनुष्य पूरी तरह से नसोकर केवल एक खुमार-सी में डूबा रहता है, उसी प्रकार बादलों का झीना आवरण होने से मानो तारे भी तन्द्रित हों, इसीलिए बादलों को तारों की तन्द्रा कहा गया है। हम चाँदनी के बर्फ के टुकड़े हैं। चाँदनी रात में बादलों में छोटे-छोटे सफेद टुकड़े होते हैं। 

मानो वे बर्फ के टुकड़े हों, हम चन्द्रमा के रथ हैं जिस प्रकार मनुष्य रथ में बैठकर चलता है, उसी प्रकार चलते हुए बादलों में चन्द्रमा भी चलता हुआ प्रतीत होता है। मानों वह बादलों के रथ पर बैठा हुआ जा रहा हो।

हम हवा की गाय हैं गायों का रंग भी श्वेत होता है और बादलों का भी श्वेत होता है । जिस प्रकार ग्वाल अपनी गायों को हाँक कर आगे-आगे कर लेता है, उस प्रकार हवा के झोंको में बादल आगे-आगे ही उड़े चले जाते हैं, इसीलिए उन्हें पवनरूपी ग्वाल की धेनु कहा गया है। 

हम सूर्य के धूलि से युक्ति श्रम हैं (जिस प्रकार परिश्रम करने से मनुष्य के शरीर पर धूल जम जाती है, उसी प्रकार बादलों के झीने पर्दे में छिपकर सूर्य ऐसा प्रतीत होता है, मानो उसके शरीर पर धूल जम गई हो), हम पानी और आग के झीने अवरण हैं।

(बादलों में पानी और आग दोनों छिपी रहती हैं), हम आकाश की पलक हैं (पलकों का रंग भी काला होता है और बादलों का रंग भी काला होता है। 

हम जल में विहार करने वाले पक्षी के समान हैं, जिस प्रकार पक्षी जल में विहार करता है, उसी प्रकार जल के ऊपर दौड़ते बादल ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो जल में क्रीड़ा कर रहे हों। हम बहते हुए ल हैं बादलों का श्वेत पुंज थल के समान प्रतीत होता है। 

थल तो स्थिर रहता है, किन्तु बादल गतिशील हैं, अतः उन्हें 'बहते थल' कहा गया है। हम मानो सागर की विशाल कल्पना हैं। जिस प्रकार कल्पना का आविर्भाव मनुष्य के हृदय से होता है, उसी प्रकार बादलों का जन्म भी सागर से होता है। बादलों के असीम विस्तार के कारण, इसीलिए, उन्हें सागर की महान् कल्पना कहा गया हैं।

विशेष - (1) समास शैली के कारण भावों में दुरुहता आ गई है।

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