भारत के विदेशी व्यापार की संरचना का वर्णन

पिछले दो दशकों में भारत के व्यापार की दिशा तथा प्रवृत्ति की विवेचना कीजिए । उत्तर- किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार का महत्वपूर्ण स्थान होता है। विकासशील देशों में तो विदेशी व्यापार का महत्व और भी अधिक होता है, क्योंकि इन देशों को अपना आर्थिक विकास करने के लिए उत्पादन क्षमता में वृद्धि करना आवश्यक है। 

उत्पादन बढ़ाने के लिए आयातों की आवश्यकता होती है जो व्यापार के माध्यम से ही सम्भव है। आयात के साथ ही प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन को ठीक करने के लिए निर्यातों को बढ़ाना भी आवश्यक है । अर्द्धविकसित देश प्रायः खाद्यान्न एवं कच्चे माल का निर्यात करते हैं, किन्तु औद्योगीकरण की अवस्था में इन देशों को भी कच्चे माल की आवश्यकता होती है

 तथा जनसंख्या में वृद्धि के कारण इनके पास खाद्यान्न का अतिरेक भी नहीं बच पाता है, अत: इन देशों को निर्यात करने के लिए नई वस्तुओं की खोज करनी पड़ती है। भारत ने भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद निर्यात बढ़ाने के लिए व्यापार की नई दिशाओं की खोज की है।

स्वतन्त्रता से पूर्व भारत का विदेशी व्यापार - प्राचीन काल में भारत का विदेशी व्यापार काफी विकसित रहा है। इसकी अपार प्राकृतिक सम्पदा, अद्वितीय कला-कौशल एवं परिवहन ज्ञान ने भारत को विश्व के राष्ट्रों में प्रमुख स्थान दिलवाया। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले भारत आयातों की तुलना में निर्यात अधिक करता था । 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत ने ब्रिटेन को भारी मात्रा में निर्यात कर बहुत बड़ा स्टर्लिंग बैलेंस अर्जित कर लिया था। सन् 1937-39 से 1947-48 की अवधि में भारत के निर्यात तथा आयात दोनों में वृद्धि हुई, किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति की अवधि में भारत से कच्चे माल का निर्यात कम हो गया तथा निर्मित वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि हुई। भारत की वस्तुओं का सबसे अधिक निर्यात राष्ट्रमण्डल के देशों को होता था। 

इसके बाद जापान व अमेरिका का स्थान था। स्वतन्त्रता से पहले भारत में सर्वाधिक आयात इंग्लैण्ड से किया जाता था, दूसरा स्थान अमेरिका का था। आयातों में खाद्यान्न, उपभोग वस्तुओं तथा पूँजीगत वस्तुओं का प्रमुख स्थान था।

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत का विदेशी व्यापार–सन् 1950-51 में भारत ने 606 करोड़ रुपये का निर्यात तथा 608 करोड़ रुपये का आयात किया। इस प्रकार व्यापार शेष में 2 करोड़ रुपये का घाटा हुआ। 

पचास के दशक में निर्यात की तुलना में आयात में अधिक वृद्धि हुई, विशेष कर द्वितीय पंचवर्षीय योजना में अपनाई गई तीव्र औद्योगिक विकास की नीति के कारण इस अवधि में आयात की औसत वार्षिक वृद्धि दर 7-98 रही, जबकि निर्यात की वार्षिक वृद्धि दर 1.13 रही । साठ के दशक में निर्यात की औसत वार्षिक वृद्धि दर में काफी सुधार हुआ और वह 9.71 प्रतिशत हो गई। 

इसकी तुलना में आयात की औसत वार्षिक वृद्धि दर काफी ऊँची हो गई जो क्रमशः 16-37 प्रतिशत तथा 24.13 प्रतिशत हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि 1980-81 में जहाँ निर्यात का मूल्य 6,711 करोड़ रुपये हो गया वहाँ आयात का मूल्य 12,594 करोड़ रुपये तक पहुँच गया। 

अस्सी के दशक में निर्यात की ऊँची वृद्धि दर जारी ही नहीं रही बल्कि बढ़कर 18-40% हो गई तथा आयात की औसत वार्षिक वृद्धि दर घटकर 13.43 हो गई । नब्बे के दशक की उदार आर्थिक नीति के अन्तर्गत निर्यात की औसत वार्षिक वृद्धि दर 14.91 प्रतिशत रही । इसी अवधि में आयात की औसत वार्षिक वृद्धि दर अस्सी के दशक की ही तरह 13-10 पर कायम रही । 

वर्ष 1998-99 के दौरान देश में निर्यात एवं आयात क्रमशः 1,41,604 तथा 1,76,099 करोड़ रुपये के रहे । इस प्रकार 1951-52 से 1996-97 की पूरी अवधि में भारत का व्यापार शेष केवल 1972-73 तथा 1976-77 को छोड़कर घाटे में रहा ।

भारत के विदेशी व्यापार की संरचना का वर्णन

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत के निर्यात एवं आयात में काफी वृद्धि हुई है । निर्यात 1950-51 में 606 करोड़ रुपये से बढ़कर 1997-98 में 1,26,286 करोड़ रुपये के मूल्य का हो गया। इसी अवधि में आयात 608 करोड़ रुपये से बढ़कर 1,51,554 करोड़ रुपये के मूल्य का हो गया । 

इस वृद्धि के एक अंश के लिए निर्यात तथा आयात की कीमत में वृद्धि जिम्मेदार है किन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण कारण है - व्यापार के परिमाण में वृद्धि । इस अवधि में परिमाण में वृद्धि के साथ-साथ व्यापार की संरचना अथवा ढाँचे में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।

भारत के विदेशी व्यापार की संरचना को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - 

(1) आयात संरचना।  
(2) निर्यात संरचना ।

आयात संरचना

भारत के आयात को कई प्रकार से विभाजित किया जाता है । जैसे— पूँजीगत वस्तुएँ, कच्ची सामग्री एवं मध्यवर्ती वस्तुएँ तथा उपभोग वस्तुएँ । वस्तु ग्रुप के अनुसार आयात को निम्न सात वर्गों में विभाजित किया जाता है—–(1) खाद्यान्न एवं सम्बद्ध वस्तुएँ, (2) ईंधन, (3) उर्वरक, (4) कागज, गत्ता एवं लुगदी (5) पूँजी वस्तुएँ, (6) अन्य, (7) अवर्गीकृत वस्तुएँ । एक अन्य वर्गीकरण के अनुसार आयात को दो बड़े वर्गों में रखा जाता हैं - 

(1) थोक आयात–(i) पेट्रोलियम तथा सम्बन्धित वस्तुएँ, (ii) गैर-पेट्रोलियम उपभोग की वस्तुएँ, उर्वरक ।

(2) फुटकर आयात–(i) पूँजी वस्तुएँ, (ii) मोती तथा कीमती पत्थर, (ii) अन्य । 

थोक आयात के महत्व में सापेक्षिक ह्रास 1980 के दशक से हुआ है तथा फुटकर आयात का सापेक्षिक महत्व बढ़ा है, लेकिन सत्तर के दशक में स्थिति बिल्कुल विपरीत थी, थोक आयात का हिस्सा कुल आयात में 1970-71 में 50.5 प्रतिशत से बढ़कर 1980-81 में 69.6 प्रतिशत हो गया था। लेकिन बाद के वर्षों में देश के कुल आयातों में फुटकर आयातों का प्रतिशत उत्तरोत्तर बढ़ता गया जो 1998-99 में बढ़कर 68.8% हो गया ।

निर्यात संरचना

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत के निर्यात की संरचना में मूलभूत परिवर्तन हुए हैं 1950-51 में कुल निर्यात में पारस्परिक निर्यात का हिस्सा करीब 70 प्रतिशत था। अस्सी के दशक में यह घटकर करीब एक-तिहाई ही रह गया । लेकिन भारत के दीर्घकालीन निर्यात का विकास अत्यन्त निराशाजनक दीखता है जब हम दूसरे विकासशील देशों तथा विश्व व्यापार में वृद्धि के साथ इसकी तुलना करते हैं। 

1965 में कुल विश्व निर्यात में भारत के निर्यात का हिस्सा मात्र 0.98% था जो 1990 में घटकर 0.44 प्रतिशत रह गया। भारतीय निर्यात की वृद्धि दर 1979 में द्वितीय बार तेल की कीमत में वृद्धि के पश्चात् और अधिक निराशाजनक रही। 1979-80 तथा 1985-86 के मध्य भारत के कुल निर्यात की वार्षिक वृद्धि दर मात्र 0.4 प्रतिशत रही। 

1985-86 से 1989-90 तक निर्यात में पर्याप्त वृद्धि हुई, किन्तु 1990 के मध्य से निर्यात वृद्धि फिर धीमी रही । भारत की निर्यात संरचना और उसके परिवर्तनों को निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। 

भारत के विदेशी व्यापार की दिशा-विदेशी व्यापार की दिशा से आशय यह है कि देश का किन-किन देशों को निर्यात व आयात किया जाता है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जिन देशों को भारतीय माल का निर्यात किया जाता था, उसकी तुलना में आज हमारा निर्यात का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। 

अब विश्व के अधिकांश देश हमारे ग्राहक हैं। यह बात दूसरी है कि प्रत्येक देश के साथ हमारा व्यापार समान मात्रा में नहीं होता। विदेशों के साथ न हमारा निर्यात स्थिर रहा है और न ही आयात स्थिर रहा है बल्कि इसमें निरन्तर परिवर्तन हुआ है। 

भारत का विदेशी व्यापार मुख्य रूप से अमरीका, कनाडा, यूरोपीय साझा बाजार के देश, तेल निर्यातक देश, एशिया के विभिन्न देश,पूर्वी यूरोपीय देश, आस्ट्रेलिया, अफ्रीकी देश, लैटिन अमेरिका तथा आर्थिक सहयोग एवं विकास के लिए संगठन वाले देशों से होता है। 

नियोजन काल के दौरान भारत के निर्यातों का झुकाव विकासशील देशों की ओर तेजी से बढ़ा है। विश्व के प्रमुख देशों के साथ भारत के आयात एवं निर्यात की दिशा को निम्नांकित तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि अब परम्परागत आयात-निर्यात ढाँचे के स्थान पर हमारे आयात एवं निर्यातों में सर्वत्र नई वस्तुओं ने स्थान ले लिया है और विदेशों में आधुनिक वस्तुओं के निर्माता के रूप में भारत की छाप स्थापित हो गई है। आर्थिक उदारीकरण के बाद तो हमारे व्यापार में काफी परिवर्तन हुए हैं। प्रश्न 3. भुगतान सन्तुलन किसे कहते हैं ? प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन के कारण तथा इन्हें दूर करने के उपायों की विवेचना कीजिए। अथवा

“भुगतान शेष सदैव सन्तुलित रहता है।" इस कथन की समीक्षा उत्तर – एक समयावधि में एक देश द्वारा दूसरे देश के नागरिकों के साथ किए गए समस्त आर्थिक सौदों के लेखे-जोखे को भुगतान सन्तुलन कहा जाता है। इसमें वस्तुओं के आयात तथा निर्यात के अतिरिक्त अन्य मदों को भी शामिल किया जाता है। 

भुगतान सन्तुलन में दृश्य एवं अदृश्य दोनों ही मदों को शामिल किया जाता है। प्रायः वस्तुओं व सेवाओं के आदान-प्रदान से ही इन भुगतानों का सम्बन्ध रहता है। भुगतान किए जाने वाले देश के लिए सम्पूर्ण मदें दायित्व के रूप में होती हैं तथा भुगतान प्राप्त करने वाले देश के लिए यह सम्पत्ति के रूप में रहती हैं।

जेम्स इन्याम के अनुसार, “भुगतान सन्तुलन एक निश्चित अवधि में एक राष्ट्र के निवासियों एवं विश्व के शेष निवासियों के मध्य समस्त आर्थिक व्यवहारों का एक सूक्ष्म लेखा है। "

वाल्टर क्रास के अनुसार, "भुगतान सन्तुलन समस्त आर्थिक व्यवहारों का एक व्यवस्थित लेखा है जो विशेष समय (प्राय: एक वर्ष) में उस राष्ट्र के निवासी एवं विश्व के निवासियों के मध्य पूर्ण होता है।" प्रो. बेनहम के अनुसार, “एक देश का भुगतान सन्तुलन एक निश्चित काल के भीतर उसके बाकी विश्व के साथ मौद्रिक सौदों का लेखा होता है।"

व्यापार सन्तुलन

व्यापार सन्तुलन के अन्तर्गत आयातों और निर्यातों का विस्तृत विवरण रहता है अर्थात् व्यापार सन्तुलन आयातों एवं निर्यातों के अन्तर को स्पष्ट करता है। किसी देश का व्यापार सन्तुलन अनुकूल अथवा प्रतिकूल कैसा भी हो सकता है। जब एक देश के आयातों की तुलना में, उसके निर्यात अधिक होते हैं तो उसे अनुकूल व्यापार सन्तुलन कहते हैं और निर्यातों की तुलना में आयात अधिक होते हैं तो उसे प्रतिकूल व्यापार सन्तुलन कहते हैं ।

भुगतान सन्तुलन तथा व्यापार सन्तुलन में अन्तर व्यापार सन्तुलन व भुगतान सन्तुलन में निम्नांकित अन्तर हैं

(1) व्यापार सन्तुलन, भुगतान सन्तुलन का ही एक अंग है।

(2) व्यापार सन्तुलन किसी देश के आयातों तथा निर्यातों के अन्तर की ओर संकेत करता है । जब किसी देश के निर्यात उसके आयातों की तुलना में अधिक होते हैं तब उसका व्यापार सन्तुलन अनुकूल होता है। इसके विपरीत जब किसी देश के आयात उसके निर्यातों की अपेक्षा अधिक होते हैं तब उसका व्यापार सन्तुलन प्रतिकूल होता है, परन्तु भुगतान सन्तुलन, व्यापार सन्तुलन से भिन्न होता है। 

(3) भुगतान सन्तुलन में व्यापार सन्तुलन के अतिरिक्त और भी कई मदें, जैसे—बीमा, जहाजी भाड़े,बैंक शुल्क, पूँजी एवं ब्याज के स्थानान्तरण तथा अन्य सेवाओं के पुरस्कारों को भी शामिल किया जाता है। 

(4) व्यापार सन्तुलन में केवल विदेशी व्यापार की दृश्य मदों को ही शामिल किया जाता है, जबकि भुगतान सन्तुलन में दृश्य तथा अदृश्य दोनों प्रकार की मदों को शामिल किया जाता है। 

(5) भुगतान सन्तुलन, व्यापार सन्तुलन की तुलना में अधिक विस्तृत धारणा है।

भुगतान सन्तुलन की मदें 

भुगतान सन्तुलन में शामिल की जाने वाली प्रमुख मदें निम्नलिखित हैं— (1) वस्तुओं का आयात-निर्यात किसी देश के निर्यातों तथा आयातों का उसके भुगतान सन्तुलन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन आयातों तथा निर्यातों में केवल वस्तुएँ ही नहीं, बल्कि सोने-चाँदी भी शामिल हैं। इसे भुगतान सन्तुलन की दृश्य मद भी कहते हैं ।

(2) सेवाएँ–कुछ देश अन्य देशों को वस्तुओं का निर्यात करने के अतिरिक्त उनके लिए अनेक प्रकार की सेवाएँ भी करते हैं और इन सेवाओं के बदले उनसे मूल्य प्राप्त करते हैं। इस प्रकार की सेवाएँ अदृश्य आयात-निर्यात में शामिल की जाती हैं। मुख्यतः ये सेवाएँ निम्न दो प्रकार की होती हैं - 

(क) व्यापारिक कम्पनियों द्वारा की गयी सेवाएँ – किसी देश की व्यापारिक कम्पनियाँ, बैंक, बीमा तथा जहाजी कम्पनियाँ जब किसी अन्य देश के लिए सेवाएँ करती हैं, तब इनको इन सेवाओं के बदले शुल्क या कमीशन प्राप्त होता है। जिस देश द्वारा इस प्रकार की सेवाएँ की जाती हैं उसके लिए ये अदृश्य निर्यात हैं और जो देश इन सेवाओं को प्राप्त करता है उसके लिए ये अदृश्य आयात हैं।

(ख) विशेषज्ञों की सेवाएँ – कभी-कभी एक देश दूसरे देश को अपने विशेषज्ञों की सेवाएँ भी प्रदान है । इन विशेषज्ञों को उनकी सेवाओं के बदले वेतन चुकाये जाते हैं। जो देश इन विशेषज्ञों की सेवाएँ प्रदान करता है उसके लिए उनकी सेवाएँ अदृश्य निर्यात होती हैं और जिस देश को इनकी सेवाएँ प्राप्त होती हैं उसके लिए ये अदृश्य आयात होते हैं।

(3) ऋण व ब्याज का लेन-देन —कभी-कभी कुछ देश अन्य देशों को अल्पकाल एवं दीर्घकाल के लिए ऋण भी देते हैं। जब एक देश दूसरे देश को ऋण की रकम भेजता है तब उसके लिए वह अदृश्य आयात होता है। जिस देश को ऋण दिया जाता है उसके लिए वह अदृश्य निर्यात के समान होता है। इसी प्रकार जब ऋण या इसके ब्याज का भुगतन किया जाता है तब ऋण या ब्याज चुकाने वाला देश ऋणी देश और उसको प्राप्त करने वाला देश ऋणदाता के समान होता है

(4) सरकारों का व्यय – प्रत्येक देश की सरकार दूसरे देशों में अपने दूतावासों पर कुछ व्यय करती है। इसी प्रकार एक विजेता देश विजित देश से अपनी क्षतिपूर्ति वसूल करता है। कभी-कभी दो देशों की सरकारों में रकम का लेन-देन भी होता है। इस स्थिति में जो ऋणदाता होता है उसके लिए यह राशि अदृश्य आयात और जो देश ऋणी होता है उसके लिए यह राशि अदृश्य निर्यात के समान होती है।

(5) लोगों का आवसन- उत्प्रवास — जब एक देश में रहने वाला व्यक्ति किसी दूसरे देश में जाकर बस जाता है तब वह अपने साथ अपना धन तथा जमा राशि ले जाता है। जिस देश से वह व्यक्ति जाता है उसके लिए यह राशि अदृश्य आयात के समान और जिस देश को धन जाता है उसके लिए यह राशि अदृश्य निर्यात के समान होती है। (6) विदेशों से प्राप्त दण्ड, दान तथा क्षतिपूर्ति – कभी-कभी एक देश दूसरे देश से दण्ड, क्षतिपूर्ति अथवा दान के रूप में कुछ रकम वसूल करता है। इससे भी उस देश के भुगतान सन्तुलन पर प्रभाव पड़ता है। है

भुगतान सन्तुलन के कारण

विभिन्न देशों में भुगतान शेष में असन्तुलन के विभिन्न कारण हो सकते हैं। भुगतान शेष की कई मदों, जैसे-दृश्य एवं अदृश्य, आयात और निर्यात, एकपक्षीय भुगतान प्राप्ति आदि में एक ही दिशा में होने वाले परिवर्तन असन्तुलन की स्थिति निर्मित कर देते हैं। सामान्यतः भुगतान सन्तुलन के निम्नलिखित कारण हैं

(1) आय एवं मूल्य प्रभाव - आर्थिक विकास से प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो जाती है। इससे आयात भी बढ़ जाते हैं। आय की वृद्धि के परिणामस्वरूप आयातों में कितनी वृद्धि होगी यह सीमान्त आयात प्रवृत्ति पर निर्भर होगा । सीमान्त आयात प्रवृत्ति जितनी अधिक होगी, आय की तुलना में आयात में उतने ही अधिक अनुपात में वृद्धि होगी तथा देश का भुगतान सन्तुलन उतना ही अधिक प्रतिकूल हो जायेगा ।

(2) जनसंख्या में वृद्धि - विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में जनसंख्या वृद्धि की दर अधिक पायी जाती है, जिससे वस्तुओं की आन्तरिक माँग में तीव्र गति से वृद्धि होती है और निर्यात क्षमता में कमी तथा आयात में वृद्धि हो जाती है। 

विकासशील देशों में श्रम की उत्पादकता शून्य होने से तथा जनसंख्या की वृद्धि से उत्पादन में सहायता प्राप्त नहीं हो पाती हैं । परिणामस्वरूप विकासशील देशों में भुगतान असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और यह स्थिति एक लम्बे समय तक बनी रहती है ।

(3) विकास कार्यक्रम - विकासशील देशों में अनेक विकास कार्यक्रम चलते रहते हैं। जिनके अन्तर्गत तकनीकी जानकारी,पूँजीगत वस्तुओं एवं कच्चे माल का आयात करना आवश्यक हो जाता है। परन्तु इन देशों के निर्यात में अधिक वृद्धि नहीं हो पाती है। परिणामस्वरूप आयात अधिक व निर्यात कम हो जाते हैं, जिससे भुगतान असन्तुलन बना रहता है ।

(4) चक्रीय उच्चावचन – व्यापार चक्र के फलस्वरूप विभिन्न देशों में भिन्न अर्थव्यवस्था में, चक्रीय उच्चावचन होते हैं जिनकी अवस्थाएँ विभिन्न देशों में अलग-अलग होती हैं जिनके फलस्वरूप भुगतान शेष में चक्रीय असन्तुलन पैदा हो जाता है । 1930 की अवधि के आस-पास विश्व के भुगतान शेष में इस प्रकार का असन्तुलन पैदा हुआ था।

(5) आयात व निर्यात की माँग लोच-विकासशील देशों में आयात की प्रवृत्ति अधिक व निर्यात की प्रवृत्ति कम पायी जाती है। इन देशों से निर्यात की गयी वस्तुओं की माँग लोच विदेशों में कम होने के कारण मूल्यों में कमी करने के उपरान्त भी निर्यात में पर्याप्त वृद्धि सम्भव नहीं हो पाती है। 

आयातित वस्तुओं की मूल्य माँग लोच कम रहने से विकसित देशों द्वारा मूल्यों में वृद्धि करने से भी आयात की मात्रा में आनुपातिक कभी सम्भव नहीं हो पाती, इससे विकासशील देशों में भुगतान असन्तुलन बना रहता है ।

प्रायः विकासशील देशों द्वारा कृषि वस्तुओं का निर्यात किया जाता है और आय व मूल्य की माँग लोच बहुत ही कम बनी रहती है । इसके विपरीत विकसित देश औद्योगिक वस्तुओं में विशिष्टीकरण प्राप्त करते हैं, जिससे विकासशील देशों में आय लोच अधिक बनी रहती है। 

विश्व में आय में वृद्धि होने पर विकासशील देशों के आयात बढ़ते हैं, जबकि विकसित देशों के निर्यात बढ़ते हैं और इसी कारण से विभिन्न देशों में भुगतान असन्तुलन बना रहता है।

भुगतान असन्तुलन को दूर करने के उपाय

भुगतान सन्तुलन की इस असमानता को दूर करने के लिए एक देश द्वारा कई प्रकार के उपाय किये जाते हैं। स्वर्णमान के अन्तर्गत भुगतान सन्तुलन की असमानता स्वतः ही स्वर्ण के आयात-निर्यात से दूर हो जाया करती थी, परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में भुगतान सन्तुलन की यह असमानता स्वतः ही दूर नहीं होती, बल्कि इसको दूर करने के लिए सरकार द्वारा सक्रिय कदम उठाये जाते हैं जो निम्न प्रकार हैं

(1) निर्यातों को प्रोत्साहन- भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि उस देश के निर्यातों को अधिक-से-अधिक बढ़ाया जाय। निर्यातों को दो तरीकों से प्रोत्साहित किया जा सकता है -

(क) निर्यात करों में कमी-निर्यातों को प्रोत्साहित करने के लिए उन पर लगे करों में भारी कमी कर देनी चाहिए, ताकि विदेशों को ये निर्यात सस्ते पड़ें और वे अधिक-से-अधिक मात्रा में उन्हें खरीद सकें। (ख) देश के उद्योगों को आर्थिक सहायता देना-निर्यातों को प्रोत्साहित करने के लिए यह भी आवश्यक है कि देश के निर्यात उद्योगों को सरकार की ओर से आर्थिक सहायता प्रदान की जाय ताकि वे अपनी उत्पादन लागतों को कम करके विदेशी उद्योगों का मुकाबला कर सकें ।

(2) आयातों में कमी करना - भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए देश के आयातों में कमी करना अत्यन्त आवश्यक होता है। किसी देश के आयातों को निम्नलिखित उपायों द्वारा कम किया जा सकता है। 

1. नये आयात कर लगाना तथा पुराने आयात करों में वृद्धि करना।
2. आयात कोटा प्रणाली अपनाना। 

(3) मुद्रा का अवमूल्यन - भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए कभी-कभी मुद्रा अवमूल्यन का भी सहारा लिया जाता है। इसके अन्तर्गत विदेशी मुद्रा के रूप में देश की मुद्रा का मूल्य कम कर दिया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि देश के निर्यात सस्ते हो जाने के कारण प्रोत्साहित होने लगते हैं। इसके विपरीत मुद्रा अवमूल्यन से देश के आयात महँगे होकर हतोत्साहित होने लगते हैं और इस प्रकार भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को दूर किया जा सकता है।

(4) मुद्रा संकुचन – भुगतान सन्तुलन को दूर करने के लिए यदि कोई देश मुद्रा अवमूल्यन को उचित नहीं समझता तो ऐसी परिस्थिति में वह अपनी मुद्रा का संकुचन करके भुगतान सन्तुलन की असमानता को दूर कर सकता है। मुद्रा संकुचन के परिणामस्वरूप देश में वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतें कम हो जाती हैं। इससे देश के निर्यातों को प्रोत्साहन मिलता है और आयात हतोत्साहित होते हैं । इस प्रकार भुगतान सन्तुलन में समता स्थापित करने में सहायता मिलती है।

किन्तु कुछ अर्थशास्त्रियों का विचार है कि भुगतान असन्तुलन को दूर करने के लिए मुद्रा संकुचन कोई अच्छा उपाय नहीं है, क्योंकि यदि देश के कीमत स्तर को मुद्रा संकुचन द्वारा जान-बूझकर नीचे गिराया जाता है तो इससे देश में आर्थिक संकट का खतरा उत्पन्न हो जाता है। कीमतों में भारी गिरावट के कारण उत्पादकों को हानि होने लगती है और अन्त में वे अपने व्यवसायों को बन्द करने पर विवश हो जाते हैं। अतः भुगतान असन्तुलन को दूर करने के लिए मुद्रा संकुचन की रीति का बड़ी सावधानी से प्रयोग करना चाहिए ।

(5) विनिमय नियन्त्रण - यदि देश के आयातों को विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्ध लगाकर कम करने का प्रयत्न किया जाय तो इससे दूसरे देशों में भी बदले की भावना उत्पन्न हो जाती है और वे भी उस देश के माल पर प्रतिबन्ध लगाना शुरू कर देते हैं। इसलिए सरकार विनिमय नियन्त्रण का सहारा लेती है। इसके अन्दर देश के निर्यातकर्ताओं को अपनी कमायी गयी समूची विदेशी विनिमय सरकार के हवाले करनी पड़ती है। 

सरकार उनको इसके बदले में ऐसी मुद्रा देती है। इसी प्रकार आयातकर्ताओं को विदेशी मुद्रा सरकार द्वारा ही दी जाती है। अतः विदेशी विनिमय पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण होता है। सरकार केवल उन्हीं आयातों के लिए आयातकर्ताओं को विदेशी विनिमय देती है, जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक होते हैं। इस प्रकार अनावश्यक आयातों को समाप्त किया जा सकता है।

(6) विदेशों से ऋण – भुगतान असन्तुलन को दूर अथवा कम करने के लिए विदेशी बैंकों अथवा विदेशी सरकारों से दीर्घकालीन ऋण भी प्राप्त किये जा सकते हैं। चूँकि ऋणों का भुगतान दीर्घकाल में किया जाता है इसलिए वर्तमान भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को विदेशी मुद्रा की सहायता से दूर या कम किया जा सकता । इन ऋणों की भुगतान तिथि आने तक देश की सरकार आवश्यक कदम उठाकर अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार लेती है और उचित समय पर उन्हें चुका देने में समर्थ हो जाती है।

(7) विदेशी निवेश को प्रोत्साहन- भुगतान असन्तुलन को दूर करने के लिए देश की सरकार विदेशी पूँजीपतियों को आवश्यक रियायतें देकर उन्हें देश में पूँजी का निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करती है। इससे देश की अतिरिक्त विदेशी मुद्रा उपलब्ध हो जाती है, जिससे वह भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को कम कर सकता है। लेकिन इस रीति को अपनाते समय सरकार इस बात का विशेष ध्यान रखती है कि विदेशी पूँजीपति कहीं देश को अर्थव्यवस्था पर हावी न हो जायें।

(8) विदेशी पर्यटकों को प्रोत्साहन देश की सरकार विदेशी पर्यटकों एवं यात्रियों को अधिकाधिक सुविधाएँ देकर उन्हें देश की यात्रा के लिए प्रोत्साहित करती हैं। इससे देश की विदेशी मुद्रा सम्बन्धी आय में वृद्धि होती है और भुगतान सन्तुलन की समस्या का समाधान करने में सहायता मिलती है।

इस प्रकार उपर्युक्त रीतियों द्वारा भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को कम अथवा दूर किया जा सकता है।

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