सांख्यिकी की सीमाओं का उल्लेख कीजिए

आज के युग में सांख्यिकी एक महत्वपूर्ण विज्ञान है क्योंकि इसका प्रयोग प्रत्येक शास्त्र, जीवन से सम्बन्धित प्रत्येक पहलू व समस्या में किया जाता है, परन्तु इस विज्ञान की कुछ सीमायें हैं जिन्हें ध्यान में रखकर इस विज्ञान का प्रयोग किया जाना चाहिए अन्यथा निष्कर्ष भ्रमात्मक होगा। 

न्यूज होम ने कहा है कि “सांख्यिकी को एक अनुशासन का एक महत्वपूर्ण साधन समझना चाहिये किन्तु इसकी सीमायें हैं जिन्हें हटाया जाना सम्भव नहीं है। टिपेट ने भी अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि, किसी भी क्षेत्र में सांख्यिकी नियमों का उपयोग कुछ मानयताओं पर आधारित तथा कुछ सीमाओं से प्रभावित होता है, इसलिए प्रायः अनिश्चित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं।

सांख्यिकी की सीमाएं

(1) सांख्यिकी समूहों का अध्ययन करती है व्यक्तिगत इकाइयों का नहीं-सांख्यिकी में समूहों का अध्ययन होता है व्यक्तिगत इकाइयों का नहीं। यद्यपि व्यक्तिगत इकाइयों के माध्यम से ही समूह का अध्ययन किया जाता है परन्तु इसके निष्कर्ष सदैव औसत रूप से लागू होते हैं। नीस्वैगर ने कहा है कि "सांख्यिकी के निष्कर्ष किसी समूह के स्वाभाविक व्यवहार को प्रकट करते हैं परन्तु उस समूह की व्यक्तिगत इकाइयों को प्रकट नहीं करते हैं।

किसी प्रदेश की औसत प्रति व्यक्ति आय उस प्रदेश के निवासियों के आय के योग की उनकी संख्या से भाग देने पर ज्ञात की जाती है परन्तु यह औसत आय केवल सामूहिक विशेषताओं पर प्रकाश डालती है। इससे व्यक्तिगत आय का आभास नहीं होता है।

(2) सांख्यिकी केवल संख्यात्मक तथ्यों का ही अध्ययन करती है गुणात्मक तो का नहीं-सांख्यिकी में केवल उन समस्याओं का अध्ययन किया जाता है जिनको संख्यात्मक रूप में व्यक्त किया जा सके, उदाहरणार्थ ऊँचाई, आय। इसके विपरीत ऐसी समस्यायें जिनका संख्यात्मक वर्णन सम्भव नहीं होता एवं उसके गुणात्मक स्वरूप का अध्ययन करना पड़ता है; जैसे-चरित्र, बौद्धिक स्तर, सुन्दरता इन समस्याओं के अध्ययन के लिए सांख्यिकी को केवल सहायक रीति के रूप में प्रयोग किया जा सकता है अर्थात् प्रत्यक्ष विवेचन किया जा सकता है। जैसे विद्यार्थियों के बौद्धिक स्तर का अनुमान परीक्षा प्राप्तांक से किया जा सकता है।

(3) सांख्यिकीय नियम दीर्घकालीन और पूर्ण रूप से लागू होते हैं-सांख्यिकीय नियम भौतिक एवं रसायन विज्ञान की भाँति पूर्णतया सत्य नहीं होते हैं। ये नियम सामान्यतः औसत रूप से ही सत्य होते हैं और केवल दीर्घकाल में। प्रो. किंग ने कहा है कि “कोई भी व्यवस्था जो बड़े या जटिल वर्ग को एक दृष्टि में मस्तिष्क के समझने योग्य बनाती है, वह अधिकांश छोटी-मोटी अनियमितताओं को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकती है।" उदाहरणार्थ भौतिक विज्ञान का गुरुत्वाकर्षण का नियम पूर्णरूपेण सत्य है परन्तु सांख्यिकी का सम्भावना सिद्धान्त इतना दृढ़ निश्चित व पूर्ण नहीं है। यह तो सामान्य प्रवृत्ति का आभास मात्र ही है।

(4) सांख्यिकीय निष्कर्ष श्रमात्मक हो सकते हैं यदि उनका विश्लेषण बिना सन्दर्भ के किया जाय-सांख्यिकीय निष्कर्षों को ठीक प्रकार समझने के लिए उनके सन्दर्भ का भी अध्ययन करना आवश्यक होता है। यदि बिना सन्दर्भ या परिस्थितियों को समझे हुए निष्कर्ष निकाले जाते हैं तो वह यद्यपि सत्य मालूम पड़ेंगे, परन्तु वास्तविक रूप से वह निष्कर्ष सत्य नहीं होंगे।

(5) सांख्यिकी समकों का सजातीय होना आवश्यक है-यदि हम विभिन्न देशों के प्रति व्यक्ति आय के समंक उनकी मुद्राओं से एकत्रित कर लें तो उनका अध्ययन सांख्यिकी में नहीं होगा। इनका अध्ययन सांख्यिकी में उसी समय हो सकता है, जबकि उन्हें किसी एक मुद्रा में परिवर्तित कर लिया जाये।

(6) सांख्यिकी का उचित प्रयोग विशेषज्ञों द्वारा ही सम्भव है-सांख्यिकी से गणना करने और उनसे निष्कर्ष निकालने का कार्य विशेषज्ञ ही कर सकता है, अन्यथा भ्रमपूर्ण परिणाम निकलने की सम्भावना रहती है। चूंकि सांख्यिकीय विधियाँ अत्यधिक तकनीकी एवं वैज्ञानिक होती है अतः इनका सही उपयोग वे ही व्यक्ति कर सकते हैं, जो पूर्ण रूप से सांख्यिकीय नियमों को जानते हैं। जो व्यक्ति सांख्यिकीय नियमों एवं विधियों से परिचित नहीं वह सही एवं चत ष्कर्ष नहीं निकाल सकेगा। यह सत्य है कि सांख्यिकीय एक बहुत उपयोगी नौकर की तरह है परन्तु केवल उन व्यक्तियों के लिये जो उसका उचित उपयोग समझते हों।

(7) सांख्यिकी केवल साधन प्रस्तुत करती है समाधान नहीं-सांख्यिकी की एक महत्वपूर्ण सीमा यह है कि यह केवल साधन प्रस्तुत करती है, समाधान नहीं। सांख्यिकी किसी भी समस्या को उसके वास्तविक रूप से प्रकट कर देती है, किन्तु समस्या के समाधान के लिए उपाय प्रस्तुत करना सांख्यिकी का कार्य नहीं है। प्रश्न 9. सांख्यिकीय विभ्रम से आप क्या समझते हैं ? विभ्रम कितने प्रकार के होते हैं ? अभिनत विभ्रम एवं अनभिनत विभ्रम में अन्तर स्पष्ट कीजिये।

अशुद्धि व विभ्रम में अन्तर

अशुद्धि 

  1. यह प्रायः जान-बूझकर की जाती हैं।
  2. सांख्यिकीय रीतियों के गलत प्रयोग के कारण अशुद्धि होती है।
  3. इसे प्रयत्न करने पर रोका जा नहीं जा सकता है। 
  4. इसका अनुमान करना कठिन है। 

विभ्रम 

  1. यह प्रायः जान-बूझकर नहीं की जाती है।
  2. यह अनुमानित मूल्य और वास्तविक मूल्य के अन्तर के कारण उत्पन्न होती है।
  3. इसे पूर्ण रूप से नहीं रोका जा सकता है। 
  4. इसका अनुमान किया जा सकता है।

सांख्यिकी विभ्रम के प्रकार

(1) अभिनत विभ्रम -उन विभ्रमों को अभिनत विभम कहा जाता है। जो विभ्रम प्रगणकों अथवा सूचना देने वालों की पक्षपात की भावना से अथवा मापयन्त्रों की त्रुटि पूर्ण होने के कारण जनित होता है। इस प्रकार की त्रुटियाँ या विभ्रम एक ही दिशा में बढ़ते हैं। इनको संचयी विभ्रम भी कहा जाता है।

उदाहरण-नवयुवतियाँ प्रायः अपनी उम्र जानबूझकर कम बताती हैं और व्यक्ति अपनी उम्र बढ़ाकर बताते हैं। इससे अभिनत विभ्रम उत्पन्न होता है। इकाइयों की संख्या या मात्रा बढ़ने से अभिनत विभ्रम बढ़ते जाते हैं तथा परिणाम अशुद्ध प्राप्त होते हैं। अभिनत विभ्रम उत्पन्न होने के कारणों में सूचना देने वालों का पक्षपात, प्रगणकों का सही ढंग से कार्य नहीं करना, प्रतिदर्श की अभिनति, दोषपूर्ण मापदण्ड तथा दोषपूर्ण निर्वचन है। 

(2) अनभिनत विभ्रम - उन सांख्यिकीय विभ्रमों को अनभिनत विभ्रम कहा जाता है जो प्रगणकों अथवा सूचना देने वालों के बिना किसी पक्षपात की भावना के कारण जनित होता है। इस प्रकार के विभ्रम में एक-दूसरे को काटने की प्रवृत्ति होने से इनको क्षतिपूरक विक्रम भी कहा जाता है। 

जितको अधिक सर्मक एकत्र किये जायेंगे, अनिगनत विभम की मात्रा उतनी ही कम होगी। कासयों की संख्या अधिक होगी तो क्षतिपूरक विधम नगण्य होते हैं, परन्तु हमको विपरीत संचयी विभ्रम कुल योग की शुद्धता को गम्भीर रूप से प्रभावित करते हैं।

(3) निरपेक्ष विभ्रम -निरपेक्षा विभाग वास्तविक मूल्ला तथा अनुमानित मूल्य का अन्तर होता है। निरपेक्षा विधम धनात्मक तथा राहणाताक दोनों ही हो सकता है। यदि वास्तविक मूल्य अनुमानित मूल्य की तुलना अधिक है तो निरपेक्ष विभ्रम धनात्मक होगा। इसके विपरीत वह हणालाक होगा। 

(4) सापेक्ष विधम - निरपेक्षा विभाग तथा अनुमानित मूल्या का अनुपात सापेक्ष विभ्रम कहलाता है।

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