एकांकी का उद्भव और विकास

 आधुनिक एकांकी का जन्म

1 आधुनिक एकाकी एक स्वतन्त्र विधा के रूप में प्रगति कर रही है। वैसे तो भारत के प्राचीन काव्य में इसका संकेत मिलता है। जैसे-अंक, वीथी, प्रहसन आदि किन्तु आधुनिक एकांकी को इनसे जन्मी विधा नहीं माना जाता। 

दोनों में अन्तर यह है कि भारतीय काव्य से अंक, वीथी, प्रहसन तथा अन्य विधाओं को जिस प्रकार प्रस्तुत किया गया है वह आधुनिक एकांकी के प्रस्तुतीकरण, उसके कथ्य तथा शिल्प से भिन्न है।

आधुनिक एकाकी का जन्म ‘मिरेकल्स' और 'मॉरेलिटीज' जैसे नाटक रूपों से माना जाता है। ये नाटक धर्म-प्रचार के लिए खेले जाते थे। अंग्रेजी साहित्य में शेक्सपीयर के लम्बे नाटक अपन यौवन पर थे। इन नाटकों के बीच-बीच में विनोदपूर्ण ‘इन्टरल्यूड' (अन्तर्नाटक) खले जाते थे।

इन्हीं इन्टरल्यूडों में आधुनिक एकांकी के जन्म की झलक मिलती है। उन्नीसवीं शताब्दी में लम्बे नाटकों के प्रस्तुतीकरण के मध्य दर्शकों के मनोरंजन के लिए एक प्रकार के प्रहसन खेले जाते थे। इन प्रहसा को 'कर्टन रजर' (पट उत्थानक) कहा जाता था। सच तो यह है कि इसी 'कर्टन रेजर' को आधुनिक एकांकी का जन्मदाता कहा जाता है।

सन् 1903 में 'मंकीज पॉ' (बन्दर का पंजा) कर्टन रेजर के रूप में खेला गया था जो बहुत सफल हुआ। इसके पश्चात् इब्सन, शॉ तथा ओ नील जैसे अंग्रेज नाटककारों ने इस विधा में पर्याप्त सुधार किया तथा इसे प्रहसन से हटाकर गम्भीर विषयों के लिए उपयुक्त सिद्ध किया।

उद्भव और विकास-अध्ययन की सुविधा के लिए आधुनिक हिन्दी एकांकी को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-1. प्रारम्भ काल, 2. विकास काल और 3. स्वातंत्र्योत्तर काल।

प्रारम्भ काल-इस काल का आरम्भ भारतन्दु युग से माना जाता है। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के रूप में एक एसे व्यक्तित्व ने जन्म लिया जिसने हिन्दी को प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ाया। उसका जीवन दर्शन एकदम नदीन या। उनकी हिन्दी के प्रति सेवाएँ अविस्मरणीय हैं। 

उन्होंने वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति' लिखकर हिन्दी एकांकी के जन्म का प्रारम्भ किया तो भी इस एकांकी की रचना में संस्कृत नाटक की झलक है, तथापि इसमें एक नयेपन का भी समावेश है 

जो पुरानी परिपाटी को त्यागकर नवीन मार्ग का अनुसरण करने को आतुर था। न तो ये नाटक संक्षिप्त थे, न इसमें संकलनत्रय का निर्वाह था, न ये नाटक आरम्भ, संघर्ष तथा चरम-सीमा के शिल्प विधान का स्पर्श करते थे, किन्तु तो भी ये नाटक प्राचीन लोक से (परम्परा से) हटकर चलने का संकेत देते थे। 

इस युग के नाटककारों में भारतन्दुजी, प्रतापनारायण मिश्र, राधाकृष्णदास, बदरीनारायण चौधरी, अम्बिकादत्त व्यास तथा बालकृष्ण भट्ट आदि का नाम प्रमुख हैं। -

विकास कला-बीसवीं शताब्दी का आरम्भ हिन्दी के विविध विकास का काल माना जाता है। दीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में एकांकी लिखे तो गये, किन्तु या तो वे कोरे अनुवाद थे या भावानुवाद ये। उन पर बंग तथा मराठी और सबसे अधिक अंग्रेजी का प्रभाव था। धीरे-धीरे हिन्दी से यह प्रभाव हटता गया। 

सन् 1939 में बाबू जयशंकर प्रसादजी का ‘एक घुट' प्रकाशित हुआ। यह एकांकी के एकदम निकट की वस्तु थी। कथावस्तु में प्रभाव था। संकलन त्रय की स्थिति भी स्पष्ट यी तथा प्रस्तुति का दृष्टिकोण भी भारतेन्दु युग से भिन्न तथा विकसित था।

इसी काल में गुरुदेव रवीन्द्र के एकांकी प्रकाश में आये। उनकी ‘मुक्तधारा' ने एक नये मार्ग के खुल जाने तथा विकास के नये आयामों का संकत दिया। इसी समय इब्सन, शॉ, सिंह, बेरी, ओ नील तथा गाल्सवर्दी व एकांकी के क्षेत्र में नये प्रयोग किये। इन प्रयोगों के लिये स्थान खोजने में कठिनाई नहीं उठानी पड़ी। 

स्कूलों, कॉलों व यूनिवर्सिटियों में मंच तैयार थे। रचनाकारों के सामने एक विशाल और उपयोगी क्षेत्र था। अतः एकांकी की कला शनैः-शनैः निखरती चली गई। इसी काल में रेडियो ने भी एकांकी के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया। 

फीचर तथा रिपोर्ताज की ध्वनि के माध्यम से अपने पाठकों तक पहुँचाने में इस काल का अद्भुत सहयोग है। इस काल में सतेन्द्र का 'कुणाल', पृथ्वीनाथ शर्मा का 'दुविधा', राजकुमार वर्मा का 'पृथ्वीराज की आँखें' व भुवनेश्वर का 'कारवाँ' प्रसिद्ध है। 

इन्हीं के साथ-साथ श्री अश्क, श्री विष्णु प्रभाकर, श्री उदयशंकर भट्ट, श्री जगदीशचन्द्र मायुर, श्री एस. पी. खत्री आदि ने अपनी कृतियाँ हिन्दी में भेंट की। 

स्वातंत्र्योत्तर काल-स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात एकांकी में नये परिवर्तन आये। आज का एकांकी अपने शिल्प विधान में अपने चरम की ओर पूर्ण सफलता के साथ बढ़ता जा रहा है। वह प्रगति के नये आयामों का स्पर्श कर रहा है। उसमें हास्य के साथ मानव-मन का गहन विश्लेषण भी सम्मिलित हो गया है। 

आज का लेखक मनोविज्ञान, घुटन तथा आदमी की रोजमर्रा (नित्य प्रति) की जिन्दगी से जूझ रहा है। उसके सामने आदमी अपनी सम्पूर्ण विविधताओं के साथ रचनाकार के सामने हैं। आज का एकांकीकार पश्चिमी विधा 'एसई के साथ-साथ चल रहा है। इस क्षेत्र में श्री धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, मुद्राराक्षस, विनोद रस्तोगी, शंभुनाथसिंह, नरेश मेहता, विपिन अग्रवाल, शान्ति मेहरोत्रा अपना पूरा सहयोग दे रहे हैं।

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