भक्ति काल की समय सीमा क्या है

हिन्दी साहित्य में भक्ति काल महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को पूर्व मध्यकाल भी कहा जाता है। इसकी समयावधि 1375 वि.सं से 1700 वि.सं तक मानी जाती है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है जिसको स्वर्णकाल कहा जाता हैं। श्यामसुन्दर दास ने भक्ति काल को स्वर्णयुग कहा हैं, जबकि आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरणकाल कहा हैं।

दक्षिण भारत में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई नीची जातियों के भी थे। वे उतने पढे-लिखे नहीं थे। लेकिन अनुभवी थे। 

आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया।

भक्ति काल की समय सीमा क्या है

भक्ति काल का समय 1350 से 1700 तक माना गया है। यह दौर युद्ध संघर्ष और अशांति का समय था। मोहम्मद बिन तुगलक से लेकर शाहजहां तक का शासन काल इस समय में आता है।

इस अवधि में तीन प्रमुख मुस्लिम वंशों-पठान, लोदी और मुगल का साम्राज्य रहा। छोटे-छोटे राज्यों को हड़पने और साम्राज्य विस्तार की अभिलाषा ने युद्धों को जन्म दिया। जिससे कि उनका साम्राज्य बढ़ सके और इस कारण से वहां युद्ध होने लगे तो इस राज्य संघर्ष परंपरा का आरंभ मोहम्मद बिन तुगलक से हुआ था। 

भक्ति काल में हिंदू समाज की स्थिति अत्यंत ही दयनीय थी उस समय हिंदू समाज असहाय दरिद्रता और अत्याचार की भट्टी में झुलस रहे थे। हिंदू कन्याओं का बाल्यकाल में ही विवाह कर दिया जाता था। 

दास प्रथा भी प्रचलित थी और मुसलमान हिंदू कन्याओं को, क्रय और अपहरण कर अमीर मुसलमान अपना मनोरंजन किया करते थे। परिणाम स्वरूप हिंदू सामाजिक आक्रमण से बचने के लिए अनेक उपाय किए बाल विवाह और पर्दा प्रथा इस आक्रमण से बचने का उपाय थे।

भक्ति काल की काव्य धाराएं

सगुण भक्ति

  1. रामाश्रयी शाखा
  2. कृष्णाश्रयी शाखा

निर्गुण भक्ति

  1. ज्ञानाश्रयी शाखा
  2. प्रेमाश्रयी शाखा

सगुण भक्ति

परमात्मा का वह रूप जो तीन प्राकृतिक गुणों सत्व, रज और तम से परे है,तथा जिसमे माधुर्य,ऐश्वर्य,औदार्य आदि जो दिव्य गुण है उनके सहित सर्वत्र व्यापक परमात्मा को सगुण कहते है।

जब ब्रह्म, कर्ता का भाव ग्रहण करता है जैसे सृष्‍टि‍कर्ता, पालनकर्ता, संहारकर्ता आदि‍ या जब ब्रह्म के साथ कोई विशेषण लगता है जैसे सर्वव्‍यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्‍ति‍मान् आदि‍ तब वह सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाता है।

मध्यकाल से उत्तरीय भारत में भक्तिमार्ग के दो भिन्न संप्रदाय हो गए थे। एक ईश्वर के निर्गुण, निराकर रूप का ध्यान करता हुआ मोक्ष की प्राप्ति की आशा रखता था और दूसरा ईश्वर का सगुण रूप राम, कृष्ण आदि अवतारों में मानकर उनकी पूजा कर मोक्ष की इच्छा रखता था। पहले मत के कबीर, नानक आदि मुख्य प्रचारक थे और दूसरे के तुलसी, सूर आदि।

निर्गुण ब्रह्म

निर्गुण उपासना पद्धति में ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना की जाती है। हिन्दू ग्रंथ में ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूप और उनके उपासकों के बारे में बताया गया है। निर्गुण ब्रह्म ये मानता है कि ईश्वर अनादि, अनन्त है वह न जन्म लेता है न मरता है, इस विचारधारा को मान्यता दी गई है।

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