क्रोध निबंध की विशेषताएं

रामचन्द्र शुक्ल जी हिन्दी के प्रसिद्ध गद्यकारों में शीर्ष पर हैं। निबन्धकार के रूप में आपने विशेष ख्याति अर्जित की है। आपके निबन्ध तकनीकी के दृष्टिकोण से दो प्रकार के हैं। एक जीवन से सम्बन्धित अर्थात् सामान्य विषयों पर लिखे गये निबन्ध। 

जीवन से सम्बन्धित सामान्य निबन्धों के अन्तर्गत मनोवैज्ञानिक निबन्ध भी आते हैं। क्रोध एक मनोविकार पर आधारित निबन्ध है।

प्रारम्भ शुक्ल जी ने क्रोध का प्रारम्भ उसकी उत्पत्ति एवं परिभाषा से किया है जो इस प्रकार है; यथा-क्रोध दुःख के चेतन कारण के साक्षात्कार या अनुमान से उत्पन्न होता है।

साक्षात्कार के समय दुःख और उसके कारण के सम्बन्ध का परिज्ञान आवश्यक है। शुक्ल जी ने मनोविकारों से सम्बन्धित अपने अन्य निबन्धों में भी इसी प्रकार परिभाषात्मक प्रारम्भ की प्रणाली को अपनाया है।

लघु रचना-क्रोध एक लघु रचना है।इसमें व्यावहारिक दृष्टि से क्रोध के अनेक पहलुओं पर विचार कर उसकी उपयोगिता को मापा गया है। इसमें लेखक ने क्रोध को मात्र एक मनोविकार ही नहीं माना बल्कि उसकी व्यावहारिक उपयोगिता पर प्रकाश डाला है एवं खोज भी की है। क्रोध एक फुर्तीले स्वभाव वाला शान्ति भंग करने वाला मनोविकार है। 

क्रोध का उदय दुःख से होता है। चाहे वह अपना दुःख हो, चाहे किसी और का। क्रोध लोक-कल्याण की भावना से सदैव प्रेरित नहीं होता, फिर भी उसमें लोक-कल्याण की भावना छिपी रहती है। करुणा से उत्पन्न क्रोध स्पृहणीय है। अमर्ष क्रोध का सात्विकी रूप है। इसमें क्रोध करने वाला क्रोध के कारण पर ही सोचता रहता है। वह किसी को कष्ट पहुँचाने में विश्वास नहीं रखता हैं।

पूर्ण रचना - क्रोध एक लघु पूर्ण रचना है। इसमें प्रस्तावना, प्रारम्भ, मध्य और उपसंहार का सुन्दर समायोजन है। शीर्षक विषय के अनुकूल है। प्रारम्भ में क्रोध की उत्पत्ति एवं परिभाषा दी गई है। मध्य में लेखक उसके रूप को विस्तार देता है, उसको प्रेरित करने वाले एवं उससे मिलते-जुलते मनोभावों के बारे में बताता है एवं क्रोध के सात्विक स्वरूप अमर्ष को बताते हुए उपसंहार करता है। क्रोध के पूर्ण निरूपण हो जाने पर ही निबन्ध समाप्त हो जाता है।

व्यावहारिक शैली - यद्यपि क्रोध एक मनोविकार पर आधारित निबन्ध है। अतः इसकी शैली भी मनोवैज्ञानिक एवं तर्क प्रधान होनी चाहिए थी। पर आपने अपने मनोभावों से सम्बन्धित निबन्धों में व्यावहारिक शैली को अपनाया है। आपने अपनी मौलिकता से क्रोध एवं चिड़चिड़ाहट जैसे भावों को अपनी व्यावहारिक शैली के द्वारा ही व्यक्त कर दिया है। 

क्रोध के स्वरूप का वर्णन करते हुए आपने लिखा है। क्रोध सब मनोविकारों से फुर्तीला है। इसी से अवसर पड़ने पर यह और मनोविकारों का भी साथ देकर उनकी पुष्टि का साधक होता है।

निरीक्षण - बाह्य निरीक्षण तो निबन्ध में सर्वत्र है ही, अन्तः निरीक्षण भी आपने स्थल विशेष पर किया है। यथा - कभी-कभी लोग अपने कुटुम्बियों या स्नेहियों से झगड़कर क्रोध में अपना ही सिर पटक देते हैं। यह सिर पटकना अपने को दुःख पहुँचाने के अभिप्राय से कम नहीं होता, क्योंकि बिल्कुल बेगानों के साथ कोई ऐसा नहीं करता। 

जब किसी को क्रोध में अपना ही सिर पटकते या अंग-भंग करते देखें तब समझ लेना चाहिए कि उसका क्रोध ऐसे व्यक्ति के ऊपर है जिसे उसके सिर पटकने की परवाह है अर्थात् जिसे उसका सिर फूटने से उस समय नहीं तो आगे चलकर दुःख पहुँचेगा।

विवेचनात्मक शैली - शुक्ल जी ने अपने अधिकांश विचारात्मक निबन्धों में विवेचनात्मक शैली को अपनाया है। आप विवेचनात्मक शैली के द्वारा एक बात से दूसरी बात का क्रम जोड़ते चले जाते हैं। ये क्रम एक गुथी हुई माला की तरह लगता है। आपने एक पैराग्राफ में एक विचार को पुष्ट किया है एवं विचारों को दूंस-ठूसकर भरा है। 

क्रोध में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण न होकर जीवन की तीव्रतम अनुभूति है। विवेचनात्मक शैली का उदाहरण द्रष्टव्य है; यथा - क्रोध का वेग इतना होता है कि कभी मनुष्य यह भी विचार नहीं करता कि जिसने दुःख पहुँचाया है उसमें दुःख पहुँचाने की इच्छा थी या नहीं। इसी से कभी तो वह अचानक पैर कुचल जाने पर किसी को मार बैठता है और कभी ठोकर खाकर कंकड़-पत्थर तोड़ने लगता है।

हास्य-व्यंग्य-शुक्ल जी ने निबन्ध गम्भीरता लिए होते हैं। लेकिन उन्हें पाठकों की ऊब का भी विशेष स्मरण रहता है। आपने अपने गम्भीर निबन्धों में भी यत्र-तत्र हास्य-व्यंग्य के छींटे दिये हैं।

सूत्र-शैली - आपने अपने निबन्धों में विशेषकर विवेचनात्मक निबन्धों में सूक्ति शैली को अपनाया है। क्रोध भी इसी विशेषता से पूर्ण है। इसमें वाक्य सूक्ति बन गए हैं। इससे कथन का सौन्दर्य बढ़ गया है। किसी बात का बुरा लगना, उसकी असह्यता को क्षोभयुक्त और आवेगयुक्त अनुभव होना अमर्ष कहलाता है।

क्रोध के स्वरूप शुक्ल जी ने क्रोध के स्वरूपों को बदला दिखाकर इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि मनोभावों में तीव्रता एवं हास होता रहता है। बैर, क्रोध का अचार या मुरब्बा है। बैर क्रोध की भावमय वृत्ति है।

केन्द्रीय विचार - लेखक ने अपने निबन्ध का विषय क्रोध रखा है। वह अपने पूरे विस्तार से क्रोध से सम्बन्धित रहा है। यद्यपि उसने क्रोध से मिलती-जुलती अन्य भावमय वृत्तियाँ बतायी हैं लेकिन वह अपने लक्ष्य से नहीं हटा। इस प्रकार यह एक व्यवस्थित विचारों वाला निबन्ध है।

भावों एवं विचारों का समन्वय - शुक्ल जी कवि भी हैं और एक निबन्धकार भी। अतः जहाँ कहीं भी उन्हें कविता की आवश्यकता अनुभव हुई है, वहीं उनका कवि हृदय विचार मस्तिक से मित्रता कर बैठा है।

हमारा पड़ौसी बहुत दिनों से नित्य हमें दो चार टेढ़ी-सीधी सुना जाता है। यदि हम एक दिन उसे पकड़कर पीट दें तो हमारा यह कर्म शुद्ध प्रतिकार कहलायेगा।

Related Posts