लघु उद्योग किसे कहते हैं?

जुलाई 1991 में घोषित औद्योगिक नीति के अनुसार लघु उद्योगों के अन्तर्गत वे समस्त इकाइयाँ शामिल की जाती हैं जिनमें कुल लगाए गए पूँजी 60 लाख रु. से अधिक नहीं है।  

परन्तु छोटे पुर्जे या मरम्मत का कार्य करने वाली उद्योगों की दशा में 75 लाख रुपये तक की पूँजी जिनियोजित करने वाली इकाइयों को भी लघु उद्योगों के अन्तर्गत रखा गया है। लघु उद्योगों की अत्यधिक छोटी इकाइयों के लिए विनियोग सीमा 5 लाख रुपये है।

फरवरी 1997 में की गयी घोषणा के अनुसार वर्तमान समय में लघु उद्योगों की परिभाषा के अन्तर्गत उन में समस्त इकाइयों को शामिल किया जाता है जिनमें स्थिर परिसम्पत्तियों के रूप में प्लाण्ट व मशीनरी पर पूँजी निवेश की मात्रा 3 करोड़ रु. से अधिक नहीं है।

लघु उद्योगों का महत्व

भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों का महत्वपूर्ण स्थान है । भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में जहाँ पूँजी का अभाव, गरीबी और बेरोजगारी का साम्राज्य है वहाँ लघु एवं कुटीर उद्योग आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक सभी पहलुओं से औद्योगिक विकास की आधारशिला हैं। भारत में लघु उद्योगों का महत्व निम्नांकित तथ्यों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

(1) रोजगार में वृद्धि

भारत में जनसंख्या की अधिकता के कारण बेरोजगारी की समस्या व्यापक रूप से पाई जाती है। लघु उद्योग श्रम प्रधान होते हैं, अतः इन उद्योगों द्वारा कम पूँजी के विनियोग से भी रोजगार में पर्याप्त वृद्धि की जा सकती है।

(2) आय वितरण में समानता 

लघु उद्योगों का स्वामित्व अधिक-से-अधिक लोगों के हाथों में होता है जिससे आर्थिक शक्ति का केन्द्रीकरण नहीं होता। इसके अतिरिक्त इन उद्योगों में श्रमिकों का शोषण नहीं होता जिससे राष्ट्रीय आय का अधिक समान वितरण होता है।

(3) उद्योगों के विकेन्द्रीकरण में सहायता

लघु उद्योग देश में उद्योगों के विकेन्द्रीकरण में सहायता प्रदान करते हैं, क्योंकि इन उद्योगों को गाँव व छोटे-छोटे कस्बों में भी स्थापित किया जा सकता है फलस्वरूप उद्योगों के विकेन्द्रीकरण से लाभ प्राप्त होते हैं।

(4) कृषि जनसंख्या के भार में कमी

भारत में कृषि पर जनसंख्या का भार निरन्तर बढ़ता जा रहा है जिससे कृषि का उपविभाजन एवं अपखण्डन होता है। इस समस्या के समाधान की दृष्टि से लघु उद्योग अत्यन्त उपयोगी होते हैं।

(5) परम्परागत एवं कलात्मक उद्योगों को संरक्षण

लघु उद्योग परम्परागत एवं कलात्मक वस्तुओं को संरक्षण प्रदान करते हैं, जैसे—बनारसी साड़ियाँ, हाथी दाँत का कार्य इत्यादि में भारत प्राचीन समय से ही ख्याति अर्जित करता रहा है और इन वस्तुओं के निर्यात से विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती रही है, अतः विदेशी मुद्रा अर्जन की दृष्टि से लघु उद्योगों का अर्थव्यवस्था में विशेष स्थान है।

(6) कम तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता

लघु उद्योगों की स्थापना में कम पूँजी के साथ-साथ कम तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता होती है तथा कर्मचारियों को प्रशिक्षण भी कम मात्रा में देकर काम चलाया जा है । इस प्रकार यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सर्वोत्तम है। 

(7) आयात पर कम निर्भरता

भारत में भुगतान असन्तुलन की समस्या बनी रहने से भी लघु उद्योग की आयातों पर कम निर्भरता होने के कारण ये उद्योग निश्चय ही उपयोगी होंगे।

(8) देश के निर्यात में महत्वपूर्ण स्थान 

रेशमी कलापूर्ण वस्त्र, चन्दन की वस्तुएँ, हाथी दाँत का सामान, चमड़े के जूते, दरियाँ व कालीन, ताँबे, पीतल के कलापूर्ण बर्तन आदि लघु उद्योग में उत्पादित वस्तुएँ बड़ी मात्रा में निर्यात होने लगी हैं जिससे देश को विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।

लघु उद्योगों की प्रगति

पंचवर्षीय योजनाओं में लघु तथा कुटीर उद्योगों के विकास पर विशेष बल दिया जा रहा है। योजनाओं में इस बात की आवश्यकता समझी जा रही है कि उन सभी कार्यक्रमों की पुनः समीक्षा की जाये जिनका मूल उद्देश्य तो लघु उद्योगों को सहायता प्रदान करना रहा है। 

लेकिन जिनका दुरुपयोग इस रूप में हुआ कि इन कार्यक्रमों का लाभ मुख्यतः बड़े उद्योगों को ही प्राप्त हुआ है। नवीं पंचवर्षीय योजना में इस तरह की कमियों को दूर करने की ओर विशेष ध्यान दिया जायेगा तथा एक ऐसे आर्थिक वातावरण का निर्माण करने का प्रयास किया जायेगा जिसमें लघु उद्योग स्वावलम्बी हों।

लघु उद्योगों की समस्याएँ

लघु उद्योगों के विकास हेतु सरकार द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं में अनेक कदम उठाये गये हैं फिर भी ये उद्योग आधारभूत समस्याओं से ग्रसित हैं जिसके कारण ये अपनी वांछित प्रगति नहीं कर पा रहे हैं। इनकी प्रमुख समस्याएँ इस प्रकार हैं - 

(1) पूँजी का अभाव – भारतीय कारीगर निर्धन हैं। उनके पास इतनी पूँजी नहीं है कि वे उसके द्वारा अपने कार्यों को सुचारु रूप से चला सकें। चूँकि उनके पास उपयुक्त प्रकार की प्रतिभूति नहीं होती, इसलिए वे उपयुक्त वित्तीय सहायता राज्य वित्त निगम जैसी संस्थाओं से प्राप्त नहीं कर पाते हैं।

(2) तकनीक की समस्या - शिक्षा का अभाव, वित्त की कठिनाई तथा सीमित बाजार के कारण देश के लघु उद्योगों द्वारा उत्पादन की परम्परागत तकनीकों का प्रयोग किया जाता है जिससे उत्पादन की किस्म नीची और लागत अधिक पड़ती है।

(3) कच्चे माल की समस्या – इस सम्बन्ध में भारतीय कारीगरों को तीन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है—(1) उन्हें सस्ते मूल्य पर आसानी से कच्चा माल नहीं मिलता, (2) अच्छी श्रेणी का कच्चा माल बड़े उद्योगपतियों द्वारा खरीद लिया जाता है, (3) उन गरीब कारीगरों की साख इतनी फैली हुई नहीं होती कि उन्हें कच्चा माल उधार मिल सके।

(4) विपणन की कठिनाइयाँ - जनता की रुचियों में परिवर्तन, विज्ञापन और प्रचार के सीमित साधन, बड़े उद्योगों की वस्तुओं से प्रतियोगिता इत्यादि के कारण इन उद्योगों को अपने उत्पादन बेचने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

(5) शिक्षा का अभाव - अधिकांश कारीगर अनपढ़ होते हैं । अतः वे अपनी वस्तु निर्मित करने में पुराने तरीकों का ही प्रयोग करते हैं। वे अपनी वस्तु की किस्म व डिजायन आदि में शिक्षा के अभाव के कारण कोई सुधार नहीं कर पाते हैं।

(6) प्रमाणिकता का अभाव - इन उद्योगों द्वारा निर्मित माल किसी निश्चित प्रमाप का नहीं होता है जिसके परिणामस्वरूप इन्हें अपने उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। 

(7) विद्युत शक्ति की कमी - इन उद्योगों को उचित मात्रा में सस्ती दर पर विद्युत शक्ति नहीं मिल पाती है जिसके अभाव में ये ठीक से उत्पादन नहीं कर पाते हैं।

(8) प्रबन्ध योग्यता में कमी – लघु उद्योग प्रायः छोटे-छोटे व्यवसायियों द्वारा स्थापित किए जाते हैं जिन्हें प्रबन्ध एवं संगठन सम्बन्धी कोई विशेष प्रशिक्षण प्राप्त नहीं होता है जिसका प्रभाव इन उद्योगों के विकास पर पड़ता है।

लघु उद्योगों के विकास हेतु सुझाव

सरकार ने लघु उद्योगों के विकास के लिए नियोजन काल में अनेक उपाय किये हैं फिर भी ये उद्योग अपनी वांछित प्रगति नहीं कर पाते हैं। अतः इनके भावी विकास के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं।

(1) तकनीकी सहायता - तकनीकी सहायता की उपलब्धि के लिए केन्द्रीय सरकार ने लघु उद्योग सेवा संस्थान स्थापित किया है जिसका उद्देश्य छोटे उद्योगपतियों को उत्पादन इकाइयों की स्थापना, कार्यान्वयन तथा अन्य समस्याओं सम्बन्धी सलाह देना है।

(2) लघु उद्योग सहकारी समितियों का विकास – लघु उद्योग सहकारी समितियों का अधिकाधिक विकास किया जाय और इन सहकारी समितियों को अपने सदस्यों को उचित मूल्य पर उन्नत उपकरण और कच्चा माल उपलब्ध कराना चाहिए।

(3) विशाल एवं लघु उद्योगों में समन्वय - जहाँ तक सम्भव हो विशाल एवं लघु उद्योगों में समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए । जैसे—कागज उद्योग में लुग्दी बनाने का कार्य लघु उद्योग क्षेत्र को तथा कागज बनाने का कार्य विशाल उद्योग क्षेत्र को सौंपा जा सकता है।

(4) अनुसंधान कार्यक्रमों की विस्तृत व्यवस्था - लघु उद्योगों की उत्पादकता और उत्पादन क्षमता बढ़ाने और किस्म सुधारने की दृष्टि से अनुसंधान कार्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

(5) लघु उद्योग प्रदर्शनियाँ - लघु उद्योग प्रदर्शनियों का अधिकाधिक आयोजन किया जाना चाहिये । ये प्रदर्शनियाँ केवल बड़े नगरों तक सीमित न रखकर देश के विभिन्न भागों में लगाई जानी चाहिए जिससे उपभोक्ता इन उद्योगों के उत्पादनों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर सकें।

(6) उत्पादन की किस्म पर नियन्त्रण - लघु उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का निर्यात करने तथा उपभोक्ता में विश्वास बनाए रखने के लिए इन उद्योगों की उत्पादन किस्म पर नियन्त्रण रखा जाना चाहिए। 

(7) औद्योगिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था - लघु उद्योगों के विकास के लिए इन उद्योगों से सम्बन्धित व्यक्तियों के लिए उचित शिक्षण एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।

(8) वित्त की व्यवस्था - लघु एवं कुटीर उद्योगों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वित्तीय संस्थाओं का ग्रामीण क्षेत्रों एवं कस्बों में विस्तार किया जाना चाहिए।

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