मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रीय कवि क्यों कहा जाता है

द्विवेदीयुगीन कविता की अमर विभूतियों में श्री मैथिलीशरण गुप्त की गणना की जाती है। उन्होंने प्राचीन परम्पराओं की रूढ़ियों को त्यागकर युग के अनुरूप नवीन विचार एवं भाव ग्रहण किये। 

'साकेत' के द्वारा उन्होंने मानव समाज को निष्काम कर्म, सात्विक जीवन, आत्म-गौरव, निःस्वार्थ सेवा, कर्त्तव्यपरायणता, सामाजिक समानता, मानवता, समष्टि के लिए व्यष्टि, बलिदान, समन्वय की भावना आदि को उच्च सन्देश दिए हैं।

युग प्रतिनिधि या राष्ट्रकवि उस कवि को कहा जाता है, जो अपने समकालीन राष्ट्र की सभी दिशाओं तथा समस्याओं का अंकन करता है। राष्ट्रकवि की कविता में उसका युग बोलता है। वह अपने युग का समय अंकन करके जन-जीवन को नव-जीवन प्रदान करता है तथा उनमें चेतना फूँकता है। 

राष्ट्रकवि निष्पक्ष भाव से सम्पूर्ण राष्ट्र की भावनाओं का सच्चा प्रतिनिधित्व करता है। उसकी लेखनी राष्ट्र के किसी विशेष अंग को अपना विषय नहीं बनाती, अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र की भावनाओं के प्रति सजग रहती है।

गुप्त जी सच्चे अर्थों में एक युग प्रतिनिधि या राष्ट्रकवि थे। उन्होंने काव्य युग की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि सभी समस्याओं का अंकन किया। साथ ही महान् कवि होने के नाते समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत किया। 

उनके काव्य में युग चेतना का व्यापक सन्निवेश है। उनकी पावन वाणी का परिधान धारण करके भारत की सांस्कृतिक साधना साहित्य की भूमि पर दृढ़तापूर्वक प्रतिष्ठित हुई। उन्होंने राष्ट्रीय जागरण के सबसे प्रबल और समर्थ स्वयं से युग के मानस को झंकृत कर दिया है। 

उन्होंने प्राचीन मर्यादा, समन्वय, प्रेम, कर्मठता आदि आदर्शवादी भावनाओं की पृष्ठभूमि में आधुनिक समस्याओं का समाधान खोजा। इस प्रकार निःसंकोच रूप से हम कह सकते हैं कि गुप्त जी सच्चे राष्ट्रकवि हैं। उनके इस रूप का विवेचन करने के लिए निम्नलिखित संकेतों का प्रश्रय लिया जा सकता है

1. युग का सामाजिक चित्रण

समाज मानव जीवन के अस्तित्व और विकास के लिए अनिवार्य संस्था है। गुप्त जी ने अपने युग के समाज का सूक्ष्म निरीक्षण करके मर्यादा को उसका मेरुदण्ड बताया। उनके राम मर्यादा के लिए अवतरित हुए।

मैं नहीं सन्देश यहाँ स्वर्ग का लाया।
मैं भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।
मैं आया और भी जिसमें बनी रहे मर्यादा।

गुप्त जी अपने युग के सामाजिक रूप से बहुत दुःखी थे। समाज को प्रदर्शन तथा पाखण्ड रहित करके वे इसे आदर्शवादी बनाना चाहते थे। तभी 'अनघ' में वे कहते हैं

जहाँ कुछ भी समाज का हित को,
वहीं यह मेरा तन अर्पित है।

गुप्त जी समाज में वर्ण-व्यवस्था के पक्षपाती थे, परन्तु परस्पर प्रेम तथा सद्भावना चाहते थे। उन्होंने 'भारत - भारती' में स्पष्ट कहा है - 

आचार में कुछ भेद हो जाने पर प्रेम हो व्यवहार में 
देखें हमें कौन सुख मिलता नहीं संसार में।

2. राजनीतिक चित्रण

गुप्त जी राजनीति के विद्वान् नहीं थे। परन्तु राष्ट्रकवि अपने युग की राजनीति की कैसे उपेक्षा कर सकता है ? गुप्त जी ने अपने नेत्रों से अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति के घोर अत्याचार देखे थे, ।

अतः उन्होंने द्वापर में कंस के माध्यम से अंग्रेजी साम्राज्य की घोर निन्दा की । कंस, मत्स्य, न्याय का पोषण है। उग्रसेन ने मत्स्य न्याय की निन्दा करते । हुए उसके विनाश की चेतावनी देते हुए कहा है।

ओ सत्ता - मदमत्त ! आज भी, 
आँखें खोल अभागे।
वह साम्राज्य स्वप्न जाने दे,
जाग स्वप्न अब आगे।

3. क्रान्ति की उद्घोषणा

गुप्त जी ने 'द्वापर' में साम्राज्यवाद के विनाश और संघ राज्य की स्थापना का समर्थन किया है। उन्होंने बताया कि समस्त संसार प्रजातन्त्र शासन की स्थापना की ओर अग्रसर है। 

उन्होंने क्रान्ति का भी समर्थन किया। उनका विश्वास है कि अत्याचारी शासन को हर सम्भव उपाय से समाप्त करना चाहिए। उन्होंने अपनी जन्मभूमि की साम्राज्यवादियों से रक्षा करने की उद्घोषणा की -

एक-एक सौ-सौ अन्यायी 
कंसों को ललकारो । 
अपनी जन्मभूमि के उपर 
धन जीवन सब वारो।

4. धार्मिकता का उल्लेख

गुप्त जी ने जहाँ अपने युग की सामाजिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों का अंकन किया है, वहाँ उन्होंने धार्मिक परिस्थितियों की भी उपेक्षा नहीं की। समाज के उत्थान तथा पतन में धर्म का बहुत योगदान रहता है। 

धर्म का ढोंगी रूप किसी भी समाज को पतन के गर्त में ले जा सकता है। इस युग धर्म की उन्होंने भर्त्सना की है। उन्होंने वैष्णव धर्म का अनुयायी होते हुए भी रूढ़िग्रस्त धर्म की निन्दा की है। 

उन्होंने यह आस्था प्रकट की है कि वास्तविक धर्म वही है, जो अपने महापुरुषों के प्रति मन में श्रद्धा उत्पन्न करता है। कवि ने भगवान् कृष्ण के गुणों का गान किया है।

अरे पलट दी काया ही, 
इस केशव ने काल की। 
बलिहारी - बलिहारी, जय-जय, 
गिरधर गोपाल की। 

5. स्वदेश-प्रेम का चित्र 

गुप्तजी का सम्पूर्ण कार्य राष्ट्रीयता की पवित्र भावना से पूर्ण है। उन्होंने अपने देशवासियों की दुर्दशा देखकर उस पर विचार करने के लिए आह्वान किया

हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी, 
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्यायें सभी।

विदेशी शासन के प्रति उनके मन में तीव्र आक्रोश था। उसको उन्होंने इस प्रकार व्यक्त किया

नीचता का भी पाया कुछ पार है, क्या तुम्हारे लिए ही संसार है।
 तुम प्यारे देश को लूटा करो, पर यहाँ जीना हमारा भार है।

कहने का आशय यह है कि गुप्त जी के क़ाव्य में स्वदेश-प्रेम की भावना वृहत् रूप से देखने को मिलती है। एक स्थान पर कवि ने मातृभूमि के लिए अपना विचार इस प्रकार से व्यक्त किया

मैं हूँ तेरा सुमन, चढूँ सर सूँ कहीं, 
मैं हूँ तेरा जलद, बढूँ बरसूँ कहीं॥

स्वदेश-प्रेमी कवि को अपने देश पर बहुत गर्व होता है। गुप्त जी को भी भारत के अतीत गौरव पर गर्व है। वे भारत को संसार का गुरु मानते हैं-

संसार को पहले हर्मी ने ज्ञान-शिक्षा दान दी।
व्यापार की, व्यवहार की और विज्ञान की।

6. गाँधीवादी विचारधारा

गुप्त जी की रचनाओं पर गाँधीवादी विचारधारा का पूर्ण अभाव है। गुप्त जी के युग की यह एक प्रमुख विचारधारा थी। 'द्वापर' काव्य में अहिंसा का समर्थन करके गाँध गीवादी विचारधारा का परिचय कवि ने अग्र प्रकार दिया है।

जिसमें पशु वध करते-करते सूखा हृदय हमारा। 
वे भाव मिटे हे ईश्वर ! इन्हीं बालकों के द्वारा।

गुप्त जी ने अपने महाकाव्य 'साकेत' में स्थान-स्थान पर गाँधीजी के विचारों का अनुसरण किया है; जैसे- सीताजी वन में स्त्रियों को सूत कातना सिखाती है। अयोध्या के निवासी राम-वन-गमन के समय सत्याग्रह की शरण लेते हैं।

राजा हमने राम तुम्हीं को है चुना,
 करो न तुम यों हाय लोकमत अनसुना । 
जाओ यदि जा सको रौंद हमको यहाँ, 
यों कह पथ में लेट गये जन वहाँ।

7. सामाजिक स्थिति का अंकन

राष्ट्रकवि की उपाधि उसी कवि को दी जा सकती है, जो अपनी कविता का विषय एक जाति विशेष को न बनाकर पूरे देश को अपना घर समझे। सब विषयों पर अपनी लेखनी चलाए, गुप्त जी ने यही किया । 

वे वर्तमान काल की अछूत समस्या पर भी बिना कहे न रह सके। इस समस्या ने भारतीय समाज में विशाल रूप धारण कर लिया है। गुप्त जी के मन में अछूतों के प्रति अपार स्नेह और सहानुभूति है; यथा - 

इन्हें समाज नीच कहता है, पर हैं ये भी तो प्राणी।
इनमें भी मन और भाव हैं, किन्तु नहीं वैसी वाणी॥

8. एकता की प्रेरणा

राष्ट्रकवि का यह धर्म होता है कि वह अपने राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने का उपदेश दे। कुछ दिनों पूर्व भारत में हिन्दू और मुस्लिम झगड़े हुए। उनको सम्बोधित करते हुए कवि ने 'गुरुकुल' में कहा है -

हिन्दू मुस्लिम दोनों अब, 
छोड़े वह विग्रह की नीति।

गुप्त जी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए 'सिद्धराज' में लिखा है -

जाओ तुम जाकर अपनी अजान दो। 
और गा - बजाकर उतारें हम आरती॥

9. उदारता की स्थापना 

गुप्त जी ने अपमानित, शोषित, पीड़ित नारी व्यथा को नवीन स्तर प्रदान किया। उन्होंने उसकी आत्मा को पहचाना। नारी के लिए निर्मित शास्त्रीय बन्धनों में उन्होंने पुरुष की पाशविक वृत्ति के दर्शन किए। इसीलिए उन्होंने कहा है -

नरकृत शस्त्रों के बन्धन हैं, नारी ही को लेकर ।
अपने लिए सभी सुविधाएँ पहले ही कर बैठे नर ।।

गुप्त जी ने देश की सबसे बड़ी इकाई ग्रामों को समझा। उन्हें ग्रामीण जीवन से बहुत प्रेम था। आप ग्रामीण जीवन की हीन दशा देखकर उसमें सुधार चाहते थे। उन्होंने 'अनघ' और 'किसान' कृतियों में ग्रामीण जीवन का सजीव अंकन किया है।

10. मानवता का सजीव चित्रण

गुप्त जी ने 'साकेत' में मानवतावादी प्रवृत्ति का सजीव चित्रण किया है। इस काव्य के नायक राम के सन्देश में मानवों के उच्चादर्शों की स्थापना, सुख एवं शान्ति का प्रसार, सन्तप्त प्राणियों की सुरक्षा, तुच्छ मानव में ईश्वर तत्व की प्रतिष्ठा इस भूतल पर स्वर्ग का निर्माण, निःस्वार्थ लोकसेवा आदि का स्वर गूँजता सुनाई पड़ रहा है। 

उसे मानवता के प्रेम का चरमोत्कर्ष दृष्टिगोचर होता है, उनमें मानव मात्र की सेवा का भाव छिपा हुआ है और ऐसा जान पड़ता है, मानो पीड़ितों की पुकार सुन-सुनकर राम के मुख से कवि का मानवता-प्रेमी हृदय स्वयं ही बोल रहा है।

वे सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानते हैं। राम ने भारत भूमि के कल्याण के लिए ही जन्म नहीं लिया है, अपितु सम्पूर्ण संसार को सन्मार्ग दिखाने के लिए अवतरित हुए थे-

पथ दिखाने के लिए संसार को,
दूर करने के लिए भू-भार को। 
सफल करने के लिए जन त्रुटियाँ, 
क्यों न करता वह स्वयं निज कृतियाँ ॥

11. अतीत की उपासना 

गुप्त जी अपने देश की प्राचीन संस्कृति के पावन रूप से अनन्य उपासक थे। भारत के पतनोन्मुख वर्तमान का निर्माण अतीत के गौरवपूर्ण इतिहास से प्रेरणा लेकर ही सम्भव हो सकता है

वर्तमान का यह आयोजन है, 
नित भावी जीवन का। 
कुछ अतीत संकेत मिले तो, 
अतीव लाभ इस जन का।।

निष्कर्ष - युग प्रतिनिधि अपने युग की सभी साहित्यिक गतिविधियों के प्रति सचेत रहता है। वह अपने व्यापक दृष्टिकोण के कारण अपने युग में प्रचलित लगभग सभी काव्यशैलियों को अपनाने की कोशिश करता है। 

उन्होंने अपने युग की भाषा खड़ी बोली में काव्य रचना की है। अपने काल में प्रचलित महाकाव्य, गीत, नाट्य, खण्डकाव्य, प्रगीत, मुक्तक काव्य, चम्पू काव्य आदि विविध शैलियों का अपने काव्य में प्रयोग किया है। 

इस तरह गुप्त जी के साहित्य में उनका साहित्यिक- युग साकार हुआ है। अतः वे सच्चे अर्थों में युग के प्रतिनिधि थे। 

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