हरिऔध की काव्यगत विशेषताएँ

व्यक्तित्व - हरिऔध जी का व्यक्तित्व ऋषियों के समान महान् था। उनके रहन-सहन और आचार-व्यवहार से सरलता और सौम्यता टपकती थी। पुराने आदर्शों और प्राचीन संस्कृति से प्रेम होते हुए वे नवीन प्रगतिशील विचारों के समर्थक थे। 

उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से सुधारवाद दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। हरिऔध जी बहुत गम्भीर प्रकृति के थे। हास-परिहास में वे बहुत कम भाग लेते थे। वे एकान्त जीवन को पसन्द करते थे। संगीत से उन्हें विशेष प्रेम था। कवि-र सहानुभूति भी उनमें सीमातीत थी। 

हरिऔध जी का भाषा पर व्यापक अधिकार है। उन्होंने ब्रज और -सुलभ खड़ी बोली पर तो हरिऔध जी के समान अन्य किसी कवि का व्यापक अधिकार नहीं है। वे जैसी सफलता से संस्कृतमयी भाषा से अभिव्यक्ति करते हैं। 

उतनी ही सफलता के साथ बोल-चाल की मुहावरेदार हिन्दी में रचनाएँ भी करते हैं। संस्कृतनिष्ठ तथा बोल-चाल की भाषा पर उनका सम्मान रूप से अधिकार है ।

हरिऔध जी की ब्रजभाषा में सरलता, प्रांजलता, सरसता आदि के गुण मिलते हैं। न तो उसमें क्लिष्टता है और न शब्दों की तोड़-मरोड़ ही है। हरिऔध जी की ब्रजभाषा पर खड़ी बोली का स्पष्ट प्रभाव है।

खड़ी बोली हिन्दी में 'हरिऔध' जी के 'प्रिय-प्रवास, वैदेही - वनवास' और 'चौपदे' प्रमुख ग्रन्थ हैं। की भाषा संस्कृतनिष्ठ है। कहीं पर तो यदि हिन्दी क्रियाओं को निकाल दिया जाये तो भाषा इन्दी के स्थान पर विशुद्ध ही बन जाती है निम्नलिखित उदाहरण में देखिए

रूपोद्यान प्रफुल्ल प्राय कलिका राकेन्दु बिम्बानना ।                                                                           
तम्बंगी कल-हासिनी सुरसिका क्रीड़ा-कल पुत्तली ॥

संस्कृति के वर्णिक वृत्तों के प्रयोग और क्लिष्ट भाषा भावों की अभिव्यक्ति के कारण ही भाषा का यह क्लिष्ट और संस्कृतनिष्ठ रूप हो गया है, परन्तु सर्वत्र ऐसी भाषा नहीं है। वह सरल और प्रसाद गुण से युक्त है। एक उदाहरण लीजिए

ठुमकते गिरते पड़ते हुए, जननि के कर की उँगली गहे।                                                                         
सदन में चलते जब श्याम थे, उमड़ता तब हर्ष पयोधि था ॥

हरिऔध जी के काव्य की बोलचाल की भाषा सर्वथा का काव्योचित है। उसमें कठिन शब्दों का बहिष्कार और प्रतिदिन के बोल-चाल के शब्दों का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार की भाषा में मुहावरों और कहावतों का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है। 

इस सम्बन्ध में 'हरिऔध' जी का निम्न कथन द्रष्टव्य है मुहावरे हमारी बोलचाल के लिए जीवन की चमकती चिंगारी स्वरूप स्फूर्ति है। वे भोज्य पदार्थों की उस जीवन-प्रदायिनी सामग्री के समान हैं, 

जो उनको सुस्वादु तथा लाभप्रद बनाती है। मुहावरों से शून्य भाषा या लेखन-शैली अमधुर, शिथिल तथा असुन्दर हो जाती है । "

जी की मुहावरेदार भाषा 
नहीं मिलते आँखों वाले, 
पड़ा अंधेर से है पाला । 
कलेजा कब किसने यामा, 
देख छिलते दिन का छाला ॥

भाषा के समान 'हरिऔध' जी की काव्य-शैली में भी विविधता है। वह विषय के अनुकूल बदलती रहती है। वर्णन प्रधान विषय में शैली - इतिवृत्तात्मक हो जाती है। उनकी सुधारवादी और उपदेशात्मक रचनाओं की शैली का यही रूप मिलता है। भाषा की गहनता या अनुभूतियों के प्रकाश के प्रसंग में शैली भावात्मक हो गई है।

हरिऔध की रचनाएँ

कृतियाँ-‘ हरिऔध' जी बहुमुखी काव्य-प्रतिभा लेकर हिन्दी-जगत् में आये । आपने प्रबन्ध-काव्य, खंड-काव्य, मुक्तक-काव्य संग्रह, उपन्यास, आलोचनात्मक ग्रन्थ और अनूदित ग्रन्थ आदि सभी कुछ हिन्दी को प्रदान किये ।

प्रबन्ध-काव्य- प्रिय- प्रवास, वैदेही वनवास, पारिजात ।

मुक्तक-काव्य-संग्रह - चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, बोलचाल, रस कलस, पद्य-प्रसून, कल्पलता, ऋतु मुकुर, काव्योपवन, प्रेम पुष्पाहार, प्रेम प्रपंच, प्रेमाम्बु, प्रेमा-प्रबन्ध, वारिधि आदि। इसके अतिरिक्त आधुनिक कवि भाग पाँच, में हरिऔध जी की स्फुट कविताएँ संगृहीत हैं। 

उपन्यास - ठेठ हिन्दी का ठाठ, अधखिला फूल।

आलोचनात्मक ग्रन्थ - हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास, कबीर वचनावली की आलोचना। अनूदित- बेनिस का बाँका (उपन्यास), रिपबान विकल (उपन्यास), नीति निबन्ध (निबन्धों का संग्रह), उपदेश - कुसुम (पद्य-संग्रह) ।

हरिऔध के काव्य में प्रकृति के स्वर 

उत्तर - खड़ी-बोली काव्य-धारा में सबसे पहले 'हरिऔध' जी के काव्य में प्रकृति अपना समस्त वैभव समेट कर आई उनके काव्य में प्रकृति का चित्रण विविध रूपों में मिलता है। 

कहीं वह संवेदनात्मक रूप में आती है और कहीं शिक्षक का रूप ग्रहण कर उपेदश देती है। कहीं उसके द्वारा सफल वातावरण प्रस्तुत किया गया है तो कहीं वह उनके अप्रस्तुत - विधान में आकर समा गई है। वह उद्दीपन रूप में भी उपस्थित हुई है। अपने आलम्बन रूप में उसका यथार्थ चित्रण भी हुआ है। 

प्रकृति-चित्रण के अन्तर्गत 'हरिऔध' जी कहीं-कहीं पर वस्तुओं का नाम भी गिनाने लगते हैं। ‘प्रिय-प्रवास' के नौवें सर्ग में प्रकृति इसी रूप में चित्रित हुई है।

'हरिऔध' जी के 'प्रिय - प्रवास' में प्रकृति-चित्रण बड़े विस्तार से हुआ है। कथानक का प्रारम्भ ही प्रकृति - चित्रण से होता है। 'प्रिय-प्रवास' की अपेक्षा 'वैदेही- वनवास' में प्रकृति का संश्लिष्ट चित्रण अधिक मिलता है। एक उदाहरण लीजिए

पहले छोटे-छोटे घन के खण्ड घूमते दिखलाये । फिर छायामय कर छिति तल को, सारे नभ तल में छाये । तारापति छिप गया अवतरित हुई तारकावलि सारी । सितावनी असिंता छिनती, दिखलाई उनकी छवि न्यारी।

'हरिऔध' जी के काव्य में यत्र -तत्र प्रकृति का रहस्यात्मक रूप भी मिलता है। एक उदाहरण लीजिये

श्यामधन में है किसकी झलक, कौन रहता है रस से भरा । लुभा लेती है धरती किसे; दुपट्टा ओढ़कर हरा ॥ बड़ी अँधियाली रातों में, बन बहुत आँखों के प्यारे । बैठकर खुले झरोखों में, देखते हैं किसको तारे ॥

'हरिऔध' जी के काव्य में प्रकृति सुख दुःख की सहचरी बनकर उपस्थित हुई है, के कृष्ण मथुरा प्रवास की हृदय विदारक सूचना से समस्त प्रकृति शोक-मग्न और शान्त हो गई। वृक्ष, आकाश, तारक आदि सभी शान्त दिखाई पड़ते थे। यशोदा की विकलता देखकर रात्रि भी विकल हो. रही है और दीपक शीश धुन रहा है

विकलता लख के ब्रज देवि की,
रजनि भी करती अनुताप थी।
निपट नीरव ही मिस ओस के,
नयन से गिरता बहु वारि था ॥

हरिऔध जी ने मानव और मानवेतर प्रकृति में बिम्ब- प्रतिबिम्ब भाव को दिखाकर बड़ी ही नूतन कल्पना की है। प्रातः होते ही सूर्य अपनी लालिमा बिखेर देता है, किन्तु वियोगिनी राधा की स्थिति दूसरी ही है, उनको क्षितिज की लाली किसी कामिनी का रुधिर प्रतीत होती है।

विहंगों की बोली में उन्हें बहेलिये के शरसंधान की ध्वनि सुनाई पड़ती है। श्रीकृष्ण की मथुरा प्रयाण की बेला में गगनवर्ती सूर्य ने अपना मुख वृक्षों की ओट में छिपा लिया है।

आई बेला हरि-गमन की छा गई खिन्नता-सी ।
थोड़े ऊँचे नलिन-पति जा छिपे पादपों में। 

हरिऔध जी की रस योजना

हरिऔध जी के काव्य में मुख्य रूप से शृंगार और वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति हुई है। 'रस - कलश' में शृंगार रस का विस्तार से विवेचन हुआ है। इसमें संयोग शृंगार के बड़े ही सुंदर चित्र मिल जाते है, किन्तु शृंगार रस का रूप अत्यंत स्वच्छ और उदात्त है। उसमें वासना की गंध भी नहीं है। एक गोपी कहती है

मंद-मंद समद गयन्द की चालन सो,                                                                                                          ग्वालन लै लालन हमारी गली आइये।

प्रिय प्रवास और वैदेही वनवास में विप्रलम्भ शृंगार की बड़ी ही कारूणिक धारा प्रवाहित हुई है। दोनों में करूणा विप्रलम्भ बहुत ही गहरा हो गया है। ब्रज-बालाओं के वियोग में विप्रलम्भ करूण है, वहाँ माता यशोदा का वात्सल्य अकुलाहट और टीस में करूण की सीमा में पहुँच गया है। 

प्रिय पति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है ? दुःख जल-निधि डूबी का सहारा कहाँ है ? प्रिय प्रवास की राधा करूणा की साक्षात् प्रतिमा ही बन गई है। उसकी वेदना चेतन और अचेतन की सीमा को पार कर गई है । वैदही- वनवास के कथानक की समाप्ति ही करूण रस में हुई है। 

हरिऔध की भाषा

हरिऔध जी की ब्रजभाषा में सरलता, प्रांजलता, सरसता आदि के गुण मिलते हैं। न तो उसमें क्लिष्टता है और न शब्दों की तोड़-मरोड़ ही है। हरिऔध जी की ब्रजभाषा पर खड़ी बोली का स्पष्ट प्रभाव है।

खड़ी बोली हिन्दी में 'हरिऔध' जी के 'प्रिय प्रवास' की भाषा संस्कृत निष्ठ है। कहीं पर तो यदि हिन्दी क्रियाओं को निकाल दिया जायें तो भाषा हिन्दी की स्थान पर विशुद्ध ही बन जाती है ।

रूपोधान प्रफुल्ल प्राय कलिका राकेन्दु बिम्बानना
तन्वंगी कल- हासिनी सुरसिका क्रीड़ा-कल पुत्तली ।

 'प्रियप्रवास' हरिऔध जी का कीर्ति स्तंभ है और खड़ी बोली हिंदी का प्रथम महाकाव्य है। प्रिय प्रवास की रचना से पूर्व खड़ी बोली हिन्दी के अच्छे काव्यों तथा महाकाव्यों का प्रायः अभाव था ।

लख अपार प्रसार गिरिन्द्र में
ब्रज धराधिप के प्रिय पुत्र को ।
सकल लोभ लगे कहने उसे 
रख लिया ऊँगली पर स्याम ने

प्रिय प्रवास महाकाव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें संस्कृत के अतुकांत वर्णिक छंदों का प्रथम बार प्रयोग हुआ है।

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