आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निबंध की विशेषताएं बताइए

विषय की गंभीरता के साथ शुक्ल जी भाषा की गंभीरता और गठन पर भी पूरा ध्यान देते थे। उनकी भाषा अत्यधिक शक्तिशाली और सुगठित है। इसमें परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं। उनका प्रत्येक शब्द उनके चिन्तन की धारा का जड़ा हुआ मोती है जिसे वाक्यावली से अलग करना आसान नहीं हैं। 

शब्दों के प्रयोगों की सजगता, वाक्यों का गठन, क्रियापदों की सार्थक स्थिति आदि अनेक गुण ऐसे हैं जिनको शुक्ल जी की भाषा में प्रत्येक स्थिति में अच्छे उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की भाषा की विशेषताएँ 

(1) संस्कृतनिष्ठ पदावली 
(2) व्यावहारिक शब्दों का प्रयोग
(3) परिष्कृत विदेशी शब्दों का प्रयोग

इसके अतिरिक्त उनकी भाषा निबंध और समालोचनाओं में विशुद्ध साहित्यिक है कि कविता में ब्रज भाषा और हिन्दी का सम्मिश्रण है। चिंतामणि से आपकी भाषा का सुंदर उदाहरण है।

यह भाषा उन स्थलों की है जहाँ पर लेखक अपनी पूर्व कही बात की व्याख्या करना चाहता है, जहाँ पर चिंतज आता है वहाँ भाषा और भी सारगर्भित और क्लिपट हो जाती है। आपके समीक्षात्मक निबंधों में भाषा संस्कृतनिष्ठ और पांडित्यपूर्ण हो जाती है। 

शुक्ल जी के निबन्धों का अध्ययन करने पर निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं-मौलिकता, परिमार्जित परिपाक शैली, भाषा की समाहार शक्ति, मस्तिष्क और हृदय का समन्वय, सुगठित विचार परम्परा, सशक्त अभिव्यक्ति, विषय की सम्बद्धता, विवेचना की निगमन-पद्धति, वैयक्तिकता की गहन छाप, हास्य व्यंग्य की छटा, वैज्ञानिक विवेचन ।

(1) मौलिकता-शुक्ल जी की प्रतिभा तलस्पर्शी थी। वह प्रतिपाद्य विषय का विवेच्य प्रश्न की उसके मूल में ग्रहण करते थे। मूल तत्व को पकड़ने के पश्चात् वे धीरे-धीरे उसका विस्तार करते थे। किसी विषय का प्रतिपादन करते समय वे जो तर्क देते थे पहले उन पर पूरी तरह विचार करते थे। उनका प्रत्येक विचार तर्क की कसौटी पर अच्छी तरह कसा हुआ होता था। 

यही कारण है कि उनके निबन्धों में सर्वत्र उनकी मौलिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं। यहाँ तक मनोविकार से सम्बन्धित निबन्धों के सृजन में आधुनिक पाश्चात्य मनोविज्ञान से प्रभावित हुए भी उनकी मौलिकता की रक्षा कर सके हैं। हो सकता है कि उन्होंने जिन मान्यताओं पर विचार किया हो वे पूर्व स्थापित हों पर इससे उनकी मौलिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि उन्होंने उन मान्यताओं को नवीन रूप प्रदान किया है। 

(2) परिमार्जित परिपाक शैली-हिन्दी गद्य साहित्य को एक सर्वथा अनूठी, सर्वोत्कृष्ट शैली प्रदान करने का श्रेय शुक्ल जी की है। सुगुम्फित विचारों, सुगठित वाक्यों से युक्त उनकी शैली शुक्ल जी के विचारों की परिपक्वता से युक्त है। वैज्ञानिक विवेचना ने उनकी शैली की प्रौढ़ता में अभिवृद्धि की है। 

सहज से सहज, जटिल से जटिल, सरस सरस, गूढ़ से गूढ़ विचारों का वहन करने में उनकी शैली पूर्ण समर्थ है। वस्तुतः एक अत्यन्त परिमार्जित, गम्भीर तथा सुगठित शैली के आदि प्रतिष्ठापक के रूप में शुक्ल जी का अपना विशेष महत्व है। यही कारण है कि बेकन का कथन 'Style is the man' र्थात् 'शैली ही व्यक्ति है' उन पर पूरी तरह चरितार्थ होता है।

(3) भाषा की समाहार शक्ति-शुक्ल जी के निबन्धों की भाषा सदैव ही उनके हर प्रकार के विचारों अनुवर्तिनी के रूप में सामने आयी है। थोड़े से शब्दों में बहुत सी बात कहना शुक्ल जी की भाषा की बहुत बड़ी विशेषता है। 

उनकी शब्द-योजना इतनी पूर्ण तथा सुगठित रहती है कि एक भी शब्द का प्रयोग न तो अनावश्यक रहता है और न उसमें परिवर्तन ही किया जा सकता है। शब्दों की इतनी सतर्क तथा सार्थक योजना अन्यत्र दुर्लभ है। ।

सूत्र रूप में लिखे गये वाक्य इनकी भाषा की एक और प्रमुख विशेषता है। ये सूत्रात्मक वाक्य 'गागर में सागर भरने' का कार्य करते हैं। भाषा की इस समाहार शक्ति का उदाहरण देखिए(i) 'ब्रह्म की व्यक्त सत्ता सतत क्रियमाण है।' (ii) 'धर्म की रसात्मक अनुभूति का नाम भक्ति है।' (iii) 'यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण है।'

(4) मस्तिष्क तथा हृदय का समन्वय-शुक्ल जी के निबन्धों में 'गम्भीरता' एक विशेष गुण है। इसका कारण यह है कि उनके अधिकतर निबन्ध चिन्तन प्रधान हैं जिनमें बुद्धि अपना मार्ग तय करती हुई आगे बढ़ती है। 

इसका अर्थ यह नहीं कि उनके निबन्ध बुद्धि के भार से बोझिल होकर सर्वथा जीरस, शुष्क हो गये हैं। बुद्धि के साथ भावना का भी मधुर पुट है जिसने उनके निबन्धों की गम्भीरता को एक संयत, शिष्ट सरसता प्रदान की है।

(5) सुगठित विचार परम्परा-विचारों की सुगठित परम्परा शुक्ल जी के निबन्धों की प्रमुख विशेषता है। मोती लड़ियों की भाँति विचार इस प्रकार एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं कि यदि एक भी शब्द इधर से उधर कर दिया जाए तो सम्पूर्ण विचार-शृंखला अस्त-व्यस्त हो जायेगी। 

विचारों की इस क्रमबद्धता तथा सुगुम्फित परम्परा वाक्यों में पूर्वापर सम्बन्ध स्थापित करने में बहुत सहायक सिद्ध हुई है। वाक्यों के इस पूर्वापर सम्बन्ध में अर्थ-बोध में बहुत बड़ी स्पष्टता आ जाती है। इस प्रकार सुगठित विचार-परम्परा शुक्ल जी के निबन्धों की मुख्य विशेषता है जिसने उनके निबन्धों को हिन्दी साहित्य का गौरव बना दिया।

(6) सशक्त अभिव्यक्ति-तीव्र एवं गहन चिन्तन-मनन तथा गूढ विचारों के साथ यदि प्रतिपादन की सशक्त शैली न हो तो उन विचारों का पूर्ण प्रभाव नहीं पड़ जाता है। शुक्ल जी के निबन्धों की यही विशेषता है कि उनमें प्रतिपाद्य विषय का पूर्ण निरूपण होता है। 

शुक्ल जी एक सफल वकील की भाँति प्रतिपाद्य विषय के पक्ष तथा विपक्ष पर विचार कर लेते हैं। उस विषय के विपक्ष में कौन-से तर्क आ सकते हैं, उनका किस प्रकार खण्डन किया जा सकता है, इन सभी भावनाओं पर शुक्ल जी भली प्रकार विचार कर लेते हैं फिर अत्यन्त दृढ़, संयमित तथा निर्भीक शैली में अपना विचार रखते हैं।

(7) विषय की सम्बद्धता-विषय की सम्बद्धता शुक्ल जी के इन निबन्धों की एक अन्य प्रमुख विशेषता है। किसी विषय का प्रतिपादन करते समय शुक्ल जी मुख्य विचार को केन्द्र में रखकर आगे बढ़ते हैं तथा एक पल के लिए वह विचार उनकी पकड़ से नहीं छूटता है। उनके निबन्धों में अनावश्यक विषय के दर्शन नहीं मिलते हैं। हर विषय सन्दर्भ के अनुकूल ही होता है। 

विषय का प्रतिपादन करते समय शुक्लजी प्रकरण के व्यर्थ विस्तार से बचते हैं। उनके निबन्धों में उन्हीं तथ्यों का समावेश रहता है जिनका मुख्य विषय से किसी-न-किसी रूप में सम्बन्ध रहता है।

(8) विवेचना की निगमन पद्धति-शुक्ल जी के निबन्धों की विवेचना की प्रमुख विशेषता निगमन पद्धति का प्रयोग है। इसमें शुक्ल जी सबसे पहले सूत्र प्रस्तुत करते हैं फिर उनका भाष्य तथा अन्त में सारांश। उनके विचारात्मक निबन्धों की गम्भीर विवेचना में यह पद्धति बहुत उपयोगी रही है। 

शुक्ल जी के निबन्ध विभिन्न अनुच्छेदों में बँटे होते हैं। प्रत्येक अनुच्छेद का प्रथम वाक्य एक सूत्र में होता है वस्तुतः वाक्य पूरे अनुच्छेद का निष्कर्ष होता है। यह सूत्र वाक्य दुर्बोध होता है। आगे के वाक्यों में इस वाक्य की विवेचना करते हैं और अन्त में सारांश देकर पूरे विषय को जो उस अनुच्छेद में प्रतिपादित है, 

स्पष्ट कर देते हैं। वस्तुतः शुक्ल जी की यह पद्धति अध्यापकोचित पद्धति है जो विषय को एकदम स्पष्ट कर देती है। उस निबन्ध को पढ़ने वाले पाठक मानो विद्यार्थी हैं जो सब कुछ हृदयंगम करते जाते हैं। । ।

(9) वैयक्तिकता की गहन छाप-शुक्ल जी के निबन्धों में उनके व्यक्तित्व की गहरी छाप स्पष्ट है। गहन चिन्तन, तलस्पर्शी प्रतिभा, प्रखर आलोचना शक्ति, गूढ निबन्ध लेखन, सफल अध्यापन, विस्तृत अध्ययन, सरस, भावुकता आदि विशेषताओं से युक्त उनका व्यक्तित्व, उनके विषयों में पग-पग पर अपनी छाप छोड़ता चला है। 

विशिष्ट भाषा शैली से युक्त उनके निबन्धों का प्रत्येक शब्द जैसे कह रहा हो कि वह शुक्लजी की लेखनी से प्रसूत हैं। ,

(10) हास्य व्यंग्य की छटा- -कठिन मानसिक कार्य करते-करते जैसे कोई व्यक्ति थक जाता है और कुछ पलों का मनोविनोद चाहता है उसी प्रकार विषय का गम्भीरतापूर्वक प्रतिपादन करते-करते जैसे मानसिक श्रम के परिहार के लिए शुक्ल जी बीच-बीच में हास्य व्यंग्य की छटा बिखेरते चलते हैं। पर हास्य-व्यंग्य का यह रूप इतना संयमित होता है कि विषय की अपेक्षित गम्भीरता कभी कम नहीं होती है।

दूसरी ओर शुक्लजी का प्रतिपक्ष के खण्डन का आवेश भी हास्य-व्यंग्य को अशिष्ट नहीं होने देता है। यह विशेषता शुक्ल जी के आश्चर्यजनक भाषाधिकार को स्पष्ट करती है। इस प्रकार वह जिस कुशलता के साथ हास्य व्यंग्य की दृष्टि करते चलते हैं यह देखने योग्य होती है। 

उदाहरण के लिए 'कविता क्या है ?' शीर्षक लिखध की ये पक्तियाँ देखिए जिसमें बढ़ी कुशलता के साथ उन्होंने इस विज्ञान प्रधान युग में असाहित्यिक व्यक्तियों पर मार्मिक व्यंग्य किया है

" इसी ले अन्त प्रकृति में मनुष्यता को समय समय पर जागृति रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चलती चलेगी। जानवरों को इसकी जरूरत नहीं।

" कहना न होगा कि 'जानवर' शब्द द्वारा साहित्य-विरोधी व्यक्तियों पर ही मार्मिक व्यंग्य का प्रहार है।

(11) वैज्ञानिक विवेचन-शुक्ल जी की गद्य शैली की सबसे बड़ी विशेषता उसका वैज्ञानिक विवेचन है। इस शैली में कहीं भी यह प्रतीत नहीं होता है कि लेखक कलात्मक सौन्दर्य उपस्थित करने का बलात् प्रयास करता है।

जिस प्रकार एक वैज्ञानिक किसी 'वस्तु' के विषय में अन्तिम निष्कर्ष निकालने के पहले उसके पक्ष तथा विपक्ष दोनों को भली-भाँति परख लेता है। अपने मत को तकों की कसौटी पर कस लेता है फिर आत्मविश्वास के साथ अपने निष्कर्ष को सामने रखता है, उसी प्रकार शुक्ल जी किसी विषय का निरूपण करते समय उसके पक्ष तथा विपक्ष दोनों का भली-भाँति अध्ययन करते हैं। 

तर्कों के द्वारा उनका खण्डन-मण्डन करते हैं। फिर दृढ़ता के साथ विषय का प्रतिपादन एक वैज्ञानिक की भाँति क्रमबद्ध रूप में करते चले जाते हैं।

यह वैज्ञानिक विवेचन उनके विचारात्मक निबन्धों में विशेष रूप से देखने को मिल जाता है। विशेष रूप से किसी कवि या लेखक के कार्यों का मूल्यांकन करते समय तो उनकी विवेचना ने पूर्ण वैज्ञानिकता ग्रहण कर ली है।

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