अंधेर नगरी के उद्देश्य पर टिप्पणी लिखिए

अन्धेर नगरी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की हास्य-नाट्यकृति है, किन्तु इस रचना का मूल उद्देश्य पाठकों अथवा दर्शकों का मनोरंजन करना नहीं है। यद्यपि इस कृति के मंचन के समय दर्शक हास्य रस में भी मग्न हो जाता है, उसके भीतर एक गुदगुदी पैदा होती है और वह अपनी हंसी रोक नहीं पाता, फिर भी वह इस नाटक के प्राणप्रद धर्म से ओत-प्रोत हुए बिना नहीं रह पाता। 

इस नाटक का अन्तः प्राण क्या है, नाटककार का क्या अभिप्रेरित रहा है या इस कृति के प्रणयन में उसकी क्या प्रेरणा अन्तर्हित है। इसका ज्ञान कृति के प्रारम्भ में ही होने लगता है। लेखक ने प्रस्तुत कृति के समर्पण में ही रचना के उद्देश्य से सम्बद्ध भावोद्गार अभिव्यक्ति कर दिये हैं।

मान्य योग्य नहिं होत कोऊ कोरो पद पाए। 
मान्य योग्य नर ते, जे केवल परहित जाए।।
का जीतानर सरीर में रत्न वही जो पर दुख साथी।
खात पियत अरु स्वसत स्वान मंडुक अरु भाथी। 
तासो अब लौ करो, करो सो, पै अब जागिय ।
गो श्रुति भारत देस समुन्नति में नित लागिय।। 

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का मन्तव्य स्पष्ट है। मनुष्य मन, वाणी अथवा कर्म से यदि परहित कर सके, अपने जीवन का कुछ भाग गौ, श्रुति (वेद) अपने देश के लिए अर्पित कर सके, तभी उसका जीवन सफल होगा अन्यथा पशु भी अपना उदर भर लेते हैं। क्या हुआ ? यदि उच्च पद प्राप्त कर लिया। 

उच्च पद प्राप्त करने से ही कोई व्यक्ति मान्य नहीं हो सकता, वह व्यक्ति मान्य तो तभी हो सकता है जब वह किसी के काम आये, कुछ त्याग करे, परहित करे। छल, कपट, झूठ, स्वार्थ, अन् विश्वास, व्यक्ति, समाज और देश की उन्नति में बाधक है। लेखक ने समाज और देश के वातावरण -जागता चित्र सामने प्रस्तुत किया है।

सर्वप्रथम नाटककार तत्कालीन बाजार का दृश्य प्रस्तुत करता है, जिसमें घासीराम अपने चने बेच रहा है किन्तु उसके गीत में उन हाकिमों पर फबती कसी गई है जो जनता पर प्रतिदिन दूना टैक्स बढ़ाते जा रहे हैं

चना हाकिम सब जो खाते।
सब पर दूना टिकस लगाते।।

हलवाई जहाँ अपनी मिठाइयों के नाम गिना-गिनाकर प्रशंसा के पुल बाँध रहा है, वहाँ वह कलकत्ता के विलसन मन्दिर के भीतर भी झाँकने से नहीं चूकता

“जैसे कलकत्ते के विलसन मन्दिर के भितरिये, वैसे अन्धेर नगरी के हम।"

देश पर विदेशी हुकूमत मजे में चल रही है, इसका मूल कारण है हिन्दुस्तानी लोगों में आपसी बैर और फूट, जिसका लाभ विदेशी शासकों को मिल रहा है। अन्धेर नगरी में बेर और फूट भी सस्ती है, वह भी टका सेर है, चाहे जितनी खरीद लो। 

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कुजड़िनी के मुँह से कहलवाते हैं"जैसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी, टके सेर भाजी । ले हिन्दुस्तान का मेवा फूट और बेर।' यद्यपि फूट और बेर हिन्दुस्तान में पैदा होने वाले फल हैं किन्तु यहाँ बड़ा तीखा व्यंग्य है। 

यहाँ पर उद्दिष्ट है कि हमारी फूट और परस्पर का बैर कहाँ तक विदेशियों को लाभान्वित कर रहा है, इस ओर ध्यान देना अभीष्ट है। टके सेर मेवा बेचने वाला मुगल भी मुल्क की ही खामी का इजहार करता है। 

चूरनवाला भी देश की दुरावस्था का चित्रण करता है। देश के महाजन किस प्रकार जमा रकम हजम कर रहे हैं, कचहरी के कारिन्दे खूब रिश्वत पचा रहे हैं, साहब लोग पूरी हिन्दुस्तान को हजम किये जा रहे हैं, पुलिस वाले कानून की परवाह नहीं करते। पता नहीं कि वह कौन सा चूरन है जिससे यह सब बड़ी आसानी से पच जाता है। 

चूरन विक्रेता के माध्यम से नाटककार ने देश के अफसरों, महाजनों, लाला लोगों, पुलिस वालों तथा कचहरी के कर्मचारियों की अनैतिकता प्रधान मनोवृत्ति को उजागर किया है।

चूरन जब से हिन्द में आया। 
इसका धन-बल सभी घटाया। 
चूरन अमले सब जो खाबैं । 
दूनी रिश्वत तुरन्त पचावै ।। 
चूरन सभी महाजन खाते ।
जिससे जमा हजम कर जाते।
चूरन खाते लाला लोग। 
जिनको अकिल अजीरन रोग।
चूरन साहेब लोग जो खाता। 
सारा हिन्द हजम कर जाता। 
चूरन पुलिस वाले खाते । 
सब कानून हजम कर जाते।। 

देश का धन-बल घटता जा रहा है, नाटककार की यह चिन्ता मार्मिक है। देश में भ्रष्टाचार पनप रहा है, उसके उच्छेदन के बिना देश का कल्याण सम्भव नहीं।

भारतेन्दु जी की दृष्टि में अन्धेर नगरी कोई काल्पनिक नगरी नहीं है जो कुछ अन्धेर नगरी में होता है वह सब कुछ हिन्दुस्तान में भी दिखाई दे रहा है। यहाँ भौतिक वस्तुओं के साथ-साथ नैतिक मूल्यों का भी ह्रास होता जा रहा है। 

वेद, धर्म, कुल-मर्यादा, ईमान, बड़ाई सब टके सेर बेचे जा रहे हैं। पैसे के मूल्य के सामने और किसी का मूल्य नहीं रहा। जात वाला ब्राह्मण पैसे के लिए अपनी जात बेच रहा है। टके से धर्म परिवर्तन व जाति परिवर्तन हो रहा है

“एक टका दो हम अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से धोबी हो जायें और धोबी को ब्राह्मण कर दें, टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठे को सच करें। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिन्दू से क्रिस्तान । 

टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठ दोनों बेचें, टके के वास्ते झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य माने, टके के वास्ते नीच को पितामह बनावें।"

इस तरह की सामाजिक दशा है, जिसमें व्यक्ति का चरित्र पैसे से डगमगा रहा है। यहाँ हाकिम, कर्मचारी और पुलिस वाले ही भ्रष्ट आचरण के शिकार नहीं हैं वरन् जन-साधारण में भी यह बुराई आ गई है कि वह नैतिक मूल्यों से विमुख होता जा रहा है ।

अन्धेर नगरी की यह भी विशेषता है कि यहाँ विद्वान और मूर्ख, धार्मिक और अधार्मिक कोकिल और वायस में कोई भेद नहीं समझ जाता। अपराधी और निर्दोष में भी कोई अन्तर नहीं देखा जाता। यही इस देश की दुरावस्था है।

नाटककार ने 'अन्धेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा' की लोकोक्ति को अन्धेर नगरी के बाजार और राजसभा में चरितार्थ होते दिखाया है। अन्धेर नगरी का राजा बिल्कुल मूर्ख है। वह असम्बद्ध प्रलाप करता है। उसकी जबान का कोई भरोसा नहीं, जिधर हिल जाये, मन्त्री लोग वैसा ही करने में प्रवृत्त हो जाते हैं। 

वस्तुतः अन्धेर नगरी में ऐसे ही राजा का राज चलता है अथवा जहाँ में ऐसा नासमझ राजा होगा, वहाँ इसी प्रकार की अन्धेर नगरी होगी और वहाँ अधर्म, अन्याय, अनैतिकता तथा दुराचार खूब पनपेगा।

इस रचना के माध्यम से नाटककार देश की दुरावस्था एवं सामाजिक पतन की पराकाष्ठा का अवबोध कराने के लक्ष्य को ही लेकर चला है। देशवासियों की प्रसुप्त अस्मिता को जगाना तथा अपने देश की दुर्दशा के प्रति सचेष्ट करना ही इस कृति का मूल उद्देश्य है। 

साहित्यकार का यह पुनीत कर्त्तव्य होता है कि वह देश और समाज में जो घटित हो रहा है उसके प्रति संवेदनशील रहे और देश और समाज को क्या अभीष्ट है, उसको उजागर करे, चिन्तन करे। बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तो युगदृष्टा कवि थे। 

हिन्दी-साहित्य को सर्वप्रथम उन्होंने ही राष्ट्रीयता प्रधान चिन्तन की भाव- -भूमि अर्पित की, जिससे प्रभावित होकर उनके साथी और उनके परवर्ती साहित्यकार भी प्रभावित हुए फलस्वरूप हिन्दी-साहित्य राष्ट्रीयता के स्वर से मुखरित हो उठा।

इस प्रकार देखते हैं कि 'अन्धेर नगरी' नामक पाठ्यकृति आकार में भले ही लघु है तथा उसका कथानक भी हल्का-फुल्का लगता है परन्तु इसके भीतर जो उद्देश्य निहित है वह महनीय है। देशवासियों को उनकी वास्तविक कमजोरी से अवगत कराया गया है। साथ ही भारतेन्दुयुगीन भारत की सही तस्वीर सामने प्रस्तुत की गई है। 

किन्तु यदि आज के भारत को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो अभी भी यह प्रासंगिक है। झूठे और चालाक लोग आज भी सत्ता पर हावी हो रहे हैं और अपनी मनमानी कर रहे हैं। अपने तुच्छ स्वार्थ की पूर्ति में देश का कितना नुकसान हो रहा है इसकी उन्हें कल्पना तक नहीं।

आज देश की सामाजिक दशा भी भारतेन्दु युग से बेहतर नहीं कही जा सकती। उसी तरह की आपा-धापी मची हुई है। जाति, धर्म, न्याय, सच्चाई, ईमानदारी आदि का कोई मूल्य नहीं रह गया है। किसी तरह पदवी प्राप्त करना मनुष्य का लक्ष्य हो गया है। 

अतः उक्त कृति द्वारा इस ओर सचेष्ट किया गया है कि यदि देश और समाज में ऐसा घटित होता है तो समझना चाहिए कि वह देश और समाज पतनोन्मुख है। देशवासियों को सजग रहना चाहिए तथा आत्मालोचन करना चाहिए। वही शिक्षा इस प्रहसन के माध्यम से दी गई है।

अंधेर नगरी समसामयिक और उद्देश्यपूर्ण

उत्तर–'अन्धेर नगरी' एक प्रहसन है। यह नाटक का ही एक रूप होता है। इसकी परिभाषा के विषय में साहित्य दर्पणकार का मत है

भाणवत्सन्धि सन्ध्यंग लास्याडैविनिर्मितम् । 
भवेत् प्रहसनं वृन्तं निन्द्यानां कविकल्पितम्।। 
अत्र वारभटी, नापि विष्कम्भक प्रवेश कौ।
 अंगी हास्य रसस्तत्र वीय्यांगनां स्थितिनवां ।। 

अर्थात् प्रहसन रूपक का एक प्रकार है, जिसमें सन्धि लाक्ष्यांश और अक की रचना भाण की भाँति हुआ करती है। इसका कथानक अधम प्रकृति के व्यक्ति काश्इरतिवृत्त होता है और वह भी कवि द्वारा कल्पित होता है। 

इसमें आरभटी नामक वृत्ति नही होती और न विष्कम्भक और प्रवेशक की ही रचना की जाती है इसका अंगीरस हास्य होता है इसमें वीय्यंग योजना ऐहिक होती है, अनिवार्य नहीं। प्रहसन दो प्रकार का होता है

(1) शुद्ध प्रहसन, और 2) संकीर्ण प्रहसन।

प्रहसन भरतमुनि ने दोनों को दृष्टि में रखते हुए इसकी परिभाषा की है उनका मत है—जब भगवत तो तापस, भिक्षु, क्षत्रिय आदि का किन्हीं (पाखण्डी) नीच व्यक्तियों द्वारा परिहास किया जाए, प्रहसन होता है इसमें भाषा और कथानक को आद्योपान्त समान रूप से पाखण्डी व्यक्तियों के यथार्थ जीवन के उपयुक्त निर्धारित किया जाता है। 

यह परिहास के आभूषणों से युक्त होता है। संकीर्ण प्रहसन के विषय में आपकी धारणा है कि इसमें वेश्या, चेट, नपुंसक, बिट, धूर्त, बन्धकी (दुराचारी) के अशिष्ट वेश, भाषा और चेष्टाओं का अभिनय प्रदर्शित किया जाता है। 

इसमें सामान्य जनता में प्रचलित किसी दुराचार एवं दम्भ पाखण्ड का प्रदर्शन अनिवार्य है। ब्रजरत्न दास की मान्यता है किमें कल्पित कया रहती है और हास्य रस प्रधान होता है । पात्रगण साधारण निम्न कोटि के होते हैं।"

प्रहसन की परिभाषा स्वयं भारतेन्दु ने इस प्रकार की है- "हास्य इसका मुख्य अग है । नायक राजा व धनी या ब्राह्मण अथवा धूर्त कोई भी हो। इसमें अनेक पात्रों का समावेश होता है । यद्यपि प्राचीन रीति से इसमें एक अंक ही होना चाहिए, किन्तु अब अनेक दृश्य दिये बिना नहीं लिखे जाते हैं।'

(1) वस्तु-विन्यास-इस हास्य और व्यंग्य भरी कहानी को भारतेन्दु ने इस चातुरी से शिल्पित किया है कि आरम्भ से ही हास्य और व्यंग्य का पुट शुरू होकर कथा गति के साथ तीव्र होता जाता है। कथा संगठन में कहीं भी शिथिलता नहीं है। कार्य-व्यापार की गति अत्यन्त ही तीव्र है। 

इस नाटक का विन्यास नवीन ढंग हुआ है, जो आधुनिक एकांकी का प्रारम्भिक रूप प्रस्तुत करता है। नाटक की समस्त कया छः अंकों में संगठित हुई है। यह छः अंक वस्तुतः छः दृश्य ही हैं, जो सब मिलकर एक अंक के ही अलग-अलग दृश्य बनते हैं।

इस नाटक की दृश्य योजना बड़ी ही सरल है और स्टेज पर किसी विशेष आयोजन की आवश्यकता नहीं होती। पहला दृश्य है—बाह्य प्रान्त; दूसरा–बाजार; तीसरा-जंगल; चौया-राजसभा, पाँचवाँ-अरण्य और छठा श्मशान।

इस नाटक में संस्कृत की तकनीक का जरा भी सहारा नहीं लिया गया है, नितान्त नवीन पद्धति पर इसकी कथा का विन्यास हुआ है इससे प्रतीत होता है कि संस्कृत और नवीन पद्धति के मिश्रण से हिन्दी नाटक की तकनीक के निर्माण में भारतेन्दु काफी सफल हो गये थे। इस नाटक के कथा-विन्यास को हम आधुनिक नाट्यकला का आधार मान सकते हैं।

हास्य और व्यग्य-इस नाटक में हास्य और व्यंग्य अत्यन्त ही उच्चकोटि का और शिष्ट है। हास्य के साथ-साथ विचारोत्तेजक व्यंग्य भी है, जो तत्कालीन देशी राजाओं के दिमागी दिवालियेपन और उनके व्याय पर तीखी चुटकी लेता है। 

अंग्रेजों पर भी इस नाटक में व्यंग्य है, साथ ही देश के बैर और परस्पर फूट तथा ब्राह्मणों की टके-टके में जात बेचने की प्रवृत्ति पर तीखे व्यंग्य हैं। इस नाटक की सबसे बड़ी कलात्मक विशेषता है कि हास्य और व्यंग्य भोंडे, विदूपों और ओछी हास्योत्पादक उक्तियों से नहीं उत्पन्न किया गया, वरन् कथा विन्यास के द्वारा कहानी के गर्भ से ही कलात्मक रूप में ही उसका निखार हुआ है ।

भारतेन्दु के प्रहसनों में शिष्ट हास्य का अभाव है। जीवन की यथार्य विकृतियों पर तीखे व्यंग्य प्रहार ही अधिक हैं; किन्तु इस प्रहसन में शिष्ट हास्य का सफल और सुन्दर चित्रण है। व्यंग्य और हास्य दोनों ही साथ-साथ चलते हैं।

प्रथम अंक से ही हास्य का उद्रेक आरम्भ हो जाता है और प्रत्येक दृश्य के साथ वह तीव्र होता जाता है, चौथे अंक में हास्य मुखर हो जाता है और फूट चलता है, पाँचवें अंक में वह और तीव्र होकर छठे अंक के अन्त तक तो जब राजा स्वयं फाँसी पर चढने लगता है दर्शक ठहाका लगाने लगते हैं।

व्यंग्य तो प्रहसन के समर्पण से ही आरम्भ हो जाता है"जै स्वारय-रत धूर्त हँस के काक-चरित-रत। वे औरन हति बच प्रभुहि नित होहि समुन्नत ।।"

तत्कालीन सरकार के चाटुकारों पर कार व्यव्य किया गया है. सरकार और सरकार की नौकरशाही दोनों पर करारे व्यंग्य हुए हैं

कुजड़िन-". जैसे काजी वैसे पाजी रैयत राजी, टके सेट भाजी ले हिन्दुस्तान का मेवा फूट और बैर।"

हिन्दू चूरन इसका नाम, विलायत पूरन इसका काम ।

 चूरन जब से हिन्द में आया, इसका धन बल सभी घटाया।
चूरन अमले सब जो खावें, दूनी रिश्वत तुरत पचावै ।। 
चूरन साहब लोग जो खाता, सारा हिन्द हजम कर जाता।
" चूरन पुलिस वाले खाते, सब कानून हजम कर जाते ।। 

धर्म तथा जाति-पाति पर व्यंग्य-"जाते ले जात, टके सेर जात । एक टका दो, हम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से धोबी हो जायें और धोबी को ब्राह्मण कर दें। टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था दें, टके के वास्ते झूठ को सच करें। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिन्दू से क्रिस्तान, टके के वास्ते वेद धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचें, टके के वास्ते झूठी गवाही दें। -

धर्म, कुल-मरजादा, सच्चाई-बड़ाई सब टके सेर। देश पर किये गये निम्न व्यंग्य की यथार्थ स्थिति का कितना सुन्दर चित्रण है

सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास । 
ऐसे देश कुदेस में, कबहुँ न कीजे वास ।। 
कोकिल बायस एक सम, पंडित मूरख एक।
 इन्द्रायन दाडिम विषम जहाँ न नेकु विवेक ।। 
बसिए ऐसे देश नहिं, कनक-वृष्टि जो होय। 
रहिए तो दुख पाइए, प्रान दीजिए रोय।। 

अंग्रेजी सरकार पर व्यंग्य

"भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले और प्यादे।। 
अंधाधुंध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा।।
 गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई । मानहुँ नृपति विधर्मी कोई।।"

(2) चरित्र-चित्रण—इसमें तत्कालीन राजा-नवाब वर्ग ही राजा के रूप में प्रधान पात्र हैं और उनकी मूर्खताओं को तथा उनके चरित्र की कमजोरियों को दिखाना ही लेखक का अभीष्ट है। प्रत्यक्ष रूप से यह 'राजा' तत्कालीन देशी राजा-नवाबों का प्रतिनिधि है, पर अप्रत्यक्ष रूप से कहीं-कहीं उसके साथ ही अंग्रेजी सरकार पर भी व्यंग्य हुए हैं। 

वहाँ वह भारतीय सरकार का प्रतीक बन जाता है। वस्तुतः पूरी राज व्यवस्था का ही वह एक प्रकार से प्रतीक चरित्र है। उसकी चारित्रिक विशेषताएँ बड़े ढंग से चित्रित हुई हैं। चरित्र-चित्रण सीधा और सरल होते हुए भी बड़ा विशद् सटीक, सजीव और सुन्दर हुआ है।

नाटक के अन्य सभी पात्र अपने-अपने वर्ग के प्रतिनिधि ही हैं। पात्र नाटक में स्टेज पर थोड़ी देर के लिए ही आते हैं पर उतनी देर में ही और एक-दो संवादों से ही उनकी तथा उनके वर्ग की विशेषताएँ स्पष्ट हो जाती हैं। 

कवाब वाला, नारंगी वाला, हलवाई, कुंजड़िन, मुगल, जात वाला (ब्राह्मण) आदि सभी पात्र एक ही एक संवाद बोलते हैं, पर उतने से ही उनकी जातिगत, व्यक्तिगत और वर्गगत विशेषताएं स्पष्ट हो जाती हैं। चरित्र-चित्रण की यह विशेषता प्रकट करती है कि जीवन-यथार्थ के प्रति भारतेन्दु की दृष्टि कितनी पैनी और सचेत है।

(3) भाषा-संवाद-संवाद छोटे, नाटकीय, व्यंग्यपूर्ण, सजीव और गतिशील हैं। उनमें चरित्रगत विशेषताओं और कथा-अभीष्ट को स्पष्ट करने की क्षमता है। वातावरण की स्वाभाविकता उत्पन्न करने की सामर्थ्य है। दूसरे अंक में बाजार का दृश्य बड़ा ही स्वाभाविक बन पड़ा है। बाजार वालों की अपनी भाषा के प्रयोग ने उसकी स्वाभाविकता को और भी बढ़ा दिया है।

उनकी भाषा बड़ी ही सजीव और पात्रानुकूल है

कबाब वाला- कबाब गरमागरम मसालेदार-चौरासी मसाला। बहत्तर आँच का—कबाब गरमागरम मसालेदार

घासीराम-चने और गरम

चने बनावै घासीराम। जिनकी झोली में दुकान
चना चुरमुर-चुरमुर बोलै । बाबू खाने को मुँह खोलै ॥

नारंगी वाला—नारंगी ले नारंगी-सिलहट की नारंगी, बुटवल की नारंगी। रामबाग की नारंगी, आनन्दबाग की नारंगी

हलवाई-जलेबियाँ गरमागरम। ले सेव, इमरती, लड्डू, गुलाबजामुन, खुरमा, बूँदियाँ, बरफी, समोसा, पेड़ा, कचौड़ी, दालमोठ, पकौड़ी, घेवर, गुपचुप । मोमनदार कचौड़ी कचाला हलुआ, नरम भचाका। घी में गरम, चीनी में तरातर चासनी में चमाचम

कुजडिन—ले धनिया, मेंथी, सोआ, पालक, चौलाई, बथुआ, करेनू, नोनियाँ, कुलफा, कसारी,चना, सरसों का साग । मरसा ले मरसा .......... ।

भाषा के बोलचालपन का बड़ा ही सुन्दर रूप प्रयुक्त हुआ है

भिक्षा उकच्दा मिले तो ठाकुरजी को भोग लगै।"

साधुओं की भाषा- -“गुरु जी महाराज, नगर तो नारायण के आसरे से बहुत ही सुन्दर है जो है सो, पर भिक्षा सदा मिले तो बड़ा आनन्द होय।"

प्रहसन में आये गीत की कथा, अभीष्ट और व्यंग्य को स्पष्ट करने वाली है। गीतों का आधिक्य खटकता नहीं।

(4) अभिनेयता-अभिनय की दृष्टि से यह प्रहसन भारतेन्दु के नाटकों में सबसे अधिक सफल

है। इसका अनेक बार अभिनय हो चुका है और अब भी जहाँ-तहाँ इसका अभिनय होता रहता है। 

(5) देशकाल एवं वातावरण-'अंधेर नगरी' प्रहसन का देशकाल अंग्रेजों के शासन का काल है वातावरण बाजार व राजदरबार का है। देशकाल में सामाजिक समस्याओं व अव्यवस्था पर व्यंग्य किया गया है।

(6) उद्देश्य-प्रहसन का उद्देश्य 'अन्धेर नगरी' के माध्यम से व्याप्त अव्यवस्था, अव्याय, शोषण, चापलूसी, भ्रष्टाचार, बैर, फूट व योग्य को उचित स्थान न मिलने जैसी समस्याओं से दर्शक/पाठक को अवगत कराना है।

निष्कर्ष–'अन्धेर नगरी' भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का प्रतिनिधि नाटक है। यह नाटक समय, काल की सीमा से परे है। यह ब्रज का हिन्दी में सुन्दर समावेश, हास्य रस से भरपूर, मनोरंजक व ज्ञानवर्धक एक सफल नाटक है। यह एक व्यंग्यपूर्ण रचना है।

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