रेशम के-से स्वर भर,
घने नीम दल
लम्बे, पतले, चंचल,
श्वसन-स्पर्श से
रोम हर्ष से
हिल - हिल उठते प्रतिपल !
संदर्भ - प्रस्तुत काव्य पंक्तियां काव्य की प्रसिद्ध रचना झंझा में नीम' से अवतरित हैं।
प्रसंग- इसमें कवि ने एक नीम के वृक्ष का झंझा के समय का सुन्दर चित्रण किया है ।
व्याख्या - कवि पन्तजी एक नीम के वृक्ष का वर्णन करते हुए कहते हैं कि नीम का वृक्ष सर् सर् म मर् के स्वर उत्पन्न कर रहा है। घने नीम के पत्तों के समूह जो लम्बे, पतले, चंचल हैं, हवा के • चलने से श्वास लेते प्रतीत हो रहे हैं और वे प्रतिपल हिलते रहते है ।
विशेष (1) प्रकृति का सुन्दर वर्णन है। (2) अनुप्रास अलंकार है ।
2. वृक्ष शिखर से भू पर
शत-शत मिश्रित ध्वनि कर
फूट पड़ा, लो, निर्झर
मरुत-कम्प, अर..
झूम-झूम, झुक झुक कर,
भील नीम तरु निर्भर,
सिहर सिहर थर् थर् थर्
करता सर् मर्
चर् मर्!
संदर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग-तेज अंधड़ के चलते समय नीम की दशा का वर्णन पन्तजी यहाँ कर रहे हैं।
व्याख्या - कवि कहता है कि नीम का वृक्ष शिखर से लेकर नीचे तक सैकड़ों मिली-जुली ध्वनि कर रहा था। तेज अंधड़ के चलने से ऐसा लग रहा था मानो कोई झरना फूट पड़ा हो । भीमकाय नीम अंधड़ के कारण झुक झुक जाता था। वह विभिन्न प्रकार की ध्वनि करता प्रतीत हो रहा था ।
विशेष - (1) अनुप्रास अलंकार की छटा दृष्टव्य है। (2) प्रकृति चित्रण दृष्टव्य है।
3. लिप-पुत गए निखित दल
हरित-गुंज में ओझल -
वायु वेग से अविरल
धातु - पत्र से बज कल!
खिसक, सिसक, साँसें भर,
भीत, पीत, कृश, निर्बल,
नीम दल सकल
झर-झर पड़ते पल-पल!
संदर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग - कवि प्रस्तुत पद में झंझावात के समय नीम की दशा का वर्णन कर रहा है।
व्याख्या - तेज झंझावात के कारण नीम वृक्ष के हरे-भरे पत्ते लिप-पुत गए । अर्थात् बेकार हो गए। वे धातु के पत्रों के समान बजने लगे। नीम के पत्ते अपने स्थान से खिसके पर सिसकते हुए प्रतीत होते थे और प्रतिपल झड़-झड़ कर धारा पर आकर गिर जाते थे।
विशेष - (1) झंझावात का सुन्दर चित्रण दृष्टव्य है। (2) अनुप्रास अलंकार है ।