अंधेर नगरी चौपट राजा का सारांश

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प्रस्तुत प्रहसन 1881 ई. में किसी जमींदार को लक्षित करके नेशनल थियेटर के लिए एक ही बैठक में लिखा था। श्री गिरीश रस्तोगी के शब्दों में, "एक ही रात में भारतेन्दु ने सामान्य लोकोक्ति 'अन्धेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा' को इतना व्यंग्यात्मक, सार्वजनिक, सार्वलौकिक और सृजनात्मक अर्थ दे दिया। 

रंगमण्डली के अनुरोध पर लिखा गया यह प्रहसन भारतेन्दु के नाट्यकर्म की तीव्रता और गम्भीरता को भी प्रस्तुत करता है और यह सोचने पर भी विवश करता है कि कैसे आज यह छोटा-सा प्रहसन असामान्य और चुनौतीपूर्ण हो गया है। 

1960 ई. में हुई इसकी प्रस्तुति में भले ही इसे एक प्रहसन के रूप में ही लिया गया हो, लेकिन बाद की प्रस्तुतियों में आधुनिक रंगकर्मियों ने इसमें अपने देश की बदलती परिस्थितियों, क्रियाओं, चरित्र, मूल्यहीनता और खोखलपेन को देखना आरम्भ किया और तब यह हर बार एक रोचक, उत्साहवर्द्धक प्रयास बन गया ।

‘अन्धेर नगरी' का तब समीक्षकों ने भी अपने कथ्य में आधुनिक, निरन्तर, नवीन शैली - शिल्प में मौलिक, लचीला और परम्परा एवं प्रयोगों का उदाहरण कहना आरम्भ किया। 

आरम्भ में अवश्य प्राचीन समीक्षकों में डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय तथा अन्य ने इस नाटक को एक सामान्य प्रहसन और निरुद्देश्य रचना मानकर समीक्षा की थी। प्राचीन प्रहसनों के रूप में ही उसका उद्देश्य हास्य-विनोद माना था, समाज की किसी स्थिति पर व्यंग्य नहीं पर इस नाटक की तुलना परिश्चम की कॉमेडी से करना भारतेन्दु की मौलिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाना है 

इस प्रहसन का पूरा नाम 'अन्धेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा' है। प्रथम अंक में महंत अपने दो शिष्यों—“नारायण दास तथा गोवर्धन दास के साथ प्रवेश करते हैं। । दूर से दिखाई पड़ने वाले नगर में भिक्षावृत्ति के लिए गोवर्धन दास यह कहते हुए जाता है कि "मैं बहुत सी भिक्षा लाता हूँ। यहाँ के लोग तो बड़े मालदार दिखाई पड़ते हैं।”

महंत बहुत लोभ न करने का शिष्य को आदेश देता है। द्वितीय अंक में बाजार का दृश्य उपस्थित किया गया है जहाँ कबाब वाला, मछली वाला, नारंगी वाला, हलवाई, कुंजड़िन, पाचक वाला, घासीराम आदि उपस्थित हैं जो अपने-अपने पेशे के अनुसार आवाज लगा- लगाकर अपनी-अपनी वस्तुओं को बेचते हैं। 

इनकी आवाज में समाज, जाति पर ताले व्यंग्य भी निहित हैं। तृतीय अंक में गोवर्धन दास अन्धेर नगरी से टके सेर खरीदी हुई मिठाई महंत तथा नारायणदास के सामने रखता है। महंत को जब नगरी का नाम वस्तुओं के भाव का पता लगता है तब वह यह विचारकर

सेत- सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास ।
ऐसे देश कुदेश में, कबहूँ न कीजै बास ।। ”

वहाँ न रहना ही निश्चय करता है पर गोवर्धन दास महंत की इच्छा के विरुद्ध वहीं बना रहता है। महंत उसे सावधान करता हुआ कहता है कि जब कभी संकट पड़े तो उसे स्मरण करना और वह अपने शिष्य नारायणदास को लेकर चला जाता है।

चौथे अंक में एक फरियादी फरियाद लेकर आता है कि उसकी बकरी कल्लू बनिया की दीवार से दबकर मर गई। अतः दोषी को दण्ड दिया जाए। राजा दीवान को बुलवाने के लिए कहता है पर जब उसे ज्ञाता होता है कि दीवार ईंट, चूने की होती है और उसका कोई भाई-बेटा नहीं होता है तब कल्लू बनिये को बुलवाया जाता है। वह कारीगर को दोषी बताता है। 

कारीगर चूने वाले पर, चूने वाला भिश्ती पर, कसाई भिश्ती पर, कसाई गड़रिया पर दोष मढ़ता है और गड़रिया यह कहके कि 'कोतवाल की सवारी जा रही थी अतः मैं भूल से छोटी भेड़ के स्थान पर कसाई को बड़ी भेड़ दे गया, दोष से बचना चाहता है। 

अतः राजा इस बात को मान लेता है कि यदि भूल से गड़रिये ने कसाई को बड़ी भेड़ न दी होती तो न तो भिश्ती की बड़ी मशक बनी होती और न उसकी मशक से चूने में अधिक पानी पड़ा होता और न चूना बनाने वाले ने गीला गारा दिया होता और न दीवार गिरी होती । फलतः कोतवाल को फांसी दिया जाना निश्चय होता है, क्योंकि उसकी सवारी ही गड़रिये की भूल का कारण है।

पाँचवें अंक के प्रारम्भ में गोवर्धन दास साधू को चार प्यादे आकर पकड़ लेते हैं। उसके पकड़े जाने का कारण यह है कि कोतवाल की गर्दन पतली है और फांसी का फंदा बड़ा है। अतः मोटे आदमी का होना आवश्यक है। मिठाई खा-खाकर गोवर्धन दास ही मोटा हुआ है। अब वह अपने गुरु की सीख याद करता है।

छठे अंक में श्मशान में गोवर्धन दास को आपत्ति से मुक्ति दिलाने के लिए गुरुजी उपस्थित हो जाते हैं। उपदेश देने के बहाने से मंहत गोवर्धन दास के कान में कुछ कहते हैं। इसके बाद दोनों ही परस्पर फांसी पर चढ़ने के लिए होड़ करने लगते हैं। उसी समय राजा, मंत्री और कोतवाल आ जाते हैं। महंत और गोवर्धन दास की मरने के लिए इस होड़ा-होड़ी के विषय में राजा प्रश्न करता है। 

महंत कहता है- "इस समय ऐसी महायोग है कि जो मरेगा सीधा बैकुण्ठ जायेगा।” गुरु की इस बात से मंत्री और कोतवाल में मरने के लिए होड़ होने लगती है। राजा बीच में पड़कर कहता है कि "राजा के होते हुए और कौन बैकुण्ठ जा सकता है। हमको फांसी चढ़ाओ जल्दी-जल्दी। राजा फाँसी पर चढ़ा दिया जाता है।

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