दस हजार एकांकी का सारांश संक्षेप में लिखिए

हिन्दी साहित्य के सुख्यात एकांकीकार उदयशंकर भट्ट द्वारा रचित 'दस हजार' एकांकी को प्रहसन की कोटि में रखा जा सकता है। प्रहसन उस एकांकी को कहा जाता है, जिसमें किसी बात पर हास्य अथवा व्यंग्य के द्वारा प्रकाश डाला जाए।

दस हजार एकांकी उदय शंकर भट्ट

सारांश - इस एकांकी में बिसाखाराम मालदार का चरित्र चित्रित किया गया है। वह ब्याज पर रुपया देता है, सट्टा खेलता है, धनवान  के साथ साथ कंजूस भी हैं। रात और दिन वह धन प्राप्त करने की ही चिन्ता में लगा रहता है। 

उसकी पत्नी कहती है - सुना तुमने मुनीम जी ! इनकी अक्ल पर तो पत्थर पड़ गया हैं। कुछ नहीं सोचते, बस रुपया-रुपया करते हैं।

बिसाखाराम के इकलौते पुत्र सुन्दरलाल को पठान डाकू उठाकर ले जाते हैं और बदले में दस हजार रुपये की माँग करते हैं। लड़का स्वयं पत्र लिखता है - पिताजी अगर मेरी जिन्दगी चाहते हो तो रुपये पहुँचा दो। परन्तु बिसाखाराम अपनी लड़की, पत्नी और मुनीम से पैसा का रोना रोता है।

बिसाखाराम कहता हैं - कैसा दुष्ट लड़का है ? चुपचाप चला गया मेरी छाती पे मूंग दलने। कहाँ से लाऊँ दस हजार ? मुनीम जी मैं तो बरबाद हो गया। लड़का को छुड़ाने से अधिक चिन्ता उसे सूद पर रुपये लगाने की है। वह मुनीमजी से बार-बार पुलिस को खबर कर देने का संकेत देता है। 

राजो की माँ अपने पुत्र के लिए घबरा जाती है। वह मुनीमजी को रुपया ले जाने की आज्ञा देती है। वह बिसाखाराम को डाँटती है - तीन-चार लाख के मालिक हो, कभी कुछ धरम का काम किया है, ऐसा रुपया किस काम का ? रुपया देकर मुनीमजी उसके पुत्र सुन्दरलाल को ले आते हैं। 

बिसाखाराम पुत्र को देखकर खुश होता है। बहन राजो लिपट जाती है, माँ की खुशी का ठिकाना नहीं रहता परन्तु जैसे ही बिसाखाराम को यह पता चलता है कि सुन्दरलाल को छुड़ाने के बदले मुनीम जी दस हजार रुपये दे चुके हैं तो वह सुनकर बिसाखाराम धड़ाम से तकिये पर गिरकर अचेत हो जाता है। यहाँ एकांकी समाप्त हो जाती है।

इस एकांकी में बिसाखाराम का चित्रण लोभी और कंजूस पात्र के रूप में हुआ है। थोड़ा बहुत धन का मोह किसे नहीं होता परन्तु पूँजी प्रधान सभ्यता और इस आर्थिक युग में बिसाखाराम जैसे अनेक पात्र हैं जिनके लिए धन ही सर्वस्व होता है।

विशेषता - इस एकांकी में सटीक संवाद योजना और यथार्थ वातावरण का चित्रण हुआ है। भाषा-शैली की दृष्टि से भी यह एकांकी प्रभावपूर्ण है। रंगमंच पर इस एकांकी की प्रस्तुति सहज, स्वाभाविक रूप में सम्भव है।

एकांकीकार ने धन के लोभी बिसाखाराम के माध्यम से यह स्पष्ट करना चाहा है कि ऐसे लोगों की दृष्टि में पुत्र से अधिक धन की चिन्ता रहती है। इस एकांकी में बिसाखाराम की पत्नी का चरित्र समझदार व्यक्तित्व के रूप में हुई है।

सच तो यह है कि सूद और ब्याज के माध्यम से मक्खीचूस बनकर धन कमाने वाले लोगों की स्थिति बिसाखाराम जैसी होती है। जिसके रुपये अनैतिक ढंग से डाकू के हवाले हो जाते हैं। पाठकों एवं दर्शकों को बिसाखाराम का चरित्र हँसने के लिए विवश कर देता है।

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