भारत के प्रमुख उद्योग के नाम

भारत में कई प्रमुख उद्योग हैं। ये उद्योग घरेलू बाजार और निर्यात दोनों की जरूरतों को पूरा करके भारतीय अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। यहां देश के प्रमुख 6 उद्योग की जानकारी दी गयी है।

भारत के प्रमुख उद्योग के नाम

  1. लोहा इस्पात उद्योग
  2. सूती वस्त्र उद्योग
  3. सीमेण्ट उद्योग
  4. चीनी उद्योग
  5. पटसन उद्योग
  6. पेट्रो-रसायन उद्योग

लोहा इस्पात उद्योग

लोहा-इस्पात उद्योग किसी भी देश के औद्योगिक विकास का आधार होता है। इसका उत्पादन अन्य वस्तुओं के निर्माण में सहायक होता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि - यद्यपि यह भारत का प्राचीन उद्योग है, परन्तु आधुनिक लौह-इस्पात उद्योगों का आरम्भ देश में सन् 1874 से हुआ, जब प. बंगाल के झरिया कोयला क्षेत्र कुल्टी में 'बंगाल आयरन वर्क्स कम्पनी' ने लोहा-इस्पात संयन्त्र की स्थापना की थी।

वृहत् पैमाने पर सर्वप्रथम प्रयास सन् 1907 में जमशेद जी टाटा द्वारा किया गया। इन्होंने झारखंड के जमशेदपुर नामक स्थान पर लोहा-इस्पात उद्योग की स्थापना किया था।

दूसरा वृहत् इस्पात कारखाना सन् 1918 में बर्नपुर में इण्डियन आयरन एण्ड स्टील कम्पनी के नाम से स्थापित हुआ। कर्नाटक राज्य के भद्रावती स्थान पर सन् 1923 में विश्वेश्वरैया आयरन एण्ड स्टील वर्क्स की स्थापना की गई। 

सन् 1936 में कुल्टी और हीरापुर के दोनों कारखाने इन्डियन आयरन एण्ड स्टील कंपनी में मिला लिए गए। सन् 1953 से बर्नपुर, हीरापुर और कुल्टी के कारखानों को IISCO के नाम से जाना जाता है।

प्रमुख लौह-इस्पात उद्योग केन्द्र

I. टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी - निजी क्षेत्र में लौह-इस्पात उद्योग का आरम्भ सन् 1907 में सांकची नामक स्थान पर स्थापना से हुआ। आज यह स्थान जमशेदपुर के नाम से प्रसिद्ध है, जो सिंहभूमि जिले में खोरकोई व स्वर्ण रेखा नदियों के मध्य अवस्थित है। इसके स्थानीयकरण के निम्नलिखित कारण हैं।

  1. लौह-अयस्क उड़ीसा के मयूरभंज और झारखंड के सिंहभूमि की खानों से आता है। 
  2. कोयला 177 किमी दूर झरिया एवं 717 किमी दूर रानीगंज की खानों से आता है। 
  3. मैंगनीज उड़ीसा के क्योंझर जिले की जोड़ा की खानों से आता है। 
  4. उड़ीसा के सुन्दरगढ़, गंगपुर से डोलोमाइट एवं चूना पत्थर प्राप्त होता है।
  5. अग्नि मिट्टी  बेल पहाड़ से प्राप्त की जाती है। 
  6. स्वच्छ जल की पूर्ति खोरकोई एवं स्वर्ण रेखा नदी से होती है। 
  7. यह रेल मार्गों द्वारा कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई आदि शहरों से जुड़ा है। 

II. इण्डियन आयरन एण्ड स्टील कम्पनी - यह स्टील  अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड की सहयोगी शाखा है। इसके अन्तर्गत कुल्टी, हीरापुर एवं बर्नपुर के संयन्त्र आते हैं, जो पश्चिम बंगाल राज्य में हैं। कुल्टी संयन्त्र दामोदर नदी की शाखा बाराकर नदी के तट पर अवस्थित है, जहाँ से कोलकाता 225 किमी दूर है। 

हीरापुर संयन्त्र आसनसोल से 6 किमी तथा कुल्टी से 11 किमी दूर स्थित है। बर्नपुर संयन्त्र आसनसोल से 5 किमी दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। तीनों संयन्त्र आपस में रेल लाइन से जुड़े हैं। कुल्टी में इस्पात तैयार किया जाता है। 

हीरापुर संयन्त्र ढलवाँ लोहा तैयार करता है, जिसे कुल्टी संयन्त्र को इस्पात तैयार करने के लिए भेज दिया जाता है। 

बर्नपुर संयन्त्र में लोहा - इस्पात की ढली वस्तुएँ तैयार की जाती हैं। इस प्रकार ये तीनों संयन्त्र संगठित रूप से एक-दूसरे के पूरक के रूप में कार्य करते हैं। इन संयन्त्रों की अवस्थिति के निम्नलिखित कारक हैं

  • इन्हें लौह-अयस्क गुना, क्योंझर, मयूरभंज एवं यह स्टील कोल्तान खानों से प्राप्त होता है।
  • जल विद्युत् शक्ति दामोदर विद्युत् परियोजना से प्राप्त होती है।
  • चूना पत्थर एवं डोलोमाइट उड़ीसा के गंगापुर क्षेत्र से एवं छत्तीसगढ़ व झारखंड से प्राप्त होता है।
  • दामोदर व बाराकर नदी स्वच्छ जलपूर्ति के स्रोत हैं ।
  • परिवहन सुविधा के रूप में यह कोलकाता से सड़क व रेलमार्ग द्वारा जुड़ा है।
  • आयात निर्यात हेतु कोलकाता बन्दरगाह की सुविधा प्राप्त है ।

इस्को की उत्पादन क्षमता 3-52 लाख टन कच्चा इस्पात, 3-52 लाख टन विक्रय योग्य इस्पात तथा 3-52 लाख टन इस्पात पिंड की है, जबकि सन् 2000-01 में कंपनी ने 3-44 लाख टन, कच्चा इस्पात 3-32 लाख टन बिक्री योग्य इस्पात तथा 3-33 लाख टन कच्चे लोहे का उत्पादन हुआ।

III. भिलाई इस्पात संयन्त्र  - यह संयन्त्र कोलकाता - मुम्बई रेल मार्ग पर छत्तीसगढ़ में रायपुर से 30 किमी दूर पश्चिम में दुर्ग जिले में भिलाई नामक स्थान पर सोवियत संघ की सहायता से स्थापित किया गया है। इसकी स्थापना के लिए निम्नलिखित कारक सहायक रहे हैं।

  1. यह लौह अयस्क 83 किमी दूर दुर्ग जिले की दल्ली-राजहरा पहाड़ियों से प्राप्त करता है।
  2. कोयला 225 किमी दूर कोरबा की खानों से प्राप्त होता है।
  3. मैंगनीज मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र से तथा डोलोमाइट बिलासपुर एवं चूने का पत्थर दुर्ग से प्राप्त होता है ।
  4. तांदुला जलाशय से जल की पूर्ति की जाती है।
  5. विद्युत् शक्ति की पूर्ति कोरबा से होती है।

भिलाई इस्पात संयंत्र की क्षमता 40 लाख टन कच्चा इस्पात तथा 31.53 लाख टन विक्रय योग्य इस्पात है। सन् 2000-01 में यहाँ 41-5 लाख टन कच्ची इस्पात 31-52 लाख टन बिक्री योग्य इस्पात तथा 2-32 लाख टन ढलवाँ लोहा का उत्पादन किया गया।

IV. दुर्गापुर इस्पात संयन्त्र - पश्चिम बंगाल के वर्द्धमान जिले में दुर्गापुर नामक स्थान में कोलकाता आसनसोल रेलवे लाइन पर कोलकाता से 170 किमी दिल्ली की ओर ब्रिटिश सरकार की सहायता से स्थापित किया गया है। यह कारखाना कच्चे माल की उपलब्धता को देखते हुए स्थापित किया गया है । इसे निम्नलिखित सुविधाएँ प्राप्त हैं

  1. लौह अयस्क 326 किमी दूर नोवामण्डी से प्राप्त होता है।
  2. कोयला 72 किमी दूर झारखंड और प. बंगाल से प्राप्त होता है।
  3. चूना पत्थर व मैंगनीज वीरमित्रपुर, हाथीबाड़ी, सुन्दरगढ़ एवं क्योंझर से प्राप्त होता है।
  4. पानी दामोदर नदी से एवं बिजली दामोदर घाटी परियोजना से मिलती है।
  5. परिवहन एवं व्यापार हेतु रेलमार्ग, बन्दरगाह व बाजार की सुविधा कोलकाता से प्राप्त है।

सन् 2000-01 में यहाँ पर 14-28 लाख टन कच्चा इस्पात 13.19 लाख टन बिक्री योग्य इस्पात तथा 0.68 लाख टन ढलवाँ लोहा का उत्पादन किया गया।

V. राउरकेला इस्पात संयन्त्र - उड़ीसा राज्य के सुन्दरगढ़ जिले में कोलकाता- मुम्बई रेलमार्ग पर पश्चिमी जर्मनी की सहायता से स्थापित किया गया है। इस स्थान पर लोहे के उत्पादन में उपयोग होने वाले लगभग सभी कच्चे माल उपलब्ध हैं।

  • 77 किमी दूर सुन्दरगढ़ व क्योंझर से लौह अयस्क की पूर्ति होती है।
  • झरिया, तालचर की खानों से कोयले की पूर्ति होती है, जो क्रमश: 225 किमी व 169 किमी दूर हैं।
  • चूना पत्थर व मैंगनीज की पूर्ति पूर्णपानी तथा बड़ाजामदा से होती है।
  • डोलोमाइट पत्थर बाराद्वार से मिलता है । 
  • विद्युत् शक्ति हीराकुण्ड जल विद्युत् परियोजना से प्राप्त होती है। 
  • यातायात व परिवहन सुविधा के लिए बिलासपुर-कोलकाता रेलमार्ग व सड़क मार्ग हैं। 
  • आयात-निर्यात के लिए कोलकाता बन्दरगाह है।

व्यापार - भारत ने इस्पात एवं ढलवाँ लोहे के निर्यात में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। जहाँ सन् 1974-75 में केवल 20.75 करोड़ रुपये मूल्य का लोहा व इस्पात का निर्यात किया गया था, वहीं सन् 1993-94 में 845 करोड़ रुपये मूल्य का इस्पात निर्यात किया गया था। 

रूस, न्यूजीलैण्ड, ईरान, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, कीनिया, मलेशिया, बांग्ला, देश, श्रीलंका, म्यानमार, बर्मा आदि देश भारतीय इस्पात के प्रमुख ग्राहक हैं। 

लोहा इस्पात उद्योगों की समस्याएँ 

  1. इस उद्योग की स्थापना हेतु तथा आधुनिकीकरण, क्षमता में वृद्धि आदि के लिए भारी पूँजी निवेश की आवश्यकता होती है।
  2. आधुनिक व उन्नत प्रौद्योगिकी की जानकारी की कमी।
  3. माँग के अनुरूप पूर्ति की समस्या।
  4. क्षमता के अनुरूप उत्पादन न हो पाने की समस्या । 
  5. परिवहन का अभाव अर्थात् रेल इंजन व डिब्बों की कमी से परिवहन का न हो पाना।
  6. नये तथा विकसित प्रौद्योगिकी के संयंत्रों को चलाने के लिए दक्ष व योग्य कर्मियों का अभाव।

सूती वस्त्र उद्योग

सूती वस्त्र उद्योग देश का सबसे बड़ा एवं प्राचीनतम उद्योग है। इस उद्योग ने लगभग 138 वर्ष पूर्व भारतीय औद्योगीकरण का आधार प्रस्तुत किया। प्राचीन समय में मिस्र, रोम तथा यूनान में भारतीय मलमल का गौरवपूर्ण प्रचलन था । 

यह उस समय कुटीर स्तर पर हाथ करघे की सहायता से चलता था। 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्ष 1818 में आधुनिक किस्म की मिल स्थापित करने का प्रथम प्रयास कोलकाता के पास फोर्ट ग्लैस्टर नामक स्थान पर किया गया, जो असफल रहा। 

सन् 1851 में अंग्रेजों ने मुम्बई में एक मिल स्थापित की, किन्तु वह भी असफल रही। आधुनिक सूती वस्त्र उद्योग का वास्तविक श्रीगणेश सन् 1854 में हुआ। यह प्रथम फल उद्योग स्थानीय पारसी उद्यमी कावसजी ढाबर ने “मुम्बई स्पनिंग एवं वीविंग कम्पनी” के नाम से मुंबई में खोला जिसमें पूर्णत: भारतीय निवेश था ।

अहमदाबाद में क्रमश 1861 एवं 1863 में शाहपुर मिल एवं केलिको मिल खोली गयी । देश के विभाजन से पहले भारत में 141 कारखाने थे। जिनमें से 15 कारखाने और 73% रुई उत्पादक क्षेत्र पाकिस्तान के अधिकार में चला गया। 

अतः स्वतन्त्र भारत में रुई उत्पादन की ओर विशेष ध्यान दिया गया तथा वस्त्र उद्योग के विकास के लिए कारखानों की संख्या में वृद्धि करने का प्रयास भी। किया गया। सन् 1951 में देश में मात्र 378 सूती कारखाने थे। जो बढ़कर सन् 1994 में 1227 हो गए थे।

वितरण – यह देश का सबसे अधिक विकेन्द्रीकृत उद्योग है। महाराष्ट्र और गुजरात इस उद्योग में अन्य राज्यों से आगे हैं। अन्य महत्वपूर्ण राज्य तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, प. बंगाल, कर्नाटक आदि हैं।

1. महाराष्ट्र - सूती वस्त्रों के उत्पादन में महाराष्ट्र राज्य का प्रथम स्थान है। यहाँ 122 कारखाने हैं जिनमें 62 कारखाने केवल मुम्बई महानगर में स्थापित हैं। मुम्बई के अतिरिक्त अमरावती, शोलापुर, कोल्हापुर, सांगली, जलगाँव व नागपुर आदि अन्य प्रमुख सूती वस्त्र उद्योग के केन्द्र हैं। 

2. गुजरात - यह दूसरा बड़ा वस्त्र उत्पादक राज्य है। यहाँ सूती वस्त्र के 120 कारखाने हैं। अहमदाबाद इस राज्य का सूती वस्त्र उत्पादन केन्द्र है। इस महानगर में 72 कारखाने हैं। अहमदाबाद को भारत का मानचेस्टर कहा जाता है। भड़ौंच, बड़ोदरा, राजकोट, भावनगर, सूरत, पोरबंदर आदि अन्य महत्वपूर्ण केन्द्र हैं।

यहाँ महीन कपड़ा, मलमल, धोती, लुंगी, रूमाल, सूटिंग- शर्टिंग एवं वायल आदि वस्त्र तैयार किये जाते हैं। - 

3. मध्य प्रदेश - यहाँ इन्दौर सूती वस्त्र उद्योग का प्रमुख केन्द्र है। यह नगर काली मिट्टी के क्षेत्र के निकट है, जहाँ कपास बहुतायत में उत्पादन किया जाता है। 

इस राज्य में लगभग 29 कारखाने हैं। भोपाल, ग्वालियर, उज्जैन, रतलाम, मंदसौर, देवास आदि अन्य प्रमुख केन्द्र हैं। यहाँ सस्ते श्रमिक, कोयला, रेल परिवहन की पर्याप्त सुविधा है।

4. उत्तर प्रदेश - इस राज्य में वस्त्र उद्योग का विकास बाजार तथा परिवहन की उत्तम सुविधाओं के कारण हुआ है। कपास हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र राज्यों से आयात की जाती है, जहाँ लगभग 36 कारखाने हैं। 

कानपुर को उत्तर भारत का मानचेस्टर कहा जाता है। मुरादाबाद, मोदी नगर, सहारनपुर, अलीगढ़, आगरा, हैं। उत्पादन की दृष्टि से इस राज्य का चौथा स्थान है।

5. पश्चिम बंगाल - यहाँ सूती वस्त्र के लगभग 45 कारखाने स्थापित हैं। इस राज्य में कपड़े की अधिक माँग के कारण इस उद्योग का अच्छा विकास हुआ है। यहाँ पर रेल व जल परिवहन की सुविधा, सस्ते मजदूर, कोयले की प्राप्ति, कोलकाता बन्दरगाह का व्यापारिक व औद्योगिक महानगर के रूप में होना आदि कारणों ने इस राज्य में सूती वस्त्र उद्योग के केन्द्रीयकरण को प्रभावित किया है। 

कोलकाता सूती वस्त्र उत्पादन का प्रमुख केन्द्र है । हुगली, हावड़ा तथा चौबीस परगना जिलों में भी यह उद्योग स्थापित है।

6. तमिलनाडु – यद्यपि राज्य में कारखानों की संख्या सर्वाधिक 208 है, परन्तु उत्पादन की दृष्टि से इसका स्थान छठवाँ है। कोयम्बटूर में इस उद्योग का अधिक विकास हुआ है, यहाँ पर 41 कारखाने हैं। 

मदुराई, सेलम, चेन्नई, तिरुचिरापल्ली, तिरुनलवेली, तूतीकोरिन एवं पाण्डिचेरी अन्य प्रमुख केन्द्र हैं। यहाँ पर सस्ती जलविद्युत्, पर्याप्त मात्रा में कपास एवं सस्ते श्रमिक जैसी सुविधाओं ने इस राज्य में सूती वस्त्र उद्योग के केन्द्रीयकरण को प्रभावित किया है ।

उत्पादन एवं उपभोग - नीचे दी गई तालिका से स्पष्ट है कि विगत 50 वर्षों में भारत ने सूती धागा एवं सूती वस्त्र के उत्पादन में अत्यधिक प्रगति की है। 1950-51 में सूती धागा का उत्पादन मात्र 53-4 करोड़ किग्रा एवं सूती वस्त्र का उत्पादन 421.5 करोड़ वर्ग मीटर था। 

यह उत्पादन 1994-95 में बढ़कर क्रमश: 209 करोड़ किग्रा तथा 2797.5 करोड़ वर्ग मीटर हो गया। भारत में सूती कपड़े की अत्यधिक माँग है। उत्पादन बढ़ने के बावजूद प्रति व्यक्ति सूती वस्त्र की उपलब्धता कम होती जा रही है इसका प्रमुख कारण जनसंख्या में तेजी से वृद्धि है।

समस्याएँ – यद्यपि यह देश का सबसे बड़ा तथा संगठित उद्योग है। फिर भी यह अनेक समस्याओं से गुजर रहा है, जिसके कारण इसके उत्पादन में कमी आयी है। इस उद्योग की प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित हैं

  1. पुरानी घिसी-पिटी मशीनरी की समस्या। 
  2. पूँजी के अभाव के कारण मरम्मत की समस्या। 
  3. विदेशी वस्त्रों एवं सिंथेटिक वस्त्रों से कड़ी प्रतिस्पर्धा।
  4. सूती वस्त्रों की प्रति व्यक्ति उपभोग में कमी।
  5. मिल एवं हाथ करघा उद्योगों में समन्वय की कमी। 
  6. प्रति व्यक्ति उपभोग में कमी। 
  7. कड़ा सरकारी नियन्त्रण एवं कर वृद्धि का भार। 
  8. कच्चे माल की निरन्तर पूर्ति में बाधा। 
  9. श्रम मूल्यों में वृद्धि, परन्तु उत्पादकता में कमी। 
  10. पर्याप्त मात्रा में कच्चे माल की निरन्तर आपूर्ति में कमी। 

सीमेण्ट उद्योग 

भारत में सीमेण्ट उद्योग का प्रारम्भ सन् 1904 में हुआ। चेन्नई का सीमेण्ट उद्योग भारत का सर्वप्रथम सीमेण्ट उद्योग है। वर्तमान में देश में बड़े पैमाने के 92 तथा लघु पैमाने के 184 सीमेण्ट संयंत्र सीमेण्ट का उत्पादन रहे हैं। इनकी कुल उत्पादन क्षमता 1 अप्रैल, 1991 को लाख टन वार्षिक थी। 

वितरण - सीमेण्ट उत्पादक प्रमुख राज्य तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, बिहार, झारखंड, राजस्थान, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश हैं।,

समस्याएँ - सीमेण्ट सस्ता व भारी पदार्थ है, जिसके 3. परिवहन की लागत अधिक आती है। अतः इन्हें अधिक दूरी पर स्थापित नहीं किया जा सकता, परन्तु ये बाजार से दूर कच्चे माल की निकटता के कारण स्थापित हैं। इसके उत्पादन में लागत अधिक आती है । फलतः हमेशा इसके महँगे होने की सम्भावना रहती है। इस उद्योग की सबसे बड़ी समस्या क्षमता अनुरूप उत्पादन का न होना है।

उत्पादन - भारत संसार का सातवाँ वृहत्तम सीमेण्ट उत्पादक देश है। India 1991 A Reference Book के अनुसार वर्तमान समय में देश में सीमेण्ट की 92 बड़ी तथा 184 लघु इकाइयाँ उत्पादनरत हैं, जिनकी संयुक्त क्षमता अप्रैल 1991 में 647 लाख टन थी। जबकि इसी वर्ष वास्तविक उत्पादन 487 लाख टन ही हुआ था। 

विगत 47 वर्षों में सीमेण्ट के उत्पादन में लगभग 24 गुना वृद्धि हुई हैं। परन्तु फिर भी अन्य देशों की तुलना में भारत में सीमेण्ट का प्रति व्यक्ति उपभोग बहुत कम है। वर्तमान में सीमेण्ट की उत्पादन क्षमता 1200 लाख टन है। 

सन् 1979-80 से पूर्व तक भारत से विदेशों को सीमेण्ट निर्यात किया जाता था। परन्तु इसके बाद देश में सीमेण्ट की घरेलू माँग बढ़ जाने के कारण सरकार द्वारा इसके निर्यात पर रोक लगा दी गई। वर्ष 1985-86 ई. में 5 लाख मीट्रिक टन सीमेण्ट का आयात किया गया था। परन्तु वर्तमान समय में भारत सीमेण्ट उत्पादन में लगभग आत्म -निर्भर हो गया है।

चीनी उद्योग

भारत, विश्व का सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक देश है। गन्ने के रस से गुड़ व खाण्ड बनाने की कला भारत में प्राचीन समय से ग्रामीण उद्योग के रूप में चली आ रही है।

सन् 1903 में तमिलनाडु के कोयम्बटूर नगर में स्थापना से चीनी मिल का वास्तविक विकास प्रारम्भ हुआ जिसकी गति सन् 1932 से सरकार द्वारा संरक्षण दिये जाने पर तीव्र हुई।

चीनी उद्योग देश का दूसरा सबसे बड़ा कृषि पर आधारित संगठित उद्योग है। इसमें 1250 करोड़ की पूँजी लगी हुई है तथा 2.86 लाख लोगों को रोजगार मिल रहा है। इसके अतिरिक्त गन्ना पैदा करने वाले लाखों किसानों के जीविकोपार्जन का सहारा यही उद्योग है।

सस्थापना - चीनी बनाने के लिए गन्ना ही मुख्य कच्चा माल है। इसे अधिक समय तक संचित कर नहीं रखा जा सकता, क्योंकि यह शीघ्र सूख जाता है और मिठास में कमी आ जाती है। गन्ना अशुद्ध कच्चा माल है। औसतन 100 टन गन्ने में 12 से 15 टन चीनी प्राप्त होती है। 

अतः चीनी उद्योगों को गन्ना उत्पादक क्षेत्रों के समीप ही स्थापित होना अनिवार्य है, अन्यथा परिवहन व्यय अधिक होने के कारण चीनी की उत्पादन लागत भी अधिक हो जाएगी। 

गन्ने का उत्पादन - भारत में गन्ने की प्रति हेक्टेयर सबसे अधिक उत्पादकता के क्षेत्र दक्षिण में हैं। जबकि क्षेत्रफल एवं उत्पादन की दृष्टि से सबसे अधिक उत्पादन देश के उत्तरी मैदानों में ही होता है। उत्तरी एवं दक्षिणी क्षेत्रों को गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में उत्पादन में विभिन्नताओं के निम्नलिखित कारण हैं।

1. उत्तर भारत के मैदानों में गन्ने का प्रति हेक्टेयर उत्पादन केवल 4000 किग्रा है, जबकि कर्नाटक में यह सम जलवायु समुद्री हवाओं एवं पाला रहित जाड़ों के कारण 8000 किग्रा तक हो जाता है। 

2. गन्ने का मूल्य किसानों की दृष्टि में सस्ता है, अतः गन्ने के अन्तर्गत बोयी जाने वाली भूमि में भी कमी आ रही है। वर्ष 1960-61 से 1980-81 तक के दो दशकों में उत्तर भारत में इसका प्रतिशत 60 से घटकर 28 ही रह गया हैं।

जबकि इन्हीं दो दशकों में महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक व तमिलनाडु के गन्ने के अन्तर्गत बोयी जाने वाली भूमि 31 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गयी । यदि यही प्रवृत्ति बनी रहती है तो स्थानीयकरण प्रवृत्ति में भी परिवर्तन आ सकता है।

3. उत्तर एवं दक्षिण भारतीय गन्ने में शर्करा की मात्रा में भी अन्तर है । स्पष्ट है कि अब इस उद्योग में दक्षिण की ओर स्थानान्तरित होने की प्रवृत्ति देखी जा रही है। पहले चीनी उद्योग लगभग पूर्णतः उत्तर भारत में ही केन्द्रित था, परन्तु अब यह स्थिति धीरे-धीरे परिवर्तित हो रही है।

चीनी उत्पादन करने वाले राज्य

चीनी उद्योग देश के लगभग सभी क्षेत्रों में है। परन्तु उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक राज्य देश के कुल उत्पादन का 85 प्रतिशत उत्पादन करते हैं। 

उत्तर प्रदेश - देश में चीनी उद्योग का सर्वाधिक केन्द्रीयकरण इसी राज्य में हुआ है। देश के कुल उत्पादन की 35 प्रतिशत चीनी प्राप्त होती है। यहाँ वर्तमान में 85 मिलें चीनी उत्पादन में लगी हुई हैं। उत्तर प्रदेश में चीनी उद्योग की दृष्टि से दो क्षेत्र अधिक महत्वपूर्ण हैं। 

महाराष्ट्र - इस राज्य के चीनी उद्योग ने पिछले कुछ वर्षों में अच्छी प्रगति की है। यहाँ पर चीनी की 66 मिलें हैं। वर्तमान में उत्पादन की दृष्टि से इस राज्य का प्रथम स्थान है। यहाँ की मिलें वर्ष में 140 दिन काम करती हैं।

तमिलनाडु - यहाँ पर चीनी की 20 मिलें स्थापित हैं। गन्ने का प्रति हेक्टेयर उत्पादन इस राज्य में सबसे अधिक है। देश के कुल उत्पादन की 7 प्रतिशत चीनी इस राज्य से प्राप्त होती है। यह उद्योग कोयम्बटूर, उत्तरी और दक्षिणी अरकाट, तिरुचिरापल्ली एवं मदुराई जिलों में केन्द्रित है।

आन्ध्र प्रदेश - विगत कुछ वर्षों में इस राज्य में चीनी उद्योग ने अच्छी प्रगति की है। देश के कुल उत्पादन की लगभग 6.5 प्रतिशत चीनी यहाँ से प्राप्त होती है। यहाँ चीनी की लगभग 23 मिलें हैं। प्रमुख केन्द्र हैदराबाद, पूर्वी व पश्चिमी गोदावरी, कृष्णा, विशाखापट्टनम, चित्तूर आदि जिले हैं।

समस्याएँ  – भारतीय चीनी उद्योग के सामने अनेक समस्याएँ विद्यमान हैं। यहाँ गन्ने से चीनी निकालने की तकनीक पुरानी है। कारखानों में नवीनतम आधुनिक मशीनों का अभाव है। गन्ने की फसल मौसमी है, अतः साल भर समान रूप से कच्चे माल की आपूर्ति नहीं हो पाती है। गन्ने से चीनी तैयार करने की लागत अधिक होती है।

पटसन उद्योग

भारत में सर्वप्रथम स्कॉटलैण्ड निवासी जॉर्ज ऑकलैण्ड ने सन् 1855 में कोलकाता के निकट हुगली नदी के किनारे रिशरा नामक स्थान पर जूट मिल स्थापित किया। इसके बाद देश में विभाजन पूर्व तक इसकी 116 जूट मिलें स्थापित हो चुकी थीं। 

भारत में इस समय 73 मिलें हैं। इनमें से 6 मिलें राष्ट्रीय पटसन निर्माण निगम वस्त्र मंत्रालय के अधीन हैं। पटसन उद्योग इस समय 2.5 लाख लोगों को रोजगार तथा 40 लाख किसानों को सहायता दे रहा है।

वितरण - भारत में जूट उद्योगों का विकास हुगली नदी तट पर पश्चिम बंगाल में ही केन्द्रित है। 73 मिलों में 55 मिलें यहीं स्थापित हैं। बाँसबरिया, नौहाटी, चन्दननगर, भाटपाड़ा, अंगूर, शामनगर, सेरामपुर, कमरहाटी, बैलूर, कोसीपुर, हावड़ा, कोलकाता, मानिकपुर, बजबज, बिरलानगर प्रमुख जूट उद्योग केन्द्र हैं। 

इसके अतिरिक्त बिहार में तीन जूट मिलें पूर्णियाँ, कटिहार व दरभंगा में हैं। उत्तर प्रदेश में तीन कारखाने, दो कानपुर में तथा एक गोरखपुर में है। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में एक जूट मिल है। आंध्र प्रदेश में चार मिलें विशाखापट्टनम, गुन्टूर व पूर्वी गोदावरी में हैं।

उत्पादन  - सन् 1950-51 में भारत ने 837 हजार टन पटसन की वस्तुओं का उत्पादन किया था, जो सन् 1990–91 में बढ़कर 1428-5 हजार टन हो गया। सन् 1950-51 से सन् 1989-90 तक के जूट सामानों का उत्पादन, निर्यात एवं खपत निम्न प्रकार हुई।

 समस्याएँ  – 

  1. निर्यात बाजार में कारपेट व पेकिंग वस्त्र की घटती माँग । 
  2. निर्यात व्यापार में पटसन निर्यातक देशों के बीच कठिन प्रतियोगिता ।
  3. जूट निर्मित कारपेट व पेकिंग वस्त्रों का लागत मूल्य अधिक होने से महँगा होना । 
  4.  कृत्रिम रेशे के कारपेट व पेकिंग के सामान सस्ते व आकर्षक होने के कारण कठिन प्रतिस्पर्द्धा । 
  5. कच्चे माल की कमी एवं आधुनिक संयंत्रों का न होना।

पेट्रो-रसायन उद्योग

पेट्रो-रसायन से आशय खनिज तेल से विभिन्न प्रकार के के लिए खनिज तेल को साफ करने से अनेक प्रकार का कच्चा माल प्राप्त होता है। जैसे - पैराफीन, नेप्था, बेंजिन डिस्टिलेट, गैस का तेल, चिकना करने का तेल, मोम, वैसलीन, गैसोलीन, मिट्टी का तेल आदि जिनकी सहायता से लगभग 5,000 किस्मों की उप-वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं। 

पेट्रो रसायन उत्पाद

  • प्लास्टिक
  • कृत्रिम रेशे
  • कृत्रिम रबड़
  • धुलाई पाउडर
  • वार्निश
  • लिपिस्टिक
  • ग्रामोफोन की चूड़ियाँ
  • साबुन
  • विस्फोटक पदार्थ
  • छापने की स्याही
  • फोटोग्राफी की फिल्में
  • कोल्ड क्रीम
  • लोशन
  • सुगन्धित तेल
  • इत्र
  • मलहम
  • ऐल्कोहॉल
  • कृत्रिम नायलॉन
  • टेलरिंग धागा
  • रासायनिक खाद
  • औषधियाँ
  • रंग

पेट्रो-रसायन से लगभग 5,000 किस्मों की वस्तुएँ प्राप्त की जाती हैं। इतनी अधिक और महत्व की वस्तुओं के निर्माण का स्रोत होने के कारण पेट्रो-रसायन देश की अर्थव्यवस्था के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसीलिए इसके विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। पेट्रो-रसायन क्षेत्र में तीन संगठन कार्यरत हैं। 

इंडियन पेट्रो-केमिकल्स कार्पोरेशन लिमिटेड सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है, इसका गठन सन् 1969 में किया गया था। यह विभिन्न प्रकार के पेट्रो-रसायनों जैसे पॉलीमरों, रसायनों, कृत्रिम रेशे और रेशों को बनाने में काम आने वाले मध्यवर्ती रसायनों का उत्पादन और वितरण करता है।

वर्तमान में संस्थान के चेन्नई केन्द्र के अलावा अहमदाबाद, अमृतसर, भोपाल, भुवनेश्वर, हैदराबाद, इम्फाल, लखनऊ, चेन्नई, मैसूर, पटना, गुवाहाटी और हल्दिया में 12 विस्तार केन्द्र है। पटना, हल्दिया और गुवाहटी केन्द्र परियोजना स्तर के तहत है।

इस उद्योग की सबसे बड़ी समस्या खनिज तेल एवं प्राकृतिक गैस की कमी है। देश में वर्तमान समय में खनिज तेल का उत्पादन माँग की तुलना में बहुत कम होता है। इसलिए विदेशों से बड़ी मात्रा में इसे आयात करना पड़ता है।

Related Posts