राजनीति विज्ञान का जनक कौन है - rajniti vigyan ke janak kaun hai

नमस्कार आपका सस्वागत हैं। इस पोस्ट में मै राजनीती विज्ञान के जनक ऑन हैं। इसके बारे में विस्तार से जानकारी देने वाला हूँ। पहले राजनीती विज्ञान के बारे में थोड़ी चर्चा कर लेते हैं।

राजनीति विज्ञान वह विषय जिसमें राजनीतीक गतिविधि और सरकार के कार्य करने के सिद्धांत का विस्तार से चर्चा किया जाता है। यह एक सामाजिक विज्ञान भी है जो शासन और शक्ति की व्यवस्था, राजनीतिक गतिविधियों, राजनीतिक व्यवहार और कानूनों के से संबंधित है।

राजनीति विज्ञान का जनक कौन है

राजनीति विज्ञान का जनक अरस्तू को माना जाता है, जो एक प्राचीन यूनानी दार्शनिक थे। अरस्तू ने राजनीति और जीव विज्ञान सहित विषयों के बारे में लिखा हैं।

अपनी पुस्तक "राजनीति" में अरस्तू ने राज्य की प्रकृति, सरकार के विभिन्न रूपों और राजनीतिक संगठन के सिद्धांतों अच्छी तरह समझाया हैं। उन्होंने नागरिकता की भूमिका, व्यक्ति और राज्य के बीच संबंध और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में कानूनों और संस्थानों के महत्व की चर्चा की हैं।

राजनीति और सरकार के बारे में अरस्तू के विचारों का राजनीति विज्ञान के क्षेत्र पर स्थायी प्रभाव पड़ा है। इसलिए उन्हें इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक दार्शनिक में से एक माना जाता है।

अरस्तू  तुलनात्मक व वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करता था। इसीलिए उसे प्रथम राजनीतिक विचारक कहा जाता हैं। विज्ञान कल्पना पर आधारित नहीं होता हैं। इसी का प्रयोग अरस्तू ने किया है। अरस्तू ने अपने समय के यूनान के 158 संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन किया। अरस्तू की अध्ययन-विधि के आधार इतिहास और विज्ञान था।

अरस्तु को राजनीति विज्ञान का जनक क्यों कहा जाता है

अरस्तू के विचारों के कारण उसे राजनीतिक विज्ञान का जनक कहा जाता है -

1. आगमन पद्धति - अरस्तू की मौलिकता उसके विचारों में नहीं, वरन् उसकी अध्ययन-पद्धति में है। उसने आगमन पद्धति को अपनाया है, जिसमें निरीक्षण और पर्यवेक्षण के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। 

बार्कर ने लिखा है कि "उसकी पद्धति का सार समस्त प्रासंगिक तथ्यों का पर्यवेक्षण था और उसके अध्ययन का उद्देश्य, प्रत्येक मामले में, एक सामान्य सिद्धान्त की खोज करना था।" 

2. अनुभव-प्रधानता – अरस्तू का अध्ययन और उसके अनुभव पर आधारित है। अरस्तू ने अपने आदर्श राज्य का चित्रण करने से पहले 158 संविधानों का अध्ययन किया था। इन्हीं संविधानों के आधार पर उसने अपने ग्रन्थ 'पॉलिटिक्स' में विभिन्न प्रकार के संविधानों और शासन-प्रणालियों का वर्णन किया है । 

अनुभववाद में वह मैकियावेली के नजदीक है। मैक्सलेनर ने लिखा है कि, "किसी ने यह ठीक कहा है कि प्लेटो ने अपने समकालीन एथेन्स की भ्रष्ट राजनीति से तंग आकर आदर्श राज्य का आश्रय लिया, जबकि अरस्तू, प्लेटो तथा अन्य विचारकों द्वारा चित्रित आदर्श राज्य से तंग आकर अनुभववादी पद्धति के ऊपर आधारित व्यावहारिक राजनीति की ओर झुका ।”

3. यथार्थवाद  – अरस्तू का राजनीतिक चिन्तन तथ्यों पर आधारित है, कल्पनाओं पर नहीं । जहाँ प्लेटो का विश्वास है कि ज्ञानयुक्त व्यक्ति ही सत्य की खोज कर सकता है, वहाँ अरस्तू के लिए सत्य वास्तविक जगत से भिन्न नहीं । आदर्श का अलग से कोई रूप नहीं होता है। 

आदर्श की उत्पत्ति तो मौजूदा वस्तुओं से ही होती है। इसीलिए राजनीतिशास्त्र के सिद्धान्त निर्धारित करने में अरस्तू ने इतिहास के महत्त्व को (परम्पराओं व प्रथाओं) को पूर्णतया स्वीकार किया है।

4. तुलनात्मक पद्धति  — अरस्तू ने लगभग 158 संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन किया था। अरस्तू ने इन संविधानों का विस्तृत अध्ययन व विश्लेषण करने के बाद कुछ निष्कर्ष निकाले हैं। अरस्तू ने इस तुलनात्मक अध्ययन के बाद राज्य के जन्म व उसकी प्रकृति, संविधान की रचना, कानून की सम्प्रभुता, क्रान्ति आदि के सम्बन्ध में जो विचार प्रस्तुत किये हैं, उन्हें ठुकराया नहीं जा सकता है।

5. राजनीति और नीतिशास्त्र में पृथक्करण  - डॉ. वी. पी. वर्मा के शब्दों में, "अरस्तू ने नीतिशास्त्र और राजनीतिशास्त्र पर पृथक् ग्रन्थों की रचना कर वैज्ञानिक विवेचन का मार्ग पुष्ट किया ।" 

अरस्तू ने नीतिशास्त्र (आचारशास्त्र) को व्यक्तियों के आचरणों को नियमित करने वाले शास्त्र तक सीमित रखा तथा राजनीति को सामूहिक या सामाजिक कल्याण का साधन बताया है। वह राजनीतिशास्त्र को जीवन के सभी विज्ञानों का स्वामी बताकर इसे 'सर्वोच्च विज्ञान'  बना दिया है ।

डनिंग ने लिखा है कि “राजनीतिक सिद्धान्तों के इतिहास में अरस्तू की सबसे बड़ी महानता इस बात में निहित है कि उसने राजनीति को स्वतन्त्र विज्ञान का रूप दिया है।

(6) सरकार के अंगों का निर्धारण  – अरस्तू ने शासन-व्यवस्था के तीन अंगोंनीति निर्धारक, प्रशासकीय और न्यायिक का उल्लेख किया है। ये अंग आज क्रमशः व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के नाम से जाने जाते हैं। 

अरस्तू द्वारा इन तीनों अंगों के संगठन व कार्यों पर प्रकाश डालने का परिणाम 'शक्तिविभाजन के सिद्धान्त' और 'नियन्त्रण व सन्तुलन के सिद्धान्त' के रूप में देखने को मिला है।

(7) लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा   -  “राज्य का जन्म जीवन के लिए हुआ है और शुभ तथा सुखी जीवन के लिए वह जीवित है।” इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अरस्तू ने किया है, जिसने आधुनिक लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को जन्म दिया है ।

(8) अरस्तू का मध्यम मार्ग – अरस्तू का मध्यम मार्ग का विचार वर्तमान राजनीति के नियन्त्रण और सन्तुलन के विचार का जनक है। अरस्तू ने प्रत्येक प्रकार की अति का विरोध किया है। कैटलिन के शब्दों में, “कन्फ्यूशियस के बाद विवेकपूर्ण दृष्टिकोण और मध्यम मार्ग का अरस्तू ही सबसे बड़ा प्रतिपादक है।

राजनीतिशास्त्र की वर्तमान स्वतन्त्र स्थिति अरस्तू की ही देन है। वह प्लेटो की तरह नीतिशास्त्र और राजनीतिशास्त्र को एक ही विषय नहीं मानता है। इन्हीं सब बातों के कारण 'अरस्तू राजनीतिशास्त्र का जनक' अथवा 'प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक है।' जैसा कि मैक्सी ने कहा है।

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