आश्रम व्यवस्था क्या है - ashram vyavastha ka samajshastriya mahatva

प्राचीन भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्माण व्यक्ति के जीवन में सर्वांगीण विकास के लिये हुआ। आश्रम की व्यवस्था का भी यही उद्देश्य माना जा सकता है। आर्यजन कर्मण्यतावादी थे और कर्म करते हुए ही सौ वर्ष तक जीने की इच्छा श्रुति मन्त्रों में प्रकट की गई है। 

प्रथम भाग में ज्ञानार्जन, द्वितीय में अर्थ और काम का अर्जन, तृतीय में मोक्ष की तैयारी और चतुर्थ में मुमुक्षु बनकर अध्यात्म-साधना की व्यवस्था की गई है। 

आश्रम व्यवस्था क्या है

भारतीय आश्रम व्यवस्था समानता और उदारता के सिद्धान्त पर आधारित एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति को अपनी आयु के विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग दायित्व सौंपे गये। 

आयु में अन्तर के साथ-साथ व्यक्ति की कार्यक्षमता,रुचि, दृष्टिकोण, दायित्वों और मनोवृत्तियों में परिवर्तन आना भी स्वाभाविक है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न स्तरों पर व्यक्ति को भिन्न-भिन्न दायित्व सौंपे गये।

प्रत्येक आश्रम एक प्रशिक्षण स्थल के रूप में है जहाँ कुछ समय रहकर व्यक्ति अपने आपको आगे के जीवन के लिए तैयार करता है और अन्त में आपको मोक्ष प्राप्ति के प्रयत्न में लगाता है।

आश्रम का अर्थ

आश्रम शब्द की व्युत्पत्ति श्रम धातु से हुई है, जिसमें रहकर अथवा जहाँ रहकर मनुष्य श्रम करता है, उसे आश्रम कहते हैं। इस प्रकार आश्रम का अर्थ हुआ। 

(i) वह स्थान जहाँ श्रम किया जाये। 

(ii) ऐसे कार्य जिसके लिये श्रम किया जाये। 

जन समाज में आश्रम शब्द का अर्थ 'विश्राम स्थान' के रूप में ग्रहण किया गया था। उपनिषद्काल में आर्य लोग जीवन को अनन्त यात्रा मानते थे। यह यात्रा मोक्ष की ओर होती थी । 

प्रत्येक आश्रम एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें कुछ अवधि के लिये रुककर व्यक्ति अपने को आगे की यात्रा के लिये समृद्ध करता था । इस सम्बन्ध में विचार निम्नांकित प्रकार से हैं-

1. जी. के. अग्रवाल के अनुसार - आश्रम व्यवस्था हिन्दू जीवन को विभिन्न स्तरों में विभाजित करके उसे आगामी जीवन के लिए इस प्रकार तैयार करती है जिससे वह अपने समस्त दायित्वों को प्राथमिकता के आधार पर क्रमबद्ध रूप से पूरा करते हुए जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सके ।

2. आर. एन. मुखर्जी के अनुसार आश्रम व्यवस्था हिन्दू जीवन का एक क्रमबद्ध इतिहास है जिसका कि उद्देश्य जीवन यात्रा को विभिन्न स्तरों में बाँटकर प्रत्येक स्तर पर मनुष्य को कुछ समय तक रखकर उसे इस भाँति तैयार करना है कि वह जगत की वास्तविकताओं और यथासमय क्रियात्मक जीवन की अनिवार्यताओं में से गुजरता हुआ अन्तिम लक्ष्य परम ब्रह्म या मोक्ष को प्राप्त कर सके, जो कि मानव-जीवन का परम व चरम लक्ष्य या उद्देश्य है।

3. प्रभु के अनुसार आश्रमों को एक व्यक्ति के मुक्ति के मार्ग की यात्रा में जो जीवन का लक्ष्य है, विश्राम स्थान समझना चाहिये। 

आश्रम व्यवस्था का विकास - वैदिक संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थ में आश्रम व्यवस्था का उल्लेख नहीं है तथापि इनमें प्रथम दो आश्रमों ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थ की व्याख्या किसी-न-किसी रूप में की गयी है। शतपथ ब्राह्मण में भी जीवन का चार आश्रमों में विभाजन मिलता है। 

वृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहते हैं कि वे गृहस्थी से प्रव्रज्या ग्रहण करने जा रहे हैं। महाभारत में आश्रम व्यवस्था की दैवीय अभिव्यक्ति मिलती है।

आश्रमों का विभाजन ( प्रकार)

प्रत्येक ब्राह्मण धर्मावलम्बी के जीवन की सार्थकता पुरुषार्थ पर निर्भर करती थी, अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति उनका चरम लक्ष्य था । इन पुरुषार्थों का क्रम कभी-कभी बदलता रहता था । सही पुरुषार्थ परस्पर सम्बद्ध थे। 

सभी का पालन करने में धर्म की प्रधानता थी। किसी एक को प्राप्त न करना धर्म से विरत होना था । धर्म का अर्थ था कर्त्तव्य। इन्हीं पुरुषार्थों को प्राप्त करने के लिये आश्रम व्यवस्था का आविर्भाव हुआ । 

साधारणतः चार आश्रम माने जाते हैं

(1) ब्रह्मचर्य, (2) गृहस्थ, (3) वानप्रस्थ, और (4) संन्यास ।

कतिपय विद्वानों का कथन है कि प्रारम्भ में तीन ही आश्रम थे- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ अथवा संन्यास । वानप्रस्थ और संन्यास अलग-अलग न होकर एक ही माने जाते थे। 

छान्दोग्य उपनिषद् में केवल तीन आश्रमों का वर्णन है- ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम तथा वानप्रस्थ आश्रम। इसका कारण यह है कि छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि के अनुसार आश्रम व्यवस्था सांसारिकों के लिये थी। संन्यासी सभी बन्धनों से मुक्त माने जाते थे। इसी कारण संन्यास की गणना किसी आश्रम से नहीं की जाती थी।

जाबाल उपनिषद् में लिखा है ब्रह्मचर्याश्रम समाप्त गृही भवतेगृही भूत्वा बनी भेवद्वनी भूत्वा प्रवेणन् अर्थात् ब्रह्मचर्य आश्रम को समाप्त करने के बाद मनुष्य गृहस्थी बने, गृहस्थी बनकर वानप्रस्थी बने और वानप्रस्थी बनकर संन्यास धारण करे । इस उपनिषद् के अनुसार चार आश्रम निम्नलिखित थे-

(1) ब्रह्मचर्य, (2) गृहस्थ, (3) वानप्रस्थ, और (4) संन्यास ।

इस प्रकार आश्रम व्यवस्था के अनुसार मनुष्य के जीवन को निम्नलिखित चार भागों में विभक्त किया गया है

1. ब्रह्मचर्य-विद्यार्थी का जीवन।

2. गृहस्थ - वैवाहिक मनुष्य अर्थात् गृहस्थ का जीवन।

3. वानप्रस्थ - संसार को पूर्ण रूप से छोड़ने के पूर्व, घर को छोड़कर वन में जीवन व्यतीत करना।

4. संन्यास - संसार से पूर्ण विरक्ति का जीवन। 

1. ब्रह्मचर्य आश्रम – ब्रह्मचर्य आश्रम का प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता है । ब्राह्मण बालक का 8 वर्ष, क्षत्रिय बालक का 11 वर्ष और वैश्य बालक का 12 वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार होता है। 

हिन्दू धर्म में ब्रह्मचर्य शब्द का तात्पर्य केवल यौनिक संयम से नहीं है वरन् सभी प्रकार के संयम अर्थात् अनुशासन, नैतिकता, कर्त्तव्यपरायणता, पवित्रता तथा आचरण की शुद्धता से है। इस आश्रम में बालक गुरुकुल में रहते हुए अध्ययन करता था। 

गुरुकुल में उसे विशेष प्रकार की दिनचर्या का पालन करना पड़ता था । उसे सूर्योदय के पूर्व उठना पड़ता था। दिन में केवल दो बार भोजन करने की आज्ञा थी। 

आश्रम में सफाई करना, हवन लिये समिधा एकत्रित करना, गायें चराना, गुरु के परिवार एवं स्वयं के लिये पाँच घरों से भिक्षा माँगकर लाना तथा गुरु की सेवा करना आदि कार्य उसे करने पड़ते थे। 

सुगंध, मांस, मदिरा, स्त्री नाच, गायन, हिंसा आदि से दूर रहना पड़ता था। सत्य बोलना, पवित्रता का आचरण करना, सत्य की खोज करना और अध्ययन करना उसका परम् लक्ष्य होता था। 

इस आश्रम का समापन एक प्रतीकात्मक 'स्नान / संस्कार' के साथ होता था। इस संस्कार को 'समावर्तन संस्कार भी कहते हैं। इसके बाद ब्रह्मचारी 'गृहस्थ' बनने योग्य हो जाता था। 

ब्रह्मचर्य आश्रम का महत्व - अपने गुरु के प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहते हुए बालक अध्ययन करता था। गुरु के मार्गदर्शन में उसके व्यक्तित्व का संतुलित विकास होता था। बालक के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं चारित्रिक विकास की दृष्टि से यह आश्रम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 

सरल और सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए बालक अपने जीवन-दर्शन का विकास करता था। इसी आश्रम में बालक अपने विभिन्न कर्त्तव्यों से परिचित होता था। यह आश्रम संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हस्तान्तरण में बहुमूल्य सहयोग देता था। 

सुलभ 2. गृहस्थ आश्रम - इस आश्रम का प्रारम्भ 'विवाह संस्कार' के द्वारा होता है। आयु के 25 वर्ष के बाद से 50 वर्ष तक इस आश्रम का काल है । इसी आश्रम में व्यक्ति अपने धर्म (कर्त्तव्यों) का पालन करते हुए विभिन्न सांसारिक सुखों का उपभोग करता है। 

व्यक्ति अपने वर्ण के अनुसार परिश्रम करके आजीविका कमाता था और अपने परिवार का उचित पालन-पोषण करता था । ऋणों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग इसी आश्रम में होता है। पाँच प्रकार के ऋण व्यक्ति पर हिन्दू शास्त्रों के अनुसार होते हैं। 

ये हैं - देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण, अतिथि ऋण और भूत ऋण इन ऋणों से मुक्त होने के लिये पाँच प्रकार के यज्ञ व्यक्ति को करने पड़ते हैं। यज्ञ संपादित करने का अधिकार केवल गृहस्थ व्यक्ति को ही होता है। 

ये पंच महायज्ञ हैं - देव यज्ञ, ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ, नृ यज्ञ और भूत यज्ञ । इसके साथ ही माता-पिता, गुरु, पत्नी, सन्तान, असहाय व्यक्ति, अतिथि आदि का भरण-पोषण करना, माता-पिता, गुरु एवं वृद्ध व्यक्तियों का आदर करना, माँस भक्षण न करना, मादक द्रव्यों का सेवन न करना, कुसंगति, असंयम, असत्य तथा अकर्मण्यता से दूर रहना गृहस्थ के कर्त्तव्य हैं।

गृहस्थ आश्रम का महत्व - हिन्दू व्यक्ति के लिये गृहस्थ आश्रम का महत्व अत्यधिक है। शास्त्रों के अनुसार गृहस्थाश्रम में जीवन व्यतीत किये बिना व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इस आश्रम में व्यक्ति के जीवन के साथ अनेक सामाजिक, धार्मिक और नैतिक कर्त्तव्य जुड़े हुए हैं। 

गृहस्थाश्रम में ही व्यक्ति अपने तीनों पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति करते हुए मोक्ष की प्राप्ति जो अन्तिम पुरुषार्थ है, को सुगम बनाता है। ।

3. वानप्रस्थ आश्रम - आयु के 50 वर्ष बाद व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। आयु के 75 वर्ष तक वह अपने आपको मानव मात्र की सेवा में लगा देता है। वानप्रस्थ का शाब्दिक अर्थ है- 'वन की ओर प्रस्थान' । 

इस प्रकार इस आश्रम में व्यक्ति अपने परिवार, नाते-रिश्तेदारों को छोड़कर वन में रहता है । वह चाहे तो अपनी पत्नी को भी साथ में रख सकता है । वन में रहते हुए वह समस्त सांसारिक सुखों से दूर रहता है । सरल, त्यागमय एवं सेवामय पवित्र जीवन बिताना ही वानप्रस्थी का मुख्य लक्ष्य होता है। 

ईश्वर के चिंतन में रत होकर निष्काम भाव से कर्म करता है। इसी आश्रम में वह ब्रह्मचारी बालकों को शिक्षा प्रदान कर उनके चारित्रिक गुणों का विकास करता है। इंद्रिय संयम, सांसारिक सुखों से विरक्ति, जीव दया, समता का भाव, यज्ञ करना तथा तप करना इस आश्रम के प्रमुख कर्त्तव्य हैं।

वानप्रस्थ आश्रम का महत्व - व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टि से यह आश्रम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस आश्रम में रहकर व्यक्ति अपने को संन्यास आश्रम में प्रवेश करने हेतु शारीरिक एवं मानसिक रूप से तैयार कर लेता था। 

गृहस्थाश्रम या त्याग 50 वें वर्ष में करने पर युवा पीढ़ी को योग्य समय में नेतृत्व का अधिकार प्राप्त हो जाता था । इससे पारिवारिक संघर्ष कम होते थे और समाज में आर्थिक समस्या भी नहीं होती थी । व्यक्ति अपने अनुभवों का लाभ नई पीढ़ी को देता था। 

4. संन्यास आश्रम - यह व्यक्ति के जीवन का अन्तिम आश्रम है। आयु के 75वें वर्ष से यह प्रारम्भ होता है। इस आश्रम में व्यक्ति सामाजिक और सांसारिक सम्बन्धों से अलग हो जाता है । वह अपने सामाजिक नाम तक को त्याग देता है। 

इस आश्रम में व्यक्ति अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष्य को प्राप्त करने का एकमेव उद्देश्य अपने सम्मुख रखता है। इस आश्रम में संन्यासी व्यक्ति कभी एक स्थान पर नहीं रहता। वायु पुराण में संन्यासी के दस कर्त्तव्य बताये गये हैं। 

ये हैं - भिक्षा माँगना, चोरी न करना, बाह्य तथा आंतरिक पवित्रता रखना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, प्रभादीन होना, दया करना, क्रोध न करना, प्राणीमात्र के प्रति क्षमावान होना, गुरु की सेवा करना तथा सत्य बोलना । इस आश्रम में व्यक्ति स्वयं को निष्काम भाव से प्राणीमात्र की सेवा के लिये लगा देता है। 

संन्यास आश्रम का महत्व - कुछ विद्वानों का मत है कि संन्यास आश्रम का व्यक्तिगत दृष्टि से तो महत्व है लेकिन सामाजिक दृष्टि से नहीं, क्योंकि इस आश्रम में व्यक्ति अपने लिये तो सब कुछ करता है लेकिन समाज के लिये कुछ नहीं। 

परन्तु हिन्दू संस्कृति की विशेषताएँ देखें तो यह मत उचित नहीं है क्योंकि हिन्दू संस्कृति में आध्यात्मिकता और मानवतावाद को महत्वपूर्ण स्थान है। संन्यास आश्रम में रहते हुए व्यक्ति इन्हीं दो मूल्यों को अपनाते हुए जीवन व्यतीत करता है।

सम्पूर्ण विश्व संन्यासी के लिये अपना होता है। प्राणीमात्र के साथ कोई भेदभाव नहीं होता। निष्काम कर्म ही उसके शेष जीवन का लक्ष्य होता है। आत्मा और परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास संन्यासी करता है। 

आश्रम व्यवस्था का समाजशास्त्रीय महत्व

आश्रम व्यवस्था द्वारा मूलरीति से व्यक्ति की उन्नति का प्रयत्न करने के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था के निर्माण का भी प्रयत्न किया गया है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्माण व्यक्ति के जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए हुआ। आश्रम व्यवस्था का भी यही उद्देश्य था। 

आश्रम व्यवस्था में आयु, जीवन के उद्देश्य, कर्त्तव्य एवं उसकी आवश्यकता एवं सामर्थ्य के परिप्रेक्ष्य में जीवन चार भागों में विभाजित किया गया है। इस प्रकार आश्रम व्यवस्था व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन को निश्चित मनोवैज्ञानिक आधार पर विकसित करती है। 

यह सामाजिक जीवन को स्थायी, संगठित, आत्मीयतापूर्ण तथा मानवीय गुणों से परिपूर्ण करती है। आश्रम व्यवस्था का व्यक्ति तथा समाज के जीवन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यह महत्व निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है। 

व्यक्ति के जीवन का सर्वांगीण विकास 

मानव के सम्पूर्ण जीवन में परिवर्तन होता रहता है। आयु वृद्धि के साथ-साथ व्यक्ति के दृष्टिकोण, अनुभवों, रुचियों और शारीरिक शक्ति में अन्तर होता रहता है। सामान्य रूप से इन विशेषताओं के आधार पर जीवन को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है - बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था। इनकी स्थितियाँ निम्नलिखित होती हैं-

(i) बाल्यावस्था - बाल्यावस्था में बच्चे में अनन्त शक्ति होती है, परन्तु अनुभव नहीं होता है।

(ii) युवावस्था - युवावस्था में सृजनात्मक शक्ति तथा उत्साह रहता है। अल्हड़पन रहता है।

(iii) प्रौढ़ावस्था - प्रौढ़ावस्था में अनुभव में वृद्धि हो जाती है, परन्तु शारीरिक शक्ति और उत्साह की कमी हो जाती है।

(iv) वृद्धावस्था - वृद्धावस्था में सब कुछ होता है, परन्तु शक्ति और सामर्थ्य साथ नहीं देता।

1. व्यक्ति के जीवन का समुचित विकास - व्यक्ति के जीवन के समुचित विकास के लिये यह आवश्यक है कि बालक के अनन्त शक्ति भण्डार को अनुभवी हाथों द्वारा यथोचित् ज्ञान प्रदान करके उचित मार्गदर्शन प्रदान किया जाये। 

प्रौढ़ के शक्ति ह्रास को संयम के कठोर बन्धनों से रोककर उसके अनुभव का समाज को पूरा-पूरा लाभ दिलाया जाये तथा वृद्ध में आत्मशक्ति का वह स्रोत उभारा जाये जो उसको शक्ति प्रदान कर सके। प्राचीन भारतीय चिन्तकों ने जीवन की इन्हीं अनिवार्यताओं को दृष्टिगत रखते हुए आश्रम व्यवस्था का निर्माण किया है।

2. सामूहिक कल्याण को महत्व प्रदान किया जाना - आश्रम व्यवस्था व्यक्तिगत हित की अपेक्षा सामूहिक हित को अधिक महत्व प्रदान करती है। इस व्यवस्था द्वारा समाज के सभी अंगों को एक-दूसरे से इस प्रकार मिला दिया गया है कि सभी व्यक्ति अपनी सफलता के लिए एक-दूसरे को महत्वपूर्ण समझते हैं। एक के अभाव में दूसरे की पूर्ति नहीं होती।

3. समाज की उत्तम व्यवस्था में सहयोग - आश्रम व्यवस्था में श्रम का विशेष महत्व है, किन्तु अपनी-अपनी अवस्था एवं सामर्थ्य के अनुसार। ब्रह्मचर्यावस्था में विद्याध्ययन का महत्व है, गृहस्थावस्था में अर्थ और काम की सिद्धि का महत्व है। 

वानप्रस्थी देव-ऋण चुकाने के लिए स्वाध्याय करता हुआ छात्रों को पढ़ाता है और संन्यासी भी संसार की वासनाओं को त्यागकर यम-नियम का पालन करते हुए ब्रह्मनिष्ठ होकर कर्मनिष्ठ रहता है। संन्यासी मानवमात्र के कल्याण के लिए पृथ्वी पर भ्रमण करते थे; यथा - आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य, महर्षि दयानन्द आदि ।

4. जीवन का अर्थपूर्ण होना - आश्रम व्यवस्था में मोक्ष की प्राप्ति को विशेष महत्व दिया जाता है। प्रत्येक आश्रम के अपने स्वयं के कार्यकलाप हैं। 

जीवन में इन आश्रमों के कर्त्तव्य, मानव जीवन की सहजात और भावात्मक वृत्तियों पर स्वस्थ नियन्त्रण रखते हैं और इस प्रकार उसे 'मोक्ष' अर्थात् मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त करने के लिए उद्यम करते हैं ।

5. मानसिक सन्तुलन बनाये रखने में सहायक - यदि व्यक्ति इन आश्रमों के द्वारा निर्धारित किए क्रम के अनुसार अपना जीवन बना पाता है तो उसे मानसिक स्थिरता तथा आत्म-सन्तोष प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि आश्रम व्यवस्था मनुष्य की संकुचित भावनाओं को निकालकर उसको विस्तृत क्षेत्र में अपने कर्त्तव्यों को निभाने का आदेश देती है।

6. सभी पक्षों पर बल - आश्रम व्यवस्था में केवल भौतिक सुखों को ही जीवन का आधार नहीं बनाया गया है। इसमें आध्यात्मिक सुखों पर भी समान रूप से बल दिया गया है। इसलिए कुछ विचारकों ने आश्रम व्यवस्था को हमारे ऋषि-मुनियों का समाजवाद कहा है।

7. ज्ञान तथा शिक्षा-प्रसार में सहायक - वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति को घरबार छोड़कर जंगल में रहना पड़ता है। इस आश्रम में भी उसका वास्तविक कार्य जनसेवा ही रहता है। 

ब्रह्मचारियों के लिए गुरुकुल आदि की व्यवस्था वस्तुतः वानप्रस्थी की कुटियों में ही होती थी । शिक्षा देना, शास्त्रादि का प्रशिक्षण, वेदादि सद्शास्त्रों को पढ़ाना वानप्रस्थी करते थे ।

8. व्यक्ति और समूह की पारस्परिक निर्भरता - प्रभु का कथन है कि व्यक्ति और समूह की पारस्परिक निर्भरता के समन्वय में आश्रम व्यवस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न आश्रमों में व्यक्ति और समूह के कार्य परस्पर पृथक् होते हुए भी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। 

9. मानवतावादी सद्गुणों का विकास - आश्रम व्यवस्था व्यक्ति में सद्गुणों का विकास करती है; जैसे- पवित्रता, उदारता, निष्ठा, त्याग, सेवा, दानशीलता, बन्धुत्व, सरलता, आध्यात्मिकता आदि ।

10. व्यावहारिक व्यवस्था - आश्रम व्यवस्था में व्यक्ति को जिन चार पुरुषार्थ अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करने पर बल दिया गया है, वे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चार आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। प्रत्येक आश्रम स्वयं में व्यावहारिक पक्ष समेटे हुए हैं। इसके द्वारा व्यक्ति का सामाजिक कार्य करने और त्यागमय जीवन व्यतीत करने का गुण सहज में ही विकसित हो जाता है ।

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