अल्पसंख्यकों की समस्याएं - alpsankhyak ki samasya

अल्पसंख्यक समुदायों की समस्याएँ

अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बन्धित प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं -

1. भाषा से सम्बन्धित समस्याएँ - भारतवर्ष में अंग्रेजों के शासक के रूप में प्रवेश करने के साथ-साथ इस देश में अंग्रेजी भाषा का भी प्रवेश हुआ। वास्तव में ईसाई पादरियों ने इस देश में अंग्रेजी शिक्षा का प्रारम्भ किया। 

इसके पश्चात् सन् 1935 में लार्ड बेण्टिक के शासनकाल में लार्ड मैकाले ने स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम द्वारा शिक्षा देने का विधान किया और सन् 1944 में लार्ड हार्डिज ने सरकारी अंग्रेजी स्कूलों में शिक्षित व्यक्तियों को राजकीय नौकरियों में प्राथमिकता देने की नीति की घोषणा की। 

इस अंग्रेजी भाषा के प्रचार का उद्देश्य भारतवासियों में से एक क्लर्क या 'बाबू' वर्ग की सृष्टि करना था। इस अंग्रेजी भाषा के माध्यम से इस देश में अल्पसंख्यक समुदायों का सम्पर्क दुनिया के अन्य गतिशील देशों के साथ स्थापित हो गया और भाषा के साथ-साथ पाश्चात्य विचार, भावनायें, व्यवहार के ढंग आदि को भी हम प्राप्त करते गए। 

परिणाम यह हुआ कि इस अंग्रेजी भाषा ने उनका जितना उपकार किया, उतना ही अपकार भी और उनमें सबसे अधिक अहित हुआ है अंग्रेजी भाषा के प्रति उग्र अनुराग के पनपने के फलस्वरूप। बंगाल तथा दक्षिण भारत के कुछ प्रान्तों के साथ अंग्रेजी भाषा को एक उच्च स्थान प्रदान किया। 

इसका परिणाम आज हमारे सामने है। बंगाल तथा दक्षिण भारत के अल्पसंख्यक समुदायों के लोग आज भी अंग्रेजी भाषा को राष्ट्रभाषा हिन्दी से अधिक अपना समझते हैं और हिन्दी को किसी भी रूप में उन पर लादा जाए यह बात वे सहन नहीं कर सकते। 

इन क्षेत्रों में हिन्दी विरोधी आन्दोलन ने कई बार उग्र रूप धारण करके एक विकट समस्या को जन्म दिया है और राष्ट्रीय व भावनात्मक एकता की स्थापना में घोर बाधा को उत्पन्न किया है कि आवश्यकता पड़ने पर स्वदेशी हिन्दी भाषा को त्याग किया जा सकता है। पर विदेशी अंग्रेजी भाषा का त्याग उन्हें स्वीकार नहीं। 

2. धर्म से सम्बन्धित समस्याएँ - अंग्रेज इस देश में केवल राज्य करना ही नहीं चाहते थे। अपितु ईसाई धर्म का विस्तार भी चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति में उनके प्रमुख सहायक थे। ईसाई पादरीगण इन लोगों ने देश के कोने-कोने में स्कूल, अस्पताल, अनाथ आश्रम आदि खोले और उन्हीं के माध्यम से ईसाई धर्म का खूब प्रचार किया। 

ईसाई धर्म को स्वीकार कर लेने पर सरकारी नौकरियाँ, शिक्षा आदि में विशेष सुविधाएँ प्राप्त हो जाती थीं। इन सब प्रलोभनों में फंसकर हजारों अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने धर्म परिवर्तन करके ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया। 

इससे अनेक सामाजिक, पारिवारिक एवं व्यक्तिगत समस्याओं का जन्म हुआ। उदाहरणार्थ, ईसाई धर्म को स्वीकार कर लेने के पश्चात् भी ये भारतवासी अपने भारतीय दृष्टिकोण, विश्वास तथा आचरणों का त्याग नहीं कर पाए। 

इससे उनके व्यक्तित्व में एक तनाव की स्थिति बनी रही और उनका स्वस्थ विकास कभी-कभी बाधा सम्पन्न हुआ। उसी प्रकार किन्हीं - किन्हीं परिवारों में केवल दो - एक सदस्यों ने ही ईसाई धर्म को स्वीकार किया जबकि अन्य सभी लोगों ने अपने मूल धर्म पर ही विश्वास बनाये रखा और उन सदस्यों का बहिष्कार किया। 

जिन्होंने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया । इससे पारिवारिक विघटन आरम्भ हुआ। इतना ही नहीं, अनेक परिवारों के लिए एक दूसरी समस्या भी प्रगट हुई। ईसाई धर्म को स्वीकार करने का अर्थ है सम्पूर्ण जीवन-प्रतिमान में भी आवश्यक परिवर्तन। 

अंग्रेजों जैसे जीवन के उच्च मान को बनाए रखना अनेक गरीब परिवारों के लिए सम्भव न हुआ और उनमें आधुनिकता की आड़ में व्यभिचार का ही विस्तार हुआ। इसके अतिरिक्ति, ईसाई धर्म के सिद्धान्तों से अत्यधिक प्रभावित होकर कुछ नए धार्मिक संस्थानों का जन्म भारत में हुआ। 

उनमें ब्रह्म समाज का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनके समर्थक ईसाई परम्परा, आदर्श तथा व्यवहार- प्रतिमानों के भी समर्थक बन गए, जिसके कारण उनका अनुकूलन मूल हिन्दू समाज से बहुत कठिन हो गया। 

हिन्दू समाज ने तो ब्रह्मसमाजों को 'हिन्दू' मानने से इन्कार कर दिया और उनका बहिष्कार किया। ये सभी समस्याएँ आज भी किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं और इनका परिणाम समाज का और अधिक टुकड़ों में विभाजन है।

3. राजनीति से सम्बन्धित समस्याएँ - आधुनिक भारतीय संस्थाओं पर पाश्चात्य देशों, विशेषकर इंग्लैण्ड तथा अमेरिका का प्रभाव सुस्पष्ट है। प्रजातन्त्रात्मक शासन व्यवस्था उसी प्रभाव का एक सर्वोत्तम उदाहरण है पर दूसरे देश की भाँति इस देश में स्वस्थ प्रजातन्त्रात्मक परम्पराओं का विकास शायद आज भी नहीं हो पाया है। 

चुनाव के क्षेत्र में, विधानसभा या संसदसभा में, नीति निर्धारण में, विभिन्न पार्टियों के सम्बन्ध के मामले में आज भी हम स्वस्थ परम्पराओं या आचरण-संहिताओं को विकसित नहीं कर पाए हैं। 

प्रजातन्त्रात्मक शासन व्यवस्था को तो हमने अपना लिया है, पर यह भूल गए हैं कि इस शासन-व्यवस्था की सफलता केवल व्यवस्था को अपना लेने मात्र से ही निहित नहीं है। उसकी सफलता तो उस व्यवस्था से सम्बन्धित आचरणों व अवस्थाओं के साथ अनुकूलन पर निर्भर करती है। 

यह अनुकूलन हम नहीं कर पाए हैं। चुनाव के लिए प्रत्याशियों का चुनाव प्रायः उनकी योग्यताओं के आधार पर नहीं अपितु जाति-पाँति, प्रान्तीयता, धर्म, राजनीतिक ताल-मेल व समूहगत आधारों पर किया जाता है। 

चुनाव के समय भी धर्म, जाति-पाँति और आपसी भेद-भाव के आधार पर ही वोट माँगे जाते हैं। मन्त्रिमण्डल के गठन में भी साम्प्रदायिक भावनायें व जाति-पाँति महत्वपूर्ण होता है। 

विधानसभा में अपना बहुमत बनाये रखने के लिए धन, पद आदि का प्रलोभन देकर दूसरी पार्टियों के विधायकों को तोड़ने का प्रयत्न किया जाता है। 

दल बदलने की प्रवृत्ति पर किसी भी विधायक को शर्म का अनुभव नहीं होता और न ही मन्त्री बन जाने के बाद अपने ही भाई-भतीजों को ही लाभ पहुँचाने में किसी को कोई हिचकिचाहट होती है। 

भारत के प्रजातन्त्रात्मक राजनीतिक पार्टियों के कुछ कार्यक्रम तो अवश्य ही होते हैं, पर उनमें से अधिकांश पार्टियों का मुख्य कार्यक्रम सत्ता को हथियाने के लिए किसी अच्छे-बुरे उपायों को अपनाकर दूसरी पार्टियों को नीचा दिखाना है। 

इसके फलस्वरूप उनकी सारी शक्ति सत्ता के पीछे दौड़ने में खर्च हो जाती है और जन-कल्याण सम्बन्धी कार्यक्रमों को लागू करने का अवसर ही उन्हें मिल पाता है। 

अल्पसंख्यक समुदायों की कुछ राजनीतिक पार्टियों (जैसे मुस्लिम लीग) तो राजनीतिक पार्टियाँ 'भारतीय' होने पर भी उनकी वफादारी भारत के प्रति उतनी नहीं जितनी कि कुछ विदेशों के प्रति अभिव्यक्त होती है। 

राजनीतिक जीवन में साम्प्रदायिकता का विकास इसी का परिणाम है, जो कि राष्ट्रीय एकता व अखण्डता के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। 

4. परिवार और विवाह से सम्बन्धित समस्याएँ - पाश्चात्य संस्कृति से प्राप्य विचार, मूल्य तथा आदर्शों में अल्पसंख्यक समुदायों के परिवार तथा विवाह के क्षेत्र में भी अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। 

उदाहरणार्थ, पाश्चात्य संस्कृति से प्राप्त व्यक्तिवादी, आदर्श, स्त्री-शिक्षा ने लोगों को त्याग और कर्त्तव्य के पथ से हटाकर व्यक्तिगत अधिकार, सुख और समानता का पाठ पढ़ाया, जोकि संयुक्त परिवार व्यवस्था के विघटन का एक प्रमुख आधार बन गया। 

इसी व्यक्तिवादी पाश्चात्य आदर्शों के कारण परिवारों का सहयोगी आधार भी दुर्बल होता जा रहा है और परिवार का प्रत्येक सदस्य सबके लिए कम और अपने लिए अधिक सोचता है। 

इसका प्रभाव पति-पत्नी के पारस्परिक सम्बन्धों पर भी पड़ा है और पति-पत्नी के पारस्परिक अनुकूलन की समस्या दिन-प्रतिदिन अधिक कटु होती जा रही है। 

पाश्चात्य मूल्यों तथा आदर्शों के फलस्वरूप ही अल्पसंख्यक समुदायों में देर से विवाह, अन्तर्जातीय विवाह और प्रेम विवाह की दरें दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। जोकि स्वस्थ पारिवारिक तथा वैवाहिक जीवन के लिए खतरा उत्पन्न करने वाला बन गया है; देर से विवाह करने के पाश्चात्य आदर्श में लोगों में नैतिक पतन की समस्या को उत्पन्न किया है। 

यौन-प्रवृत्तियों को बहुत दिनों तक दबाने से बौद्धिक विकास कठिन हो जाता है। उसी प्रकार अन्तर्जातीय विवाह तथा प्रेम विवाह में रोमांस का तत्व ही अधिक होता है। जोकि स्वस्थ वैवाहिक जीवन के लिए बहुत घातक सिद्ध होता है। 

प्रोफेसर वेबर ने लिखा है कि रोमांटिक विवाह का अन्त रोमांटिक विवाह विच्छेद में होता है। इन समुदायों के लोगों में विवाह विच्छेद की बढ़ती हुई दर तो इस देश के पारिवारिक व वैवाहिक जीवन के लिए एक गम्भीर समस्या बन गई है। इसका प्रमुख कारण पाश्चात्य मूल्य तथा आदर्शों का आँख मूँदकर नकल करना है। 

साथ ही, उन्हीं आदर्शों के फलस्वरूप आज जीवन साथी के चुनाव में नवयुवक व युवतीगण माता-पिता के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं करते। इसके फलस्वरूप युवा पीढ़ी तथा पुरानी पीढ़ी के बीच विचार तथा मूल्यों का संघर्ष होता है। जिससे पारिवारिक क्लेश, झगड़े तथा तनाव उत्पन्न होते हैं और पारिवारिक विघटन की सम्भावना भी रहती है।

5. सामान्य जीवन से सम्बन्धित समस्याएँ - सामान्य जीवन में भी अनेक समस्याएँ अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के सामने हैं। उदाहरण के लिए पोशाक, खान-पान, शिक्षा, मनोरंजन आदि से सम्बन्धित उन समस्याओं का उल्लेख किया जा सकता है। 

जिनका कि जन्म पाश्चात्य संस्कृति के सम्पर्क में आने के फलस्वरूप हुआ है। हॉलीवुड फैशन का जो भूत आज इन अल्पसंख्यक लोगों विशेषकर ईसाई समुदाय पर सवार है। उसी के फलस्वरूप साधारण लोगों से लेकर कॉलेज के छात्र-छात्राओं तक में पोशाक, हेयर स्टाइल, आभूषण, चश्मा और जूता तक में पाश्चात्य संस्कृति का उग्र रूप देखने को मिलता है। 

फैशन की हर चीज हमें चाहिए, चाहे उसके लिए माता- -पिता से झगड़ा कर पैसा लेना पड़े चाहे उधार माँगना पड़े अथवा चाहे उन चीजों को न जुटा सकने पर पति के प्रति पत्नी का व्यवहार रूखा हो जाए या उनमें नित अनबन बनी रहे। 

उसी प्रकार भारतीय नृत्य तथा संगीत से उनकी रुचि हटकर 'रॉक एन रोल' तथा 'डिस्को' आदि पर केन्द्रित हो गई है। उसी प्रकार मनोरंजन के क्षेत्र में सिनेमा, थियेटर, नाइट क्लब, यौन प्रवृत्तियों से भरपूर नृत्य-संगीत सहित चलने वाले होटल आदि सबका आयोजन संगठन विदेशी संस्कृति के आधार पर ही किया जाता है पर मनोरंजन के उन उग्र स्वरूपों से अनुकूलन करने योग्य मानसिक तैयारी अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों में आज भी नहीं है। 

फलतः यह उनके लिए एक समस्या बन गई है, क्योंकि इसका अत्यधिक बुरा प्रभाव लोगों पर, विशेषकर युवक-युवतियों पर पड़ता है और उसमें यौन-व्यभिचार, सामान्य अपराध और बाल - अपराध की प्रवृत्ति बढ़ती है। शिक्षा के क्षेत्र में भी सह शिक्षा एक वैदिक परम्परा होते हुए भी आधुनिक भारत में इसका प्रचलन पाश्चात्य संस्कृति का ही परिणाम है। 

सह-शिक्षा से अनेक लाभ हैं, पर उन लाभों को प्राप्त करने के लिए एक नैतिक मान को बनाए रखना जरूरी है पर दुर्भाग्यवश अल्पसंख्यक समुदायों के छात्र-छात्राओं के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर अनेक अवांछनीय घटनाएँ घटित होती रहती हैं।

इसके अतिरिक्त एक और सामान्य समस्या नवीन व पुरातन के बीच विचार तथा आदर्श का संघर्ष है। विवाह, पोशाक, खान-पान, शिक्षा, पेशा आदि प्रायः सभी मामलों में बाप-दादों का विचार भारतीय संस्कृति पर एवं नवीन पीढ़ी के विचार विदेशी संस्कृतियों पर आधारित होने के कारण उनमें अक्सर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जोकि सामाजिक जीवन को न केवल तनावपूर्ण बनाता है अपितु अन्य अनेक समस्याओं को जन्म देता है।

6. विसंगति या आदर्शशून्यता की समस्या - एक और समस्या यह है कि उचित समन्वय न होने के कारण उनमें विसंगति या आदर्शशून्यता की स्थिति भी उत्पन्न हो गई है। भारत के अल्पसंख्यक समुदायों में आज इस विसंगति की स्थिति को सहज ही देखा जा सकता है। 

उदाहरणार्थ आज का सांस्कृतिक मूल्य हमारे सम्मुख यह आदर्श प्रस्तुत करता है कि अपनी योग्यता और प्रयत्नों के द्वारा व्यक्ति के लिए किसी भी उच्चतम लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव है, वह लखपति बन सकता है, राष्ट्रपति हो सकता है या विश्व की सबसे सुन्दर युवती को अपनी पत्नी के रूप में पा सकता है। 

परन्तु इन स्थितियों को प्राप्त करने के लिए उचित और स्वीकृत साधन या प्रणालियाँ उसे अपने समाज में देखने को नहीं मिलती हैं। तब वह तंग आकर चोरी करता है। डाका डालता है। जालसाजी या गबन करता है। यह समाज में व्याप्त विसंगति की स्थिति की ही उपज होता है।

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