आमंड एवं पावेल की राजनीतिक व्यवस्था उपागम का वर्णन कीजिए

राजनीति के अध्ययन का संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक उपागम राजनीति विज्ञान में नितान्त नया नहीं है। उसका मूल हमें प्लेटो तथा अरस्तू की रचनाओं में मिलता है। 

उन्होंने ऐसे विशिष्ट कार्यों की चर्चा की, जिन्हें उनकी समझ में, किसी राजनीतिक व्यवस्था को स्वयं अपने को जीवित रखने हेतु सम्पादित करना चाहिए। अपने इस युग में सबसे पहले मानवशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक उपागम का विकास किया। 

मानवशास्त्र में रैडक्लिफ ब्राउन तथा बी. मैलिनोवस्की ने अपने अन्वेषणों में इस उपागम का प्रयोग किया। 

आमंड एवं पावेल की राजनीतिक व्यवस्था उपागम का वर्णन कीजिए 

संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक उपागम राजनीतिशास्त्र को समाजशास्त्र की देन है। तुलनात्मक राजनीति में इस उपागम की लोकप्रियता व्यवस्था विश्लेषण के बाद ही पनपी तथा विकसित हुई। कई विद्वानों ने इस उपागम को व्यवस्था विश्लेषण का ही एक रूप माना है। 

वस्तुतः संरचनात्मक- प्रकार्यात्मक उपागम एक तरफ तो 'ईस्टन' के द्वारा प्रयुक्त व्यवस्थायी विश्लेषण की व्याख्या में आयी कमियों को दूर करने के लिए और दूसरी तरफ तुलनात्मक राजनीति में राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा को अधिक यथार्थवादी ढंग से प्रयुक्त करने के लिए आवश्यक माना गया। 

सामान्य दृष्टि से देखा जाये तो इसकी आवश्यकता उन सब तथ्यों से स्पष्ट की जा सकती है। जिनसे व्यवस्था विश्लेषण की राजनीतिक विश्लेषणों में आवश्यकता महसूस की गयी थी। 

संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक विश्लेषण दो प्रत्ययों के प्रयोग पर आधारित है। प्रथम प्रत्यय संरचना का है और दूसरा प्रत्यय प्रकार्य है। अतः संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक उपागम का अर्थ इन दो प्रत्ययों का अर्थ करके समझा जा सकता है। प्रकार्य एक व्यापक शब्द है जिनके कई अर्थ हैं। 

(1) एक विद्वान के अनुसार - अपने वृहत्तर रूप में प्रकार्यवाद का साधारण-सा अर्थ है कि राजनीतिशास्त्री किसी तथ्य अथवा घटना का विश्लेषण करते समय अन्य बातों के अलावा उन प्रकार्यों का, जो उस तथ्य द्वारा निष्पादित होते हैं, ध्यान रखेगा। 

(2) आरेन यंग ने इसका अर्थ इन शब्दों में किया है प्रकार्य, क्रिया प्रतिमान का व्यवस्था के लिए, जिससे यह परिचालित होती है। एक वस्तुनिष्ठ परिणाम है। 

(3) मर्टन के अनुसार - प्रकार्य प्रवेक्षित परिणाम है जो किसी व्यवस्था में अनुकूलन या पुनः समायोजन बनाये रखते हैं।

(4) रॉबर्ट सी. बोन के अनुसार - एक प्रकार्य व्यवस्था को बनाये रखने और उसको विकसित करने के लिए किया जाने वाला ऐसा क्रिया प्रतिमान है जो नियमित रूप से होता रहता है। 

संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक उपागम की उपयोगिता या गुण

संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक उपागम राजनीतिक व्यवस्था विश्लेषण का एक विशिष्ट दृष्टिकोण है। इस दृष्टिकोण की तुलनात्मक राजनीति को विशेष देन रही है। संक्षेप में, इसके प्रमुख गुण अग्र प्रकार हैं -

(1) यह सुसंगत और ऐसा समग्रवादी सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। जिससे राजनीतिक व्यवस्था के सभी पहलुओं से सम्बन्धित स्पष्ट परिकल्पनाएँ निकाली या प्रस्थापित की जा सकती हैं।

(2) यह राजनीतिक व्यवस्थाओं के सामान्य सिद्धान्त के अन्ततः निर्माण की सम्भावनाएँ प्रस्तुत करता है।

( 3 ) यह तुलनात्मक विश्लेषणों को राजनीतिक, सामाजिक अनुरक्षणों की अन्तःसम्बद्धताओं को पेचीदगियों के प्रति संवेदनशील बनाता है।

(4) यह उपागम राजनीतिक अनुलक्षण के परिवेश के रूप में सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था की ओर ध्यान आकर्षित करता है ।

(5) यह राजनीतिक व्यवस्था की कार्य-शैली और परिचालनता में प्रवेश सम्भव बनाता है।

(6) यह राजनीतिक विश्लेषण के अनेक विचारबिन्दु प्रस्तुत करता है। इसमें हम राजनीतिक व्यवस्थाओं को उपव्यवस्था के रूप में या संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक प्रवर्गों के आधार पर विश्लेषित कर सकते हैं। 

(7) इस उपागम से यथार्थवादी निष्कर्ष निकालने और राजनीतिक व्यवस्थाओं की गत्यात्मक शक्तियों को समझने में सहायता मिलती है । 

संरचनात्मक-प्रकार्यवाद की आलोचना

संरचनात्मक-प्रकार्यवाद की आलोचना निम्नलिखित प्रकार से की गई है -

(1) प्रायः समस्त प्रकार्यवादियों में यथास्थितिवाद, स्थायित्व और सन्तुलन जैसी अनुदारवादी पूर्व-धारणाएँ पाई जाती हैं। 

(2) यंग ने प्रकार्यवादियों की आलोचना करते हुए कहा है कि उनमें शाश्वत प्रकार्यवादिता का दोष पाया जाता है।

(3) इस उपागम में नियन्त्रण शक्ति, नीति-निर्माण, प्रभाव आदि दलों के विश्लेषण की सामर्थ्य नहीं है।

(4) इस उपागम ने केवल संधारणात्मक पक्ष पर ही बल दिया है जिससे उसमें मानवीय तत्त्वों का समावेश हो गया है।

(5) इस सिद्धान्त को प्रयोग किये जाने के पश्चात् किसी सामान्य सिद्धान्त के विकास के सम्बन्ध में कहना केवल भूतार्थ निर्णयन से है। इसका कारण यह है कि इस सिद्धान्त का अधिग्रहण तो पहले ही किया जा चुका है। 

(6) इस उपागम से सोद्देश्यवादिता स्पष्ट होती है।

(7) वास्तविकता में व्यवस्था अनेक विकल्पों को स्वयं बनाये रखती है किसी भी विशिष्ट प्रकार्य को अनिवार्य प्रकार्य स्वीकार नहीं किया जा सकता है। 

(8) यंग ने कहा है कि प्रकार्यात्मक अनिवार्यताओं की पूर्वधारणा ने इसे यथास्थितिवाद बना दिया है।

मूल्यांकन

उपर्युक्त कमियों के होते हुए भी संरचनात्मक प्रकार्यवाद सर्वाधिक लोकप्रिय और व्यवहार में आने वाले उपागम का मूल्यांकन अग्रलिखित प्रकार से किया जा सकता है। 

(1) इस उपागम ने राजनीतिक घटनाओं, आँकड़ों, परिवत्य तथा प्रक्रियाओं के अध्ययन के प्रबन्धकीय संवर्ग प्रस्तुत किये हैं।

( 2 ) इस उपागम के कारण एक न्यूनतम प्रकार्यों की सूची को मानवीकृत करने से राजनीतिक व्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन सम्भव हो सकता है।

(3) इस उपागम ने समाज के विभिन्न तत्त्वों की आत्मनिर्भरता पर ध्यान आकर्षित किया है। इसके कारण अन्तर्निर्भरता तथा अन्तः क्रियाओं पर नियन्त्रण करने वाले नियमों की खोज और उनका अध्ययन किया जाने लगा है।

(4) इस उपागम ने विश्लेषणात्मक अनुवाद तथा उग्र व्यक्तिवाद के लिए प्रतिबल का कार्य निष्पादित किया है।

(5) इस उपागम ने वर्तमान समस्याओं की ओर अध्ययनकर्त्ताओं का ध्यान खींचा है।

(6) इस उपागम ने इस सत्य को स्पष्ट कर दिया है कि समाज मशीन मात्र न होकर उससे कुछ अधिक है। कतिपय आलोचकों ने संरचनात्मक प्रकार्यवादियों की आलोचना यथास्थितिवादी तथा अनुदारवादी कहकर की है, लेकिन वास्तविकता यह है कि वे न तो यथास्थितिवादी हैं और न रूढ़िवादी। 

अब प्रकार्यवादी भी अपने दोषों के प्रति सजग हो गये हैं। उन्होंने अपनी सीमाओं, भ्रान्तियों और त्रुटियों को जान लिया है। इसका एक उदाहरण आमण्ड हैं। उन्होंने 1965 ई. में सामर्थ्य तथा व्यवस्था साधारण एवं अनुकूलन के संवर्ग जोड़े हैं। उसने राजनीतिक परिवर्तन की व्याख्या करने का प्रयास किया है।

निष्कर्ष- निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रकार्यवाद भले ही सिद्धान्त न हो अथवा उसमें पूर्वकथन तथा नियन्त्रण-शक्ति प्रदान करने का प्रभाव न हो, तथापि यह स्वीकार करना होगा कि उसने तुलनात्मक विश्लेषण को व्यापक, अधिक यथार्थवादी और परिशुद्ध बनाया है। इस उपागम ने अनेक महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ, मानवीकृत शब्दावली एवं आनुभविक विचारबन्ध प्रस्तुत किये हैं।

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