बेंथम के उपयोगितावाद सिद्धांत की व्याख्या कीजिए - bentham ke upyogitavad siddhant

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आजकल हम प्रायः 'लाभदायक' वस्तु को उपयोगी मानते हैं और जो चीज केवल आलंकारिक, अच्छी लगने वाली अथवा आनन्ददायक होती है, उसे उपयोगी नहीं कहते हैं। बेन्थम का दृष्टिकोण इससे उल्टा था। उसके अनुसार किसी वस्तु में मनुष्य को आनन्द पहुँचाने और उसके कष्टों को दूर करने की जो क्षमता है, वही उपयोगिता है । 

फिर बेन्थम ने यह सिद्धान्त निश्चित किया कि जिस चीज से आनन्द मिलता है वही अच्छी है और जिससे आनन्द उपलब्ध नहीं होता वह अच्छी नहीं है। 

स्मरण रखने की बात यह है कि यहाँ 'अच्छा' शब्द का प्रयोग बेन्थम नैतिक अर्थ में करता है, अर्थात् उपयोगिता ही नैतिकता की कसौटी है और जिससे कष्ट होता है, वह अनैतिक है। 

एक स्थल पर बेन्थम ने लिखा है, “उपयोगिता के सिद्धान्त का अनुयायी सद्गुण को इसलिए अच्छा मानता है कि उसके व्यवहार से आनन्द की उपलब्धि होती है और दुर्गुण को इसलिए बुरा मानता है कि उसको व्यवहार में लाने से कष्ट होता है । " 

बेंथम के उपयोगितावाद सिद्धांत की व्याख्या कीजिए

1. सुखवाद का सिद्धान्त-बेन्थम ने उस समय प्रचलित नैतिकता के सभी सिद्धान्तों का खण्डन किया और उपयोगितावाद को नैतिकता का आधार माना । प्रायः लोग ईश्वर की इच्छा को नैतिकता का आधार मानते थे। उनका कहना था कि जो कुछ ईश्वर की इच्छा के अनुकूल है वही नैतिक है और जो उसके प्रतिकूल है 

वह अनैतिक और पाप मूलक है और धर्मशास्त्रों से ईश्वरीय इच्छा का पता चलता है। इन लोगों को बेन्थम का उत्तर था कि ईश्वर न हमसे कुछ कहता है और न हमारे लिए कुछ लिखकर भेजता है, फिर हम उसकी इच्छा का पता कैसे लगा सकते हैं ? 

धर्मशास्त्रों के सम्बन्ध में बेन्थम का कहना था कि आज तो ईश्वर किसी ऋषि अथवा पैगम्बर को अपनी इच्छा प्रकट करने के लिए भेजता नहीं, फिर हम कैसे मान लें कि प्राचीन धर्मशास्त्रों में जो कुछ लिखा है, वह ईश्वरीय ज्ञान है । 

नैतिकता के सम्बन्ध में दूसरा सिद्धान्त प्राकृतिक विधि का था। उसको मानने वालों का विश्वास था कि प्राकृतिक विधि के अनुसार आचरण करना ही नैतिकता है और प्राकृतिक विधि को मनुष्य अपने विवेक से जान सकता है। तीसरे, कुछ दार्शनिक मनुष्य के अन्तःकरण को नैतिकता का स्रोत मानते थे । 

बेन्थम ने इन सिद्धान्तों को भी अस्वीकार किया। वह कहा करता था कि इस प्रकार की नैतिकता तो वैयक्तिक है, मनुष्य को स्वयं जो अच्छा लगता है, उसी को वह प्राकृतिक विधि अथवा अन्तरात्मा के अनुकूल मान लेता है ।

इन सब सिद्धान्तों को छोड़कर बेन्थम ने उस मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त को मान्यता दी जो सुख़वाद के नाम से जाना जाता है। 

सुखवाद का अर्थ है - मनुष्य प्रारम्भ से ही आनन्द की खोज करता है और कष्टों से बचना चाहता है। बेन्थम लिखता है कि, “प्रकृति "मनुष्य को कष्ट और आनन्द इन दो प्रभुत्वसम्पन्न स्वामियों के अधीन बनाया है।

वे ही यह बतलाते हैं कि हमें क्या करना चाहिए और वे ही यह निर्धारित करते हैं कि हम क्या करेंगे ? एक ओर तो उचित और अनुचित का मापदण्ड और दूसरी ओर कारणों और परिणामों की श्रृंखला उनसे जुड़ी हुई है। 

हम जो कुछ करते हैं, कहते अथवा सोचते हैं, उन सबमें हम उन्हीं के आदेशों का पालन करते हैं। हम उनकी अधीनता से मुक्त होने का जो भी प्रयत्न करेंगे, उससे उक्त सत्य का प्रदर्शन और पुष्टि होगी । ”

2. आनन्द और सुख में अन्तर - बेन्थम ने 'आनन्द' और 'सुख' में भेद किय है। किसी वस्तु के सेवन से अथवा किसी काम से मनुष्य पर जो तात्कालिक अच्छा प्रभाव पड़ता है, वह आनन्द है। सुख मन की स्थायी स्थिति है, जो अनेक प्रकार के आनन्दों के योग से उत्पन्न होती है, किन्तु सब प्रकार के आनन्दों को एकत्र कर लेने से सुख उपलब्ध नहीं हो सकता। 

कुछ आनन्द ऐसे भी होते हैं जिनके सेवन से आगे चलकर कष्ट हो सकता है। अतः सुख के लिए कुछ आनन्दों का त्याग भी करना पड़ता है। इसी प्रकार कुछ कष्ट ऐसे हो सकते हैं जिनके अन्तिम परिणाम अच्छे हों इसलिए उन्हें स्वीकार करना अच्छा होगा।

3. आनन्दों के बीच गुण का नहीं, परिणाम का भेद- बेन्थम के उपयोगितावाद में सबसे महत्त्व की बात यह है कि वह विभिन्न प्रकार के आनन्दों के बीच गुणात्मक भेद स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसरण गुण की दृष्टि से सब आनन्द समान होते हैं। 

एक आनन्द मात्रा में दूसरे से भिन्न है, दूसरे से कम अथवा अधिक हो सकता है, किन्तु गुण से भिन्न नहीं होता। यदि हम कहें कि काव्य का आनन्द भोजन अथवा खेल के आनन्द से अच्छा है, तो उसका अर्थ होगा कि वह भोजन अथवा खेल के आनन्द से मात्रा में अधिक होगा। 

उपयोगिता के सिद्धान्त के अनुसार यह कहना गलत होगा कि एक आनन्द दूसरे से श्रेष्ठ अथवा निम्न कोटि का है। यदि हमने आनन्दों के बीच गुणात्मक भेद मान लिया तो फिर हमें अच्छाई की कोई अन्य कसौटी ढूँढ़नी पड़ेगी । कष्टों के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त लागू होता है।

4. आनन्दों और कष्टों के प्रकार - बेन्थम ने सामान्य तौर पर आनन्दों और कष्टों के दो प्रकार बतलाये हैं- सरल और मिश्रित । इन्द्रियों, धर्म, कार्यकुशलता, धर्मपरायणता, उदारता, द्रोह, मैत्री, ख्याति, शक्ति, कल्पना, प्रत्याशा, साहचर्य, कष्ट अथवा चिन्ता से, मुक्ति से आनन्द सरल आनन्द हैं।

इसी प्रकार इन्द्रियों अथवा शत्रुता, कुख्याति, उदारता, द्रोह, स्मृति, कल्पना, प्रत्याशा, साहचर्य और अशोभनीयता से उत्पन्न कष्ट सरल कष्ट हैं। अन्य सब प्रकार के आनन्द और कष्ट पूर्वोक्त आनन्दों और कष्टों के मिश्रण से उत्पन्न होते हैं।

5. आनन्दों और कष्टों के स्रोत-बेन्थम ने आनन्दों और कष्टों के तीन स्रोत बतलाये हैं—प्राकृतिक, राजनीतिक और धार्मिक । जब कोई आनन्द अथवा कष्ट प्राकृतिक नियमों के अनुसार मनुष्य की इच्छा के हस्तक्षेप के बिना प्राप्त होता है, तो हम कहेंगे कि उसका स्रोत प्राकृतिक है, अर्थात् उसके पीछे प्रकृति का विधान है। 

उदाहरण के लिए, मद्यपान से रोग उत्पन्न होते हैं और संयम से स्वास्थ्य अच्छा रहता है। जो आनन्द अथवा कष्ट समाज की विधिवत् स्थापित सत्ता से और उन लोगों के द्वारा प्राप्त होता है ।

जिन्हें शासन करने का अधिकार है, तो उसका स्रोत राजनीतिक कहा जायेगा; यथा - न्यायाधीश की आज्ञप्ति से प्राप्त आनन्द अथवा कष्ट । नैतिक आनन्द अथवा कष्ट वह है जो लोकमत के प्रभाव से प्राप्त होता है जिसे हम ईश्वर की इच्छा का फल कहते हैं, वह धार्मिक आनन्द अथवा कष्ट है । 

बेन्थम के अनुसार, "सब आनन्द और कष्ट कारणों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु सब व्यक्तियों को एक कारण से समान मात्रा में आनन्द अथवा कष्ट प्राप्त नहीं होता, क्योंकि सबकी संवेदनशीलता समान नहीं होती । ”

6. आनन्दों और कष्टों की नाप-तौल- यदि विभिन्न आनन्दों के बीच केवल मात्रा का भेद होता है, तो उनकी नाप-तौल भी सम्भव होनी चाहिए। हम गुणों को नहीं माप सकते, मात्रा को तो नापा ही जा सकता है। 

अतः बेन्थम ने नापने का एक फार्मूला प्रस्तुत किया जिसे 'आनन्द कलन' कहते हैं। उसका कहना है कि जब हम आनन्दों को नापें तो उसकी सघनता, अवधि, निश्चितता, अनिश्चितता, निकटता, दूरी, शुद्धता तथा उत्पादन शक्ति को ध्यान में रखना चाहिए। अधिक सघन (गहरा) आनन्द कम सघन आनन्द की तुलना में अच्छा माना जायेगा। 

इसी प्रकार, दीर्घकाल तक रहने वाला आनन्द अल्पकालीन आनन्द से अच्छा होगा । जो आनन्द अधिक निश्चित है उसे हम अनिश्चित आनन्द की तुलना में ज्यादा पसन्द करेंगे और निकट के आनन्द को दूर के आनन्द से अच्छा मानेंगे । 

अन्त में, जिस आनन्द में उसी प्रकार की संवेदना के होने की अधिक सम्भावना हो और विरोधी संवेदना के उत्पन्न होने की सम्भावना कम हो, वह अन्य आनन्दों से अच्छा माना जायेगा । 

बेन्थम के अनुसार, पूर्वोक्त आधारों पर विभिन्न प्रकार के आनन्दों और कष्टों की नाप-तौल की जा सकती है, “एक ओर सब आनन्दों के मूल्यों को जोड़ लीजिए और दूसरी ओर सब कष्टों के मूल्य को, यदि आ की मात्रा अधिक हो तो व्यक्ति विशेष के स्वार्थों को ध्यान में रखते हुए उस काम को समय दृष्टि से अच्छा माना जायेगा और यदि कष्ट अधिक हो तो समय दृष्टि से बुरा । ” 

7. अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख- अब प्रश्न यह है कि किसका सुख अपेक्षित है। बेन्थम ने इस प्रश्न के चार उत्तर दिये- प्रथम तो उसने माना कि मनुष्य अपने वैयक्तिक सुख के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहता। 

द्वितीय, वह यह भी कहता है कि मनुष्य को सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्तिके सुख को ध्यान में रखकर काम करना चाहिए क्योंकि वही काम अच्छा है जिससे किसी-न-किसी को दुःख की अपेक्षा सुख अधिक मिलता हो। 

तृतीय व चतुर्थ, बेन्थम का कहना था कि मनुष्य को अधिक-से-अधिक लोगों के अधिक-से-अधिक सुख के लिए प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार जब हम सुख की नाप-तौल करते हैं तो एक अन्य तत्त्व भी ध्यान में रखना पड़ता है और वह है - संख्या । 

अतः अधिक-से-अधिक लोगों का अधिक-से-अधिक सुख ही साम्य है। इस सिद्धान्त को बेन्थम ने राजनीति से जोड़ दिया। उसने कहा कि राज्य को अधिक-से-अधिक व्यक्तियों के अधिक-से-अधिक सुख के लिए कार्य करना चाहिए। राज्य के कामों की यही अच्छी कसौटी है ।

8. उपयोगिता की सार्वभौमिकता- उपयोगितावाद की एक अन्य विशेषता यह है कि बेन्थम उसको एक सार्वभौमिक सिद्धान्त मानता है। उसके मतानुसार मनुष्य के आचरण की अन्य सभी व्यवस्थाएँ वास्तव में प्रच्छन्न रूप से उपयोगितावाद का ही सिद्धान्त है। 

उदाहरण के लिए, कुछ लोग तपस्या के जीवन को अच्छा मानते हैं, यद्यपि इसके परिणाम कष्टकारक होते हैं। बेन्थम का कहना है कि यह वास्तव में उपयोगिता के सिद्धान्त का ही गलत प्रयोग है, तपस्वियों को भी अपनी तपस्या से एक विशेष आनन्द मिलता है। 

बेन्थम का कहना है कि यदि हम अन्तरात्मा को नैतिकता का आधार मानें तो कभी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते क्योंकि जीवन में अनेक क्षण ऐसे आते हैं, 

जबकि अन्तरात्मा भी उलझन में पड़ जाती है और सही तरीके से मार्ग-प्रदर्शन नहीं कर सकती । फिर भी एक व्यक्ति की अन्तरात्मा जिस काम को उचित समझती है, उसी को दूर करने को अन्तरात्मा पाप मानती है।

9. उपयोगिता का सिद्धान्त सुनिश्चित तथा वस्तुपरक - बेन्थम का कहना था कि उपयोगितावाद स्पष्ट, सुनिश्चित तथा वस्तुपरक है तथा उसे प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। उसके अनुसार नैतिकता अथवा सभ्यता के अन्य सभी मापदण्ड अनिश्चित तथा चित्रगत हैं, वस्तुगत जीवन से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए बेन्थम ने प्राकृतिक विधि, प्राकृतिक न्याय और धारणाओं का मखौल उड़ाया। 

उपयोगितावाद का महत्त्व के उपयोगितावाद की चाहे कैसी ही कटु आलोचना क्यों न हुई हो, इन आलोचनाओं बावजू उपयोगितावाद के गुणों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 19वीं सदी में इंग्लैण्ड में जो अनेक सुधार हुए, उनके मूल में यही दर्शन था। 

डेविडसन ने उपयोगितावादियों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, "20वीं सदी के अधिकांश भाग नके विचारों की प्रधानता रही और उसका फल यह हुआ कि मनोवैज्ञानिक अनुसंधान तथा नैतिक तर्क-वितर्क में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और व्यावहारिक राजनीति में सामाजिक सुधार तथा मंगलकारी कानूनों का निर्माण इतने बड़े पैमाने पर हुआ, जितना कि पहले कभी सोचा भी नहीं गया था । "

उपयोगितावादी विचारधारा का महत्त्व निम्न रूपों में बतलाया जा सकता है - 

(1) उपयोगितावादी विचारकों ने राजनीतिक क्षेत्र के लिए मापदण्ड प्रदान किया है। ब्रिटन के शब्दों में "उपयोगितावाद ने वर्तमान संस्थाओं की प्रगति मापने के लिए एक अच्छा यन्त्र प्रदान किया है।" 

इसी प्रकार मैक्सी ने सत्य ही लिखा है कि, “उपयोगितावादी बेन्थम द्वारा प्रतिपादित सुख-दुःख की कसौटी को अस्वीकार करने वाले तथा उसका उपहास करने वाले व्यक्ति भी उसके इस सिद्धान्त की उपेक्षा नहीं कर सकते थे कि सरकार का और इसके अधिकार का औचित्य केवल इसी बात से निश्चित होता है कि वह प्रजा को कितना प्रत्यक्ष और स्पष्ट सुख पहुँचा रही है और उसकी कितनी सेवा कर रही है । "

(2) उपयोगितावाद ने प्राकृतिक अधिकारों की धारणा, सामाजिक समझौता सिद्धान्त तथा जर्मन आदर्शवादियों के रहस्यमयी आदर्शवाद को ध्वस्त कर एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इसने राजनीतिक दर्शन को व्यावहारिक जीवन के साथ संयुक्त करने का कार्य किया है। वास्तव में यह निम्नकोटि का भौतिकवाद नहीं, वरन् व्यावहारिक यथार्थवादी विचारधारा है।

(3) उपयोगितावाद अपने सामाजिक कल्याण के ध्येय के कारण भी एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण विचारधारा है। इस विचारधारा ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सुधारों के नवीन और लम्बे क्रम को जन्म दिया। 

ग्रीन जैसे आदर्शवादी ने भी इस सम्बन्ध में उपयोगितावाद के महत्त्व को स्वीकार करते हुए कहा है कि, "उपयोगितावादियों के सुखवादी मनोविज्ञान से चाहे कितनी त्रुटियाँ क्यों न पैदा हों, किन्तु राजनीतिक तथा सामाजिक सुधारों के लिए इतनी अधिक सत्य तथा इतनी शीघ्रता से प्रयोग में लायी जाने वाली और कोई विचारधारा नहीं हो सकती थी ।”

बेन्थम के उपयोगितावाद की आलोचना

1. बेन्थम का यह सिद्धान्त गलत है कि कभी आनन्द अच्छा और कष्ट बुरा होता है - बेन्थम ने मनमाने ढंग से यह निश्चित कर लिया है कि आनन्द अच्छा और कष्ट बुरा होता है। इसको सिद्ध करने के लिए उसने कोई प्रमाण नहीं दिये । 

हम अपने अनुभव से जानते हैं कि अनेक आनन्द बुरे होते हैं और यदि हम उसका सेवन करें तो उसके परिणाम बुरे होंगे और इसी प्रकार कुछ परिस्थितियों में कष्टों को सहना अच्छा होता है। मानव सभ्यता के विकास में सबसे अधिक योग उन व्यक्तियों का रहा है जिन्होंने उन आदर्शों के लिए जिन्हें वे सब आनन्दों से अच्छा समझते थे, अगणित कष्ट सहे ।

2. आनन्द नापने का तरीका अव्यावहारिक - बेन्थम ने आनन्द को नापने का जो मापदण्ड निश्चित किया है, वह व्यावहारिक दृष्टि से निरर्थक है। उसने इस बात को निश्चित करने का कोई तरीका नहीं बतलाया है कि सघनता, अवधि, निश्चितता आदि तत्त्वों में से कौन-सा अधिक महत्त्वपूर्ण है और कौन-सा कम ? 

हम किसी आनन्द की उत्पादकता अथवा शुद्धता को कैसे जान सकते हैं ? फिर हमें शुद्धता को अधिक महत्त्व देना चाहिए अथवा अवधि को, सघनता को अथवा उत्पादकता को ? 

एक ओर तो बेन्थम आनन्दों के बीच केवल परिणाम का भेद मानता है और दूसरी ओर उसी आनन्द सूची में उदारता, ख्याति, धर्मपरायणता आदि से उत्पन्न आनन्द सम्मिलित हैं। स्पष्ट है कि ये आनन्द गुणात्मक हैं और उन्हें नापा नहीं जा सकता ।

3. आनन्द के बीच गुणात्मक भेद-बेन्थम का यह कथन निराधार है कि आनन्ददायक वस्तुओं में गुण का अन्तर होता है, इसीलिए हम एक आनन्द की अपेक्षा दूसरे को अच्छा समझते हैं। 

काव्य का आनन्द खेल के आनन्द से केवल मात्रा में भिन्न होता है, तो काव्य अथवा संगीत के पीछे दौड़ने की क्या आवश्यकता है ? फिर तो खेल के आनन्द की मात्रा बढ़ा दी जाये तो वह काव्य के आनन्द के बराबर हो जायेगा । यदि धन का आनन्द धर्मपरायणता के आनन्द के समान होता, तो लोग राजपाट छोड़कर संन्यासी क्यों हो जाते ?

4. नैतिकता के प्रश्न का कोई हल नहीं-बेन्थम के उपयोगितावाद की एक दुर्बलता यह है कि उसने नैतिकता के प्रश्न का कोई हल नहीं निकाला, बल्कि उसे टाल दिया । उसके तर्क से यह निष्कर्ष निकलता है कि नैतिक तपस्या नाम की कोई चीज है ही नहीं। 

उसके अनुसार मनुष्य वही करता है जिससे उसे आनन्द मिलता है और उसे करना भी वही चाहिए जिससे आनन्द मिलता हो। फिर तो व्यक्ति का कोई कार्य बुरा हो ही नहीं सकता। 

अतः नैतिक तपस्या अपने आप हल हो गयी। किन्तु वास्तव में इस समस्या को इतनी सरलता से टाला नहीं जा सकता। यदि व्यक्ति जो कुछ करते हैं. वह सब नैतिक है तो फिर बेन्थम के उपयोगितावाद के सिद्धान्त की भी क्या आवश्यकता है ? 

वास्तव में उसका तर्क बच्चों जैसा है, तभी तो कार्लाइल क्रोध में आकर उबल पड़ा था कि बेन्थन का दर्शन तो 'सुधारों का दर्शन' है। उसने समझ लिया है कि मनुष्य सुअर की तरह कोरा माँसपिण्ड है जिसे भौतिक आनन्द के अतिरिक्त किसी वस्तु की चाह नहीं है।

5. व्यक्ति और समाज के बीच समन्वय नहीं - बेन्थम के सिद्धान्त की सबसे अच्छी कमजोरी यह है कि वह व्यक्ति और समाज के हितों के बीच समन्वय नहीं कर पाया । जैसा कि चैस्टर सी. मैक्सी ने लिखा है, 

“वह वैयक्तिक और सामाजिक उपयोगिता के बीच की खाई को पार करने में असमर्थ रहा।” जब व्यक्ति अपने आनन्द के लिए सब कुछ करता है तो उससे यह आशा कैसे की जा सकती है कि वह दूसरों के आनन्द के लिए कुछ करेगा ? 

जिन लोगों के हाथों में शासन की बागडोर होगी वे भी अपने सुख की आकांक्षा से प्रेरित होकर कार्य करेंगे, हम क्यों आशा करें कि वे विभिन्न लोगों के आनन्दों के बीच तालमेल बैठाने की उलझन में पड़ेंगे और अधिक-से-अधिक व्यक्तियों के अधिक-से-अधिक सुख के लिए कार्य करेंगे। 

सी. एल. वेपर ने ठीक ही लिखा है कि आनन्दप्रिय व्यक्ति का चित्रण करते समय बेन्थम ने 'जीवन', 'समाज' और 'इतिहास' तीनों की उपेक्षा की है। 

मनुष्य के मन में स्वार्थ और कर्त्तव्य के बीच संघर्ष उठा करता है, उसे अन्तःकरण की प्रेरणा का भी अनुभव होता है, जबकि बेन्थम इन सबकी उपेक्षा करता है। मनुष्य वास्तव में इतिहास और समाज से बनता है, इसको अनदेखा करके हम व्यक्ति के जीवन का संचालन करने वाले तत्त्वों को कभी नहीं समझ सकते।

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