भारत में भिक्षावृत्ति के कारण - bhaarat mein bhikshaavrtti ke kaaran

भारत जैसे निर्धन देश में तो यह जनता पर एक भारी बोझ भी है। आज भारत में लगभग 10 लाख भिखारी हैं। ये लोग कुछ काम नहीं करते हैं और इस तरह देश में गरीबी बढ़ाते हैं। परन्तु भिखारियों की समस्या केवल आर्थिक समस्या ही नहीं है। भिक्षावृत्ति का एक सामाजिक पहलू भी है। 

आमतौर से भिखारियों में तरह-तरह की भयंकर बीमारियाँ और नाना प्रकार के दुराचरण पाये जाते हैं। इस प्रकार वे समाज के स्वास्थ्य तथा शान्ति और व्यवस्था के शत्रु हैं। वे समाज के उस अंग का प्रतिनिधित्व करते हैं। जो कि सड़-गल चुका है और जिसका शीघ्र इलाज करने की जरूरत है। 

हमारे देश के भिखारियों के फोटो पश्चिमी देशों में ले जाकर अनेक लोगों ने भारतीय समाज की बदनामी की और उपहास उड़ाया। प्राचीनकाल में जबकि देश में खाद्य सामग्री और जीवन की अन्य आवश्यकताएँ प्रचुर मात्रा में थीं। 

उस समय भी देश में भिखारी थे। परन्तु उस समय के भिखारियों में और आजकल के भिखारियों में बड़ा अन्तर है। प्राचीनकाल में अधिकतर भिक्षुक वे धार्मिक लोग थे जो कि धर्म और अध्यात्म की खोज में समय बिताते थे और पेट पालने के लिए भीख माँग लेते थे। 

हिन्दू धर्मशास्त्रों में संन्यासियों और ब्रह्मचारियों के लिए भीख माँगकर खाने का विधान था। परन्तु आजकल भीख माँगना एक व्यवसाय बना लिया गया है और भीख माँगने वाले अपना समय घोर अनैतिक कामों में बिताते हैं। इसके अलावा आजकल देश में काम करने वालों को भी जीवन की आवश्यक वस्तुएँ ठीक प्रकार से नहीं मिल पाती। 

स्पष्ट है कि आज देश में ऐसे लोगों को कुछ नहीं मिलना चाहिये जो काम न करे । यद्यपि कुछ धार्मिक रूढ़िवादी लोग भिक्षा देना अच्छा समझते हैं तथापि हर एक समझदार व्यक्ति यह जानता है कि ऐसा करना समाज के इस कोढ़ को बनाये रखने की कोशिश करना है। 

भिक्षावृत्ति के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर नजर डालने के बाद उसका समूल उन्मूलन आवश्यक मालूम पड़ता है।

भिक्षावृत्ति क्या है ?

भारत में भिक्षावृत्ति का विस्तार से अध्ययन करने से पहले, भिखारी तथा भिक्षावृत्ति की परिभाषा करना उपयुक्त होगा। कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -

(1) एक व्यक्ति जिसके जीवन-यापन का कोई साधन नहीं है और जो इधर-उधर घूमता रहता है या सार्वजनिक स्थानों में पाया जाता है अथवा भीख माँगने के लिये अपना प्रदर्शन स्वीकार करता है। इस परिभाषा के अनुसार भिखारी में तीन बातें देखी जाती हैं

(i) जीविकोपार्जन के प्रत्यक्ष साधन का न होना।  

(ii) सार्वजनिक स्थानों पर भीख माँगना। 

(iii) भीख माँगने के लिए अपनी बीमारी तथा घावों का प्रदर्शन करना। 

भिक्षावृत्ति की अन्य परिभाषाओं में भी उक्त ये तीन बातें दिखाई पड़ती हैं।

(2) भीख माँगने में दर-दर घूमना, भिक्षा माँगना, घावों, शारीरिक पीड़ाओं अथवा दोषों का प्रदर्शन करना अथवा भिक्षा प्राप्त करने के लिये दया करने हेतु उनके झूठे बहाने बनाना शामिल है। भिक्षावृत्ति की इस परिभाषा में वे ही बातें आवश्यक मानी गई हैं। जो पहली परिभाषा में दी गई हैं। 

भारत में भिक्षावृत्ति

सन् 1951 की जनगणना के अनुसार भारत में 4,87,457 भिखारी और आवारा लोग थे। इनमें से और 1,43,241 स्त्रियाँ थीं। इस समय देश में लगभग दस लाख भिखारी हैं। देश में 3, 44, 216 पुरुष जिन स्थानों पर जनसंख्या अधिक है। वहाँ भिखारियों की संख्या भी अधिक है। 

आमतौर से भिखारी मन्दिर, मस्जिद, रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन, बाजार, होटल, मेला, पार्क, स्नानघाट इत्यादि सार्वजनिक स्थानों पर दिखाई पड़ते हैं। जहाँ लोगों का आना-जाना अधिक होता है। इन भिखारियों में बहुत से संगठित रूप से भिक्षावृत्ति करते हैं। 

कहीं-कहीं पर भिन्न-भिन्न मौहल्ले भिन्न-भिन्न भिखारियों में बाँट दिये जाते हैं। ये मौहल्ले बराबर बदले रहते हैं। अधिकतर ये भिखारी गन्दी बस्तियों, सार्वजनिक स्थानों तथा नगर व गाँव के बाहर रहते हैं। भिखारी शहरों और गाँवों दोनों जगह पाये जाते हैं।

भिक्षावृत्ति के कारण

(1) आर्थिक कारण - भिक्षावृत्ति का सबसे मुख्य कारण आर्थिक है। इनमें मुख्य हैं- गरीबी और बेकारी। बहुत से भिखारी ऐसे होते हैं। जो बेकार होने के कारण भीख माँगते हैं। और काम मिलने पर भिक्षावृत्ति छोड़ सकते हैं। इसी तरह अधिकतर भिखारी गरीबी के कारण भीख माँगते हैं। 

(2) धार्मिक कारण - भारतवर्ष में भिक्षावृत्ति के इतने अधिक बढ़ने का मुख्य कारण है कि धार्मिक विचार के लोग भिखारियों को दान देकर उनकी सहायता करते हैं। तीर्थस्थानों पर भिखारियों को अच्छी-खासी आमदनी हो जाती है। कितने ही भिखारी तो इतना पैसा पाते हैं कि वे गरीब नहीं कहे जा सकते । 

(3) शारीरिक कारण - भारत में दिव्यांगों तथा रोगियों के कल्याण के लिये पर्याप्त प्रबन्ध नहीं हैं। अतः ये लोग भिक्षावृत्ति करने के लिए बाध्य हैं।

(4) सामाजिक कारण - अनेक सामाजिक कारण भी भिखारियों को उत्पन्न करते हैं। उदाहरण के लिये, नीची जातियों में विधवा अथवा परित्यक्ता स्त्रियाँ भीख माँगती हैं।

(5) मानसिक कारण - अनेक मानसिक रोगी अथवा किसी प्रकार के भयंकर मानसिक संघर्ष से ग्रस्त व्यक्ति आवारा बन जाते हैं। और भीख माँगकर जीवन यापन करते हैं।

(6) विपत्तियों से ग्रस्त व्यक्ति - बाढ़, भूचाल या अकाल आदि विपत्तियों से हजारों लोग बे - घरबार और असहाय हो जाते हैं तथा भीख माँगने लगते हैं। अनाथ बालक-बालिकाएँ भी भीख माँगते हैं। कमाने वाले की मौत भी कभी-कभी घर के स्त्री- बच्चों को भिखारी बना देती है। 

भिक्षावृत्ति की रोकथाम के लिए सुझाव

भारत में भिक्षावृत्ति की रोकथाम के लिये निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं

(1) बेकारी और गरीबी का निवारण - भिक्षावृत्ति को दूर करने के लिये देश में गरीबी और बेकारी का निवारण किया जाना चाहिये। इनके बिना सभी उपाय अधूरे सिद्ध होंगे। बेकार लोगों को बेकारी के समय में जीवन-यापन के लिये सरकार की ओर से सहायता मिलनी चाहिये। 

(2) भिक्षावृत्ति की कानूनी रोकथाम - प्रत्येक राज्य में भिक्षावृत्ति के विरुद्ध कानून बनाकर उसको अवैध घोषित करना जरूरी है।

(3) रोगियों के इलाज की सुरक्षा - देश में स्वास्थ्य सेवाओं को भी और भी व्यापक रूप देकर कोढ़ियों तथा तपेदिक आदि भयंकर रोगों के इलाज की सुविधा प्रत्येक देशवासी को दी जानी चाहिये। 

(4) अनार्थो और अपाहिजों की सुरक्षा - सरकार को अनाथालय तथा शरणालय स्थापित करके अनाथ स्त्री- बच्चों और अपाहिजों को कोई काम सिखाने तथा जीविकोपार्जन करने योग्य बनाने की व्यवस्था करनी चाहिये ।

(5) मानसिक रोगियों का इलाज - देश में मानसिक उपचार की सुविधा बढ़ाकर पागलों तथा विक्षिप्तों का उपचार सुलभ करना चाहिये।

(6) विपदाग्रस्त व्यक्तियों की सहायता - विपदाग्रस्त स्त्री-पुरुषों के पुनर्वास से सरकार को पूरी सहायता करनी चाहिये।

(7) भिक्षावृत्ति के विरुद्ध जनमत का निर्माण - अन्त में, सबसे अधिक जरूरी यह है कि भारतीय जनता में भिक्षावृत्ति के विरुद्ध जनमत निर्माण किया जाये जिससे लोग कम-से-कम सपंगु भिखारियों को तो भिक्षा न दें। भीख न मिलने पर वे लोग मजबूर होकर मेहनत करेंगे। 

वर्गीकरण

भिक्षा अर्जित करने के कई तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं। ऐसी स्त्रियाँ भी देखी गई हैं जो अपने असहाय होने का लिखित प्रमाणपत्र लिये घूमा करती है। इसे ही दिखा कर भीख माँगती है। कुछ तो किसी दिव्यांग या छोटे बालक को लिये उनकी सहायता के नाम पर भीख माँगा करते हैं। 

भिखारियों में दिव्यांगों की संख्या अधिक पायी जाती है। किन्तु विभिन्न स्थानों के व्यापक सर्वेक्षण के परिणाम से यह ज्ञात हुआ कि अनेक स्थानों पर सपंगु भिखारियों की संख्या दो-तिहाई तथा एक-तिहाई के आधा बच्चे एवं शेष दिव्यांग भिखारी हैं। यहाँ दिव्यांग भिखारियों की आय के स्त्रोत हैं। 

ऐसा भी देखा गया है कि भिखारी अपनी सन्तान को जन्म से ही दिव्यांग बना देते हैं या फिर बीमार होने पर उनकी दवा नहीं करते ताकि वे अपंगु हो जाय। कभी-कभी कुछ लोग दिव्यांग होने का बहाना कर भीख माँगते हैं। 

भारत में भिखारियों के प्रकार

(1) सपंगु भिखारी - ये पूर्णतः स्वस्थ होते हैं और कामचोर भी। इनमें अनेक तो दिन को भीख माँगते हैं और रात को चोरी करते हैं।

(2) अपंगु भिखारी - इनके शरीर के किसी अंग में दोष होता है। इसी की दुहाई दे-देकर भीख माँगा करते हैं।

(3) धार्मिक भिखारी - साधु, संयासी और वैरागी भगवान् एवं धर्म के नाम पर भीख माँगा करते हैं। 

(4) बनावटी धार्मिक भिखारी - इस प्रकार के भिखारियों में ऐसे भिखारी आते हैं जिनका किसी धर्म या मजहब अथवा पंथ से कोई सरोकार नहीं होता फिर भी संन्यासी, बैरागी बने भीख माँगा करते हैं।

(5) जनजातीय भिखारी - पेशेवर जनजातियों के वे लोग होते हैं जो लोकगीत गा-गाकर, तरह-तरह के करतब रचकर भीख माँगा करते हैं।

(6) रोगी भिखारी - ऐसे भिखारियों में से कोई न कोई किसी स्थायी रोग से पीड़ित होते हैं। इनमें · कोढ़ि आदि देखने को मिलते हैं।

(7) पागल या मानसिक रोगी - पागल, सनकी या अन्य मानसिक रोग से ग्रस्त भिखारी भी भीख माँगते पाये जाते हैं।

(8) बाल भिखारी - भिखारी लोग बालकों से भीख मँगवाते हैं। उनके दिन भर के अर्जन का अधिकांश भाग स्वयं ले लेते हैं। कई-कई भिखारी तो लड़के-लड़कियों को उठा ले जाते हैं और उनसे भिक्षावृत्ति करवाते हैं।

(9) व्यावसायिक भिक्षुक - इस वर्ग में वे भिखारी आते हैं जो बालकों एवं सपंगु लोगों को नौकर रखकर उनसे भीख मँगवाते हैं। ये व्यावसायिक भिक्षुक कहलाते हैं।

(10) काम करने वाले भिक्षुक - इस प्रकार में वे भिक्षुक आते हैं जो रात में तो कहीं काम करते हैं और दिन में भीख भी माँग लिया करते हैं।

उपर्युक्त प्रकार के भिखारियों के अतिरिक्त भारतीय सामाजिक पर्यावरण में समस्त भिखारियों को 4 वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। 

1. परम्परागत भिखारी - इस वर्ग में वे भिक्षुक आते हैं जो भिक्षावृत्ति करना अपने माता-पिता से सीखते हैं। एक प्रकार से भिखारियों के बच्चों को बचपन से ही भिक्षार्जन करने की विभिन्न कलाओं को सिखाता है। 

बच्चे माता-पिता के आचरण अनुकरण करते हुए भिक्षावृत्ति करने लगते हैं। भारतीय समाज में इसका उत्तरदायित्व उन माता-पिता को है जो बच्चों को भीख माँगना सिखाते हैं।

2. अपाहिज भिखारी - इस वर्ग के भिखारियों में वे भिक्षुक आते हैं जो मानसिक तथा शरीरिक विकारों के कारण भिक्षावृत्ति करते हैं। इन भिक्षुकों की ऐसी करूण पुकार होती है। जिससे व्यक्तियों में दया का भाव जाग्रत हो उठता है और इन्हें भिक्षादान करते हैं। 

इस श्रेणी में भिखारी दिव्यांग, कोढ़ी तथा पागल आदि स्वरूपों में दिखालाई पड़ते हैं। कभी-कभी व्यावसायिक भिक्षुक भी स्वयं अपने अंगों में कृत्रिम विकार बनाकर समाज में करूणा कर व्यक्तियों की सहानुभूति प्राप्त कर भिक्षार्जन का घृणित कार्य करते हैं।

3. मजबूर भिखारी - इस वर्ग में वे भिखारी हैं जो असहाय होकर इस वृत्ति को अपनाते हैं। कुछ ऐसे भिक्षुक होते हैं जिन्हें बाध्य होकर भिक्षावृत्ति करनी पड़ती है। इनमें वे बाल भिक्षुक आते हैं जो भिखारियों द्वारा भगाकर भिक्षार्जन के लिए लाये जाते हैं। 

कुछ मजबूर माता - पिता भी ऐसे होते हैं। जो बच्चों से जबरन भीख मँगवाने का कार्य करते हैं। इस श्रेणी में वे दण्डित अपराधी भी आते हैं जो पुनर्वास तथा संरक्षण की सुविधा न पाने पर मजबूर होकर जीविकोपार्जन के लिए इस वृत्ति को अपनाते हैं। 

कभी-कभी ऐसे अपराधी व्यक्ति भी मजबूरन इस वृत्ति को अपनाते हैं जिन्हें समाज अन्य नागरिकों की भाँति नहीं समझता और उनके साथ उचित सामाजिक व्यवहार नहीं करता। ऐसे अपराधी अपने को समाज से निम्न तथा हेय समझने लगते हैं और जीविकोपार्जन के लिए इस वृत्ति का सहारा लेते हैं।

4. कामचोर भिखारी - इस वर्ग में वे भिखारी आते हैं जो शारीरिक तथा मानसिक दोनों दृष्टिकोण से स्वस्थ होते हुए भी भिक्षावृत्ति करते हैं। जो श्रम करने तथा कार्य करने से दूर भागते हैं। उन्हें जीवनयापन के लिए भिक्षावृत्ति का सहारा लेना पड़ता है। 

क्योंकि भिक्षावृत्ति में उन्हें अधिक श्रम नहीं करना पड़ता। इस प्रकार के भिक्षुक समाज पर भार स्वरूप होते हैं। वर्तमान समय में ऐसे भिखारी समाज में अधिक पाये जाते हैं। इस प्रकार के भिखारियों को बढ़ावा देने का उत्तरदायित्व भारतीय जनता की दान भावना और अन्ध-विश्वास को है। 

इस श्रेणी के भिक्षुक भिक्षावृत्ति को आलस्य बस अपना व्यवसाय बना लेते हैं। भारतीय समाज में ऐसे अनेक भिक्षुक देखने को मिलेंगे जिनके पास हजारों रूपये जमा धनराशि मिलेगी। 

यदि इस प्रकार के भिखारी अपनी सेवाएँ राष्ट्र तथा समाज को अर्पित कर इस घृणित कार्य को त्याग देवें तो वे समाज के लिए अभिशाप के स्थान पर वरदान स्वरूप होंगे। 

भिक्षावृत्ति एक रोजगार के रूप में 

भारत में बहुत से व्यक्तियों के लिए भिक्षावृत्ति एक पेशा है। इस पेशे में आज वे सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं। जो दूसरे व्यावसायिक संगठनों में देखने को मिलती हैं।

शेखर ने अपने लेख में स्पष्ट किया है कि ऊपर से अत्यधिक दरिद्र दिखाई देने और दिन-भर भीख मांगने के बाद भिखारी भी शाम को एक स्थान पर एकत्रित होते हैं तथा वहाँ नियमित रूप से भोजन पकाने, खाने तथा मनोरंजन का कार्य करते हैं। 

उनका एक परिवार होता है। निजी सम्पत्ति होती है और कभी-कभी बच्चों के लिए छोड़ने योग्य संचित धनराशि भी होती है। चार्ल्स न्यूटन के अनुसार उन्होंने कलकत्ता में लगभग 30 हजार भिखारियों का अध्ययन किया है। 

ये लोग संगठित समूहों में रहते हैं। अनेक उत्सवों और विवाहों का आयोजन करते हैं तथा भीख मांगने को एक न्यायोचित कार्य के रूप में देखते हैं। एक व्यवसाय के रूप में भिक्षावृत्ति इसका उदाहरण पश्चिमी क्षेत्रों के कुछ नगरों में मिलता है। 

जहाँ भिखारियों की आर्थिक स्थिति बहुत सुदृढ़ है। वे न केवल एक सम्मानित सामाजिक जीवन जीने का प्रयत्न करते हैं बल्कि अपनी यूनियन बनाकर विभिन्न प्रकार की गतिविधियों का भी संचालन करने लगे हैं।

भिक्षावृत्ति करने वालों के एक रोजगार के रूप में संगठन भी पाये जाते हैं। इन संगठनों का कार्य है बच्चों को भीख मांगने का प्रशिक्षण देना। ये भिक्षावृत्ति के लिए बच्चों का अपहरण भी करते हैं तथा अपने सदस्यों को स्थान परिवर्तन का आदेश देते हैं। 

आवश्यकता पड़ने पर ये एकजुट होकर अपनी रक्षा भी करते हैं। भिखारियों के कुछ संगठन स्थानीय और कुछ क्षेत्रीय स्तर तक के होते हैं। ये अपने व्यवसाय में मिली धनराशि के कुछ प्रतिशत को एक विशेष क्षेत्र में ड्यूटी करने वाले चौकीदार अथवा सिपाही को भी देने का कार्य करते हैं। 

कुछ विशेष पर्वों, मेलों तथा त्यौहारों के अवसर पर भिखारी लोग व्यवस्थित रूप में समूह बनाकर शहरों में प्रवेश करते हैं तथा निश्चित समय बाद वहाँ से पुनः चले जाते हैं। इन संगठनों के भी अपने कुछ नियम होते हैं। प्रत्येक सदस्य को उनका पालन करना आवश्यक होता है। 

ऐसे समूहों में विभिन्न सदस्यों की स्थिति में एक निश्चित संस्तरण होता है तथा प्रत्येक व्यक्ति श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण के द्वारा अपनी भूमिका का निर्वाह करता है। 

इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि भिखारियों में अधिकारों का केन्द्रीकरण, सदस्यों के बीच संस्तरण, श्रम-विभाजन, विशेषीकरण, व्यावसायिक प्रशिक्षण, पारस्परिक सहयोग, विपत्तियों के विरुद्ध संरक्षण तथा नियमों की व्यवस्था आदि वे सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं, जो किसी भी व्यावसायिक संगठन के लिए आवश्यक समझी जाती है।

Related Posts