वर्ग संघर्ष सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए

विश्व के राजनीतिक विचारकों में मार्क्स ही ऐसा लेखक है, जिसने सर्वप्रथम समाजवाद के वैज्ञानिक स्वरूप को प्रस्तुत किया है। साम्यवादी व्यवस्था को छोड़कर उसने प्रत्येक व्यवस्था में दो ऐसे वर्गों के अस्तित्व को स्वीकार किया है जिनके हित परस्पर विरोधी रहे हैं। 

उसका वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त उसके इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के सिद्धान्त का आवश्यक परिणाम है। इसके फलस्वरूप ही उसने अपने सिद्धान्त में वर्ग संघर्ष को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है।

वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त से तात्पर्य - वर्ग से तात्पर्य एक ऐसे मानव समूह से है जिसके सदस्यों के परस्पर हित समान हों। इसी प्रकार पर मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धान्त का अर्थ है कि, “समाज की एक अवस्था से दूसरी अवस्था की ओर प्रगति उत्पादन प्रणाली के आधार पर संगठित दो प्रमुख वर्गों के मध्य सत्ता के लिए संघर्ष द्वारा हुई है। " 

मार्क्स के अनुसार, “आधुनिक समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है।” क्योंकि हर समय दो सामाजिक वर्ग पाये जाते हैं जिनमें से एक वर्ग सदैव ही विशेषाधिकारों से युक्त रहकर उत्पादन के साधनों का उपभोग करता रहा है। इस वर्ग को ही पूँजीवादी वर्ग कहा जाता है। 

यह दूसरे वर्ग, अर्थात् बहुसंख्यक श्रमिकों का शोषण करता है। जो अपने श्रम से पूँजीवादियों के कच्चे माल को उपयोगी माल में परिवर्तित करता है। इन दोनों वर्गों में सदा से ही संघर्ष रहा है। यद्यपि दोनों वर्गों को एक-दूसरे की आवश्यकता होती है, परन्तु दोनों के हित परस्पर विरोधी रहे हैं।

वर्ग - संघर्ष एवं पूँजीवाद का अन्त - पूँजीवादी व्यवस्था में विश्वास करने वाले व्यक्ति अपने उद्योगों को एक ही स्थान पर केन्द्रित रखना चाहते हैं। फलस्वरूप श्रमिक अथवा शोषित वर्ग में एकता की भावना का संचार हुआ और वे पूँजीवादी व्यवस्था के लिए एक अभिशाप बन गये । 

मार्क्स के अनुसार, "जैसे-जैसे व्यवसाय में वृद्धि होगी, वैसे-वैसे ऐसे लोगों की संख्या में कमी आती जायेगी जो अपना धन व्यवसाय में लगा सकें। इस प्रकार बड़े पूँजीपतियों की संख्या कम होगी तथा छोटे-छोटे पूँजीपति अपने कष्टों को दूर करने के लिए श्रमिकों में शामिल हो जायेंगे।”

की पूँजीवादी वर्ग के सम्बन्ध में मार्क्स का यह भी कहना है कि, "यह वर्ग अपने विनाश का साधन स्वयं एकत्रित करता है।” क्योंकि इसकी प्रमुख विशेषता मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति न होकर लाभ प्राप्त करने के लिए ही उत्पादन करना होता है। 

यह उद्देश्य ही उन्हें श्रमिकों का शोषण करने के लिए प्रेरित करता है और वे श्रमिकों को उनके श्रम तुलना में कम मजदूरी प्रदान करते हैं। इसके फलस्वरूप ही दोन वर्गों में संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। क्षमता की वृद्धि के फलस्वरूप पूँजीपतियों में अधिक लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है। 

अतः वे समस्त विश्व में अपना बाजार बनाने की चेष्टा करते हैं और अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उनके द्वारा यातायात के साधनों का विकास किया जाता है जिससे सम्पूर्ण विश्व के श्रमिक परस्पर एक-दूसरे के निकट आते हैं और उनमें संगठन एवं संघर्ष की भावना तीव्र हो जाती है। 

इस प्रकार दोनों के मध्य उत्पन्न संघर्ष अन्तर्राष्ट्रीय रूप धारण कर लेता है।" मार्क्स के अनुसार, “ श्रमिकों का कोई देश नहीं होता । अतः समस्त विश्व के श्रमिक एक हो जाओ।"

मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त

मार्क्स ने साम्यवादी घोषणा पत्र में लिखा है कि, “अब तक के सम्पूर्ण समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का ही इतिहास है। स्वतन्त्र व दास, कुलीन व साधारण लोग, भूमिगत सिर्फ, संघर्ष के अधिकारी और श्रमिक, एक शब्द में घोषणा करने वाले और शोषित सदैव एक-दूसरे के विरोधी रहे हैं। वे कभी प्रत्यक्ष रूप से और कभी परोक्ष रूप से निरन्तर युद्ध कर रहे हैं । "

वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त की व्याख्या - मार्क्स की धारणा थी कि इतिहास का आधार भौतिकवाद है और वर्ग - संघर्ष, इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या का ही अंश है। मार्क्स के अनुसार प्रत्येक काल में और देश में दो वर्ग- आर्थिक व सामाजिक शक्ति से संघर्ष करते रहे हैं। इस संघर्ष के द्वारा ही समाज की उन्नति होती है।

वर्ग-संघर्ष तथा पूँजीवादी अवस्था - मार्क्स का कहना है कि, पूँजीवादी अवस्था में वर्ग-संघर्ष आवश्यक है। मार्क्स कहता है कि “पूँजीपति श्रमिकों को कम देना चाहता है और काम अधिक लेना चाहता है । इस शोषण के विरुद्ध जाग्रत होने पर श्रमिक वर्ग-संघर्ष करता है। 

इस संघर्ष में मार्क्स श्रमिकों की विजय निश्चित करता है, क्योंकि उनकी संख्या बहुत अधिक है। इस संघर्ष के पश्चात् ही वर्गविहीन व राज्यविहीन समाज की स्थापना होगी।”

मार्क्स के अनुसार यद्यपि पूँजीवादी का विनाश स्वतः आवश्यक है, पर फिर भी उसके शीघ्र विनाश के लिए मार्क्स ने इस क्रान्ति (वर्ग-संघर्ष) के लिए आव्हान किया है। साम्यवादी घोषणा पत्र में मार्क्स ने लिखा है कि, “साम्यवादियों को अपने विचारों और उद्देश्यों को छिपाने से घृणा है। 

वे खुले तौर पर घोषणा करते हैं कि उनका उद्देश्य, वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों को बलपूर्वक समाप्त करके ही प्राप्त किया जा सकता है। यदि शासक वर्ग साम्यवादी क्रान्ति से काँपता है, तो उसे काँपने दो। श्रमिकों के पास अपनी बेड़ियों को खोने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उन्हें समस्त संसार को जीतना है। समस्त संसार के श्रमिकों एक हो जाओ।”

वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त की आलोचना

(1) दो वर्गों का सिद्धान्त गलत है- मार्क्स समाज में केवल दो वर्गों की ही चर्चा करता है। आलोचकों का कहना है कि वह समाज के तृतीय वर्ग को भूल जाता है। यह तृतीय वर्ग है–समाज का मध्यम वर्ग, यह समाज का बुद्धिजीवी वर्ग कहलाता है। 

वकील, इंजीनियर, डॉक्टर, अध्यापक सभी इसी वर्ग में आते हैं। यह भी समाज में अपनी महत्त्वपूर्ण निर्णायक भूमिका का निर्वाह करता है, इस वर्ग की सामान्यताएँ तथा सामाजिक अवधारणा अन्य दोनों वर्गों से भिन्न होती हैं। मध्यम वर्ग की मार्क्स ने उपेक्षा की है।

(2) सामाजिक जीवन का मूल तत्त्व वर्ग-संघर्ष नहीं है - मार्क्स वर्ग संघर्ष को सामाजिक जीवन का मूल तत्त्व कहता है, किन्तु इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। वर्ग-संघर्ष यदि मानव-समाज का मूल तत्त्व होता तो वह कभी का ही समाप्त हो गया होता। वर्ग-संघर्ष की अपेक्षा मानव-समाज प्रेम व सहानुभूति पर टिका हुआ है। 

औद्योगिक क्षेत्र में ही भी वस्तुओं के उत्पादन में मालिक और श्रमिक दोनों के सहयोग की आवश्यकता होती है। इसलिए मार्क्स ने केवल वर्ग-संघर्ष को प्रधानता के सहयोगी तत्त्व की उपेक्षा की है।

(3) सामाजिक और आर्थिक वर्ग एक ही नहीं हैं - मार्क्सवादी विचारधारा की अन्य भूलों की तरह यह भी एक महत्त्वपूर्ण भूल है कि वह सामाजिक एवं आर्थिक वर्गों को एक मान बैठा है। समाज को सही रूप से समझने के लिए जाति, धर्म, शिक्षा, व्यवसाय, वर्ग, योग्यता तथा सामाजिक स्तरों को भी समझने की आवश्यकता है।

(4) क्रान्ति श्रमिक वर्ग के स्थान पर बुद्धिजीवी वर्ग से ही सम्भव है। मार्क्स श्रमजीवी वर्ग के अधिनायकत्व की बात कहता है, किन्तु मार्क्स यह भूल जाता है कि मानवीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि जो भी क्रान्तियाँ हुई हैं उनका नेतृत्व श्रमिक वर्ग द्वारा नहीं, बल्कि बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा किया गया है। लेनिन ने भी एक जगह पर इसे स्वीकार किया है। वर्गीयता से राष्ट्रीयता की भावना अधिक प्रबल होती है।

(5) समस्त इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास नहीं है - सम्पूर्ण इतिहास को वर्ग-संघर्ष का इतिहास कहना एक भारी भूल है। डॉ. राधाकृष्णन ने समीक्षा करते हुए ठीक कहा है, “इतिहास केवल वर्ग-संघर्षों का लेखा मात्र नहीं है। 

भारत में हिन्दू-मुसलमानों की समस्या अथवा आयरलैण्ड में कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेन्टों की समस्या वर्ग-संघर्षों की समस्या नहीं है। वर्ग-संघर्ष की धारणा का मूल्यांकन करते हुए कैरयू हण्ट ने कहा है, "मार्क्स का यह विचार कि मनुष्यों के समस्त झगड़े वर्ग-संघर्ष से उत्पन्न होते हैं। 

यद्यपि आम लोगों को यह विश्वास दिलाने में कि उनका दुर्भाग्य पूँजीवादी व्यवस्था के कारण है, जो सर्वहारा वर्ग की विजय के साथ ही समाप्त हो जायेगा, किन्तु एक वैज्ञानिक धारणा के रूप में एक मिथ्या है।

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