मैकियावेली के धर्म एवं राजनीति संबंधी विचारों को स्पष्ट कीजिए

मैकियावेली के विचारों की सबसे प्रमुख विशेषता राजनीति को धर्म और नैतिकता के प्रभाव से मुक्त करना है। मैकियावेली की यही विशेषता उसे प्राचीन एवं मध्यकालीन विचारकों से अलग कर देती है। 

मैकियावेली के पहले यूनानी तथा मध्य युग की राजनीतिक विचारधारायें धर्म तथा नैतिकता के सिद्धान्तों पर आधारित थीं। प्लेटो राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र का ही एक अंग मानता था और अरस्तू भी राज्य को नीतिशास्त्र के लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक साधन मानता था । 

राजनीति के क्षेत्र में सर्वप्रथम मार्सिलियो ने धर्म-निरपेक्ष विचारधारा का प्रतिपादन किया था किन्तु वह धर्म को राजनीति से पृथक् नहीं करता। जन्म से रोमन कैथोलिक होने के बाद भी मैकियावेली ईसाई धर्म के प्रति उदासीन था। इसका कारण, उसकी दृष्टि, सामाजिक और राजनीतिक थी। 

मैकियावेली के शब्दों में, "ईसाई धर्म ने अच्छे मनुष्यों को उन मनुष्यों का शिकार बना दिया जो अत्याचारी और अन्यायी हैं।"

ईसाई धर्म के प्रति उदासीन रुख अपनाने वाला मैकियावेली निम्न तीन कारणों से ईसाई चर्च का परम शत्रु बन गया, क्योंकि वह पोप को इटली की राजनीतिक एकता के मार्ग में बाधक मानता था

1. इटली के तत्कालीन निवासी पोप के दरबार की भ्रष्टता के कारण पूर्ण रूप से अधार्मिक और अनैतिक हो गये थे।

2. चर्च के कारण इटली अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया था । 

3. पोप ने इटली के अनेक प्रदशों पर अधिकार कर रखा था और उसमें उनको अपने आधिपत्य में रखने की शक्ति नहीं थी ।

वास्तव में मैकियावेली ईसाई धर्म और चर्च में भक्ति भाव न रखते हुए भी न तो धर्म से घृणा करता था न धर्म को अस्वीकार करता था । विद्वान् कैटलिन के शब्दों में, “मैकियावेली धर्म को अस्वीकार नहीं करता है वरन् सार्वभौमिक ईसाई धर्म को अस्वीकार करता है । "

अन्य मध्ययुगीन विचारकों ने भी किसी-न-किसी रूप में धर्म व राजनीति को संयुक्त माना है। मैकियावेली ही पहला विचारक है जिसने धर्म को राजनीति से पूर्णतया पृथक् क दिया है।

मैकियावेली इटली में धर्म का वैसा ही उपयोग चाहता था, जैसा कि प्राचीन रोम गणतन्त्र में किया गया था। उसे धार्मिक सिद्धान्तों की सत्यता से कोई विरोध नहीं . क्योंकि उसका धर्म के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण था ।

प्रोस्ट्रास ने लिखा है, "धर्म का अर्थ ईश्वर के अटल नियमों का पालन करना । है वरन् परिस्थितियों के अनुकूल व्यवहार करना है । "

मैकियावेली धर्म को शक्तिशाली हथियार मानता था और अपने चिन्तन में उसने यही हथियार शासकों को सौंपा है। शासक इस शस्त्र के द्वारा जनता को नियंत्रित कर राज्य को संगठित कर सकता है। 

अतः मैकियावेली धर्म को राज्य के अन्तर्गत रखना चाहता है। वह धर्म को राज्य के उद्देश्यों को प्राप्त करने के साधन के रूप में मानता है। वह धर्म के पेगनवादी स्वरूप को मानता है और ईसाई धर्म के सिद्धान्तों को अस्वीकार करता है। मैकियावेली धर्म-निरपेक्षतावादी है। 

वह धर्म को राज्य में निरन्तर स्थान प्रदान करता है परन्तु धार्मिक एवं राजनीतिक सिद्धान्तों को एक-दूसरे से पृथक् कर देता है। इस बात को हम कैटलिन के शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं

"मैकियावेली राजनीति और धार्मिक सिद्धान्तों में स्पष्ट अन्तर करता है । वह धार्मिक संस्थाओं को राज्य की स्थिरता और वीरता में भावात्मक सहायता देने के लिये राजनीतिज्ञ के साधन के रूप में मानता है।"

मैकियावेली के नैतिकता सम्बन्धी विचार - (द्वैध नैतिकता का सिद्धान्त ) राजनीतिशास्त्र शताब्दियों तक धर्म का अंग बना रहा। मैकियावेली के पूर्व सभी लेखकों ने धर्म और नैतिकता के आधार पर ही राजनीतिक विचारों की समीक्षा की थी। मैकियावेली प्रथम लेखक था जिसने राजनीति को नैतिकता से भी स्पष्ट रूप से अलग कर दिया ।

सर्वप्रथम अरस्तू की 'पॉलिटिक्स' में राजनीति को नैतिकता से अलग करने का प्रयास किया गया था। उसने पृथकता की स्पष्ट घोषणा नहीं की थी। मैकियावेली ने लिखा है, "मेरा विचार है कि हमारे धार्मिक सिद्धान्तों के कारण मनुष्य भीरु (कायर) हो गये हैं इसलिये दुष्ट मनुष्य उन पर सरलता से अधिकार कर लेते हैं।"

मैकियावेली यह मानता था कि ईसाई धर्म के सिद्धान्तों और उनके द्वारा निर्मित नैतिकता का इटली की राजनीति पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। अतः उसने समकालीन इटली की जनता की अनैतिकता को उसके पतन का कारण बताया ।

मैकियावेली के धर्म और नैतिकता सम्बन्धी विचारों के कारण उसे अनैतिक या अन्य नहीं कहा जा सकता। इस सम्बन्ध में प्रो. डनिंग का यह कथन सत्य है कि, "मैकियावेली अधार्मिक न होकर धर्म-निरपेक्ष है, वह अपनी राजनीति में अनैतिक न होकर नैतिकता निरपेक्ष है।”

मैकियावेली की द्वैध नैतिकता का सिद्धान्त – यह इस मान्यता पर आधारित है कि, "कोई भी कार्य या वस्तु न तो बिल्कुल अच्छी होती है न बुरी ।" उस कार्य या वस्तु की अच्छाई या बुराई का निर्णय वह इस आधार पर करता है कि उससे राज्य का कोई हित होता है या नहीं। 

जो राज्य के लिये उपयोगी है वही केवल नैतिक है। मैकियावेली नैतिकता के दो मापदण्ड निर्धारित करता है - एक शासक के लिये, दूसरे प्रजा के लिये। उसका कहना है कि शासक का यह अधिकार है कि राज्य की उद्देश्य पूर्ति के लिये जो भी साधन उचित समझे उनका उपयोग करे। 

नरेश के लिये प्रत्येक साधन का औचित्य सिद्ध करने के लिये केवल एक ही कसौटी है, और वह है- उसकी सफलता। इसके विपरीत प्रजा को सद्गुण सम्पन्न होना चाहिए। राजा की आज्ञापालन करना ही उसका कर्त्तव्य है।

मैकियावेली के अनुसार राजा के लिये नैतिकता—मैकियावेली राजा को परम्परागत नैतिकता से ऊपर रखता है। राजा नैतिक बन्धन से स्वतन्त्र है। राज्य की सफलता के लिये सभी प्रकार के साधन उचित हैं। उसी के शब्दों में, "साध्य, साधन का औचित्य बताता है। 

अतः राजा का उद्देश्य विजय प्राप्त कर राज्य को सुरक्षित रखना होना चाहिये। उसके साधन सदैव आदरणीय समझे जायेंगे और प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उनकी प्रशंसा की जायेगी।”

मैकियावेली के चिन्तन का लक्ष्य – मैकियावेली के चिन्तन का मुख्य लक्ष्य राज्य की रक्षा और उसकी सीमा का विस्तार है, जबकि नैतिकता का उद्देश्य मनुष्य का नैतिक विकास करना होता है। अतः उद्देश्य की इस भिन्नता के कारण राज्य और व्यक्ति को एक ही स्तर पर नहीं रखा जा सकता। 

मैकियावेली चाहता है कि साधारण रूप से शासकों को धर्म और नैतिकता में आस्था प्रकट करनी चाहिए, किन्तु यदि उससे राज्य की सुरक्षा को ही खतरा उत्पन्न हो जाये तो उसे राज्य के हितों को ध्यान में रखते हुए उसे नैतिकता से अलग होकर कार्य करने में संकोच नहीं करना चाहिए। शासक को राज्य के हित में सभी प्रकार के साधन अपनाने चाहिये ।

मैकियावेली के अनुसार, "सच्चा शासक वही है जो शेर की तरह शक्तिशाली और लोमड़ी की तरह चालाक है। उसे पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, लोक-परलोक, अच्छा-बुरा, शत्रु-मित्र आदि दृष्टिकोणों का दास नहीं होना चाहिए, क्योंकि उसके लिये ये वस्तुएँ महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, महत्त्वपूर्ण है - राज्य सुदृढ़ता। उसके अनुसार साध्य की प्राप्ति के लिये साधनों की नैतिकता के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए।" 

वह लिखता है कि, "राज्य किसी की नैतिकता को नहीं जानता। जो कुछ वह करता है वह न तो नैतिक है और न अनैतिक प्रत्युत वह नैतिकता रहित है।” सुरक्षा और

क्या मैकियावेली अनैतिक था ? मैकियावेली को अनैतिक कहना गलत है। उसके बजाय उसे नैतिकता रहित विचारक कहा जाना चाहिए। मैक्सी के अनुसार, “राजनीति की कला एवं शासन के सम्बन्ध में किसी कार्य के स्वरूप के बारे में निर्णय लेने की एकमात्र कसौटी उससे निकलने वाला परिणाम है। 

अतः परिणाम ही एक कार्य की अच्छाई और बुराई का मापदण्ड है।" अतः मैकियावेली नैतिक और धार्मिक भावनाओं का आदर वहीं तक करता है जहाँ तक वे राज्य की शक्ति और हित के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। 

मैकियावेली दोहरी नैतिकता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। उसके अनुसार राजा के लिये नैतिकता के मानदण्ड अलग हैं और नागरिकों के लिये नैतिकता के अलग मानदण्ड हैं। 

जो बात अर्थात् झूठ बोलना या चोरी करना जनता के लिये अनैतिक हैं, परन्तु राजा राज्य की सुरक्षा के हित में झूठ बोल सकता है और महत्त्वपूर्ण दस्तावेज की भी चोरी करा सकता है। राज्य की सुरक्षा के हित में यदि यह आवश्यक है तो राजा के लिये ये कार्य अनैतिक कार्य नहीं माने जायेंगे ।

सिद्धान्त की आलोचना मैकियावेली ने अपने राजनीतिक दर्शन में धर्म और नैतिकता की घोर उपेक्षा की है। उसका चिन्तन इटली की तात्कालिक परिस्थितियों में इतना सीमित हो चुका था कि वह मानव समाज में इसका सही महत्त्व आँकने में असमर्थ था। 

इस सम्बन्ध में विद्वान् सेबाइन ने लिखा है कि, "यह निश्चित है कि 16वीं सदी के प्रारम्भ में मैकियावेली ने यूरोपीय विचारधारा को बिल्कुल गलत रूप में चर्चित किया। उसकी दो पुस्तकें लिखी जाने के 10 वर्ष के भीतर ही प्रोटेस्टेण्ट धार्मिक सुधार आन्दोलन के कारण राजनीति और राजनीतिक चिन्तन मध्य युग की अपेक्षा धर्म से अधिक सम्बद्ध हो गया ।”

डॉ. मूरे ने मैकियावेली की विचारधारा के सम्बन्ध में लिखा है कि, "मैकियावेट' स्वप्नदर्शी थे, पर दूरदर्शी नहीं थे। उन्होंने इस दृष्टिकोण से कभी भी चीजों को देख का प्रयत्न नहीं किया कि वे कैसी होनी चाहिए ? उन्होंने हमेशा उनको यथार्थ रूप में देखा। उन्होंने चालाकी को राजनीतिक कल्पना मान लेने की भूल की है ।”

मैकियावेली का महत्त्व – बीसवीं शताब्दी में हम मैकियावेली के दृष्टिकोण की भर्त्सना करते हैं और उसके द्वारा बताये गये साधनों को अनैतिक कहकर उसके नाम को धूर्तता और चालाकी से सम्बद्ध करते हैं। परन्तु इसी शताब्दी के तानाशाहों ने अनेक घृणित साधनों का प्रयोग करके मानवता को ही कलंकित किया है, जिनके कारनामों के सामने मैकियावेली की धूर्तता कहीं नहीं टिकती।

मैकियावेली पर यह आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए कि उसने राजनीति का धर्म और नैतिकता से सम्बन्ध विच्छेद कर भ्रष्ट कर दिया। राजनीति तो पहले ही भ्रष्ट हो चुकी थी ।

राजनीति और धर्म के सम्बन्ध में मैकियावेली ने यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाकर प्रशंसनीय कार्य किया है। उसके इस कार्य की सराहना करते हुए ऐवकोन ने लिखा है कि, "मैकियावेली ने अनैतिकता और निर्दयता के उस अगाध गर्त की ओर संकेत करके जिसमें मनुष्य शक्ति प्राप्त करने के लिये समा जायेंगे, मानव जाति की सेवा की है।" 

इसी प्रकार प्रोफेसर मैक्सी ने भी कहा है कि, “राजनीति का नैतिकता से विच्छेद और सामयिकता के नियम को राजनीति की कला का निर्देशांक तत्व बनाना मैकियावेली का अनगढ़पन था वह राजनीति विज्ञान की एक अमूल्य सेवा थी ।”

वास्तव में राजनीति का धर्म से पृथक्करण या द्वैध नैतिकता का सिद्धान्त ही मैकियावेली की राजनीतिक चिन्तन को मौलिक या महत्वपूर्ण देन है।

प्रश्न 14. मैकियावेली के राज्य एवं शासन सम्बन्धी विचारों का वर्णन कीजिए। 

उत्तरमैकियावेली के राज्य विस्तार सम्बन्धी विचार 

मैकियावेली की राज्य विस्तार या साम्राज्यवाद सम्बन्धी धारणा प्लेटो से एकदम विपरीत है। फोस्टर के शब्दों में, "प्लेटो के लिए राज्य विस्तार की भावना जहाँ राज्य के रोग का लक्षण है, वहाँ मैकियावली के लिए राज्य विस्तार, राज्य के स्वास्थ्य का लक्षण है।” 

मैकियावली का कहना है कि, राज्य का क्रमिक विस्तार और विस्तार होना आवश्यक है, नहीं तो वह स्वयं नष्ट हो जायेगा। मैकियावेली का मत है, 

"एक राज्य यो तो विस्तृत रहे या समाप्त हो जाय। इसका विस्तार अपने ही देश में अधिक सरल है, क्योंकि यहाँ भाषा और संस्कृति की एकता के आधार पर समस्त निवासियों को एकतन्त्रीय सरकार के संरक्षण में लाना अत्यन्त सरल होता है ।”

मैकियावेली राज्य विस्तार की अपनी धारणा को मानव स्वभाव के आधार पर सही सिद्ध करना चाहता है। वह कहता है कि मानव-स्वभाव पारे की तरह है, जो बढ़ते रहना चाहता है। इसी तरह राज्य को भी बढ़ते रहना चाहिए। 

जो चीज स्थिर रहेगी, वह अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकती है। वह कहता है कि रोमन साम्राज्य के पतन का यही मुख्य कारण था कि उसके शासकों ने उसका विस्तार नहीं किया, उसे स्थिर रखा। 

उसने 'प्रिन्स' तथा 'डिसकोर्सेज' में इसी पर बल दिया है कि राज्य में अधिकृत प्रदेश को निरन्तर बढ़ाने की आवश्यकता है। “राज्य चाहे गणतन्त्रात्मक हो या राजतन्त्रात्मक, उसमें विस्तार की प्रवृत्ति का होना आवश्यक है।”

मैकियावेली के शक्ति या राज्य विस्तार सम्बन्धी विचारों से स्पष्ट है कि वह चाहता है कि राज्य निरन्तर अपनी शक्ति में वृद्धि करता रहे। इस सम्बन्ध में उसने मानव-स्वभाव का सहारा लिया है। वह कहता है कि, मानव स्वभाव से ही विकासशील है और वह बराबर बढ़ते रहना चाहता है। 

व्यक्ति एक चीज को प्राप्त कर दूसरी, फिर तीसरी और इस प्रकार निरन्तर वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा रखता है। जैसे ही उसकी इन इच्छाओं का अन्त हो जाता है, तो व्यक्ति का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। मैकियावेली कहता है कि, राज्य की स्थिति भी बिल्कुल ऐसी ही है । 

यदि बड़े से बड़ा राज्य भी अपना विस्तार न करे तो वह समाप्त हो सकता है; जैसे कि रोमन साम्राज्य का पतन हो गया। मैकियावेली ने अपने देश इटली की दुर्दशा को ध्यान में रखते हुए कहा है कि एक ही राजा के छत्र के नीचे शासितों की संख्या निरन्तर बढ़नी चाहिए, विशेष रूप से उस समय जबकि केन्द्रीय राज्य सत्ता को अपने ही देश के किसी भू-भाग को अपने अन्तर्गत लाना हो ।

संक्षेप में, मैकियावेली दो प्रकार से राज्य विस्तार की बात करता है

(1) अपने देश के किसी प्रान्त अथवा क्षेत्र पर एक ही सरकार का शासन लागू करना, और

(2) अन्य किसी पड़ौसी राज्य को अपने स्वामित्व में ले आना । 

मैकियावेली के अनुसार, राजतन्त्र और गणतन्त्र दोनों में ही राज्य विस्तार की आवश्यकता है। राजतन्त्र में राजा की महत्त्वाकांक्षा के कारण और गणतन्त्र में जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति के कारण राज्य विस्तार की आवश्यकता है। 

मैकियावेली का विचार है कि, राज्य - विस्तार के लिए राजा या शासक को साम, दाम, दण्ड, भेद आदि सभी नीतियों से काम लेना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो सेना का भी प्रयोग करना चाहिए, परन्तु इसके लिए किराए की सेना नहीं, वरन् नागरिकों की सुशिक्षित सेनाएँ होनी चाहिए। 

इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि, इटली की सामरिक पराजयों के कारणों का निदान करते हुए मैकियावेली ने रियासती सेनाओं एवं किराये पर लड़ने वाली सेनाओं के बहुत दोष बताये हैं। 

मैकियावली का कहना था कि, यदि इटली को स्वतन्त्रता प्राप्त करनी है, एक स्वतन्त्र राष्ट्र का निर्माण करना है तो उसे भी फ्रांस आदि देशों की तरह राष्ट्रीय सेनाओं का संगठन करना होगा ।

मैकियावेली का राज्य की सुरक्षा का सिद्धान्त

राज्य का स्थायित्व-शक्ति-संचय और उसका उपयोग करने के बाद मैकियावेल उसके स्थायित्व, अर्थात् सुरक्षा की बात कहता है। मैकियावेली के अनुसार, राज्य का सुरक्षित रखना शासक का पहला कार्य है। 

शासक को राज्य की सुरक्षा के लिए झूठ, छल, कपट, विश्वासघात जैसे किसी भी अनैतिक कार्य से नहीं घबराना चाहिए। इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि शक्ति के आधार पर फ्रांस और स्पेन विजय प्राप्त कर रहे थे और वे इटली के लिए खतरा बने हुए थे,। 

इसीलिए मैकियावेली भी इटली को एक शक्तिशाली व सुदृढ़ राज्य के रूप में देखना चाहता था । इसी उद्देश्य के लिए उसने शासक और प्रजा के लिए नैतिकता का दोहरा या अलग-अलग मापदण्ड निर्धारित किया है और राजा या शासक का प्रत्येक वह कार्य उचित या नैतिक ठहराया है, राज्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।

'दि प्रिन्स' में शासकों के लिए दिये गये निर्देश (शासकों के कर्त्तव्य)  मैकियावेली ने विस्तारपूर्वक बताया है कि शासक कौन-से साधनों से राज्य को स्थायित्व या सुरक्षा प्रदान कर सकता है

(1) शासक को प्रजा की सम्पत्ति का अपहरण नहीं करना चाहिए-मैकियावेली है कि, राज्य की सुरक्षा और स्थिरता की दृष्टि से शासक को सर्वप्रथम अपनी प्रजा की सम्पत्ति की सुरक्षा करनी चाहिए, उसे सम्पत्ति को नहीं हड़पना चाहिए क्योंकि मनुष्य को सम्पत्ति बहुत प्यारी होती है। 

मैकियावेली कहता है, "मनुष्य अपने पिता की हत्या को भूल सकता है परन्तु सम्पत्ति के अपहरण को नहीं भूल सकता।" इसका अर्थ यह हुआ कि यदि राजा किसी व्यक्ति को कठोरतम दण्ड देना ही चाहता है तो उसको भले ही मृत्यु दण्ड दे दे, परन्तु उसकी सम्पत्ति न छीने ।

(2) 'शेर' और 'लोमड़ी' का आचरण-मैकियावेली कहता है, “मनुष्य मानवता और पशुता के अंशों से मिलकर बनता है अतः राजा को इन दोनों (मनुष्य और पशु) के साथ व्यवहार करने के उपायों का ज्ञान होना चाहिए। लोमड़ी की चालाकी और शेर की शूरता रखते हुए राजा को अपने उद्देश्यों पर बढ़ते जाना चाहिए।

उसे किसी भी प्रकार अपना काम निकालना चाहिए। राजा को एक नम्बर का जोगी और बहुरूपिया होना चाहिए......।” संक्षेप में, राजा को चापलूस, खुशामदी और मूर्ख बनाने की कला में पुण होना चाहिए।

(3) धार्मिकता का ढोंग-मैकियावेली राजा को धार्मिक बनने का भी उपदेश देता है, क्योंकि “धर्म के आदेश का पालन करना राज्यों की महानता का कारण है। इसी प्रकार धर्म की अवहेलना उसके विनाश का कारण हो जाती है।" 

परन्तु इससे मैकियावेली का अर्थ यह नहीं कि राजा स्वयं धर्म व नैतिकता के मार्ग पर चलें, उसे तो ऊपर से ही धार्मिक होने का ढोंग करना चाहिए। 

मैकियावेली यह भी कहता है कि, राजा को चाहिए कि वह धार्मिक अधिकारियों को न तो अधिक सुविधा दे और न उन्हें ऐसा अवसर दे कि वे राजा या राज्य के विरुद्ध षड्यन्त्र कर सकें। इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि मैकियावेली की दृष्टि में इटली की दुर्दशा का प्रमुख कारण ईसाई धर्म और उसके अधिकारी ही थे ।

( 4 ) बलवान सेना - मैकियावेली के अनुसार, राजा को अत्यधिक बलवान सेना रखनी चाहिए और उसे भाड़े के टट्टू विदेशी सिपाहियों पर कभी निर्भर नहीं रहना चाहिए, अपने ही देश के सिपाहियों की विश्वासपात्र सेना रखनी चाहिए। 

मैकियावेली ने ऐसा इसीलिए कहा है कि, उसने देखा था कि तत्कालीन इटली में विदेशी सिपाही विरोधियों की अपेक्षा अपने स्वामियों के लिए अधिक संकट पैदा कर रहे थे ।

(5) रूढ़ियों का पालन - जहाँ तक हो सके, शासक को समाज की परम्पराओं पर रूढ़ियों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा होने पर जनता का विरोध उभरकर आता है।

(6) अच्छे कार्य अपने हाथों से- राजा को अच्छे कार्य स्वयं अपने हाथों से करने चाहिए और लोगों को दण्ड देने जैसे बुरे या अप्रिय कार्य राज्य के अधिकारियों से कराने चाहिए, जिससे वह जनता द्वारा बदनामी से बच सके ।

(7) दयालु और क्रूरता - राजा को दयालु होते हुए भी यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके इस गुण का लोग अनुचित लाभ न उठायें। अतः आवश्यकता पड़ने पर उसे क्रूर होने से नहीं डरना चाहिए। अपनी सफलता के लिए उसे क्रूरता, विश्वासघात, अनैतिकता, अधार्मिक आदि सभी उपायों को ग्रहण करना चाहिए ।

(8) प्रजा का मनोरंजन - राजा को समय-समय पर प्रजा के मनोरंजन के लिए मेलों आदि की व्यवस्था करनी चाहिए और युद्ध में लूटे माल को प्रजा व सैनिकों में बाँट देना चाहिए ।

(9) चापलूसों से दूर - शासक को चापलूसों से बचना चाहिए। उसे केवल वही बात स्वीकार करनी चाहिए, जो उसे राज्य हित में उचित लगे ।

(10) मितव्ययी - राजा को प्रजा के धन को व्यय करने में मितव्ययी होना चाहिए। 

(11) राज्य का विकास - शासक को वाणिज्य और व्यवसाय की उन्नति में भी रुचि लेनी चाहिए तथा कृषि और विकास को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसकी उपेक्षा करने पर देश निर्धन और अशक्त हो जायेगा।

(12) योग्यता का प्रदर्शन - शासक को छोटे-छोटे राज्यों को हड़पकर जनता के सामने अपनी योग्यता और प्रतिभा का समय-समय पर परिचय देना चाहिए।

(13) राजा को अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए साहित्य, संगीत और कला के विकास की ओर भी ध्यान देना चाहिए।

(14) राजा को पड़ौसी राज्यों के साथ इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए कि वे मिलकर उसके राज्य पर आक्रमण नहीं कर सकें। दूसरी ओर उसे पड़ौसी राज्यों में संघर्ष की स्थिति में रुचि लेनी चाहिए और मध्यस्थता द्वारा उन पर अपना प्रभाव रखना चाहिए।

(15) मैकियावेली के अनुसार, जब शासक किसी नये राज्य पर अधिकार कर ले तो उसे वहाँ के पुराने संविधान में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए !

(16) राजा को जहाँ तक हो सके, कम-से-कम राजस्व वसूल करना चाहिए। 

( 17 ) राजा को तरह-तरह की आकर्षक योजनाओं द्वारा प्रजा के मस्तिष्क को अपने नियन्त्रण में रखना चाहिए ।

(18) शासक को अपनी प्रजा को उचित भाषण, आने-जाने आदि की स्वतन्त्रताएँ भी देनी चाहिए। मैकियावेली चाहता है कि शान्ति काल में जनता को शासन कार्य में भाग लेने का अवसर दिया जाना चाहिए। 

इस सन्दर्भ में कुक ने लिखा है कि, "मैकियावेली का 'प्रिन्स' जनहित के लिए तानाशाह है, स्वयं अपने सुख और के लिए निरंकुश शासक नहीं।” ला?

(19) शासक को स्त्रियों के सतीत्व को नष्ट नहीं करना चाहिए। 

(20) शासक को कठोर दण्ड एक ही बार देना चाहिए, परन्तु इच्छित वस्तुएँ लोगा को धीरे-धीरे देना चाहिए ।

स्पष्ट है कि मैकियावेली ने राज्य की सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये हैं। उसने अपने इस प्रकार के जो विचार बनाए, वह स्वयं के देश इटली की परिस्थितियों के अनुसार थे, परन्तु इनमें से अधिकांश निर्देश आज भी शासकों के लिए महत्वपूर्ण हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है।

मैकियावेली के अनुसार शासक के कर्त्तव्य- यद्यपि पिछले पृष्ठों से मैकियावेली द्वारा बताये गये शासक के कार्य भी स्पष्ट हो चुके हैं, फिर भी उन्हें एक स्थान पर एकत्रित के उल्लेख करना आवश्यक है। 'प्रिन्स' में मैकियावेली ने शासक के कुछ प्रमुख कर्त्तव्य इस प्रकार बताये हैं

(1) नागरिकों के जीवन की सुरक्षा प्रदान करना राज्य या शासन का प्रमुख कर्त्तव्य है।

(2) मैकियावेली भी अरस्तु की तरह धन व सम्पत्ति को व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक मानता है, अतः उसका विचार है कि शासक को लोगों की सम्पत्ति की सुरक्षा करनी चाहिए और उसका अपहरण नहीं करना चाहिए। 

जैसा कि पूर्व पृष्ठों में कहा जा चुका है, व्यक्ति अपने पिता की हत्या को भूल सकता है, परन्तु सम्पत्ति की हानि को नहीं ।

(3) मैकियावेली का कहना है, राज्य में स्त्रियों को समुचित आदर मिलना चाहिए। शासक को स्त्रियों के सतीत्व को नष्ट नहीं करना चाहिए।

(4) उपर्युक्त के अलावा शासक को प्रजा को सन्तुष्ट करने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करना चाहिए। उसे ऐसे कार्य करने चाहिए कि वह अपनी प्रजा में लोकप्रिय बने।

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