चीन की न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ

चीन की समस्त राज-व्यवस्था कार्ल मार्क्स, लेनिन और माओ के सिद्धान्तों पर आधारित है, अतः चीन की न्याय व्यवस्था, विधि और न्याय का आधार भी यही है । स्वाभाविक रूप से यह न्याय व्यवस्था पाश्चात्य न्याय-व्यवस्था से भिन्न है और इसकी विशेषताओं का उल्लेख निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है -

चीन की न्याय व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ बताइये । 

(1) कानून के सम्बन्ध में साम्यवादी मान्यता या 'वैधानिकता' का साम्यवादी सिद्धान्त–पश्चिमी प्रजातन्त्रीय देशों की मान्यता यह है कि राज्य और कानून समस्त जनता के हितों की रक्षा के साधन होते हैं, लेकिन साम्यवादी विचारधारा के अनुसार राज्य एक ऐसा यन्त्र है, जिसका कार्य एक विशेष प्रकार के सामाजिक संगठन की स्थापना व उसकी रक्षा करना है। 

उसके विचारानुसार पूँजीवादी सामाजिक संगठन की रक्षा पूँजीवादी राज्य द्वारा ही सम्भव होती है। चूँकि राज्य के कानून राज्य की आज्ञाएँ होती हैं, अतः कानून का स्वरूप भी राज्य के स्वरूप के अनुसार ही होता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, “कानून शक्तिशाली वर्ग की इच्छा मात्र होती है, जिसे अधिनियम का स्तर दे दिया जाता है । 

कानून के स्वरूप के विषय में जो उक्त साम्यवादी मान्यता है, उसी पर साम्यवादी चीन की कानूनी व्यवस्था भी आधारित है। वहाँ इस बात को स्वीकार नहीं किया जाता कि राज्य के आर्थिक तथा सामाजिक ढाँचे से अलग शाश्वत न्याय के किन्हीं सिद्धान्तों पर कोई कानूनी व्यवस्था आधारित हो सकती है । 

वह वस्तुतः यह मानकर चलती है कि कानून शासक वर्ग की इच्छा की अभिव्यक्ति के साधन मात्र होते हैं और एक समाजवादी राज्य में कानून ऐसे होने चाहिए, जिनसे श्रमिकों तथा उनके अधिनायकतन्त्र के हितों की सुरक्षा बनी रहे। 

अतः साम्यवादी चीन की विधि और न्याय सम्बन्धी धारणा में ‘प्राकृतिक कानून' अथवा 'राज्य के विरुद्ध सुरक्षा का व्यक्ति का अधिकार' जैसे विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। 

साम्यवादी चीन में इस विचार को मान्यता प्रदान की गयी है कि कानून सदा ऐसा होना चाहिए, जिससे साम्यवाद की जड़ें अधिकाधिक मजबूत हो सकें, चाहे उसके द्वारा व्यक्ति को पूर्णतया राज्य के अधीन क्यों न बना दिया जाय।

(2) न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को मान्यता नहीं- पश्चिमी प्रजातन्त्रों में शासन के अन्य अंगों से न्यायपालिका की पृथक्ता और न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता तथा निष्पक्षता विधि के शासन और नागरिक स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए नितान्त अपरिहार्य समझे जाते हैं और न्यायपालिका को राजनीतिक दबावों से मुक्त रखने के लिए व्यापक व्यवस्था की जाती है। 

लेकिन साम्यवादी देशों में न्यायपालिका के द्वारा व्यक्ति स्वातन्त्रय की रक्षा के स्थान पर समाजवादी व्यवस्था के रक्षक का कार्य किया जाता है। पश्चिमी प्रजातन्त्र इस मान्यता पर आधारित है कि व्यक्ति और राज्य के बीच न्यायोचित संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। 

लेकिन साम्यवादी विचाधारा, जिसे चीन में स्वीकार किया गया है, यह है कि सरकार जनता ही है और शासन के विरुद्ध किया गया कोई भी कार्य जनता के विरुद्ध किया गया कार्य होने के कारण 'क्रान्ति विरोधी' और 'प्रतिक्रियावादी' है।

व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका के समान ही न्यायपालिका का भी कर्त्तव्य है कि वह इस प्रकार के क्रान्ति विरोधियों और प्रतिक्रियावादियों का दमन करे। अतः न्यायाधीश अराजनीतिज्ञ होने के स्थान पर साम्यवादी दल के प्रमुख सदस्य होते हैं। 

सर्वोच्च जन न्यायालय के वर्तमान चेयरमैन चियांग हुआ साम्यवादी दल के पोलिट ब्यूरो के लम्बे समय से चले आ रहे सदस्य हैं और एक अवसर पर उन्होंने पुलिस को कहा था कि वह और अधिक क्रान्ति विरोधियों को उनके सामने लायें ।

प्रजातन्त्रीय देशों में न्यायाधीश के इस प्रकार के कथन को बहुत अधिक अनुचित ही समझा जायेगा। वस्तुतः चीन की समस्त न्याय व्यवस्था पर साम्यवादी दल का प्रभावी नियन्त्रण है। 

लाइन बारगर के शब्दों में चीन में भी सोवियत संघ की तरह न्यायालय को वर्गीय न्याय और राजनीतिक नीति का साधन समझा जाता है। इसे दो व्यक्तियों अथवा पक्षों के बीच उठने वाले कानूनी विवादों का निर्णय करने वाला स्वतन्त्र न्यायिक अंग नहीं समझा जाता ।

(3) लोक उत्तरदायित्व - पाश्चात्य राज-व्यवस्थाओं में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा की जाती है और वे व्यवस्थापिका या कार्यपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होते, लेकिन चीन में न्यायाधीशों के सम्बन्ध में लोक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को अपनाया गया है। 

अनुच्छेद 128 के अनुसार, “जन न्यायालय अपने-अपने स्तर पर जनवादी काँग्रेस और उनके स्थायी अंग (स्थायी समिति) के प्रति उत्तरदायी हैं। 

विभिन्न स्तरों पर जनवादी काँग्रेस द्वारा जनवादी न्यायालय के अध्यक्षों की नियुक्ति की जाती है और पदच्युति की जा सकती है।” व्यवस्थापिका के प्रति न्यायाधीशों का उत्तरदायित्व समाजवादी व्यवस्था वाले देशों का विशिष्ट सिद्धान्त है ।

(4) समझौते और मध्यस्थता की प्रणाली- चीन की न्याय प्रणाली की एक प्रमुख विशेषता समझौते और मध्यस्थता की प्रणाली है। सामान्य किस्म के झगड़ों का निबटारा करने के लिए प्राथमिक न्यायालय के निरीक्षण में 'समझौता समितियाँ स्थापित की जाती हैं।

इन समितियों में जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं और ये समितियाँ वादी और प्रतिवादी की सहमति से बहुत बड़े पैमाने पर छोटे-छोटे झगड़ों का निबटारा करती हैं। 

इससे न्यायालयों का कार्यभार कम हो जाता है तथा वादी और प्रतिवादी को भी लाभ पहुँचता है। इन समितियों के निर्णय की अपील न्यायालय में भी की जा सकती है ।

(5) कानूनी पेशे का समाजवादीकरण - साम्यवाद की स्थापना के पूर्व कोमिन्गतांग शासन-व्यवस्था में कानूनी पेशे के लोग सम्पत्तिशाली वर्ग से आते थे और इस कारण क्रान्ति के बाद शुरू के दिनों में कानूनी पेशे को शत्रुता की दृष्टि से देखा गया।  

लेकिन 1954 ई. के लगभग कानूनी पेशे के प्रति सरकारी रवैये में परिवर्तन हुआ । कानूनी पेशे से सम्बन्धित नियम बनाये गये और इस पेशे को सहकारी आधार पर गठित करते हुए ‘वकील संघों' का निर्माण किया गया।

इन संघों द्वारा 'कानूनी परामर्शदात्री कार्यालयों' की स्थापना की गयी। इन कार्यालयों की आय को सम्बन्धित वकीलों में उनके कार्य की मात्रा और योग्यतानुसार बाँट दिया जाता है। इस प्रकार कानूनी पेशे के सम्बन्ध में अर्द्ध-सरकारी व्यवस्था को अपनाया गया है ।

(6) एकीकृत न्याय प्रणाली- चीन की न्याय व्यवस्था का संगठन एकीकृत आधार पर किया गया है और 'जनवादी केन्द्रवाद' का सिद्धान्त न्यायपालिका पर भी लागू होता है। 

संविधान द्वारा सर्वोच्च जन न्यायालय, स्थानीय जन न्यायालय और विशेष न्यायालय, इन तीन-स्तरीय ढाँचे को एक ही सूत्र में पिरोया गया है। 

प्रोक्यूरेटोरियल विभाग किसी न्यायालय में मुकदमा ले जा सकता है और सर्वोच्च जन न्यायालय को स्थानीय न्यायालयों और विशेष न्यायालयों की कार्यवाही के निरीक्षण नियन्त्रण का अधिकार है। यह व्यवस्था समाजवाद, समाजवादी क्रान्ति और समाजवादी वैधानिकता को सुदृढ़ करने की दृष्टि से अपनायी गयी है। -

(7) न्यायाधीशों का निश्चित काल के लिए निर्वाचन - सामान्यतया ऐसा समझा जाता है कि न्यायाधीशों को कार्यपालिका द्वारा जीवनपर्यन्त या सेवा-निवृत्ति की आयु तक के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए, किन्तु चीन में न्यायाधीशों का वहाँ की व्यवस्थापिका, जनवादी काँग्रेस तथा उसकी स्थायी समिति के द्वारा 5 वर्ष की अवधि के लिए निर्वाचन किया जाता है ।

(8) न्यायिक पुनर्विलोकन नहीं- चीन की न्यायपालिका केवल स्वतन्त्र नहीं है, वरन् उसकी स्थिति भी महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसे संविधान और कानून की व्याख्या करने की वह शक्ति प्रदान नहीं की गयी है। 

जो सामान्यतया अन्य राज्यों में न्यायपालिका को प्राप्त होती है। चीन में कानूनों की व्याख्या करने की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान करने के बजाय जनवादी काँग्रेस की स्थायी समिति को प्रदान की गयी है। 

इस प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक और नागरिक अधिकारों के रक्षक के रूप में कार्य नहीं कर सकती है। न्यायपालिका की स्थिति को कमजोर बनाने वाला एक अन्य तथ्य यह है कि चीन में 'बन्दी प्रत्यक्षीकरण' की व्यवस्था नहीं है ।

(9) खुली न्यायिक कार्यवाही- संविधान में लिखा है कि चीन में जनवादी न्यायालयों के अधिवेशन गुप्त रूप से न होकर सब लोगों के सामने हों। जिन मुकदमों से देश की रक्षा खतरे में पड़ती है, केवल उनकी सुनवाई ही गुप्त रूप से की जा सकती है। 

वे मुकदमे जो खुले तौर पर होते हैं, उनमें जनता के किसी भी व्यक्ति को न्यायालय में न्यायाधीश सम्मुख विचार प्रस्तुत करने का अधिकार है। अपराधी को अपनी रक्षा का अधिकार के है। -

(10) स्थानीय भाषा में कार्य संचालन - सामान्यतया न्यायालयों में एक या दो भाषाएँ ही वैधानिक रूप से मान्य होती हैं, परन्तु चीन के नागरिकों को न्यायालयों में अपनी भाषा में अपना पक्ष प्रस्तुत करने की स्वतन्त्रता दी गयी है। 

यदि कोई व्यक्ति किसी स्थानीय न्यायालय में प्रयुक्त होने वाली भाषा से अनभिज्ञ है, तो न्यायालय उसके लिए दुभाषिये का प्रबन्ध करता है। क्षेत्रीय या स्थानीय न्यायालयों में कार्यवाही वहाँ की स्थानीय भाषा में चलायी जाती है है ।

चीन के न्यायालयों का संगठन एवं कार्य

संविधान के अनुसार चीन के जनवादी गणराज्य में तीन प्रकार के न्यायालय हैं(1) सर्वोच्च जन न्यायालय , (2) स्थानीय जन न्यायालय तथा (3) विशेष जन न्यायालय। 

इन न्यायालयों की रचना कानून द्वारा निर्धारित की जाती है। प्रत्येक वर्ग के न्यायालय का अपना एक अध्यक्ष होता है जिसका कार्यकाल 5 वर्ष होता है। सभी स्तर के जन न्यायालय अपने स्तर की जन काँग्रेस और उसके स्थायी निकाय के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

(1) सर्वोच्च जन न्यायालय

सर्वोच्च जन न्यायालय, चीन का सबसे बड़ा न्यायालय है, जिसमें एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष तथा अन्य न्यायाधीश होते हैं। इसका अध्यक्ष 5 वर्ष के लिए जनवादी काँग्रेस द्वारा निर्वाचित होता है और जनवादी काँग्रेस ही उसे पदच्युत भी कर सकती है। 

उपाध्यक्ष तथा अन्य न्यायाधीशों को जनवादी काँग्रेस की स्थायी समिति नियुक्त तथा पदच्युत करती है। न्यायाधीशों की संख्या संविधान द्वारा निश्चित नहीं की गयी है। इसमें एक दीवानी विभाग एक फौजदारी विभाग  तथा कुछ अन्य विभाग होते हैं, जिनकी आवश्यकता समझी जाय ।

संविधान में सर्वोच्च जन न्यायालय की शक्तियों एवं अधिकार क्षेत्र का विस्तृत विवेचन नहीं किया गया है। संविधान में केवल इतना ही कहा गया है कि, “सर्वोच्च जन न्यायालय उच्चतम न्यायिक संगठन है और यह स्थानीय न्यायालयों और विशेष न्यायालयों के न्यायिक कार्यों की देख-रेख करेगा ।

सर्वोच्च जन न्यायालय को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं

(1) ऐसे अभियोग, जिन्हें कानून और आज्ञप्तियाँ इसे पहले सुनने के लिए आज्ञा दें। इसे ही न्यायालय का 'मौलिक क्षेत्राधिकार' कहा जा सकता है। 

(2) उच्चतर न्यायालयों तथा विशेष न्यायालयों के निर्णयों तथा आदेशों के विरुद्ध अपीलों तथा विरोधी या प्रत्यापतियों  को सुनता है। 

(3) उच्चतम जनवादी प्रोक्यूरेटोरेट के द्वारा 'न्यायिक निरीक्षण की प्रक्रिया' के अनुसार जो विरोध या प्रत्यापतियाँ इनके पास भेजी जायें। 

(4) चीन का सर्वोच्च जन न्यायालय अपने से निम्न न्यायालयों के कार्यों की देखभाल करता है ।

इस प्रकार चीन के सर्वोच्च जन न्यायालय की स्थिति भारत या संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में बहुत अधिक हीन है, क्योंकि इसे न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त नहीं है। 

इस प्रकार उसके द्वारा संविधान के व्याख्याकार या संरक्षक का कार्य नहीं किया जा सकता है। सर्वोच्च जन न्यायालय जनवादी काँग्रेस के प्रति या उसके सत्रावसान काल में स्थायी समिति के प्रति उत्तरदायी होता है। 

(2) स्थानीय जन न्यायालय

स्थानीय जन न्यायालयों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया है - (अ) बुनियादी या मूल जन - न्यायालय   (ब) मध्यवर्ती जन-न्यायालय , तथा (स) उच्चतर जन-न्यायालय 

(अ) बुनियादी या मूल जन-न्यायालय - बुनियादी या मूल जन न्यायायल काउण्टी, नगरपालिका एवं जिला स्तर पर स्थापित किये जाते हैं। इस प्रकार के प्रत्येक न्यायालय में एक अध्यक्ष, दो उपाध्यक्ष तथा अन्य न्यायाधीश होते हैं। 

फौजदारी और दीवानी अभियोग की सुनवाई हेतु अलग-अलग न्यायाधीशों की व्यवस्था की जाती है। परन्तु आवश्यक होने पर वे संयुक्त रूप से भी अभियोग सुन सकते हैं। मूल जन न्यायालय छोटे-छोटे मुकदमों को सुनता और निबटाता है। ऐसे अनेक छोटे-छोटे विवाद भी ये न्यायालय निबटाते हैं,

जिनमें मुकदमों की आवश्यकता नहीं होती है। ये न्यायालय समझौता समितियों और अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत न्याय प्रशासन की भी देखभाल करते हैं। अपने कार्यों के लिए यह न्यायालय अपने क्षेत्र की जन काँग्रेस के प्रति उत्तरदायी होता है ।

(ब) मध्यवर्ती जन न्यायालय - प्रान्तों, स्वायत्त प्रदेशों, केन्द्रीय सरकार के प्रत्यक्ष रूप से अधीन नगरपालिकाओं और स्वागत चाऊ  या क्षेत्रों तथा बड़ी नगरपालिकाओं में मध्यवर्ती जन न्यायालय स्थापित किये जाते हैं। 

इस प्रकार के प्रत्येक न्यायालय में एक प्रधान, एक या दो उप-प्रधान, खण्डों के मुख्य न्यायाधीश तथा कुछ अन्य न्यायाधीश होते हैं। मध्यवर्ती जन न्यायालय आवश्यकतानुसार फौजदारी, दीवानी तथा अन्य विभाग या खण्ड स्थापित कर सकते हैं। 

ये न्यायालय आज्ञप्तियों और विधियों द्वारा उनके क्षेत्राधिकार में पड़ने वाले मुकदमे, मूल जन न्यायालय द्वारा भेजे गये मुकदमे अथवा उनके निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनने का अधिकार रखते हैं।

(स) उच्चतर जन न्यायालय - प्रत्येक प्रान्त में एक उच्चतर जन न्यायालय की व्यवस्था है। इसमें एक अध्यक्ष, एक या अधिक उपाध्यक्ष, बैंचों के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीश होते हैं। 

अन्य न्यायालयों की भाँति उच्चतर जन न्यायालय में भी एक फौजदारी विभाग और एक दीवानी विभाग होता है तथा आवश्यकतानुसार अन्य विभाग स्थापित किये जा सकते हैं। 

ये न्यायालय उन मुकदमों को सुनते हैं, जो कानून के अनुसार इनके मौलिक क्षेत्राधिकार में आते हैं। ये उन मुकदमों को सुनते हैं, जो निम्न न्यायालयों से इनके पास हस्तान्तरित किये जाते हैं। 

ये न्यायालय निम्न न्यायालयों के निर्णयों तथा आदेशों के विरुद्ध अपील सुनते हैं। न्यायिक निरीक्षण की प्रक्रिया के अन्तर्गत यदि जन प्रोक्यूरेटोरेट द्वारा किसी मामले पर कोई आपत्ति उठायी जाये, तो उस मामले पर भी ये विचार करते हैं I

(3) विशेष जन न्यायालय

सैनिक न्यायालय, रेल परिवहन न्यायालय तथा जल परिवहन न्यायालय विशेष जन न्यायालय की श्रेणी में शामिल हैं। इस सबके संगठन की रूपरेखा राष्ट्रीय जन काँग्रेस की स्थायी समिति निर्धारित करती है। इस प्रकार के न्यायालय प्रशासनिक स्तर पर सर्वोच्च जन न्यायालय के अधीन होते हैं।

प्रोक्यूरेटर का पद 

नये संविधान के अनुच्छेद 130 के अनुसार सर्वोच्च जन प्रोक्यूरेटरेट के पद की व्यवस्था की गई है। अन्य स्तरों पर स्थानीय प्रोक्यूरेटर तथा सैनिक एवं विशिष्ट प्रोक्यूरेटर के पद निर्मित किये गये हैं। इनका कार्यकाल 5 वर्ष है। 

प्रोक्यूरेटरेट जनरल अधिक-से-अधिक दो कार्यकाल पूरे कर सकता है प्रोक्यूरेटरेट का संगठन कानून द्वारा तय किया जायेगा । 

जन प्रोक्यूरेटरेट अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह स्वतन्त्र रूप से करेंगे तथा अन्य प्रशासकीय संगठन, सार्वजनिक संगठन या व्यक्ति उनके कार्यों में दखल नहीं दे सकेंगे। सर्वोच्च जन प्रोक्यूरेटरेट इस संगठन का सर्वोच्च अधिकारी होगा और स्थानीय जन

प्रोक्यूरेटरेटों को वह निर्देश दे सकेगा।” अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन के लिए वह राष्ट्रीय जन काँग्रेस और स्थायी समिति के प्रति उत्तरदायी होगा।

Related Posts