हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धांत का वर्णन कीजिए

हॉब्स के सम्बन्ध में प्रो. डनिंग ने लिखा है कि, "हॉब्स प्रथम अंग्रेज है, जिसने इस प्रकार की राजनीति से दर्शन की प्रणाली प्रस्तुत की, जिसकी गणना महान् प्रणालियों में की जाती है। उसकी कृतियों ने उसे महान् राजनीतिक विचारक की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया।

हॉब्स के राजनीतिक विचार

हॉब्स के राजदर्शन के प्रादुर्भाव के समय इंग्लैण्ड में गृह युद्ध की स्थिति थी। चारों ओर अराजकता का डेरा था । राजनीतिक एवं सामाजिक दशा अति शोचनीय थी। इस दशा से प्रभावित होकर थॉमस हॉब्स ने विचार किया कि राजतन्त्र के बिना शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। 

हॉब्स के द्वारा किये गये राजतन्त्र के इस समर्थन के विषय में टेलर ने लिखा है कि, “ऐसी संकटकालीन स्थिति से गुजरने वाले एक दार्शनिक के लिए जोकि मानव-व्यापार का एक तीक्ष्ण प्रेक्षक भी था । 

समस्त ज्ञान को यान्त्रिक भौतिकवाद के सिद्धान्त पर आधारित करने का सबसे अधिक साहसपूर्ण प्रयत्न करना और आचारशास्त्र एवं समाजशास्त्र के विरुद्ध एक प्रकृतिवादी सिद्धान्त की सृष्टि करना स्वाभाविक ही था।”

हॉब्स के चिन्तन पर प्रभाव डालने वाली परिस्थितियाँ-हॉब्स के चिन्तन पर उसके समय विद्यमान दो परिस्थितियों ने बहुत गहरा प्रभाव डाला। पहली परिस्थिति थी - नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों के क्रम का आरम्भ। 

ऑक्सफोर्ड में अध्ययन करते हुए मध्ययुगीन दर्शन के प्रति तीव्र घृणा हो गयी थी। अतः स्वाभाविक रूप से उसका ध्यान नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों की ओर आकृष्ट हुआ। वह गैलीलियो के गति नियम से अत्यधिक प्रभावित हुआ और उसे अपने राजनीतिक चिन्तन का आधार बनाया। 

इसके अतिरिक्त दूसरी परिस्थिति थी - तत्कालीन इंग्लैण्ड की अस्थिर राजनीतिक दशा । उस समय इंग्लैण्ड में निरंकुश राजतन्त्र की समर्थक और विरोधी दोनों प्रकार की विचारधाराओं में तीव्र संघर्ष हो रहा था। कभी राजतन्त्र समर्थकों का, तो कभी विरोधियों का पलड़ा भारी हो जाता था । फलतः किसी भी व्यक्तिका न तो जीवन सुरक्षित था और न सम्पत्ति । 

वह युग नये आर्थिक परिवर्तनों का युग भी था। सामन्तों के खिलाफ व्यापारी वर्ग का उदय हो रहा था, लेकिन उसे किसी प्रकार के राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। अतः उन्हें प्राप्त करने के लिए सामन्तों का प्रभाव घटाने के लिए वह पार्लियामेण्ट की शक्ति में वृद्धि के लिए आन्दोलन कर रहा था, 

जबकि पुरानी व्यवस्था में निहित स्वार्थ रखने वाला सामन्तवादी वर्ग पुरानी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कृत - संकल्प था। इस परस्पर विरोधी विचारधाराओं के कारण 1639 ई. में इंग्लैण्ड में गृह युद्ध भड़क उठा। 

इस गृह युद्ध के कारण जनजीवन असुरक्षित हो गया। हॉब्स ने अपने में व्याप्त असुरक्षा और अराजकता की इन भावनाओं के दमन के लिए एक सर्वशक्तिशाली और निरंकुश राजतन्त्र का अपनी रचनाओं के द्वारा प्रबल समर्थन किया।

सामाजिक समझौता और राज्य की उत्पत्ति-प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक कानूनों के अस्तित्व को स्वीकार करने के बाद हॉब्स यह कहता है कि यदि मनुष्य स्वभाव से शान्तिपूर्ण होता, वह बिना किसी सत्ता या समझौते के नहीं रह सकता और उसे किसी प्रकार के शासन की आवश्यकता नहीं पड़ती, परन्तु मनुष्य ऐसे स्वभाव का नहीं। 

अतः एक ऐसे व्यक्तिया व्यक्तियों की सभा की आवश्यकता अनुभव होती है, जो मनुष्यों को नियन्त्रण में रखकर उन्हें अनुशासनबद्ध कर सके। 

ऐसी सामान्य सत्ता की स्थापना के लिए यह जरूरी है कि अनेक इच्छाओं के स्थान पर एक इच्छा प्राधान्य स्थापित किया जाये तथा उसे स्थापित करने के लिए प्राकृतिक कानून के अनुसार सब व्यक्ति अपने अधिकारों को एक व्यक्तिया व्यक्तियों की सभा के समर्पित कर दें। 

हॉब्स आगे कहता है कि यह कार्य व्यक्ति आपस में एक समझौते के द्वारा सम्पन्न करते हैं ।

'लेवियाथन' में उसने लिखा है कि समझौता उत्पन्न करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति इस प्रकार की शपथ लेता है, "मैं इस व्यक्ति को या व्यक्तियों के समूह को यह अधिकार देता हूँ और अपने आप शासन करने के अपने अधिकार को छोड़ता हूँ, इस शर्त पर कि तुम भी इसी प्रकार अपने ऊपर शासन करने के अधिकारों को इस प्रकार दोगे और दूसरी आज्ञाओं को शिरोधार्य करोगे।" 

हॉब्स आगे कहता है कि, "इस मर्त्य प्रभु (जिसे वह लेवियाथन या महान् दैत्य के नाम से पुकारता है) का इस रीति से जन्म होता है। यह मर्त्य प्रभु है, जिसकी कृपा पर अनश्वर ईश्वर की छत्रछाया में हमारी शक्तिया सुरक्षा निर्भर है ।”

इस प्रकार हॉब्स के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा से अपने समस्त अधिकार एवं व्यक्तियों की सभा को समर्पित कर देता है, फलतः उससे उस सत्ता का जन्म होता है, जो प्राकृतिक अवस्था को भी भयावह दशा को समाप्त करके प्रत्येक व्यक्ति की रक्षा।करने में समर्थ होती है। 

वह सत्ता प्रत्येक मनुष्य को समझौते का उल्लंघन करने पर दण्ड देने की अधिकारिणी होती है। दण्ड का भय समझौते को बनाये रखने के लिए आवश्यक है, क्योंकि हॉब्स कहता है कि, "बिना तलवार की शक्ति के संविदाएँ केवल शब्द जाल हैं, जो मनुष्य की सुरक्षा के लिए पूर्णतः असमर्थ होती हैं । "

सामाजिक समझौते की मुख्य विशेषताएँ - हॉब्स द्वारा राज्य को उत्पन्न करने वाले इस समझौते का हम विश्लेषण करें, तो हमें कई विशेषताएँ दिखाई देती हैं

(1) समझौता एक साथ सामाजिक और राजनीतिक दोनों था- पहली विशेषता इसकी यह है कि समझौता एक साथ ही सामाजिक एवं राजनीतिक दोनों ही चरित्र वाला है। 

मनुष्य द्वारा अपने व्यक्तिगत अधिकारों को त्यागकर सामाजिक समझौते के बन्धन को स्वीकार किये जाने के कारण समाज की उत्पत्ति होती है और उस समाज में शान्ति और व्यवस्था को बनाये रखने के लिए राज्य की उत्पत्ति होती है ।

(2) समझौता सभी के साथ मध्य होता है, शासक और शासित के मध्य नहीं दूसरी विशेषता इसकी यह है कि अब तक जितने भी समझौते की बात की गयी है, वह शासक और शासित के मध्य समझौते की बात थी अर्थात् वे सब वास्तविक दृष्टि से सामाजिक समझौते नहीं थे, 

वरन् शासनात्मक समझौते थे, किन्तु हॉब्स के द्वारा जिस समझौते का प्रतिपादन किया गया। वह शासक और शासितों के मध्य उत्पन्न नहीं होता है, बल्कि प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले सभी व्यक्तियों के मध्य सम्पन्न होता है, जो राज्य के सम्मुख अपने अधिकारों को त्यागने की प्रतिरक्षा करते हैं। अतः वह वास्तविक दृष्टि से एक सामाजिक समझौता है।

(3) शासक समझौते की उत्पत्ति है, भागीदार नहीं - इसकी तीसरी विशेषता दूसरी विशेषता से उत्पन्न होती है। यह समझौता व्यक्तियों के मध्य होने से सम्प्रभु इसमें सम्मिलित नहीं है जैसा कि इवेन्स्टीन ने कहा है, "हॉब्स का सामाजिक समझौता प्रजाजनों के बीच हुआ है। सम्प्रभु समझौते का भागीदार नहीं है, वह तो उसकी उत्पत्ति है । ”

(4) शासक की सत्ता निरंकुश - इसकी चौथी विशेषता तीसरी विशेषता से उत्पन्न होती है। समझौते में भागीदार न होने से सम्प्रभु की शक्ति असीमित और उसके अधिकार निरंकुश हैं। उसकी सत्ता पर किसी तरह का प्रतिबन्ध नहीं है। अतः वह अपनी सत्ता का प्रयोग अपनी इच्छा से करने में स्वतन्त्र है ।

(5) शासितों को शासकीय निरंकुशता विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार नहीं- इसकी पाँचवीं विशेषता इसकी चौथी विशेषता से उत्पन्न होती है। प्राकृतिक दशा को छोड़ने और समझौते में शामिल होने के साथ ही व्यक्तियों ने अपनी स्वतन्त्रता और अपने सब अधिकार भी त्याग दिये हैं। 

अतः सम्प्रभु की स्वेच्छाचारिता की दुहाई लेकर उसके विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि उसकी स्वेच्छाचारिता से समझौते की किसी भी शर्त का उल्लंघन नहीं होता है। इसी तरह समझौते से किसी को अलग होने का अधिकार प्राप्त नहीं है।

(6) सुरक्षा प्रदान न कर सकने वाला शासक का विरोध उचित-इसकी अन्तिम छठी विशेषता यह है कि समझौते के उद्देश्य को बरकरार रखने के लिए इस शर्त का पालन अनिवार्य है। 

अतः हॉब्स यद्यपि प्रजा से इस बात की अपेक्षा करता है कि वह सम्प्रभु की आज्ञा का पालन करती हुई अपरिमित कर्त्तव्य-पालन का परिचय देगी, किन्तु वह इस विशेषता के आधार पर कुछ अपरिवादों का भी उल्लेख करता है, जबकि सम्प्रभु की आज्ञा की अवहेलना अधिकार के रूप में कर सकती है।

यह अधिकार सम्प्रभु को अपने आपको मारने, अंग-भंग करने या आक्रमणकारी का विरोध न करने, वायु औषधि या जीवनदाता या अन्य किसी वस्तु का प्रयोग न करने की आज्ञा देता हो। ऐसी स्थिति में व्यक्ति राजाज्ञा की अवहेलना कर सकता है, 

क्योंकि हॉब्स कहता है कि, “प्रजाजन सुरक्षा के लिए ही शासन के अधीन होते हैं। यदि शासक सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकता तो उसका प्रतिरोध आवश्यक हो जाता है।" इस प्रकार हॉब्स के अनुसार मनुष्य अपने जीवन की रक्षा का प्राकृतिक अधिकार समझौते के बाद भी सुरक्षित रखते हैं ।

सामाजिक समझौते के सिद्धान्त को प्रतिपादित कर हॉब्स यह सिद्ध करता है कि वह न तो राज्य को ईश्वर द्वारा उत्पन्न मानता है और न किसी प्राकृतिक विकास का परिणाम, वरन् वह अपने राज्य को मानव निर्मित एक ऐसा कृत्रिम साधन मानता है जिसे व्यक्तिद्वारा अपनी कुछ निश्चित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निर्मित किया गया है। अतः उसके लिए राज्य साध्य की ओर जाने वाला एक साधन मात्र है, स्वयं साध्य नहीं । 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त की आलोचना - इस सामाजिक समझौता सिद्धान्त की विद्वानों ने निम्नलिखित प्रकार से आलोचना की है

(1) हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था पूर्णतया काल्पनिक है।

(2) हॉब्स ने मानवीय गुणों - प्रेम, सहयोग तथा सहानुभूति का वर्णन न करके सिर्फ उसे स्वार्थी, हिंसक, असत्य एवं बर्बर माना है।

( 3 ) यह सिद्धान्त कानूनी दृष्टि से उचित नहीं है।

(4) यह समझौता सिद्धान्त पूर्णतया अनैतिहासिक है, क्योंकि उसने राज्य को क्रमिक विकास का प्रतिफल न मानकर समझौते का परिणाम माना है।

(5) हॉब्स ने प्रभुसत्ता ग्रहण करने वाले को पूर्णतया निरंकुश बताया है। ऐसा करते समय वह यह भूल गया कि शासन-सत्ता करने वाला भी व्यक्ति है और उसका स्वार्थी होना भी आवश्यक है। 

ऐसे में उससे जनहित की कल्पना नहीं की जा सकती है। फिर भी यह सिद्धान्त राजनैतिक चिन्तन में बहुत महत्त्व रखता है।

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