बेंथम के राजनीतिक विचारों की विवेचना कीजिए

17वीं और 18वीं शताब्दी में राज्य की उत्पत्ति के संबंध में जो विवाद चल रहेथे, बेन्थम ने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वह राज्य की उत्पत्ति के 'सामाजिक समझौता' सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता, जिसकी वकालत करने वालों में उसके देश ( इंग्लैण्ड) को दो दार्शनिक - हॉब्स और लॉक भी थे। 

बेंथम के राजनीतिक विचारों की विवेचना कीजिए

बेन्थम राज्य सम्बन्धी सावयवी सिद्धान्त को भी स्वीकार नहीं करता है। बेन्थम इस प्रश्न का उत्तर नहीं देता है कि अतीत के राज्य की उत्पत्ति कैसे हुई । वह इसकी आवश्यकता ही नहीं समझता है। 

वह तो इस प्रश्न पर विचार करता है कि राज्य क्यों जीवित है ? बेन्थम के अनुसार, राज्य मानव जाति के लिए आवश्यक है और राज्य की उत्पत्ति का स्रोत मानव जाति की आवश्यकताओं में छिपा हुआ है। 

बेन्थम राज्य की उत्पत्ति व उसके अस्तित्व का कारण बताते हुए कहता है, राज्य व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है, जो उसकी उपयोगिता को बनाए रखने अभिवृद्धि करने के लिए संगठित किया जाता है।

बेन्थम राज्य का उद्देश्य बताते हुए कहता है कि, राज्य का उद्देश्य 'अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख' पहुँचाना है। इसके लिए बेन्थम कहता है कि, राज्य के कानून ऐसे होने चाहिए कि उनसे 'अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख मिल सके।

बेथम की राज्य की अवधारणा

(1) बेन्थम राज्य का एकमात्र उद्देश्य 'अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख' पहुँचाना मानता है। बेन्थम की राज्य सम्बन्धी यह धारणा बहुत ही संकुचित है और प्लेटो व अरस्तू की धारणा के विपरीत है।

जो कि राज्य का उद्देश्य व्यक्ति का नैतिक विकास और श्रेष्ठ जीवन बिताने के लिए उसका अस्तित्व आवश्यक मानते हैं। बेन्थम यह भी नहीं मानता कि राज्य का उद्देश्य व्यक्ति को अधिकतम सच्ची स्वतन्त्रता प्रदान करना है, जैसा कि रूसो कहता है।

(2) बेन्थम अधिकतम लोगों के सुख को व्यक्तिगत सुखों का योग मानता है, जिसमें समस्त समाज का सामूहिक हित शामिल नहीं है। बेन्थम के शब्दों में, "व्यक्ति के हित के रूप में, समाज के हित की बात करना व्यर्थ है। इस प्रकार बेन्थम व्यक्ति और उसके हित को सर्वोच्च मानता है।

राज्य का व्यक्तिवादी स्वरूप   - बेन्थम की राज्य सम्बन्धी अवधारणा व्यक्तिवादी है । बेन्थम के अनुसार, राज्य साधन है और व्यक्ति साध्य है। राज्य का पृथक कोई उद्देश्य नहीं है, राज्य का वही उद्देश्य है, जो व्यक्ति के जीवन का अर्थात् उपयोगिता में वृद्धि करना।

बेन्थम के अनुसार - सरकार का मुख्य उद्देश्य दण्ड और पुरस्कार द्वारा समाज के सुख की वृद्धि करना है। राज्य के कार्यों की कसौटी सुख ही है। 

व्यक्तिवादियों की भाँति बेन्थम का राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में दृष्टिकोण निषेधात्मक ही है। कैटलिन ने भी कहा है, "बेन्थम का समाज दर्शन व्यक्तिवादी और आर्थिक पक्ष में अहस्तक्षेप नीति का था ।”

राज्य की आज्ञा का पालन - बेन्थम ने इस प्रश्न का उत्तर दिया है कि व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन क्यों करता है ? वह कहता है कि इसलिए नहीं कि हमारे पूर्वजों ने उसके लिए कोई समझौता किया है, वरन् इसलिए कि ऐसा करना उनके लिए लाभदायक और उपयोगी है। 

राज्य की आज्ञा का पालन इसलिए करते हैं कि, “आज्ञा पालन के सम्भावित दोष अवज्ञा के सम्भावित दोष की अपेक्षा कम है। अतः बेन्थम का मत है कि, यदि राज्य के कानून दुख पहुँचाने वाले हैं तो उनका विरोध करने का नैतिक अधिकार लोगों को है। 

बेन्थम की उसी धारणा को स्पष्ट करते हुए गैटिल ने कहा है, “सर्वोच्च शक्ति का विरोध करना नैतिक अधिकार हो सकता है, परन्तु यदि विद्रोह करने से हानि की अपेक्षा लाभ होने की अधिक सम्भावना है तो विरोध करना नैतिक कर्तव्य भी बन सकता है

प्राकृतिक अधिकारों का खण्डन

बेन्थम के समय में ब्रिटेन में टॉमस पेन, लॉक और गाडविन के प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त बहुत ही लोकप्रिय था, परन्तु बेन्थम ने इस सिद्धान्त का खण्डन किया । बेन्थम के अनुसार, राज्य के कानून ही समस्त अधिकारों के स्त्रोत है और इनका आधार उपयोगिता है, अर्थात् अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख । 

बेन्थम कहता है कि, राज्य के बाहर व्यक्तियों के अधिकार नहीं होते। बेन्थम प्राकृतिक अधिकारों 'मूर्खतापूर्ण बकवास' एवं 'आध्यात्मिक विभ्रम और प्रमाद का एक गड़बड़ घोटाला' कहता है । बेन्थम के शब्दों में, “प्राकृतिक अधिकारों की बात निरी बकवास है, आलंकारिक बकवास है, शब्दाडम्बरपूर्ण बकवास है ।"

बेन्थम प्राकृतिक अधिकारों का खण्डन करने के बाद दो प्रकार के अधिकार बताता है 

  1. वैधानिक अधिकार
  2. नैतिक अधिकार

स्पष्ट है कि बेन्थम सम्प्रभु शक्ति को ही समस्त अधिकारों का स्रोत मानता है। बेन्थम ने फ्रांस की 'मानव अधिकारों की घोषणा' का इसी आधार पर उपहास किया था और उसे 'कागज की चीत्कार' कहा था क्योंकि यह घोषणा हजारों व्यक्तियों को मौत की सजा से नहीं बचा सकी। बेन्थम ने अमेरिकन 'स्वतन्त्रता की घोषणा' का भी मजाक बनाया था ।

बेन्थम अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों की भी बात करता है। उसका कहना है कि, अधिकारों के साथ राजनीतिक, नैतिक और धार्मिक कर्त्तव्य भी जुड़े हुए हैं। 

बेन्थम की कानून सम्बन्धी धारणा 

बेन्थम ने कानून की परिभाषा देते हुए लिखा है कि, “कानून एक राजनीतिक समाज के आदेशों के रूप में सम्प्रभु की इच्छा की अभिव्यक्ति है, जिनका सदस्य स्वभाव से पालन करते हैं।" बेन्थम के अनुसार, राज्य में सम्प्रभु मानव संस्था द्वारा निर्मित कानून होने चाहिए।

यह उल्लेखनीय है कि जहाँ लॉक, माण्टेस्क्यू, रूसो आदि ने वैयक्तिक स्वतन्त्रता पर बल दिया है, वहाँ बेन्थम इसकी उपेक्षा करता है। वैपर इस सम्बन्ध में कहता है कि, "बेन्थम के लिए सुख ही एकमात्र अन्तिम कसौटी है और स्वतन्त्रता को उसी कसौटी पर कसा जाना चाहिए। 

राज्य का ध्येय अधिकतम सुख है, अधिकतम स्वतन्त्रता नहीं।’’ सैबाइन कहता है कि, “बेन्थम का विश्वास था कि अधिकतम सुख का सिद्धान्त एक कुशल विधायक के हाथों में एक प्रकार का सार्वभौम साधन प्रदान करता है। इसके द्वारा वह 'विवेक तथा विधि के हाथों सुख के वस्त्र' बनवा सकता है।”

बेन्थम के अनुसार, “कानून एक आदेश है, एक प्रतिबन्ध है, इसलिए वह स्वतन्त्रता का शत्रु है।” परन्तु एक बड़ी बुराई को दूर करने के लिए कानून-निर्माण आवश्यक है। राज्य का उद्देश्य वही होना चाहिए, जो व्यक्ति के जीवन का है; अर्थात् उपयोगिता या सुख में वृद्धि । कानून इसी दृष्टि से बनाए जाने चाहिए।

बेन्थम के प्राकृतिक कानून सम्बन्धी विचार - जिस प्रकार बेन्थम ने प्राकृतिक अधिकारों का खण्डन किया है, उसी प्रकार बेन्थम प्राकृतिक कानून को भी स्वीकार नहीं करता है। बेन्थम दो प्रकार के कानूनों की बात कहता है

  1. दैवी कानून
  2. मानवीय कानून

बेन्थम का कहना है कि, दैवी कानूनों का कोई निश्चित एवं दृढ़ स्वरूप नहीं होता है, इसलिए प्रत्येक राज्य में सम्प्रभु शक्ति के अन्तर्गत मानव संस्था द्वारा बनाए गये कानून होने चाहिए। बेन्थम ने कानूनों की व्यापकता को देखते हुए उन्हें चार भागों में इस प्रकार बाँटा है

  1. अन्तर्राष्ट्रीय कानून
  2. संवैधानिक कानून
  3. नागरिक कानून
  4. फौजदारी कानून

बेन्थम ने कानून की उपयोगिता की कसौटी भी बताई है

  • क्या कानून प्रत्येक नागरिक को सुरक्षा प्रदान करता है।
  • क्या कानून से नागरिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। 
  • क्या कानून द्वारा एक नागरिक, दूसरे नागरिक की में समानता अनुभव तुलना करता है।

बेन्थम के सम्प्रभुता पर विचार - बेन्थम के अनुसार, संवैधानिक दृष्टि से सम्प्रभुता निरपेक्ष और असीमित है। राज्य का प्रत्येक कार्य वैधानिक है। सम्प्रभुता की इच्छा का आदेश के रूप में प्रकट होना ही कानून हैं। बेन्थम यह भी कहता है कि सम्प्रभुता की एक सीमा भी है, लोकमत । यदि जनता उपयोगिता के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सम्प्रभुता की आज्ञा का पालन करने तुलना में विरोध करना हित है तो उसे ऐसा करना चाहिए । 

शासन सम्बन्धी विचार - बेन्थम ने सैद्धान्तिक रूप से शासन के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है। उसने ब्रिटिश शासन को ही ध्यान में रखकर अपने विचार प्रकट किये हैं। बेन्थम प्रजातन्त्र शासन को ही सर्वश्रेष्ठ बताता है क्योंकि इस शासन में ही अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण सम्भव है। 

परन्तु इसका अर्थ नहीं कि बेन्थम लोक-कल्याणकारी राज्य स्थापित करना चाहता था । हम पहले ही कह चुके हैं कि वह शासन के अत्यधिक हस्तक्षेप के विरुद्ध था और उसका मत था कि, इंग्लैण्ड को 'स्वतन्त्र व्यापार' को अधिक-से-अधिक प्रोत्साहित करना चाहिए।

बेन्थम ने प्रजातन्त्र शासन की सफलता के लिए वयस्क मताधिकार, गुप्त मतदान, प्रत्यक्ष निर्वाचनों का समर्थन किया है। बेन्थम एक सदनात्मक विधानमण्डल का समर्थक था और उसने ब्रिटिश लॉर्ड सभा का घोर विरोध भी किया था।

बेन्थम के दण्ड सम्बन्धी विचार  - बेन्थम का मत है, "सभी प्रकार का दण्ड अपने में एक बुराई है। यदि उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए दण्ड देना आवश्यक ही हो तो उसका वहीं तक प्रयोग करना चाहिए, जहाँ तक कि वह उससे भी बड़ी बुराई को दूर करने में समर्थ हो सके।

वेन्थम ने दण्ड के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त इस प्रकार बताए हैं

(1) अपराधी को अपराधों के अनुरूप दण्ड मिलना चाहिए ।

( 2 ) दण्ड का उद्देश्य अपराधी में सुधार होना चाहिए।

(3) दण्ड का एक उद्देश्य अपराधों की पुनरावृत्ति को भी रोकना चाहिए। 

( 4 ) दण्ड अपराधी के अनुरूप भी होना चाहिए। उदाहरण के लिए, दण्ड की व्यवस्था आयु, लिंग तथा दूसरी बातों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए। नए अपराधियों और पक्के अपराधियों में भी अन्तर किया जाना चाहिए।

( 5 ) बेन्थम यह भी कहता है कि, दण्ड का उद्देश्य दूसरों के सामने दृष्टान्त रखना भी होना चाहिए। इसी दृष्टि से उसने सार्वजनिक रूप से दण्ड देने की बात कही है, जिससे लोग देखकर डरें ।

(6) मृत्यु दण्ड के सम्बन्ध में बेन्थम ने कहा है कि यह तभी दिया जाय, जब समाज सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा करना आवश्यक हो।

जेल योजना-उपर्युक्त के अलावा बेन्थम ने अपराधियों को सुधारने के लिए भी सुझाव दिये हैं। उसने एक आदर्श जेल का नमूना तैयार किया था, जिसका नाम उसने 'पेन ऑप्टिकन'  रखा था। इस जेल की इमारत चक्राकार थी, जिसके बीचोंबीच गवर्नर (जेल का निरीक्षक) का रहने का स्थान था। 

चारों ओर कैदियों (अपराधियों) की कोठरियाँ थीं और गवर्नर अपने शीशे के केबिन में से उन सब पर निगरानी रखता था और आवश्यकतानुसार उनके उपचार या सुधारने के लिए कार्यवाही कर सकता था। 

वह स्वयं भी ऐसी जेल का प्रथम गवर्नर बनने का इच्छुक था। बेन्थम का सुझाव था कि, कैदियों को कोई उपयोगी कार्य सिखाया जाय और उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दी जाय।

बेन्थम के दण्ड पर विचार - बेन्थम कहता है, सभी प्रकार का दण्ड अपने में एक बुराई है। यदि उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए दण्ड देना आवश्यक ही हो तो उसका वहीं तक प्रयोग किया जाना चाहिए जहाँ तक कि वह उससे भी बड़ी बुराई को दूर करने में समर्थ हो सके।

बेन्थम दण्ड के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त निर्धारित करता है

(1) दण्ड अपराध के अनुरूप होना चाहिए।

(2) दण्ड का उद्देश्य अपराधों में सुधार होना चाहिए।

(3) दण्ड का उद्देश्य अपराधों की पुनरावृत्ति को रोकना होना चाहिए।

(4) दण्ड अपराधी के अनुरूप होना चाहिए । दण्ड की व्यवस्था आयु, लिंग और अन्य बातों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए। नये अपराधियों और पक्के अपराधियों में अन्तर करना चाहिए ।

(5) मृत्यु दण्ड के सम्बन्ध में उसका मत है कि वह तभी दिया जाये, जब समाज सुरक्षा की दृष्टि में वांछनीय हो । 

बेन्थम ने अपराधियों को सुधारने के भी सुझाव दिये हैं। उसने जेलों को नवीन ढंग से बनाने का सुझाव दिया, जहाँ से जेल का निरीक्षक अपने ही स्थान पर बैठा सब स्थानों पर निगाह रख सके। ऐसी आदर्श जेल को उसने 'पेनाप्टीकान' का नाम दिया। उसका सुझाव था कि कैदियों को कोई उपयोगी कार्य सिखाया जाये, साथ ही उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा भी दी जाये।

बेन्थम के स्वतन्त्रता पर विचार - बेन्थम नागरिक स्वतन्त्रता व प्राकृतिक स्वतन्त्रता में अन्तर करते हुए कहता है कि दूसरी स्वतन्त्रता का अर्थ मनमानी है। राज्य में लोगों को ऐसी स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती। 

उसका मत है कि यदि कानून अच्छे हैं तो वे स्वतन्त्रता में वृद्धि करते हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उसके अनुसार, राज्य का उद्देश्य अधिकतम सुख है, अधिकतम स्वतन्त्रता नहीं।

बेन्थम के प्रभुसत्ता पर विचार - बेन्थम के अनुसार, संवैधानिक दृष्टि से प्रभुसत्ता निरपेक्ष और अपरिमित है। राज्य का प्रत्येक कार्य वैधानिक है। 

प्रभुसत्ता की इच्छा का आदेश के रूप में प्रकट होना ही कानून है। (बेन्थम के इन्हीं विचारों का प्रभाव आस्टिन पर पड़ा, जिसने प्रभुसत्ता के सिद्धान्त की विशद व्याख्या की है।) परन्तु बेन्थमं यह स्पष्ट करता है कि प्रभुसत्ता की एक सीमा भी है और वह है लोकमत । 

यदि लोग उपयोगिता के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि प्रभुसत्ता की आज्ञा का पालन करने की तुलना में विरोध करना हितकर है तो उन्हें ऐसा करना चाहिए।

शासन सम्बन्धी विचार - बेन्थम प्रजातन्त्रात्मक शासन को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है, क्योंकि इसमें ही अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण सम्भव है।

बेन्थम एक महान सुधारक

बेन्थम ब्रिटेन की तत्कालीन शासन व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं था। बेन्थम ने सार्वजनिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में फैली बुराइयों को दूर करने के लिए सुझाव दिये हैं और आन्दोलन भी किये। 

ब्रिटिश न्याय- पद्धति की आलोचना करते हुए बेन्थम ने आरोप लगाया कि, "ब्रिटेन में न्याय बेचा जाता है और वह व्यक्ति जो इसका दाम नहीं चुका पाता, न्याय से वंचित रह जाता है। न्यायाधीशों के सम्बन्ध में उसकी राय अच्छी नहीं थी। 

बेन्थम का कहना था- न्यायाधीश निष्क्रिय और अशक्त जाति के हैं, जो सब अपमानों को सहन कर लेते हैं तथा किसी भी बात पर झुक जाते हैं। इनकी बुद्धि न्याय और अन्याय के भेद को समझने में असमर्थ व उदासीन रहती है. ।" व्यंग्य से वह न्यायाधीशों को 'न्याय के व्यवसायी' कहता था। 

बेन्थम के अनुसार, इंग्लैण्ड की न्याय व्यवस्था न्यायाधीशों और वकीलों के लिए लाभ कमाने का धन्धा मात्र थी । बेन्थम ने न्यायाधीशों पर रोक लगाने के लिए ज्यूरी पद्धति लागू करने का सुझाव दिया। बेन्थम ने न्यायिक क्षेत्र में सुधार के लिए अनेक सुझाव दिये । 

दण्ड के सम्बन्ध में उसने बहुमूल्य सुझाव दिये। विधि-निर्माण के क्षेत्र में बेन्थम का महत्त्वपूर्ण योगदान है। अपनी पुस्तक 'Principle of Morals and Legislation' में विधि निर्माण के क्षेत्र में जो सुझाव दिये, उसके कारण वह 'नया मूसा' कहा जाने लगा। 

उसने व्यवस्थापन के चार लक्ष्य इस प्रकार बताए - (1) आजीविका , (2) सुरक्षा , (3) प्रचुरता , (4) समानता  बेन्थम कहता है कि, यदि इन चारों लक्ष्यों में संघर्ष हो तो विधि-निर्माता को प्राथमिकता का क्रम इस प्रकार निर्धारित करना चाहिए-आजीविका, सुरक्षा, पर्याप्तता और समानता । 

बेन्थम का कहना था कि, कानून उसी समय सफल हो सकते हैं जब लोगों को उनमें श्रद्धा हो। बेन्थम ने कहा कि कानूनों का संग्रह  किया जाए और उन्हें सरल बनाया जाए। 

बेन्थम ने अनेक व्यावहारिक सुधारों पर भी जोर दिया, उनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं - भ्रष्ट तथा सीमित संसदीय शासन प्रणाली का सुधार, म्यूनिस्प संस्थाओं का व्यापक सुधार, जेलों में सुधार, अमानुषिक दण्ड व्यवस्था में सुधार, ऋण सम्बन्धी कानूनों का उन्मूलन, शिक्षा व दरिद्रता रक्षा विधान, स्वस्थ भिखारियों का दमन, बचत बैंकों का सुझाव आदि। 

बेन्थम ने समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता पर भी बहुत बल दिया। सैबाइन कहता है कि बेन्थम का विधिशास्त्र केवल उसकी सबसे महान रचना नहीं है, वरन् यह उन्नीसवीं शताब्दी की एक अत्यधिक उल्लेखनीय बौद्धिक उपलब्धि है।

मैक्सी के शब्दों में बेन्थम एक व्यावसायिक सुधारक था, जिसके द्वारा सुझाए गए लगभग सभी सुधार उसके समय से आगे थे। वह ऐसे विचारों का स्त्रोत था, जिसके फलों का लाभ बाद की पीढ़ियों ने उठाया।

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