द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका किसे कहते हैं

राजनीतिशास्त्र के विद्वानों में व्यवस्थापिका के संगठन के बारे में मतभेद पाया जाता है। ब्लण्ट्श्ली, लेकी, जे. एस. मिल, गार्नर, मैरियट आदि विचारकों ने द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका को उपयोगी बताया है।

परन्तु अबेसियस, बैंजामिन फ्रैंकलिन, प्रो. लास्की आदि विचारकों ने एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के ही पक्ष में मत प्रकट किया है।

व्यवहार में विश्व के अधिकांश देशों की व्यवस्थापिका सभाओं में दो सदन ही देखने को मिलते हैं। ब्रिटेन, अमेरिका, रूस, स्विट्जरलैण्ड, भारत, फ्रांस, जापान, आस्ट्रेलिया आदि देशों में द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका है।

परन्तु चीन, नेपाल, मैक्सिको आदि देशों में एक सदनात्मक व्यवस्थापिका ही है। भारतीय संघ की कुछ इकाइयों (राज्यों) के विधानमण्डलों में भी एक सदन ही है। उदाहरण के लिए, पश्चिमी बंगाल, असम, हरियाणा, नागालैण्ड आदि राज्यों के विधानमण्डल में एक सदन ही है।

एक सदनात्मक व्यवस्थापिका व द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका में कौन-सी अधिक उपयोगी है, इस सम्बन्ध में निष्कर्ष निकालने से पहले इन दोनों के पक्ष और विपक्ष में दिये गये तर्कों पर विचार करना आवश्यक है ।

द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के पक्ष में तर्क

द्वितीय सदन के पक्ष में दिये गये तर्क इस प्रकार हैं

( 1 ) प्रथम सदन की स्वेच्छाचारिता पर रोक - लार्ड ब्राइस कहता है कि दोनों सदनों की आवश्यकता इस विश्वास पर आधारित है कि प्रत्येक सदन की स्वाभाविक प्रवृत्ति घृणापूर्ण, अत्याचारी और भ्रष्ट बन जाने की ओर होती है, जिसे रोकने के लिए समान शक्ति वाले द्वितीय सदन का अस्तित्व आवश्यक है।

गार्नर भी कहता है कि द्वितीय सदन का अस्तित्व स्वतन्त्रता की गारण्टी है और एक सीमा तक अत्याचार से सुरक्षा प्रदान करता है । जे. एस. मिल ने भी यह आशंका प्रकट की है कि एक ही सदन होने से वह' निरंकुश' या ‘अहंकारपूर्ण' हो सकता है।

न्यायमूर्ति स्टोरी ने कहा है कि, "विधानमण्डल के अत्याचारों से बचने का उपाय यही है कि उसके कार्यों का विभाजन कर दिया जाय। स्वार्थ के विरुद्ध स्वार्थ, महत्वाकांक्षा के विरुद्ध महत्वाकांक्षा और एक सदन के गठबन्धन व प्रभुत्व के विरुद्ध दूसरे सदन का वैसा ही गठबन्धन और प्रभुत्व खड़ा कर दिया जाय ।

(2) द्वितीय सदन जल्दबाजी, आवेशपूर्ण, विवेकरहित कानून निर्माण को रोकता है – यदि एक ही सदन हो और वह भावावेश व जल्दबाजी में बिना सोचे-विचारे ऐसे कानून बना दे जिनके दूरगामी परिणाम गम्भीर निकलें तो इससे बचने का उपाय द्वितीय सदन का निर्माण है। 

ब्लण्टश्ली का कहना ठीक है कि दो आँखों की तुलना में चार आँखें सदैव अच्छी तरह देखती हैं, विशेषकर उस समय जब किसी प्रश्न पर विभिन्न पहलुओं से विचार करने की आवश्यकता हो ।

(3) विशेषज्ञता का उपयोग – द्वितीय सदन की स्थापना से देश को उन योग्य व अनुभवी लोगों की सेवाओं से लाभान्वित किया जा सकता है।

जो निर्वाचनों की कीचड़ में फँसना नहीं चाहते या जिनके पास चुनाव लड़ने के लिए धन नहीं है या आम जनता उनकी योग्यता से परिचित नहीं है। ऐसे योग्य लोगों को द्वितीय सदन में नामजद किया जा सकता है। 

उदाहरण के लिए, भारतीय संसद के उच्च सदन राज्यसभा में 12 ऐसे लोगों को राष्ट्रपति मनोनीत करता है जो विज्ञान, कला, साहित्य और सामाजिक सेवा में विशिष्ट योग्य व अनुभवी हैं।

(4) विशिष्ट हितों और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व - द्वितीय सदन में निर्वाचन की किसी विशेष प्रणाली द्वारा अथवा मनोनीत करके विशिष्ट हितों और अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। 

भारतीय संघ के उन राज्य विधानमण्डलों में जहाँ कि दो सदन हैं, वहाँ विधान परिषदों में विशिष्ट हितों को प्रतिनिधित्व दिया गया है।

(5) द्वितीय सदन जनमत प्रकट करने का अवसर देता है - द्विसदनात्मक प्रणाली में जब एक सदन किसी विधेयक को पारित कर देता है और दूसरा सदन उस पर विचार करता है, इस बीच के समय में जनमत को संगठित होने व प्रकट होने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। 

दूसरे शब्दों में द्वितीय सदन किसी कानून के पारित होने में आवश्यक देरी करने के लिए आवश्यक है जिससे कि प्रथम सदन द्वारा पारित करने के बाद विधेयक पर जनता अपना मत प्रकट कर सके।

(6) संघ राज्य के लिए द्वितीय सदन की अनिवार्यता - संघात्मक राज्य के लिए द्वितीय सदन आवश्यक है। संघ राज्य में निचला सदन समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है और इसमें विभिन्न राज्यों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व का स्थान मिलता है।

परन्तु द्वितीय सदन संघ शासन में राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है और अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड जैसे संघ राज्यों में इकाइयों (राज्यों) को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। भले ही उनकी जनसंख्या व क्षेत्रफल किसी से भी अधिक या कम हो। 

इस प्रकार द्वितीय सदन के माध्यम से छोटे-छोटे राज्य बराबरी के आधार पर अपने हितों की रक्षा कर सकते हैं।

(7) कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता - द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदन एक-दूसरे की शक्ति को रोकने का प्रयत्न करते हैं, फलस्वरूप कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता मिल जाती है। जो कि उसके उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए आवश्यक है। 

गैटिल के शब्दों में दो सदन एक-दूसरे पर रुकावट का काम करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं और अन्त में इससे लोकहित की वृद्धि होती है।

(8) द्वितीय सदन प्रथम सदन से अधिक स्थायी होते हैं - द्वितीय या उच्च सदनों में उनके छोटे आकार के कारण न केवल योग्य और महत्वाकांक्षी लोगों को अपने गुण प्रदर्शित करने का अवसर मिलता है, वरन् द्वितीय सदन अधिक स्थायी भी होते हैं। 

ब्रिटेन में लार्डसभा के सदस्य आजीवन भर के लिए होते हैं। अमेरिका व भारत में द्वितीय सदनों के सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं, जबकि अमेरिका में निचले सदन का कार्यकाल केवल 2 वर्ष ही है। 

इसीलिए लास्की ने कहा है कि एक सीनेटर का कार्यकाल इतना अधिक है कि यदि वह योग्य है तो समस्त राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। 

( 9 ) द्वितीय सदन विवाद का उपयुक्त स्थान है - इसके सदस्य तपे हुए व अनुभवी राजनीतिज्ञ होते हैं। इसके सदस्य दूरदर्शी व भावुक होते हैं, इनमें अपेक्षाकृत दलबन्दी भी कम पायी जाती है। 

अमेरिकन राष्ट्रपति वाशिंगटन ने सीनेट की उपयोगिता के बारे में कहा था कि सीनेट वह तश्तरी है जिसमें कि प्रतिनिधि सभा की पकाई गई चाय ठण्डी होती है । 

(10) द्वितीय सदन के अन्य लाभ - द्वितीय सदन के अन्य लाभ निम्नलिखित हैं

(i) द्वितीय सदन से निम्न सदन का कार्य बोझ कम हो जाता है । 

(ii) द्वितीय सदन से श्रम विभाजन के लाभ मिलते हैं, कुछ विशिष्ट प्रकार के विधेयकों को द्वितीय सदन में प्रस्तुत किया जा सकता।

द्विसदनात्मक पद्धति के विपक्ष में तर्क

1. दूसरा सदन आवश्यक नहीं- आधुनिक युग में कानूनी निर्मात्री संस्था पर समाचार-पत्रों या अन्य प्रचार माध्यमों के द्वारा नियन्त्रण रखा जा सकता है। इसके लिये अलग से एक सदन की आवश्यकता नहीं है। 

एबेसियस का यह कथन उचित है कि यदि दूसरा सदन पहले सदन का विरोध करता है, तो दुष्ट है और यदि सहमत हो जाता है, तो व्यर्थ है।

इसी प्रकार एक सदनात्मक व्यवस्थापिका का समर्थन करते हुए लॉस्की ने कहा है, “यदि पहले सदन के साथ दूसरा सदन निर्वाचित है, तो वह केवल पुनरावृत्ति ही होगी, यदि उसका गठन अलग-अलग समय में किया है, तो वह उचित नीति निर्माण में बाधक होगा।

2. सदनों में परस्पर टकराहट- यह माना जाता है कि दूसरा सदन होने से काम में गतिरोध उत्पन्न होता है। कई बार विधेयकों के सम्बन्ध में मतभेद होने पर व्यर्थ में वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इन व्यर्थ के वाद-विवादों में कोई ठोस निर्णय नहीं लिये जाते। 

इससे निष्क्रियता बढ़ती है। एबेसियस के मतानुसार जहाँ दो सदन होते हैं, वहाँ विरोध और विभाजन अनिवार्य होगा और लोगों की इच्छा निष्क्रियता के कारण शक्ति हीन हो जायेगी।

दो सदनों के होने से उनकी शक्तिके निर्धारण के सम्बन्ध में भी टकराव की सम्भावना उत्पन्न हो सकती है। अतः व्यवस्थापिका को संघर्ष का अखाड़ा न बनाने के लिये एक सदनात्मक व्यवस्थापिका उचित है।

3. प्रजातन्त्र विरोधी- द्विसदनात्मक प्रणाली प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध है। इसके संगठन में कई बार उत्तराधिकार के आधार पर सदस्य चुने जाते हैं तथा इसके कुछ सदस्यों का मनोनयन जीवन भर के लिये कर दिया जाता है। 

इन सदस्यों की नियुक्ति अप्रत्यक्ष रूप से होने के कारण पूँजीपति तथा रूढ़िवादी लोग भी सदस्य बन जाते हैं और ये सदस्य सुधार के मार्ग में बाधा उपस्थित करते हैं। अतः यह अप्रजातान्त्रिक प्रणाली है। 

द्वितीय सदन में कई बार ऐसे व्यक्तियों को भी नामजद कर दिया जाता है, जिन्हें जनता चुनाव में अस्वीकार कर चुकी होती है। जनमत की अपेक्षा करना प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

4. पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं - एक सदनात्मक व्यवस्था के आलोचकों का यह कथन उचित नहीं है कि निम्न सदन आवेश में बिना किसी विचार-विमर्श के विधेयक पास कर देता है। 

प्रत्येक विधेयक पर सदन में बहस होती है, विचार-विमर्श होता है, विभिन्न समाचार पत्रों के माध्यम से जनमत प्रकट होता है, तब जाकर शासन उस विधेयक को पारित करता है। इतना सब होने के बाद दूसरे सदन द्वारा पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं रहती है। 

यदि उसमें कुछ त्रुटि रह भी जाती है, तो राष्ट्रपति उसे पुनः विचार हेतु सदन में भेज सकता है। अतः लॉस्की का कथन उचित है, “कोई भी विधेयक उतावलेपन में पास नहीं होता। इसलिए यह कहना व्यर्थ है कि दूसरा सदन पहले सदन द्वारा पास किये गये विधेयकों की अशुद्धियों को दूर करता है।

5. अप्रगतिशील पद्धति - सामान्यतः उच्च सदन में रूढ़िवादी प्रवृत्ति के लोग होते हैं। वे समाज के हित की अपेक्षा वर्ग- विशेष के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये लोग विशेष हितों के प्रतिनिधित्व के नाम पर धनिक वर्ग या सामन्त वर्ग के हितों का पोषण करते हैं और प्रगतिशील कानूनों के निर्माण में बाधा डालते हैं।

6. विधि निर्माण में विलम्ब - द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के कारण विधि निर्माण में अनावश्यक विलम्ब होता है। कानून निर्माण की प्रक्रिया में पुनरावृत्ति के कारण समय और शक्ति की बर्बादी होती है। शीघ्र निर्णय लेने में कठिनाई होती है।

7. उत्तरदायित्व की स्पष्टता का अभाव - एक सदनात्मक विधानमण्डल में तो उत्तरदायित्व स्पष्ट होता है। किन्तु द्विसदनात्मक संसद में इसके अभाव में अकुशलता की सम्भावना बढ़ जाती है।

इस प्रकार दोनों तरह की व्यवस्थापिकाओं में कुछ गुण हैं तो कुछ दोष भी हैं। किन्तु द्विसदनात्मक पद्धति आधुनिक युग में राज्यों की पहली पसंद है। क्योंकि यह अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा तथा निम्न सदन पर अंकुश लगाने का श्रेष्ठ साधन है। 

इसके अतिरिक्त द्वितीय सदन बुद्धिमानों, वैज्ञानिकों, कलाकारों आदि का केन्द्र होता है। उनकी योग्यता तथा अनुभव का लाभ सम्पूर्ण देश को प्राप्त होता है। 

बड़े राज्यों में तो द्विसदनात्मक पद्धति अधिक उपयुक्तहै। हाँ, छोटे राज्यों के लिए एक सदनात्मक प्रणाली अधिक उपयोगी है। कार्यों एवं शक्तियों का वर्णन

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