चीनी गणराज्य की संघीय कार्यपालिका की शक्तियों का परीक्षण कीजिए

जनवादी चीन के संविधान द्वारा कार्यपालिका के क्षेत्र में तीन संस्थाओं की व्यवस्था की गई है। ये संस्थाएँ हैं- राष्ट्रपति, राज्य (परिषद्) और केन्द्रीय सैनिक आयोग। चीनी गणराज्य की संघीय कार्यपालिका की शक्तियों का परीक्षण कीजिए।    

चीनी गणराज्य की संघीय कार्यपालिका की शक्तियों का परीक्षण कीजिए

नये चीनी संविधान से ऐसा लगता है कि सिद्धान्त रूप से चीन में संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना की गयी है। चीन के विधानमण्डल का नाम 'राष्ट्रीय जनवादी कांग्रेस रखा गया है तथा मन्त्रिपरिषद को 'राज्य परिषद' की संज्ञा दी गयी है। नये संविधान में राष्ट्राध्यक्ष तथा केन्द्रीय सैनिक आयोग की स्थापना की गयी है। 

जनवादी चीन में राष्ट्रपति का पद 

1954 ई. के चीनी संविधान में राष्ट्रपति पद (जिसे चीनी गणराज्य के चेयरमैन का नाम दिया गया था) का प्रावधान किया गया था। संविधान की 8 धाराएँ (धारा 39 से 46) 5 राष्ट्रपति के पद एवं शक्तियों से सम्बन्धित थीं। 

चीनी गणराज्य का अध्यक्ष राष्ट्रीय न कांग्रेस द्वारा निर्वाचित होता था और सामान्य तौर पर उसका कार्यकाल 4 वर्ष था। अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त थीं जिसमें कार्यपालिका, न्यायिक, राजनयिक एवं जक शक्तियों मुख्य थी। 

कार्यपालिका शक्तियों के अन्तर्गत (i) विधियाँ एवं आज्ञप्तियाँ सारित करना, तथा (ii) प्रधानमन्त्री एवं अन्य मन्त्रियों, विभिन्न आयोगों के सदस्यों की नियुक्ति एवं पदच्युत आदि सम्मिलित था। 

न्यायिक शक्तियों में क्षमादान का अधिकार निहित था। राजदूतों की नियुक्ति तथा उनकी वापसी, दूसरे देशों से आने जाने वाले राजदूतों का स्वागत आदि औपचारिक कार्य चीनी गणराज्य के अध्यक्ष की राजनयिक शक्तियों में सम्मिलित थे। वह मौन की सेनाओं का सर्वोच्च अधिकारी भी था।

1957 ई. के संविधान के अन्तर्गत जनवादी चीन के राष्ट्रपति पद को समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार चीन की राज व्यवस्था में कोई सर्वोच्च पद नहीं रहा और माओ की मृत्यु के बाद चीन में कोई सर्वोच्च नेता भी नहीं रहा। 

यही कारण था कि चाऊ-एन-लाई तथा माओ की मृत्यु के उपरान्त चीन में सत्ता के लिए तीव्र संघर्ष प्रारम्भ हो गया। 1978 ई. के संविधान में भी राष्ट्रपति जैसे किसी पद की व्यवस्था नहीं की गयी थी। 

लेकिन व्यवहार में यह अनुभव किया गया कि कार्यपालिका के क्षेत्र में सर्वोच्च पद की व्यवस्था न होने पर संस्थागत अस्थायित्व की स्थिति जन्म ले लेती है और शासन की क्षमता को आघात पहुँचाती है। 

अतः 1982 ई. के नये संविधान में राष्ट्रपति पद की पुनर्स्थापना की गयी है तथा ऐसा करने का लक्ष्य यही है कि चीन की आन्तरिक व्यवस्था और अधिक मजबूत हो तथा संस्थागत अस्थायित्व दूर हो।

निर्वाचन- नये संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार जनवादी चीन के राष्ट्रपति का निर्वाचन राष्ट्रीय जन कांग्रेस द्वारा किया जायेगा। चीनी गणराज्य का कोई भी नागरिक मताधिकार प्राप्त है। 

जो चुनाव में उम्मीदवार होने की योग्यता रखता है तथा जिसकी उम्र 45 वर्ष है, राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बन सकता है। राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष है। कोई भी व्यक्ति अधिक से अधिक दो कार्यकाल पूरे कर सकता है।

शक्तियाँ एवं कार्य

1982 ई. के चीनी संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के निम्नलिखित कार्य हैं 

(1) राष्ट्रीय जन कांग्रेस अथवा उसकी स्थायी समिति के आदेशानुसार वह विधियों पर अध्यादेशों को प्रभावी करता है।

(2) प्रधानमन्त्री, उप- -प्रधानमन्त्री, मन्त्रियों आयोगों के प्रधानों और राज्य परिषद के महासचिव की नियुक्ति करता है एवं उन्हें पद से हटाता है, ऑडीटर जनरल की नियुक्ति करता है तथा उन्हें पद से हटाता है।

(3) राज्य की ओर से नागरिकों को सम्मानार्थ उपाधियाँ आदि देता है। 

(4) सार्वजनिक क्षमादान की घोषणा करता है और व्यक्तिगत अपराधियों को क्षमादान देता है। 

(5) सैनिक कानून लागू करता है और प्रतिरक्षा के लिए तैयार होने का आदेश जारी करता है।

उपर्युक्त कार्यों को वह राष्ट्रीय जन कांग्रेस तथा उसकी स्थायी समिति के आदेशों के अनुसार ही कर सकता है। संविधान के अनुच्छेद 81 के अनुसार राष्ट्रपति के कुछ अन्य कार्य भी हैं. 

(1) चीनी गणराज्य के वैदेशिक सम्बन्धों में राज्य का प्रतिनिधित्व करना। 

(2) विदेशी राजनयिक प्रतिनिधियों का स्वागत करना।

(3 दूसरे देशों में चीन के राजनयिक प्रतिनिधियों को नियुक्त करना एवं वापस बुलाना। 

(4) विदेशों से की गयी सन्धियों एवं समझौतों की पुष्टि करना अथवा उन्हें रद्द करना।

राष्ट्रपति की स्थिति

राष्ट्रपति के कार्यों का अध्ययन करने से स्पष्ट है कि उसके अधिकांश कार्य क्षेत्र औपचारिक हैं। वह इन कार्यों को राष्ट्रीय जन कांग्रेस अथवा उसकी स्थायी समिति की इच्छाओं के अनुसार करता है।

चीन के राष्ट्रपति की तुलना संसदीय व्यवस्था वाले राज्य के संवैधानिक प्रमुख से नहीं की जा सकती, क्योंकि उसे वैधानिक दृष्टि से राज्य के प्रधान की स्थिति प्राप्त नहीं है। 

उसे अमरीकी राष्ट्रपति के समान भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि वह कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग प्रधानमन्त्री और राज्य परिषद के माध्यम से करता है। 

उसे राष्ट्रीय जन कांग्रेस द्वारा पारित विधेयकों पर निषेधाधिकार के प्रयोग का अधिकार भी नहीं है। वैधानिक दृष्टि से वह परावलम्बी और दुर्बल है। वस्तुतः उसकी शक्ति साम्यवादी दल में उसकी स्थिति पर निर्भर करती है। 

यदि साम्यवादी दल इस पद पर किसी प्रथम श्रेणी के नेता को नियुक्त करता है तो राष्ट्रपति का पद अत्यन्त शक्तिशाली बन सकता है। मार्च 2003 ई. में हू जिन्ताओ को चीन के राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित किया गया। इसके पूर्व (1993 से फरवरी 2003) तक जियांग जेमिन चीन के राष्ट्रपति थे।

जनवादी चीन में उपराष्ट्रपति का पद

1954 ई. के चीनी संविधान में उपराष्ट्रपति पद का प्रावधान था और श्रीमती सुनयात सेन वर्षों तक उपराष्ट्रपति पद पर कार्य करती रही थीं। उपराष्ट्रपति राजकार्य में राष्ट्रपति की सहायता करता था।

नये संविधान में भी उपराष्ट्रपति पद का प्रावधान है। उसका चुनाव राष्ट्रपति की भाँति ही राष्ट्रीय जन कांग्रेस करती है। उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए वे ही योग्यताएँ रखी गयी हैं, जो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए है। उसका कार्यकाल भी 5 वर्ष रखा गया है।

के संविधान के अनुच्छेद 82 के अनुसार उपराष्ट्रपति का प्रमुख कार्य गणराज्य के राष्ट्रपति की सहायता करना है। राष्ट्रपति उसे आवश्यकतानुसार शक्तियाँ प्रदान करता है और कर्त्तव्यों का निर्धारण करता है।

राष्ट्रपति की अनुपस्थिति अथवा अस्वस्थता के समय वह राष्ट्रपति के समस्त कार्यों को करता है। अनुच्छेद 84 के अनुसार राष्ट्रपति का स्थान रिक्त होने पर उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति के पद पर आसीन कर दिया जाता है।

राज्य परिषद

चीन का नया संविधान कार्यपालिका और प्रशासन सम्बन्धी अधिकार राज्य परिषद को सौंपता है। संविधान के अनुच्छेद 86 में कहा गया है कि राज्य परिषद् केन्द्रीय जन सरकार है। राज्य परिषद राष्ट्रवादी जनवादी कांग्रेस तथा उसकी स्थायी समिति के प्रति उत्तरदायी और जवाबदेह है।

रचना और संगठन -राज्य परिषद् की रचना प्रधानमन्त्री, उप प्रधानमन्त्री, स्टेट कौंसिलरों, मन्त्रालय के प्रभावी मन्त्रियों, आयोगों के प्रभारी मन्त्रियों, ऑडिकर जनरल तथा महासचिव से मिलकर होती है। 

राज्य परिषद के बारे में समस्त दायित्व प्रधानमन्त्री पर है। 28 मार्च, 1993 को ली पेंग पुनः प्रधानमन्त्री पद पर निर्वाचित किये गये हैं।

संविधान राज्य परिषद् के सदस्यों की संख्या या मन्त्रालयों की भी चर्चा नहीं करता, जैसा कि पूर्व सोवियत संघ के संविधान में किया गया है। इन्हें निर्धारित करने का अधिकार राष्ट्रीय जन कांग्रेस को दिया गया है। 

चौथी राष्ट्रीय जन कांग्रेस (जनवरी 1975) ने साम्यवादी पार्टी की केन्द्रीय समिति के सुझाव पर जिस राज्य परिषद् का गठन किया, उसमें प्रधानमन्त्री, 12 उप-प्रधानमन्त्री और कुल 19 मन्त्रालय थे। कुछ उप प्रधानमन्त्री भी मन्त्रालय के प्रभारी थे, जबकि अन्य को कोई विशेष मन्त्रालय नहीं वरन् सामान्य जिम्मेदारी दी गयी।

राज्य परिषद का कार्यकाल राष्ट्रीय जन कांग्रेस की भाँति 5 वर्ष है। राज्य परिषद् राष्ट्रीय जन कांग्रेस और उसकी स्थायी समिति के प्रति उत्तरदायी है। इसलिए जहाँ तक इसके कार्यकाल का प्रश्न है, एक टीम के रूप में इसका कार्यकाल सामान्यतया 5 वर्षों से कुछ अधिक ही होगा।

जब तक नयी राष्ट्रीय जन कांग्रेस द्वारा नयी राज्य परिषद का गठन न कर लिया जाये। यदि राष्ट्रीय जन कांग्रेस का कार्यकाल बढ़ा दिया जाये, तो राज्य परिषद का कार्यकाल भी तदनुसार बढ़ जायेगा। लेकिन प्रत्येक स्थिति में यह राष्ट्रीय जन कांग्रेस तथा उसकी स्थायी समिति के प्रति उत्तरदायी है। 

प्रधानमन्त्री और मन्त्रिगण- नये संविधान के अनुच्छेद 88 के अनुसार राज्य परिषद् प्रधानमन्त्री के मार्ग निर्देशन में कार्य करेंगी। उप-प्रधानमन्त्री तथा स्टेट कौंसिलर उसके कार्यों में सहायता करेंगे। राज्य परिषद के कार्यकारी बैठकों में प्रधानमन्त्री, उप-प्रधानमन्त्री, स्टेट कौंसिलर तथा महासचिव सम्मिलित होंगे। 

राज्य परिषद की कार्यकारिणी की बैठक का आयोजन तथा अध्यक्षता प्रधानमन्त्री करेंगे। मन्त्रालयों के प्रभारी मन्त्री तथा आयोगां के अध्यक्ष अपने-अपने विभाग के कार्यों के प्रति उत्तरदायी होंगे। वे अपने-अपन विभागों की बैठकों का आयोजन करेंगे और विभागीय प्रश्नों पर निर्णय लेंगे।

प्रधानमन्त्री की स्थिति के सम्बन्ध में चीन के संविधान में कुछ भी नहीं कहा गया है, न ही इस बात की चर्चा है कि अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति प्रधानमन्त्री के परामर्श पर की जायेगी। उसकी संवैधानिक स्थिति की तुलना यदि भारत या ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री से की जाये, तो स्पष्ट ही उसका अधिकार क्षेत्र बहुत सीमित है। 

पूर्व सोवियत संघ के प्रधानमन्त्री के साथ ही उसकी तुलना उचित प्रतीत होती है। इन दोनों ही अधिकारियों को प्रधानमन्त्री के रूप में अलग से कोई महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं है। लेकिन क्यांकि प्रधानमन्त्री पदधारी ये व्यक्ति अपने-अपने देश की साम्यवादी पार्टी में प्रभावशाली स्थिति रखते हैं।

इसलिए शासन-व्यवस्था में भी उन्हें बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त होती है। परन्तु उसकी शक्तियों का स्रोत प्रधानमन्त्री पद नहीं, वरन् साम्यवादी पार्टी के नेतृत्व में उसे प्राप्त महत्वपूर्ण स्थिति है। 

उप-प्रधानमन्त्री के पदों पर भी साम्यवादी पार्टी के महत्वपूर्ण नेता नियुक्त किये जाते हैं अधिकांश मन्त्रिगण भी पार्टी की केन्द्रीय समिति के सदस्य होते हैं।

राज्य परिषद् की शक्तियाँ और कार्य

नये संविधान के अनुच्छेद 89 के अनुसार राज्य परिषद् को निम्नलिखित कार्य एवं शक्तियाँ सौंपी गयी हैं

(1) कानूनों और आज्ञप्तियों के अनुसार यह विभिन्न विभागों के प्रशासनिक कार्यों को निर्धारित करता है, उनके निर्णयों और आदेशों की घोषणा करता है और उनके कार्यपालन की देखरेख करता है।

(2) कानून सम्बन्धी विधेयकों को राष्ट्रीय कांग्रेस या उसकी स्थायी समिति के सम्मुख प्रस्तुत करता है।

(3)विभिन्न विभागों के कार्यों में समन्वय स्थापित करता है।

(4) मन्त्रियों अथवा समितियों के अध्यक्षों द्वारा जारी किये गये अनुपयुक्त निर्णय और आदेशों में संशोधन करता है या उन्हें रद्द कर देता है।

(5) स्थानीय समितियों के अनुपयुक्त निर्णयों और आदेशों में संशोधन करता या उन्हें रद्द करता है।

(6) राष्ट्रीय आर्थिक योजनाओं और राष्ट्रीय बजट को लागू करता है। 

(7) विदेशी और घरेलू व्यापार पर नियन्त्रण रखता है।

(8) सांस्कृतिक, शिक्षा सम्बन्धी और सार्वजनिक स्वास्थ्य के कार्यों का संचालन करता है।

(9) राष्ट्रीयता से सम्बन्धित कार्यों का संचालन करता है।

(10)  विदेशों में रहने वाले चीनियों से सम्बन्धित कार्यों का संचालन करता है। 

(11)  राज्य के हित की रक्षा करता है, सार्वजनिक व्यवस्था कायम रखता है और नागरिक अधिकारों की रक्षा करता है।

(12) वैदेशिक सम्बन्धों का संचालन करता है। 

(13) सशस्त्र सेनाओं का निर्माण तथा संचालन करता है ।

(14) स्वशासित जिलों, तहसीलों और नगरपालिकाओं के पद और सीमाओं को स्वीकार करता है।

(15) कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार प्रबन्धक अधिकारियों को नियुक्त पदच्युत करता और।

(16) राष्ट्रीय कांग्रेस या उसकी स्थायी समिति द्वारा सौंपे गये अन्य कार्य करता और अन्य अधिकारों का उपयोग करता है।

राज्य परिषद के कार्यों को देखने से ऐसा लगता है कि उसके कार्य प्रशासकीय कार्यों को निर्धारित करना; संविधान, कानून और आज्ञप्तियों के अनुकूल निर्णय और आदेश जारी करना; विभिन्न मन्त्रालयों, आयोगों तथा देश के अन्तर्गत स्थानीय स्तर के राज्यांगों का केन्द्रीकृत नेतृत्व करना; राष्ट्रीय आर्थिक योजना और राजकीय बजट का प्रारूप तैयार करना और उसे लागू करना है। 

इन सबके अतिरिक्त राज्य परिषद का एक महत्वपूर्ण कार्य उन प्रशासकीय कार्यों का निर्देशन करना तथा उन शक्तियों एवं कार्यों का सम्पादन करना है जो राष्ट्रीय जन कांग्रेस या उसकी स्थायी समिति द्वारा सौंपे जाते हैं।

 राज्य परिषद की वास्तविक स्थिति

यद्यपि राज्य परिषद् जनवादी चीन की कार्यपालिका और राज्य का सर्वोच्च प्रशासनिक अंग है, परन्तु इसे ब्रिटेन या भारत के मन्त्रिमण्डलों के समान गौरवपूर्ण स्थिति प्राप्त नहीं है। 

ब्रिटेन में जब तक मन्त्रिमण्डल को लोकसदन के बहुमत का समर्थन प्राप्त रहता है, तब तक वह प्रशासन के संचालन और कानून निर्माण, दोनों ही क्षेत्रों में महत्वपूर्ण शक्तियों का प्रयोग करता है। 

ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल की तुलना में चीन की राज्य परिषद् को अत्यन्त सीमित शक्तियाँ ही प्राप्त हैं। राज्य परिषद की कमजोर स्थिति का प्रमुख कारण यह है के राज्य परिषद पर साम्यवादी दल का पूर्ण नियन्त्रण है और राज्य परिषद साम्यवादी निर्धारित नीतियों के अनुसार ही शासन का संचालन करती है। 

ऑग और जिंक द्वारा 1954 ई. के संविधान द्वारा स्थापित राज्य परिषद के सम्बन्ध में कही गयी यह बात नवीन संविधान की राज्य परिषद् पर भी पूर्णतया लागू होती है।

सामान्यतया परिषद् साम्यवादी दल के पोलिट् ब्यूरो द्वारा पहले से लिये गये निर्णयों की पुष्टि ही करती है निश्चित रूप से यह केवल औपचारिक अर्थ में ही सर्वोच्च कार्यपालिका सत्ता है।

पोलित ब्यूरो के कारण उसके द्वारा वस्तुतः इस रूप में कार्य नहीं किया जा सकता है।” राज्य परिषद्: क्या एक संसदीय कार्यपालिका है? 

ऐसा लगता है कि चीन की राज्य परिषद् को संसदात्मक स्वरूप देने की चेष्टा की गयी है। नये संविधान के अनुच्छेद 92 के अनुसार राज्य परिषद् राष्ट्रीय जन कांग्रेस के प्रति और जब जन कांग्रेस का अधिवेशन न हो रहा हो, तब उसको स्थायी समिति के प्रति उत्तरदायी है और उसके समक्ष अपने कार्यों के सम्बन्ध में रिपोर्ट प्रस्तुत करती है। 

इस प्रकार राज्य परिषद को विधानमण्डल के अन्य सदस्यों का निर्वाचन राष्ट्रीय कांग्रेस के अनुसमर्बन का विषय है और राष्ट्रीय कांग्रेस उन्हें आवश्यकतानुसार पदच्युत भी कर सकती है। 

संविधान के अनुसार राष्ट्रीय जन कांग्रेस के सदस्य मन्त्रियों तथा अन्य आयोग के अध्यक्षों से प्रश्न पूछ सकते हैं और उनके द्वारा प्रश्नों का उत्तर दिया जाना आवश्यक हुए प्रावधानों से राज्य परिषद को उत्तरदायी कार्यपालिका का रूप देने का प्रयास किया गया, परन्तु व्यवहार में स्थिति भिन्न प्रकार की है। 

व्यवहार में सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त चीन में प्रचलित नहीं है। व्यवहार में राज्य परिषद पर साम्यवादी दल का नियन्त्रण रहता है न कि राष्ट्रीय जन कांग्रेस का एक अन्य बात जो राष्ट्रीय जन कांग्रेस तथा राज्य परिषद के आपसी सम्बन्धों में राज्य परिषद को अधिक शक्तिशाली बना देती है।

यह है कि राज्य परिषद के प्रधानमन्त्री तथा उप-प्रधानमन्त्री साम्यवादी दल की केन्द्रीय समिति के सदस्य होते हैं और इस प्रकार राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा नियन्त्रित होने के बजाय स्वयं उस पर अपना नियन्त्रण स्थापित करने में सफल होते हैं। 

इन तथ्यों के प्रकाश में यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि चीन में राज्य परिषद राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति उस अर्थ में उत्तरदायी नहीं है जिस प्रकार ग्रेट ब्रिटेन और भारत में मन्त्रिमण्डल अपनी सांसदों के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

संक्षेप में, चीन के संविधान के अन्तर्गत संसदीय कार्यपालिका के केवल बाहरी रूप को अपनाया गया है, संसदीय कार्यपालिका की आत्मा को ग्रहण नहीं किया गया है।

राज्य परिषद् पूर्व सोवियत संघ की मन्त्रिमण्डल के अनुरूप है, जिससे चीन के संविधान के निर्माताओं ने अधिकाधिक प्रेरणा ली है।

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