बोली और भाषा में अंतर बताइए - boli aur vibhasha mein antar

भाषा संस्कृत के भाष् धातु से बनी है, जिसका अर्थ व्यक्त वाणी होता है। वास्तव में भाषा वह सशक्त माध्यम है। जिसके द्वारा विचारों का विनिमय किया जा सकता है। सामान्य रूप में जिन ध्वनि और चिन्हों के माध्यम से मनुष्य विचार-विनिमय करता है। उसे ही भाषा कहते हैं। भाषा का मूल सम्बन्ध बोलने से है। 

बोली एक छोटे समूह द्वारा बोली जाने वाली भाषा का एक रूप है। किसी का उच्चारण उनकी बोली का हिस्सा होता है। इस तरह कभी-कभी किसी का लहजा बता सकता है कि वह किस स्थान का है। बोलियों के कुछ उदाहरणों में अवधि, भोजपुरी, मारवाड़ी, मगधी और छत्तीसगढ़ी हैं।

बोली और भाषा में अंतर बताइए

भाषाएँ व्यापक होती हैं, और बोलियाँ छोटी और अधिक विशिष्ट होती हैं। भाषाओं को अधिक औपचारिक और स्पष्ट रूप से परिभाषित माना जाता है, जबकि बोलियाँ शिथिल और उपयोग में अधिक तरल होती हैं। अक्सर, देशों और राज्यों द्वारा भाषाओं को आधिकारिक रूप में अपनाया जाता है, लेकिन बोलियाँ शायद ही कभी आधिकारिक होती हैं।

भाषा - भाषाविदों के अनुसार भाषा व्याकरणिक नियमों द्वारा शासित प्रतीकों और अर्थों की एक अमूर्त प्रणाली है। आमतौर पर भाषा के दो मुख्य पहलू होते हैं।  बोली जाने वाली और लिखित। यह हमेशा नहीं होता है, हालांकि, कई भाषाओं में लिखित रूप नहीं होती है। अन्य प्राचीन या 'मृत' भाषाएं अब केवल पाठ में मौजूद हैं और उनके कोई वक्ता नहीं है। बोलने, लिखने और पढ़ने जैसे कार्य अधिकांश भाषाओं का प्राथमिक पहलू है।

बोली - बोली को किसी विशेष भाषा के प्रका' के रूप में देखा जाता है। इसे किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा का एक संस्करण के रूप में परिभाषित किया गया है। यदि व्यापक भाषा पिता है, तो बोली बालक है। बोलियाँ किसी भाषा की सामाजिक या क्षेत्रीय विविधताएँ होती हैं जो व्याकरण, उच्चारण और शब्दावली द्वारा प्रतिष्ठित होती हैं। बोलियाँ अक्सर भाषा के मानकीकृत संस्करण से भिन्न होती हैं।

भाषा के विविध रूपों का वर्णन कीजिए

भाषा की अनेक प्रवृत्तियों के कारण भाषा वैज्ञानिकों ने इसके विविध रूपों एवं विकास के विविध आयामों की ओर ध्यान आकृष्ट किया हैं। सच तो यह है कि अंधकार में बोलते हुए व्यक्ति को भाषण-पद्धति से हम पहचान लेते हैं। दूरभाष पर आवाज के माध्यम से भी व्यक्ति को पहचाना जा सकता है। 

ऐसी स्थिति में यह तथ्य स्पष्ट होता है कि जितने व्यक्ति हैं उतनी भाषा अथवा बोलियाँ हैं। भाषा विकास के आंगिक, वाचिक, लिखित और यांत्रिक ये सब विविध सोपान माने गये हैं।

आमतौर पर मुखविवर से निसृत होने वाले प्रत्येक ध्वनि संकेत को भाषा की संज्ञा दी जाती है। किन्तु भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि में यह सब भाषा नहीं है। समाज में उनके पृथक्-पृथक् व्यवहार को दृष्टिगत कर भाषाविदों ने इन्हें विभिन्न नामों से संकेतिक किया है। इन्हें भाषा के विविध रूप की संज्ञा दी जाती है। इनमें से कुछ प्रमुख रूप हैं -

1. बोली - भाषा की छोटी इकाई है। बोली को विद्वान विभाषा अथवा उपभाषा भी कह देते हैं। परन्तु ध्यान देकर देखा जाये तो बोली एवं विभाषा में भेद होती है। किसी भी सीमित क्षेत्र की भाषा को उस क्षेत्र की उपभाषा कहकर पुकारा जाता है। 

जो वहाँ के निवासियों द्वारा दैनिक जीवन में प्रचलित होती है। लेखन, साहित्यिक प्रयोग, व्याकरण आदि से इनका सम्बन्ध नहीं होता हैं। भाषा की तरह इनमें व्यापकता की दर्शन नहीं होते हैं। इसकी रूप-रचना और उच्चारण में स्थानीय प्रभाव देखा जा सकता है। 

इसी प्रकार ब्रजभाषा, भोजपुरी आदि के स्वरूप भी स्पष्ट होते हैं। निजी उच्चारण के कारण बोली का अपना अस्तित्व होता है। किसी स्थान विशेष के निवासियों एवं अशिक्षित लोगों की बोलचाल में प्रयुक्त होने वाली भाषा को बोली कहा जाता है। 

यही कारण है कि शिक्षित होने पर भी परिनिष्ठित एवं साहित्यिक भाषाओं का ज्ञान होने पर भी, अनेक लोग अपने परिवार एवं समुदाय के लोगों के साथ क्रमश: अपनी बोली में ही वार्तालाप करते हैं। अतः बोली एवं विभाषा में पर्याप्त अन्तर है।

2. विभाषा - विभाषा, भाषा की पूर्व इकाई है। जब कोई बोली धार्मिक श्रेष्ठता, भौगोलिक विस्तार अथवा उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाओं के कारण समग्र प्रान्त अथवा उपप्रान्त में प्रचलित होकर साहित्यिक रूप धारण कर लेती है, तब उसे विभाषा अथवा उपभाषा की संज्ञा दी जाती है। 

भाषाविज्ञान में कहा गया है कि विभाषा किसी भाषा के उस विशिष्ट रूप को कहा जाता है। जो किसी प्रान्त विशेष अथवा सीमित भौगोलिक क्षेत्र में बोली जाती है। जो अपने उच्चारण, व्याकरण रूप एवं शब्द-प्रयोग की दृष्टि से अन्य साहित्यिक भाषाओं से भिन्न होती है।

भारत में प्रचलित ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, कन्नड़, बंगला आदि सभी विभाषा है। ऐतिहासिक, राजनीतिक एवं भौगोलिक कारणों से ही बोलियाँ साहित्यिक रूप धारण कर विभाषा बन जाती हैं।

3. परिनिष्ठित भाषा - परिनिष्ठित भाषा को मानक भाषा अथवा टकसाली भाषा भी कहा जाता है। यह व्याकरण और साहित्यिक भाषा होती है। सभी औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग किया जाता है।

सभ्य, संभ्रान्त तथा शिक्षित लोगों के बीच इस भाषा का प्रयोग होता है। किसी भाषा की उस विभाषा को ही परिनिष्ठित भाषा की संज्ञा दी जा सकती है जो उस भाषा की अन्य विभाषाओं पर अपनी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक श्रेष्ठता स्थापित कर लेती है। अन्य विभाषाओं के वक्ता भी उस भाषा को सर्वाधिक उपयुक्त समझने लगते हैं। 

इस प्रकार मानक भाषा के रूप में स्थायित्व लिये यह परिनिष्ठित भाषा एक विशाल जन समुदाय के विचार-विनिमय का साधन बन जाती है। इसका ही सर्वाधिक प्रयोग शिक्षा, साहित्यिक रचना, पत्र-व्यवहार आदि के लिए होता है।

आज सम्पूर्ण विश्व में अनेक मानक भाषाएँ हैं। वे पहले बोली के रूप में प्रचलित रहीं परन्तु कालान्तर में व्याकरण से अनुशासित होकर वे भाषा का रूप धारण कर ली हैं। 

हिन्दी, संस्कृत, रूसी, फ्रेंच, अंग्रेजी, लेटिन, जर्मनी आदि अनेक भाषाएँ हैं जिन्हें परिनिष्ठित अथवा मानक भाषा कहा जाता है। पत्र पत्रिका, ज्ञान-विज्ञान, पठन-पाठन आदि क्षेत्रों में इनका सर्वाधिक प्रयोग होता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि जहाँ बोली का क्षेत्र अत्यंत सीमित होता है। परिवर्तनशील होता है वही भाषा का क्षेत्र व्यापक और स्थायी होता है। विभिन्न कारणों से व्याकरण बद्ध होकर बोली भाषा बन जाती है। वह परिनिष्ठित रूप लेकर सर्वमान्य बन जाती है।

4. सृजनात्मक भाषा - भाषा और साहित्य में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। विश्व के प्रत्येक साहित्य की निजी भाषा होती है। भाषा और साहित्य एक-दूसरे के पूरक होते हैं। जिन भाषाओं का मुख्यतः साहित्य-सृजन के लिए प्रयोग होता है।  उन्हें सर्जनात्मक भाषा की संज्ञा दी जाती है। 

बोल-चाल की भाषा में अपरिष्कृत, अपरिमार्जित और अशुद्ध रूप का प्रयोग भी हो जाता है परन्तु साहित्य में व्याकरण सम्मत भाषा का होना अनिवार्य है। समय और परिवेश के अनुसार इन सृजनात्मक भाषाओं में परिवर्तन की गुंजाइश बनी रहती है। विकास के विभिन्न सोपानों पर चढ़ती हुई भाषा गतिशील रहती है।

उदाहरण के लिए हिन्दी का आदिकालीन, मध्यकालीन एवं रीतिकालीन स्वरूप आज से बहुत भिन्न था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रयास से इसका स्वरूप मानक बना हैं। 

छायावाद में फिर भी आज का रूप नहीं दिखा परन्तु प्रगतिवाद, नई कविता में आकर इसका स्वरूप शुद्ध सृजनात्मक बन गया हैं। साहित्यिक भाषा के रूप में सृजनात्मक भाषा भूखण्ड, प्रान्त, प्रदेश तक सीमित नहीं रहता इसका स्वरूप व्यापक बन जाता है।

भाषा की प्रमुख विशेषताएँ 

  1. यह परिनिष्ठित और व्याकरण सम्मत होती है। 
  2. इसका स्वरूप स्थायी होता है तथा व्यापक भी।
  3. इसी भाषा में साहित्यिक रचना होती है तथा कवि, लेखक एवं समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं। 
  4. धार्मिक सम्मेलन और औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग किया जाता है। 
  5. इस भाषा की अपनी लिपि होती है।
  6. आस-पास की बोलियों का इस पर प्रभाव पड़ता है।
  7. इसमें अमिधा शब्द शक्ति का अधिक प्रयोग होता है।
  8. यह प्रान्त तक सीमित नहीं होती इसकी पकड़ अन्तर्प्रान्तीय स्थलों तक होती है। 
  9. सर्जनात्मक हिन्दी में कार्यालयी रूप में कर्म वाक्य की प्रधानता रहती है। 
  10. इस हिन्दी में समस्रोतीय घटकों से शब्द रचना का विशेष बन्धन नहीं है। 

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