दण्ड का अर्थ है - dand ka arth

अधिकांशतः दण्ड का अर्थ शारीरिक पीड़ा से लिया जाता है किन्तु यह सदा आवश्यक नहीं है । दण्ड तो सामाजिक नियन्त्रण का साधन है। कॉनसाइज डिक्शनरी के अनुसार दण्ड का अर्थ है, दर्द, जुर्माना, ईश्वर या न्यायानुसार दण्ड, शारीरिक पीड़ा अथवा डांट-फटकार देना । 

दण्ड का अर्थ है

वेस्टरमार्क के अनुसार  दण्ड वह यातना या कष्ट है जो अपराधी को उस समाज के द्वारा या उस समाज के नाम पर, जिसका कि वह स्थायी या अस्थायी सदस्य है। एक निश्चित रूप में दिया जाता है। सेथना के अनुसार दण्ड एक प्रकार की समाजिक निन्दा है और आवश्यक रूप में उसमें शारीरिक पीड़ा का होना जरूरी नहीं है।

टॉफ्ट के अनुसार हम दण्ड की परिभाषा उस जागरूक दबाव के रूप में कर सकते हैं जो समाज की शान्ति भंग करने वाले व्यक्ति को अवांछनीय अनुभवों वाला कष्ट देता है, यह कष्ट हमेशा की उस व्यक्ति के हित में नहीं होता है।

सदरलैण्ड के अनुसार, दण्ड में दो बातें आवश्यक रूप से पाई जाती है-

  • दण्ड समूह द्वारा अपने समूह के सदस्य को दिया जाता है।
  • दण्ड में पीड़ा है जो सामाजिक मूल्यों द्वारा उचित ठहराई जाती है।

इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था की रक्षा के लिए शारीरिक या मानसिक भय या कष्ट प्रदान करना दण्ड है। दण्ड में अपराधी को सुधारने की भावना प्रबल होनी चाहिए जिससे वह अपने किए पर पश्चात्ताप करे। हिन्दू धर्मशास्त्रों में भी एक व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भोगना होता है। दण्ड कर्मों का ही प्रतिफल है ।

बेन एवं फ्लू ने दण्ड की अवधारणा में पाँच तत्वों को सम्मिलित किया है- 

  • दण्ड में पीड़ा या ऐसे परिणाम अवश्य होने चाहिए जो सामान्यतः अप्रिय हों, 
  • दण्ड कानून के विरुद्ध अपराध के लिए दिया जाना चाहिए, 
  • दण्डित व्यक्ति अपराधी या अनुमानित अपराधी होना चाहिए, 
  • दण्ड ऐसे व्यक्तियों द्वारा दिया जाना चाहिए जो स्वयं अपराधी नहीं हों, तथा 
  • दण्ड उस एजेंसी, सत्ता या संस्था द्वारा दिया जाना चाहिए जिसकी संस्थापना कानून द्वारा की गई हो।

इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि 

(1) दण्ड देने का कार्य समाज या राज्य के द्वारा किया जाता है।

(2) दण्ड में पीड़ा या ऐसे परिणाम अवश्य होते हैं जिन्हें सामान्यतः अप्रिय माना जाता है। 

(3) दण्ड अपराधी या अनुमानित अपराधी को दिया जाता है। 

(4) दण्ड एवं अपराधी क्रिया के बीच एक विनिमय होता है अर्थात् दण्ड की मात्रा अपराध की प्रकृति एवं गम्भीरता पर निर्भर होती है। 

(5) दण्ड इसलिए दिया जाता है कि अपराधी की क्रिया सत्ता द्वारा नापसन्द की जाती है। 

(6) द्रण्ड ऐसे व्यक्तियों द्वारा दिया जाता है जो स्वयं अपराधी न हों।

दण्ड के उद्देश्य

प्रश्न उठता है कि दण्ड क्यों दिया जाता है, इसके उद्देश्य क्या हैं ? इस सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण पाए जाते हैं। दार्शनिक दण्ड का औचित्य देखता है तो वकील दण्ड को कानूनों की धाराओं के सन्दर्भ में । 

अपराधशास्त्री का सम्बन्ध दण्ड के उद्देश्य, प्रभाव एवं दण्ड देने व भुगतने वाले के सन्दर्भ में होता है। अधिकांश व्यक्ति यह मानते हैं कि दण्ड का उद्देश्य समाज में मूलभूत मूल्यों के प्रति अनुरूपता उत्पन्न करना है। 

कुछ विद्वान दण्ड का प्रमुख उद्देश्य अपराधी से बदला लेना मानते हैं तो कुछ अपराधों की रोकथाम एंव नियंत्रण | कुछ अन्य विद्वान दण्ड का उद्देश्य अपराधियों को सुधारना मानते हैं। दण्ड का एक प्रमुख उद्देश्य समाज की रक्षा करना है। 

अपराधी समाज को हानि न पहुँचाए इसके लिए समाज दण्ड की व्यवस्था करता है और दण्ड भी इस प्रकार का होता है जो भविष्य में भी उसे पीड़ा की याद दिलाता रहे जिससे कि वह समाज विरोधी कार्य कभी न करे। 

सुधारवादियों का मत है कि अपराधी एक रोगी के समान होता है। जिस प्रकार से रोगी को दवा देकर इलाज किया जाता है, उसी प्रकर से दण्ड के द्वारा अपराधी में सुधार लाया जाता है। 

निमोसिस की मान्यता है कि दण्ड का मुख्य उद्देश्य अपराधी के मस्तिष्क में यह बात बैठाना है कि अच्छे कार्य के लिए सदैव पुरस्कार मिलता है और बुरे कार्य के लिए उसे उसका वैसा ही फल भुगतना होता है । दण्ड के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं -

(i) समाज में व्यवस्था बनाए रखना, (ii) अपराधी को सुधारना, (iii) अपराध का निवारण करना, (iv) आहत व्यक्ति को संतोष प्रदान करना, (v) समाज में न्याय के सिद्धान्त को लागू करना, (vi) लोगों में यह भावना पैदा करना कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा व बुरे कर्मों का फल बुरा होता है। (vii) दण्ड राज्य की आय का एक साधन भी है। (viii) समाज में सामाजिक सुरक्षा की भावना को विकसित करके शान्ति की स्थापना करना।

दण्ड के उपर्युक्त उद्देश्यों से स्पष्ट है कि दण्ड का समाज में महत्वपूर्ण स्थान है। वास्तव में देखा जाए तो दण्ड के अभाव में किसी समाज की कल्पना तक नहीं की जा सकती। 

ग्रीन नामक समाजशास्त्री ने दण्ड के उद्देश्यों की विवेचना करते हुए ठीक ही लिखा है कि दण्ड का उद्देश्य अपराधी को कष्ट देना नहीं और न ही दोबारा अपराध करने से रोकने के लिए कष्ट देना है अपितु उन व्यक्तियों के मस्तिष्क में भय उत्पन्न कर देना है जो अपराध करने के लिए लालायित हो सकते हैं।

आदर्श दण्ड पद्धति की विशेषताएँ

सामान्यतः सभी समाजों में अपराध और दण्ड का अस्तित्व रहा है। दण्ड ही वह प्रमुख आधार है जो व्यक्ति में मानवीय प्रवृत्तियों को विकसित करता है । 

दण्ड को अपराध नियन्त्रण का एक प्रमुख साधन माना गया है । यद्यपि प्रत्येक युग में विद्वान आदर्श दण्ड नीति की व्यवस्था करते रहे हैं।

परन्तु फिर भी अपराधों की संख्या में कमी नहीं हुई है। दण्ड व्यवस्था को आदर्श बनाने के उद्देश्य से समय-समय पर उसमें परिवर्तन भी किए जाते रहे हैं ताकि अपराधों की संख्या में कमी लाई जा सके। किसी भी दण्ड पद्धति को आदर्श बनाने की दृष्टि से उसमें निम्नांकित विशेषताओं या लक्षणों का होना आवश्यक है।

(1) प्रभावशीलता - आदर्श दण्ड पद्धति में प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता होनी चाहिए। बेन्थम का मानना है कि व्यक्ति के सभी कार्य सुख और दुःख के सन्तुलन पर आधारित होते हैं। व्यक्ति सुख प्राप्ति के लिए अपराधिक कार्य करता है। 

ऐसी दशा में दण्ड व्यवस्था का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिससे व्यक्ति को अपराध कार्य में प्राप्त सुख के बजाय दण्ड में प्राप्त दुःख अधिक हो। ऐसा होने पर ही समाज पर दण्ड का प्रभाव पड़ेगा ।

(2) परिस्थितिशास्त्रीय ज्ञान  - अपराध के कारणों को विद्वानों ने दो भागों में बाँटा है- प्रथम, अपराध के लिए व्यक्ति का उत्तरदायित्व, द्वितीय, अपराध के लिए समाज का उत्तरदायित्व। 

आज के सुधारवादी युग में अपराध के लिए व्यक्ति के बजाय समाज और उसके वातावरण को अधिक दोषी माना जाता है। आज यह समझा जाता है कि परिस्थितियाँ व्यक्ति को अपराधिक कार्यों की ओर प्रेरित करती है। 

अतः आदर्श दण्डनीति निर्धारित करते और अपराधियों को दण्डित करते समय उन परिस्थितियों का ज्ञान होना आवश्यक है जिसमें रहकर व्यक्ति ने अपराध किया है। इससे अपराधी को उचित दण्ड मिलने में सहायता मिलेगी।

(3) शीघ्रता – आदर्श दण्ड नीति में न्याय प्रदान करने में शीघ्रता होना आवश्यक है। वास्तव में विलम्ब से किया गया न्याय, न्याय न देने के समान ही है। अपराधी को अपराध करने के तुरन्त बाद ही दण्ड दिया जाना चाहिए। यदि दण्ड में शीघ्रता का तत्व नहीं होगा तो समाज का उस पर कोई प्रभाव भी नहीं पड़ेगा।

(4) जन- विश्वास एवं आदर - आदर्श दण्ड नीति के प्रति जनता का विश्वास होना चाहिए और उस दण्ड-व्यवस्था के प्रति लोगों में आदर और सम्मान की भावना भी होनी चाहिए। इन दो तत्वों के अभाव में जनता दण्डनीति को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाएगी और ऐसी स्थिति में समाज में अपराध कम नहीं होंगे।

(5) सामूहिक जीवन - आदर्श दण्डनीति में अपराधियों के सामूहिक जीवन को प्रमुख स्थान दिया जाना चाहिए। 

इसका तात्पर्य यह है कि आदर्श दण्ड नीति में एकान्त कारावास को किसी भी रूप में मान्यता नहीं दी जानी चाहिए। सामूहिक कार्य की नीति को अपनाकर अपराधियों के पुनर्वास में सहायता पहुँचाई जा सकती है।

(6) मुआवजा  –  आदर्श दण्ड नीति में क्षतिपूर्ति का तत्व भी काफी महत्वपूर्ण होता है। क्षतिपूर्ति उस व्यक्ति के द्वारा कराई जानी चाहिए जिस व्यक्ति ने किसी अन्य को हानि पहुँचाई हो।

 यदि हानि पहुँचाने वाला व्यक्ति क्षतिपूर्ति करने की स्थिति में नहीं हो तो राज्य को क्षतिपूर्ति का उत्तरदायित्व अपने पर लेना चाहिए क्योंकि लोगों की जानमाल की रक्षा का दायित्व उसी का है।

(7) अपराधियों का पृथक्ककरण – यद्यपि आदर्श दण्ड नीति ऐसी होनी चाहिए जिसमें अपराधियों के सुधार तथा पुनर्वास की काफी सम्भावना हो, परन्तु जिन अपराधियों में सुधार और पुनर्वास की सम्भावना नहीं हो, उनके पृथक्करण की व्यवस्था भी अवश्य ही की जानी चाहिए।

(8) मृत्युदण्ड का भय - आदर्शदण्ड नीति में प्राणदण्ड या मृत्युदण्ड के भय को सम्मिलित करना आवश्यक है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को उसके प्राण सबसे प्रिय होते हैं। व्यावहारिक रूप से चाहे प्राणदण्ड को समाप्त कर दिया जाए परन्तु सैद्धान्तिक रूप से इसे समाप्त करना ठीक नहीं होगा।

इतना अवश्य है कि अति विशिष्ट परिस्थितियों में ही इसका सहारा लिया जाना चाहिए।

(9) निष्पक्षता – निष्पक्षता आदर्श दण्ड नीति की एक प्रमुख विशेषता है। दण्ड नीति को निर्धारित करते समय निम्नांकित बातों को महत्व नहीं दिया जाना चाहिए - (i) अपराधी की समाजिक प्रतिष्ठा, (ii) अपराधी की आर्थिक स्थिति, (iii) अपराधी की जाति, (iv) अपराधी का धर्म और सम्प्रदाय, (v) क्षेत्रीयता, (vi) राजनीतिक जीवन।

(10) बन्दी जीवन का अनुभव  – यद्यपि अपराधियों के प्रति आजकल सामान्यतः सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाता है। परन्तु बन्दी जीवन को अधिक सुविधामय तथा सुखमय नहीं बना दिया जाना चाहिए। 

वरना व्यक्ति पुनः अपराध की ओर प्रेरित होगा। जेल जीवन में व्यक्ति को इतना कटु अनुभव कराया जाना चाहिए कि वह दोबारा अपराध करके जेल जाने का प्रयत्न नहीं करे ।

(11) गिरोह महत्व का अभाव - साधारणतया अपराधी के पीछे कोई न कोई अपराधी गिरोह या गेंग होता है। इस गैंग का मुख्यिा भी होता है और मुखिया वह होता है जो कई बार अपराध के लिए दण्डित किया जा चुका है। आदर्श दण्ड नीति में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि दण्डित व्यक्ति को अपराधी गैंग में विशेष महत्व प्राप्त न हो सके। 

(12) सामाजिक समायोजन  – आदर्श दण्ड नीति का प्रमुख उद्देश्य यह होना चाहिए कि अपराधी का इस प्रकार से सुधार और पुनर्वास किया जाए कि पुनः उसका समाज में समायोजन हो सके।

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