दंड की अवधारणा क्या है - dand ki avdharna kya hai

प्रत्येक समाज साधारणतया अपने को अपराधों से मुक्त रखना चाहता है। कोई भी समाज अपने को अपराधों से मुक्त कैसे रख सकता है तथा वह अपराधियों को सुधार कर उन्हें सुयोग्य नागरिक कैसे बनाए।

यह उसके सामने एक विकट समस्या हैं इसके लिए समय-समय पर कई उपाय किए जाते रहे हैं। मानव सभ्यता के विकास के प्रारम्भिक काल से ही दण्ड की व्यवस्था द्वारा अपराध को रोकने का प्रयास किया जाता रहा है।

दण्ड के अभाव में अपराधों के बढ़ने और सर्वत्र अव्यवस्था फैलने की सम्भावना रहती है। इस अव्यवस्था के कारण समाज की प्रगति अवरुद्ध हो सकती है और सा जिक विघटन के लिए मार्ग प्रशस्त हो सकता है। 

दंड की अवधारणा क्या है

समाज से अव्यवस्था को दूर करने तथा सबको न्याय जाने के उद्देश्य से नियम और कानून बनाए जाते हैं जिनका पालन करना प्रत्येक के लिए आवश्यक होता है। 

इन नियमों तथा कानूनों की रक्षा के लिए समाज जिस विधि का उपयोग करता है। उसे ही दण्ड के नाम से पुकारा जाता है। जहाँ सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधनों से व्यक्तियों के व्यवहारों को नियन्त्रित करना सम्भव नहीं रहता, वहाँ औपचारिक साधनों का प्रयोग किया जाता है और इनमें कानून प्रमुख है। 

कानून का उल्लंघन करने पर व्यक्ति को किसी न किसी रूप से यातना दी जाती है। कष्ट दिया जाता है, पीड़ा पहुँचाई जाती है। आर्थिक दण्ड दिया जाता है या किसी भी अन्य विधि से कष्ट पहुँचाया जाता है, यही दण्ड है। जब व्यक्ति सामाजिक प्रतिमानों के विरुद्ध आचरण करता है तो उसके इस व्यवहार को विचलित व्यवहार की संज्ञा दी जाती है। 

विचलन वह व्यवहार है जो सामाजिक प्रतिमानों या मानदण्डों के उल्लंघन को व्यक्त करता है। समाज के नियमों का उल्लंघन ही अपराध है और जो व्यक्ति इन नियमों को तोड़ने का दोषी पाया जाता है। उसे अपराधी माना जाता है। परिणामस्वरूप उसे कष्ट दिया जाता है या पीड़ा पहुँचाई जाती है। इसी को दण्ड कहा जाता है।

अपराध की रोकथाम के लिए दण्ड एक प्रमुख साधन है। मनुष्य की प्रकृति में भिन्नता पाई जाती । कुछ लोग तो पुरस्कार से प्रेरित होकर सामाजिक आदर्शों के अनुरूप आचरण करते हैं किन्तु कुछ लोगों को नियन्त्रित करने के लिए दण्ड का सहारा भी लेना होता है। 

अपराध की रोकथाम के लिए यह आवश्यक है कि जिसने अपराध किया है, सामाजिक नियमों की अवहेलना की है उसे उसका प्रतिफल मिले ताकि अन्य व्यक्ति उस प्रकार के कार्य करने से डरते रहें और अपराधी भी भविष्य में इस प्रकार के व्यवहारों की पुनरावृत्ति न करें। 

इसलिए ही समाज व राज्य अपराधी के लिए दण्ड की व्यवस्था करता है। दण्ड के अभाव में अन्य लोगों में अपराध प्रवृत्ति के बढ़ने और न्याय तथा कानून की अवहेलना करने की सम्भावना रहती है। दण्ड द्वारा अपराधी को सुधारने का प्रयास भी किया जाता है। दण्ड औपचारिक व अनौपचारिक किसी भी रूप में दिया जा सकता है। 

राज्य या किसी संगठन द्वारा दिया जाने वाला दण्ड औपचारिक होता है जबकि परिवार व पड़ोस के लोगों तथा मित्र मण्डली आदि निन्दा, आलोचना, बहिष्कार, त्याग, हंसी उड़ाना, अनौपचारिक दण्ड हैं। दण्ड चाहे किसी भी रूप में हो किन्तु उसका उद्देश्य व्यक्ति के समाज विरोधी व्यवहार पर नियन्त्रण लगाना एवं उसमें सुधार लाना होता है । 

यद्यपि आधुनिक समाजशास्त्रियों तथा अपराधशास्त्रियों की विचारधारा में अपराध व अपराधी के प्रति दृष्टिकोणों में काफी परिवर्तन आया है। परन्तु फिर भी यह मान्यता तो आज भी है कि अपराध पर नियन्त्रण केवल दण्ड विधान के द्वारा ही किया जा सकता है। 

भारत में भी यह धारणा प्रचलित है। आधुनिक काल में अन्तर दण्ड के प्रति दृष्टिकोण में आया तथा इसी दृष्टिकोण के आधार पर आधुनिक समाज में दण्ड विधान की प्रक्रिया अपनाई जाती है। अपराधी को दण्ड देने के पीछे मुख्यतः तीन उद्देश्य होते हैं -

(1) प्रतिशोधात्मक, (2) प्रतिरोधात्मक, (3) सुधारात्मक, (4) निरोधात्मक । इन्हीं को आधार मानकर दण्ड विधान में दण्ड के सिद्धान्तों का निर्माण किया गया है।

(1) प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के अनुसार, व्यक्ति को उनके कर्म के अनुसार फल मिलना चाहिए। जर्मन दार्शनिक काण्ट इस सिद्धान्त का प्रमुख समर्थक था। उसके अनुसार कर्त्तव्य (कर्म) संसार में सर्वोत्तम वस्तु है। कर्त्तव्य के अनुसार व्यक्ति को अधिकार (फल) मिलना ही चाहिए। 

दण्ड तभी उचित हो सकता है जबकि अपराध के अनुसार हो । पर्शिया के राजा हम्मूराबी ने इसी सिद्धान्त से प्रभावित होकर 'आँख के लिए आँख' तथा 'दाँत के लिए दाँत' का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था जो पूर्ण प्रतिशोध एवं नैतिक न्याय की भावना पर आधारित है। 

आँख फोड़ने वाले की आँख फोड़ देना, हत्या करने वाले को फाँसी लगा देना, जो अपने माँ-बाप के बारे में यह कहे कि 'ये मेरे माँ-बाप नहीं' उसकी जीभ काट लेना आदि सिद्धान्त दण्ड के उदाहरण हैं।

इस सिद्धान्त के समर्थकों में अरस्तू , स्टीफेन, बोसांके एवं ब्रेडले आदि प्रमुख हैं। स्टीफेन के अनुसार, जिस प्रकार विवाह एवं स्नेह एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्धित हैं, उसी प्रकार अपराधी, कानून और प्रतिशोध एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। 

प्लेटो ने सिद्धान्त का समर्थन करते हुए लिखा है कि दण्ड ही ऐसा साधन है जिससे अपराधियों का उपचार किया जा सकता है और अपराधी की संख्या में कमी की जा सकती है। प्लेटो के विचार में न्याय आत्मा की अच्छाई एवं स्वास्थ्य है अन्याय इसकी बीमारी एवं शर्मिन्दगी है और दण्ड इस रोग का उपचार है।

एटकिन्ज और जार्सटीन (1974) के अनुसार प्रतिशोध का जो सन्तुलन सिद्धान्त है, वह बदले से भिन्न है। प्रतिशोध दण्ड की सीमा करता है। यह इसी अनुपात में अपराधी को दण्ड देने का प्रयत्न करता है जिस अनुपात में उस अपराधी ने बुरा काम किया है। 

इस सिद्धान्त के अन्तर्गत दण्ड का स्तर लॉ ऑव टेलियन अर्थात् जैसे को तैसा कानून  के आधार पर निर्धारित किया जाता है। दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त पर न्याय के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर इस सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि यद्यपि प्रतिशोध या बदले की भावना से दिया गया दण्ड ईसाई नैतिकता एवं प्रबुद्ध सुसंस्कृत मत के विरुद्ध है, परन्तु यह सिद्धान्त न्याय के सिद्धान्तों के अनुरूप है। 

बदले की भावना से दिया गया दण्ड नैतिक आधार पर तो नहीं तार्किक आधार पर न्यायोचित ठहराया जा सकता है। दण्ड से अपराधी को जो दुःख पहुँचता है, उससे जनसाधारण को इस विचार से सन्तोष होता है कि वास्तव में अपराधी दुःख पाने का पात्र है। यह भावना समाज की अपराधी के व्यवहार के प्रति अस्वीकृति को दर्शाती है।

कॉटन के अनुसार - विकसित समाज में, किसी सीमा तक, एक बार पुनः अपराध की समाजशास्त्रीय विचारधारा से नीतिपरक  सिद्धान्तों की ओर रुख- परिवर्तन होगा। 

यदि यह परिवर्तन होता है तो यह सम्भवतः आपराधिक न्याय के दण्डात्मक सिद्धान्तों को पुनर्जीवित करेगा जिसका उद्देश्य दण्ड के द्वारा अपराधों को मिटाना होगा, विशेष रूप से अपराधी को दण्ड देकर 

(2) प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त का उद्देश्य अपराधी को दण्ड देकर बाधाग्रस्त कानून को पुनः स्थापित करना नहीं है। अपितु इसका मुख्य ध्येय अपराधी को पुनः अपराध करने से रोकना तथा अन्य व्यक्तियों के लिए भय व आतंक उत्पन्न करता है कि अपराध करने से कठोर दण्ड मिलता है। 

कुछ दशाब्दियों पहले इंग्लैण्ड के अनेक प्रसिद्ध पब्लिक स्कूल अपने छात्रों को कठोर प्रतिरोधात्मक दण्ड के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी मान्यता थी - Spare the rod and Spoile the Child. जॉन सालमण्ड का कहना है कि दण्ड का प्रमुख उद्देश्य अपराधी को उसी प्रकार के व्यक्तियों के लिए उदाहरण व चेतावनी के रूप में प्रस्तुत करता है। 

इसी सिद्धान्त के आधार पर अनेक समाजों में सार्वजनिक रूप से सार्वजनिक स्थानों में कठोर व भीषण दण्ड देने की प्रणाली आरम्भ की गई है। ऐसा पाकिस्तान, टर्की तथा अनेक अरब देशों में किया गया है। 

सजा देते समय ऐसी सजा दी जाती है कि कि देखकर सब काँप उठें। यदि व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति का घोड़ा चुरा लिया है तो अपराधी को जो दण्ड दिया जायेगा उसमें यह भावना होगी कि इस दृष्टि के भय से भविष्य में कोई दूसरा घोड़ा न चुराया जाय। 

इसका अर्थ यह है कि अपराध के लिए दण्ड नहीं दिया जाता, बल्कि सामाजिक बुराई को रोकने के लिए दण्ड दिया जाता है। रॉस के अनुसार कानून की प्रभावशीलता इस बात से आंकी जानी चाहिए कि इसने कितने अपराधों को होने से रोका न कि इस बात से कि उसने कितने अपराधियों को दण्डित किया।

इसी सिद्धान्त को अपनाकर अनेक समाजों में सार्वजनिक रूप से सार्वजनिक स्थानों से दण्ड देने की प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त दण्ड की कठोरता एवं भीषणता से प्रजा के मन में भय उत्पन्न करने के लिए दण्ड ऐसे तरीकों से दिया जाता है कि देखने वालों का दिल दहल जाए।

प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की तरह प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त भी कठोर दण्ड पर बल देता है। कुछ लोगों की धारणा है कि प्रतिरोधन के लिए दण्ड का कठोर होना महत्वपूर्ण नहीं है। दण्ड की निश्चितता अपराध के प्रतिशोधन में अधिक महत्वपूर्ण होती है। 

बैकेरिया अपराध के लिए दण्ड के पूर्व निश्चित होने को अधिक महत्व देता है। उसकी मान्यता है कि ऐसा होने पर व्यक्ति परिणामों को सोचकर ही दण्ड का उल्लंघन करता है।

(3) सुधारात्मक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के मानने वालों का कहना है कि मानव त्रुटियों से पूर्ण है। इसलिए उसे अपनी त्रुटियों को सुधारने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति अपराध करता है तो उसे सुधारने का प्रयास किया जाना चाहिए। 

आधुनिक मनोवैज्ञानिकों व समाजशास्त्रियों का मत है कि अपराध एक प्रकार की मानसिक बीमारी है जो कि विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों का दास मानव अपराध कर बैठता है तो उसकी मानसिक व मनोवैज्ञानिक अवस्था को सुधारा जाना चाहिए। 

इस सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि दण्ड का प्रमुख उद्देश्य अपराधी आदतों को इस प्रकार बदलता है कि ताकि अपराधी शिक्षित, कुशल, आत्मनिर्भर व सभ्य नागरिक बन सके। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि कारावासों को शिक्षण केन्द्रों, प्रशिक्षण केन्द्रों व मानसिक बाधाओं को दूर करने वाले केन्द्रों में बदल देना चाहिए। 

सम्भवतया इसीलिए गाँधीजी का कहना है कि अपराधियों का कारावासों में उसी तरह इलाज किया जाना चाहिए जिस तरह अस्पतालों में मरीजों का होता है और कारावासों में अपराधियों को प्रवेश अपराध के इलाज के लिए किया जाना चाहिए।

ग्रीन के अनुसार कारावासों में कैदियों का ध्यान रखना चाहिए उन्हें उद्योग-धन्धों की शिक्षा दी जानी चाहिए। उनकी मनोवृत्ति को धीरे-धीरे बदलने का प्रयास किया जाना चाहिए।  अपराधी को अभ्यस्त अपराधियों से मिलने नहीं देना चाहिए, नये अपराधियों को प्रोबेशन पर छोड़ देना चाहिए, बाल-अपराधियों के लिए जेल व न्यायालय अलग होने चाहिए। 

इस प्रकार यह सिद्धान्त अपराधी को दण्ड न देकर उसके सुधारने पर बल देता है। सुधारात्मक सिद्धान्त की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं

(1) इस सिद्धान्त की मान्यता है कि समाज का वातावरण ही अपराध के लिए उत्तरदायी है। 

(2) अपराध के कारणों की खोज सामाजिक वातावरण में की जानी चाहिए, व्यक्ति की शारीरिक विशेषताओं में नहीं ।

(3) अपराध की अपेक्षा अपराधी पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

(4) इस सिद्धान्त के अनुसार गलती मनुष्य से ही होती है, उसे सुधार का अवसर दिया जाना चाहिए, जिससे मनुष्य को अधिक से अधिक न्याय मिल सके।

(5) इस सिद्धान्त के अनुसार अपराध एक बीमारी है, अतः जिस प्रकार बीमारी का इलाज किया जाता है, उसी प्रकार अपराध का निदान हो सकता है।

(6) यह सिद्धान्त मानवता के महान् दृष्टिकोण पर आधारित है जिसके अनुसार मनुष्य द्वारा मनुष्य को कठोर सजा देना अन्याय है।

(7) अपराधों के निराकरण के लिए समाज, परिवार और पड़ौस के वातावरण में सुधार किया जाना चाहिए।

(8) अपराधी को सजा न देकर से जीवन यापन हेतु प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। 

(9) इसमें अपराध के व्यावहारिक पक्ष पर बल दिया गया है और नैतिकता के महत्व को स्वीकार किया गया है।

(10) इस सिद्धान्त के अनुसार प्राणदण्ड की अपेक्षा कारावास को महत्वपूर्ण माना है जिससे अपराधी को सुधार का अवसर मिल सके अपराध के मुख्य सिद्धान्तों में उपर्युक्त विवेचन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन सिद्धान्तों से श्रेष्ठ सिद्धान्त सुधारवादी सिद्धान्त ही है।

क्योंकि यह सिद्धान्त आधुनिक मनोविज्ञान पर आधारित है तथा अपराधी के प्रति मानवीय दृष्टि से विचार करता है। हम इसे इसकी निम्नलिखित विशेषताओं के कारण अन्य सिद्धान्तों से अधिक अच्छा मानते हैं। वर्तमान में दण्ड का प्रमुख उद्देश्य अपराधी का सुधार बतलाया गया है, जिससे वह अपनी सामाजिक व्यवस्थाओं में समायोजन कर सके। 

 लक्षण 

(1) यह सिद्धान्त अपराध पर बल न देकर 'अपराधी' को केन्द्र बिन्दु मानता है।

( 2 ) इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधी के अपराध का कारण दोषपूर्ण सामाजिक पर्यावरण और वे अवांछनीय परिस्थितियाँ हैं जिनमें रहने के लिए समाज व्यक्ति को बाध्य करता है। 

(3) यह सिद्धान्त अपराधी की तुलना एक बीमा व्यक्ति से करता है, जिसको दण्ड रूपी दवा का उद्देश्य उसे रोग से छुटकारा दिलाता है।

उन विद्वानों का जो, सुधारवादी दण्ड विधान में विश्वास करते हैं।विचार है कि (अपराधी) सुधार सम्बन्धी कार्यक्रम में शारीरिक दोषों का उपचार, कुसमायोजित व्यक्तित्व का उपचार, संगठित समाज पर अहित कर प्रभावों को दूर करना, अच्छे नागरिक होने के नियमों की अन्तर्निदिष्ट जैसे उपाय सम्मिलित होने चाहिए। 

इस सुधार सम्बन्धी कार्यक्रम में कुछ पीड़ा भी अनिवार्यता होनी चाहिए और कुछ नहीं तो स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध तो अवश्य होना चाहिए। 

दूसरे शब्दों में, सुधारात्मक क्रिया-विधि इतनी सुखद न हो कि वह अपराधों की क्रियाओं को अधिक प्रोत्साहन करे तथा साथ ही इस प्रकार परिकल्पित हो कि वह अपराधियों के व्यक्तित्व में वांछनीय सद्परिवर्तन ला सके। 

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सुधारात्मक सिद्धान्त में भावुकतापूर्ण और उपयोगितावादी, पूरकों का मिश्रण मिलता है।

आज का न्यायशास्त्री सुधारवादी विचारधारा में विश्वास करता है। सुधार कहाँ और कैसे किया जाये। इस बिन्दु पर दो विचारधाराएँ हैं।

( 1 ) बन्दी अपराधी को मानसिक रोगी मानकर उपचार करना चाहिए जिसको कारागृह में भेजने की आवश्यकता नहीं है।

(2) अपराधी को कारागार में रखकर ही उसका उपचार किया जाना चाहिए, आपराधिक कारणों का पता लगाकर उसका उपचार करना चाहिए।

जिससे वह कारागार से मुक्त के पश्चात् पुनः अपराध-वृत्ति में लिप्त न हो। इस उद्देश्य से कारागार में सुधारात्मक दृष्टि से पुनर्स्थापना कार्यक्रम क्रियान्वित किये जाने चाहिए।

जिसमें अपराधी कारागार से मुक्ति के पश्चात् पुनः समाज में उत्तरदायी नागरिक के रूप में प्रतिष्ठित हो सके। इस विचारधारा के समर्थक सामाजिक संरक्षण के सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हैं। इस सिद्धान्त के दो उद्देश्य हैं- 

(i) अपराध का निरोध, तथा 

(ii) अपराध का रक्षण। न्याय के संरक्षण सिद्धान्त का उद्देश्य अपराधों की रोकथाम करना है।

जिसके अन्तर्गत अपराधी को पुनः अपराध से रोकने हेतु किये अपराध के लिए कारावास का दण्ड देना है जिससे उसको समाज में दण्डविधि तक निरुद्ध करने से वह समाज में कोई अपराध नहीं करेगा। 

कारावासीय दण्ड-काल में अपराधियों को समाज में अच्छे नागरिक बनाकर पुनर्स्थापित करने के लिए प्रयत्न किये जायें, ताकि वह कारागार से मुक्ति के पश्चात् अपराध प्रवृत्ति की ओर अग्रसर न हो। 

इस प्रकार सामाजिक संरक्षण के सिद्धान्त में न्याय के विरोधी एवं सुधारवादी दोनों पक्षों का समायोजन समाज में हो जाता है जिसके अन्तर्गत कारागार में अपराधी को निरुद्ध कर पुनर्स्थापना हेतु तैयार किया जाता है।

(4) निरोधात्मक सिद्धान्त  - निरोधात्मक शब्द प्रिवेण्टिव का हिन्दी अनुवाद है। प्रिवेण्टिव शब्द प्रिवेण्ट से बना है जिसका तात्पर्य है रोकना । प्रिवेण्टिव का अर्थ होता है रोकने वाला। 

इस सिद्धान्त के अनुसार अपराधियों को रोका जाता है और उन्हें रोकने के लिए समाज से अलग रखना होता है। अपराधियों को अपराध करने से रोकना सम्भव नहीं है। अतः उन्हें समाज से अलग रखने का प्रयत्न किया जाता है।

जब प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त असफल रहा तो निरोधात्मक सिद्धान्त अस्तित्व में आया और अपराधियों को समाज से पृथक् रखने की बात कही गई। ऐसा दो प्रकार से हो सकता है। प्रथम अपराधियों को जेल या कारावास में रखकर, तथा द्वितीय प्राणदण्ड द्वारा। 

निरोधात्मक सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि अपराध का कारण व्यक्ति की शारीरिक विशेषताएँ और वंशानुक्रमण है, जिन्हें बदलना सम्भव नहीं है। अतः व्यक्ति को अपराध करने से रोका नहीं जा सकता है। 

अपराध विहीन समाज की स्थापना के लिए उत्तम तरीका यही है कि अपराधियों को या तो प्राणदण्ड दिया जाए या समाज से अलग जेल में रखा जाए। इस सिद्धान्त के समर्थकों में प्रारूपवादी सम्प्रदाय के लोग आते हैं। 

उनका मत है कि अपराधियों को न तो सुधारा जा सकता है और न ही उन्हें बदला जा सकता है। अतः अपराध समाप्त करने के लिए सबसे सरल उपाय जेल या प्राणदण्ड ही उपाय है।

आलोचना - (i) आज कोई भी इस बात को स्वीकार नहीं करता कि अपराधी जन्मजात होते हैं और वंशानुक्रम में उन्हें अपराध मिलता है। अपराध को वास्तव में सामाजिक पर्यावरण की देन माना जाता है। 

(ii) इस सिद्धान्त में प्राणदण्ड को उचित बताया गया है जबकि वर्तमान में अनेक देशों में प्राणदण्ड को समाप्त कर दिया गया है। प्राणदण्ड देने से भी समाज में अपराध समाप्त नहीं हुए हैं।

(iii) इस सिद्धान्त के अनुसार यदि सभी अपराधियों को जेलों में बन्द कर दिया जाए तो इनकी संख्या इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि उनका सुधार और पुनर्वास कठिन हो जाएगा। इस सिद्धान्त में अपराधियों में सुधार और पुनर्वास को कोई स्थान नहीं दिया गया है।

(iv) यह सिद्धान्त इस धारणा पर आधारित है कि 'अपराधी जन्मजात होते हैं। अतः उनका सुधार सम्भव नहीं है। वर्तमान में असम्भावनाओं पर आधारित इस सिद्धान्त को उचित नहीं माना जा सकता।

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