दण्ड की परिभाषा - dand kee paribhaasha

दण्ड सामाजिक नियन्त्रण का एक साधन है। रैकलेस के विचार में दण्ड एक प्रकार की अस्वीकृति है जिसके अन्तर्गत समाज में अपने अपराधी सदस्यों पर शक्तियाँ दबावपूर्ण उपायों के उपचार हेतु प्रयोग करता है। दूसरे शब्दों में, दण्ड एक अस्वीकृति है जिसके पीछे किसी सजा का आधार है। 

दण्ड की परिभाषाएँ

दण्ड की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -

1. रैकलेस के शब्दों में दण्ड एक प्रतिक्रिया है, जो राष्ट्र संघ के अपराधी सदस्य के विरुद्ध की जाती है। 

2. टैफ्ट के अनुसार - हम दण्ड की परिभाषा उस सतर्क दबाव के रूप में कर सकते हैं जो समाज की शान्ति भंग करने वाले व्यक्ति को अवांछनीय अनुभवों वाला कष्ट देता है। यह कष्ट हमेशा ही उस व्यक्ति के हित में नहीं होता है। 

3. वेस्टरमार्क के अनुसार - दण्ड उस पीड़ा तक सीमित है जो कि उस समाज द्वारा, जिसका कि अपराधी अस्थायी या स्थायी सदस्य है, अपने हित में एक विधि द्वारा दिया जाता है। 

 दण्ड के उद्देश्य

विद्वानों की दृष्टि में दण्ड के उद्देश्य-दण्ड के क्या उद्देश्य होने चाहिए। इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न अपराधशास्त्रियों एवं विद्वानों ने अलग-अलग तरह की विचारधाराएँ प्रकट की हैं मगर उनमें से निम्नलिखित मुख्य हैं -

  1. अरस्तू के अनुसार - दण्ड का लक्ष्य निवृत्तक एवं प्रतिशोधात्मक है।
  2. सिजविक के शब्दों में समाज की सुरक्षा दण्ड का उद्देश्य है।  
  3. प्लेटो के अनुसार - वही दण्ड उचित हो सकता है, जो न्याय करता है।  
  4. मनु के अनुसार - दण्ड समाज का आधार है, जहाँ पर दण्ड व्यवस्था नहीं होती वहाँ चोर-डाकुओं का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। 
  5. काण्ट के अनुसार - दण्ड का उद्देश्य अपराधी से प्रतिकार होता है।
  6. रूसो के अनुसार - दण्ड का उद्देश्य बन्धन मुक्तिहै। अपराधी को पुनः सन्मार्ग पर लाने के लिए दण्ड दिया जाता है।

निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किये जा सकते हैं -

1. समाज में व्यवस्था बनाये रखना - चूँकि समाज में शांति व्यवस्था को बनाये रखने का कर्त्तव्य राज्य को सौंपा गया है। इसी कारण राज्य को पूर्ण अधिकार है कि वह ऐसे लोगों को दण्ड का भागीदार बनाये जो कि समाज की मर्यादा को समाप्त करते रहते हैं।

यदि ऐसा न हो तो सामाजिक व्यवस्था में अराजकता फैल जायेगी। दण्ड का लक्ष्य समाज की उन अस्वास्थकर परिस्थितियों से रक्षा करना है, जो अपराधी के व्यवहार द्वारा उत्पन्न हो सकती है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये दण्ड द्वारा अपराधी को इस प्रकार कष्ट अथवा यातनाएँ दी जाती है कि वह फिर अपराधी कार्यों की ओर प्रवृत्त न हो और अन्य लोग भी इससे बचने का प्रयत्न करें। 

इस प्रकार उपर्युक्त विचारकों के आधार पर दण्ड के दण्ड का प्रमुख कार्य समाज में व्यवस्था बनाये रखना है।

2. अपराधी को सुधारना - दण्ड का उद्देश्य अपराधी का सुधार करना है। अपराधी से बदला लेना अथवा अपराध के बदले कष्ट का उद्देश्य नहीं है। व्यक्ति को सुधार कर उसे समाज का एक आदर्श नागरिक बनाना है ।

3. समाज - विरोधी तत्वों को भयभीत करना-दण्ड का प्रमुख उद्देश्य यह भी है कि अपराधियों को दण्ड देकर उन व्यक्तियों को अपराध करने से रोकना है जो भविष्य में अपराध कर सकता है। दण्ड उनके लिए आतंक के रूप में उपस्थित होता है।

बेन्थम, ग्रीन तथा बोसांके ने दण्ड के उद्देश्य का समर्थन किया है। प्राचीन भारत में कठोर दण्ड व्यवस्था यी तथा सार्वजनिक रूप से कठोर दण्ड देने अथवा जैसे कौटिल्य का मत था कि अपराधी के चेहरे पर अपराध के प्रतीक चिन्ह गढ़वा देने की प्रथा प्रचलित थी उसका उद्देश्य यह था कि दण्ड के भय से भविष्य में सम्भावित अपराधी इस प्रकार के अपराध न करे। 

टी. एच. ग्रीन ने लिखा है दण्ड का प्राथमिक उद्देश्य अपराधी को कष्ट देने के लिए अथवा दुबारा अपराध करने से रोकने के लिए कष्ट देना नहीं है, परन्तु उन व्यक्तियों के मस्तिष्क में भय उत्पन्न कर देता है जो अपराध करने के लिए लालायित हो सकते हैं। 

4. प्रतिशोध या पीड़ित व्यक्तिको संतोष प्रदान करना - अपराधी जिस व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता है उसके मन में प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हो जाती है और वह व्यक्ति से बदला लेने के लिये उद्यत होता है परन्तु हो सकता है कि पीड़ित व्यक्ति कमजोर हो और बदला लेने में असमर्थ हो । ऐसी स्थिति में समाज की सत्ता सभी को न्याय और सन्तोष प्रदान करने के लिए दण्ड व्यवस्था का विधान करती है और अपराधी को दण्डित करती है ।

5. प्रतिफल - अपराधी को दण्ड देने की व्यवस्था इसलिए की जाती है कि वह अपने किये गये। अपराध का प्रतिफल प्राप्त कर सके।

दण्ड के स्वरूप या प्रकार

मानव जाति ने अपराधकर्त्ता के प्रति निम्नलिखित चार प्रकार की दण्डात्मक नीतियों को चयन में रखा है -

  • मृत्यु, निर्वासन अथवा कारावास द्वारा अपराधकर्त्ता का समाज में निष्कासन अथवा विलोपन ।
  • शारीरिक पीड़ा।
  • सामाजिक अधःपतन। 
  • वित्तीय हानि।  

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 33 के अन्तर्गत उपर्युक्त दण्डात्मक नीतियों की अभिव्यक्ति हमें निम्नलिखित प्रकार के दण्डों में दिखलाई पड़ती हैंदण्ड ।

प्रथम - मृत्यु -
द्वितीय- देश - निर्वासन अथवा आजीवन कारावास। 
तृतीय- - दण्डात्मक दासता। 
चतुर्थ- कारावास।
पंचम-सम्पत्ति अपहरण।
षष्टम- अर्थदण्ड।

1. मृत्यु दण्ड़ - दण्ड - आरोहण की विभिन्न विधियों में मृत्यु दण्ड का अपना स्थान है। विधिशास्त्रियों में इस बात पर सदैव विवाद रहा है कि क्या राज्य को यह अधिकार है कि वह किसी को उसके जीवन से वंचित कर दे ? सुधारवादी सदैव से इस दृष्टिकोण के रहे हैं कि मृत्यु दण्ड बर्बरता के उस युग का स्मृति चिन्ह है। 

जब 'प्राण के बदले प्राण', 'आँख के बदले आँख' व 'दाँत के बदले दाँत' के दण्डारोहण का सिद्धान्त परिचलन में था। राज्य इस निमित्त यह औचित्य प्रस्तुत करता था कि मृत्यु दण्ड का आरोहण अपराधियों को जघन्य अपराधों की पुनरावृत्ति से विरत रखता है। 

राज्य को विधि व व्यवस्था के अनुपालन में मदद करता है, व इस अवधारणा को प्रसारित करता है कि मनुष्य को मनुष्य के जीवन का सम्मान करना चाहिए। राज्य इस प्रकार दण्डारोहण द्वारा समाज को, घुन की तरह चाट लेने वाले अपराधी कीड़ों से बचाता है। 

इन सभी औचित्यों के रहते हुए भी युग की प्रवृत्ति मृत्यु दण्ड को समाप्त कर देने के ही तरफ है। जिन राष्ट्रों ने मृत्यु दण्ड समाप्त कर दिया है, वहाँ यह भी तथ्य प्रकट हुआ है कि आपराधिकता में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई। 

अधिकतर राष्ट्रों ने मृत्यु दण्ड यद्यपि चालू तो रखा है, लेकिन मात्र राजद्रोह, हत्या, हिंसात्मक डकैती व राज्य के जलयानों पर आगजनी के ही अपराधों पर मृत्यु दण्ड देने की अनुमति प्रदान की है। ने

2. शारीरिक पीड़ा - समाज की दण्डात्मक प्रतिक्रिया शारीरिक दण्ड के रूप में निम्नलिखित प्रकार से आरोहित की जाती थी - (क) शरीर को दाग कर, (ख) धड़ को अलग कर, (ग) खम्भे पर लटका कर, (घ) अंग-भंग कर, (ङ) लोहे व पिंजरों में परिरुद्ध कर, (च) कोड़े से मार-मारकर। 

शारीरिक पीड़ा के दण्ड बहुत ही क्रूरता के साथ दिए जाते थे। इन सजाओं का परिणाम यह होता या कि अपराधी धीरे-धीरे, वेदना भुगतते हुए परलोक-गमन कर जाता था। जिस प्रकार के ये दण्ड दिये जाते थे, वे मानवीय भावनाओं के सर्वथा विरुद्ध थे। 

भारतवर्ष में सन् 1991 में ही इनमें से कुछ सजाओं को समाप्त कर दिया गया और इस समय इस तरह की कोई भी सजा प्रचलन में नहीं रह गई है।

3. सामाजिक अधःपतन – सामाजिक अधःपतन दण्ड के अन्तर्गत स्थायी अथवा अस्थायी रूप से अपराधियों पर अपकीर्ति अथवा लज्जा के रूप में पीड़ा अथवा कष्ट का आरोहण किया जाता था। इस प्रकार का दण्डारोहण 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर 17वीं शताब्दी के अन्त तक विद्यमान रहा। 

अब इस परिपाटी को समाप्त कर दिया गया है। शारीरिक पीड़ा प्रस्तुत करने वाले कुछ कार्य, जैसे- दागना, खम्भे पर लटकाना आदि के रूप में कभी-कभी सामाजिक अधःपतन का दण्ड प्रदान किया जाता था। कुछ अधिकारों, जैसे- - मत देने का अधिकार, लोक पद धारण करने का अधिकार, व्यवसाय अथवा वृत्ति करने का अधिकार, विवाह करने का अधिकार, विदेश में जाने का अधिकार, आदि से वंचित कर देना भी सामाजिक अधःपतन के अन्तर्गत आता था। 

इस प्रकार के दण्ड का प्रयोजन अपराधी को समाज से निष्कासित कर देने अथवा दूर कर देने का था, जिससे समाज व अपराध-कर्त्ता के बीच की दूरी बढ़ती ही जाय। 

4. समाज निर्वासन  – व्यावहारिक रूप से हर समाज ने अपराधियों को विशेषकर राजनैतिक अपराधियों को, समाज - निर्वासन का दण्ड प्रदान किया है। प्राचीन समाज में विशेषकर पुराने रोम (Ancient Rome) में भी निर्वासन का दण्ड प्रचलित था। अमेरिकन क्रान्ति के पूर्व इंग्लैण्ड के अपराधियों को निर्वासित कर अमेरिका भेज दिया जाता था। 

इसके बाद सन् 1867 तक उन्हें निर्वासित कर आस्ट्रेलिया भेजा जाने लगा। बाद में इंग्लैण्ड में निर्वासन का दण्ड समाप्त कर दिया गया । भारतवर्ष में ब्रिटिश- उदय के पूर्व निर्वासन-दण्ड का प्रचलन नहीं था। भारतीय दण्ड संहिता के अधिनियम के समय यह विचार किया गया था कि सामान्य भारतीय 'काले पानी' और समुद्र पार जाने से बहुत ही भय खाते हैं।

निर्वासन-दण्ड का औचित्य अपराधशास्त्रियों ने इस आधार पर दिया है कि निर्वासन के माध्यम से समाज उन अपराधियों को अपने से दूर कर देता है, जो बहुत ही क्रूर हैं व जिनका सुधार असम्भव है। 

5. कारावास - भिन्न-भिन्न युगों में भिन्न-भिन्न प्राधिकारियों द्वारा कारावास का दण्ड भिन्न-भिन्न प्रकार से आरोहित किया जाता था ।

6. प्राचीन एवं मध्ययुगीन समाज में कारावास - सभ्यता- पूर्व के युग में कारावास का दण्ड बहुत कम प्रदान किया जाता था। प्राचीन ग्रीक में कारावास का दण्ड कभी-कभी ही दिया जाता था। रोमन रिपब्लिक में तो यह पूर्णतया निषिद्ध परन्तु इम्पायर में चालू था। 

इंग्लैण्ड में ऐंग्लो सैक्सन के काल में कारावास का दण्ड कुछ ही मामलों में दिया जाता था। कारवास की सजा आधुनिक युग की देन है, यद्यपि इसकी जड़ें प्राचीनकाल में ही समायी हुई हैं। 

7. चर्च द्वारा कारावास – प्रारम्भ में चर्चों को कुछ सीमा तक ही कारावास का दण्ड प्रदान करने का अधिकार था, क्योंकि उन्हें विधि द्वारा मृत्यु दण्ड प्रदान करने का अधिकार नहीं था। पाँचवीं शताब्दी के लगभग चर्च धार्मिक-अपराधियों को कारावास में रखते थे। 

सन् 1283 में किसी ब्रदर जॉन ने अपने मठाध्यक्ष की अंगुली को 'कुत्ते की तरह' काट लिया । बिशप महोदय ने उन्हें लोहे की जंजीरों में कारावास के अन्दर उस समय तक रखने का आदेश दिया जब तक ब्रदर जॉन महोदय पश्चाताप व्यक्त करें। 

उस अवधि में उन्हें पाँच दिनों तक सामान्य आहार पर और छठे दिन निराहार पर रखने का भी आदेश दिया गया। कारावास की अवधि इस बात पर निर्भर करती थी, कि अब अपराधी अपना आत्म-सुधार व अपना पश्चात्ताप प्रकट अथवा व्यक्त करता है।

8. युद्धपोतों में कारावास  – सोलहवीं व अठारहवीं शताब्दी के मध्य युद्धपोतों के अन्तर्गत परिरुद्ध करके कारावास की सजा प्रदान की जाती थी । यह प्रणाली. प्राचीनकाल के 'बेगार श्रम' (Forced Labour) का दूसरा स्वरूप था।

9. सुधारगृहों में कारावास - सोलहवीं शताब्दी के मध्य इंग्लैण्ड में सशक्तआवारा व्यक्तियों के सुधार के निमित्त उन्हें सुधारगृहों में परिरुद्ध करने की प्रणाली प्रारम्भ हुई । सन् 1576 में अधिनियम द्वारा इंग्लैण्ड की संसद ने हर काउण्ट्री में एक-एक सुधार गृह बनवाने का प्रावधान किया। 

इस अधिनियम का उद्देश्य व लक्ष्य यह था, आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को सुधारगृहों में रखकर, उनसे कठोर परिश्रम करवाया जाय, जिससे उनका सुधार हो । कटक , आवारा  व आलसी व्यक्ति खोज-खोजकर इन सुधारगृहों में रखे जाते थे। लंपट महिलाएँ भी अपने अवैध बच्चों के साथ ऐसे गृहों में रखी जाती थीं। 

सन् 1711 के अधिनियम द्वारा इन गृहों में रखे जाने की अधिकतम अवधि तीन वर्ष निश्चित की गई थी। वेब्ब महोदय कहते हैं कि 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक सामान्य कारावास व सुधारगृह एक कर दिये गये।

10. प्रारम्भ का कारावास सुधार-संचालन - 18वीं शताब्दी के अन्त व 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक कारावास-सुधार का संचालन इस सीमा तक पहुँच गया कि अपराधी को कारावास में किसी दण्डात्मक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ही रखा जाय। इस युग तक कारावास को दण्डारोहण की एक प्रणाली बना दी गई। 

इंग्लैण्ड में कारावास-सुधारक के रूप में जॉन होवार्ड का नाम महत्वपूर्ण है। उनकी पुस्तक “The State of Prisons in England,’ जो सन् 1777 में प्रकाशित हुई थी, कारावास - सुधार के निमित्त महत्वपूर्ण विषय-वस्तु प्रदान करती है। 

इस पुस्तक के अनुसार प्रारम्भिक युग का समाज कारावास की सजा किसी दण्डात्मक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप नहीं प्रदान करता था, यह तो 19वीं शताब्दी का समाज था, जिसने भयानक व क्रूर अपराधियों को कारावास का दण्ड प्रदान करना प्रारम्भ किया और तभी से कारावास की सजा दण्ड की विभिन्न मुख्य प्रणालियों में एक हो गया ।

11. आर्थिक दण्ड - सम्पत्ति के राज्य का सात्वीकरण अथवा अर्थदण्ड के आरोहण के रूप में दण्डात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने की प्रथा बहुत से सभ्य समाज में प्रचलित थी । इस युग में, विधान में व्यक्तप्रावधानों के अन्तर्गत न्यायालय कम-से-कम व . अधिक-से-अधिक अर्थदण्ड प्रदान कर सकते हैं। अर्थदण्ड के निमित्त निम्नलिखित औचित्य प्रस्तुत किये जाते हैं। 

(i) अन्य दण्डों की अपेक्षा अर्थदण्ड ही एक ऐसा दण्ड है, जिसका परिहार प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है। मृत्यु दण्ड, कौड़े व कारावास के दण्ड एक बार आरोहित कर देने के बाद आवश्यकता पड़ने पर पर्याप्त रूप से परिहारित नहीं किये जा सकते। 

अर्थदण्ड, जिसका भुगतान राज्य द्वारा लिया जा चुका है, उसे उसी मात्रा में वापस भी किया जा सकता है। लेकिन त्रुटिपूर्ण मृत्यु दण्ड, कोड़े अथवा कारावास के रूप में आरोहित किया गया पीड़ा अथवा कष्ट वापस नहीं लिया जा सकता।



90 | R – बी. ए., द्वितीय वर्ष


(ii) अर्थदण्ड बहुत ही कम खर्चीला दण्ड है। इसके आरोहण में राज्य को कुछ व्यय नहीं करना पड़ता है।


(iii) अपराध की प्रकृति, अपराधकर्त्ता की आर्थिक स्थिति व लोकमत आदि स्थितियों के अनुपात में अर्थदण्ड का परिकलन अन्य दण्डों की अपेक्षा सरलता व आसानी से किया जा सकता है। (iv) कारावास आदि दण्डों की अपेक्षा अर्थदण्ड किसी भी प्रकार का आपराधिक लक्षण अथवा कलंक (Stigma) अपराधी पर आरोहित नहीं करता। अर्थदण्ड द्वारा, इस तरह अपराधी के अवसर बने रहते हैं। (v) अर्थदण्ड चूँकि मनुष्य के उस हित को प्रभावित करता है, जो सर्वव्यापी है, अतः अपराधी व समाज दोनों पर इसका निवारणात्मक प्रभाव पड़ता है।


12. पुनर्स्थापन व क्षतिपूर्ति (Restitution and Reparation) — पुनर्स्थापन व क्षतिपूर्ति के निमित्त लगभग एक शताब्दी से लोकमत जागरूक हुआ है। वास्तव में दण्डात्मक प्रतिक्रिया न होकर निश्चयात्मक शाखा के उन विचारों का क्रियान्वयन है, जिसके अन्तर्गत अपराधी को दण्ड के बदले सुधार के लिये कहा गया था। सन् 1947 में मार्सगी (Marsongy) महोदय ने उस निमित्त एक निश्चित योजना प्रस्तुत की। इनके उपरान्त गारोफैलो (Garofalo) महोदय इस प्रणाली के प्रबल पक्षपोषक सिद्ध हुए और उन्हें फैरी (Ferri), फिवरेती (Fioretti) आदि का समर्थन भी मिला।


व्यक्तिप्रणाली के पक्ष में तीन बातें कही गई हैं - ( 1 ) इस प्रणाली द्वारा क्षतिप्राप्त व्यक्ति की क्षति कुछ सीमा तक पूर्ण हो जाती है। ( 2 ) दण्ड की अन्य प्रणालियों की अपेक्षा इस प्रणाली का अपराधी पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अधिक सुधारात्मक


पुनर्स्थापन व क्षतिप्राप्त


(3) इस प्रणाली द्वारा अपराधी पर राज्य द्वारा किये जाने वाला व्यय भी बहुत अधिक सीमा तक बच जाता है ।

Related Posts