डेविड-ईस्टन के राजनीतिक व्यवस्था - david easton ki rajnitik vyavastha

तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक उपागम परम्परावादी उपागमों की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक एवं क्रमबद्ध हैं। आधुनिक उपागमों के प्रयोग से तुलनात्मक राजनीति के विषय-क्षेत्र को क्रमबद्ध एवं परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त करने में सहायता मिलती है। 

डेविड-ईस्टन के राजनीतिक व्यवस्था उपागम की विवेचना कीजिए

इन उपागमों के विश्लेषण से तथ्यों के चयन का आधार तथा उनकी संगति का मापदण्ड मिलता है। इनसे विश्लेषण और तुलना की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रश्नों, समस्याओं तथा तथ्यों के मध्य तारतम्य स्थापित करने में भी सहायता मिलती है। तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन से सम्बन्धित आधुनिक उपागमों में कतिपय प्रमुख उपागम निम्न प्रकार हैं-

  1. राजनीतिक व्यवस्था विश्लेषण उपागम 
  2. संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक उपागम 
  3. मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम  
  4. राजनीतिक विकास उपागम   
  5. राजनीतिक आधुनिकीकरण उपागम 
  6. राजनीतिक संस्कृति उपागम 

ईस्टन का निवेश - निर्गत विश्लेषण

राजनीतिक व्यवस्था की ईस्टन द्वारा दी गई व्याख्या को 'इनपुट-आउटपुट' विश्लेषण का नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि वह राजनीतिक व्यवस्था को ऐसे तन्त्र के रूप में देखता है जिसमें माँगों के निवेश आते हैं और राजनीतिक व्यवस्था इनका संसाधन कर रूपान्तर करती है। 

व्यवस्था विश्लेषण के प्रयोग के सम्बन्ध में उसका दृष्टिकोण इस अर्थ में रचनात्मक है; क्योंकि उसने व्यवस्था को, सदस्यों को समूह के रूप में नहीं बल्कि प्रक्रियाओं के संकलन के रूप में लिया है। स्वयं ईस्टन ने लिखा है कि राजनीतिक व्यवस्था किसी भी समाज में अन्ततः क्रियाओं की एक ऐसी व्यवस्था है जिसके माध्यम से बाध्यकारी अथवा आधिकारिक निर्णय लिये जाते हैं।

ईस्टन केवल राजनैतिक अन्तः क्रियाओं के सैट को ही अपने विश्लेषण का विषय बनाता है। अन्तः क्रियाओं के सैट से ईस्टन की चार महत्वपूर्ण अवधारणाएँ निकलती हैं। जिन्हें निवेश-निर्गत विश्लेषण का प्रमुख आधार कहा जाता है। ये हैं - प्रथम, व्यवस्था, द्वितीय, पर्यावरण; तृतीय, अनुक्रिया तथा चतुर्थ, प्रति-सम्भरण।

डेविड ईस्टन की राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा

ईस्टन ने राजनीतिक विश्लेषण के क्षेत्र में एक सामान्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। राजनीतिक सिद्धान्त के अन्तर्गत ईस्टन से पहले कोई एक ऐसा सिद्धान्त या सिद्धान्तों का समूह नहीं था। 

जिसके द्वारा अर्द्ध-विकसित, विकासोन्मुख तथा साम्यवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं की समस्याओं तथा स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का विश्लेषण किया जा सके। ईस्टन के व्यवस्था सिद्धान्त द्वारा सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं एवं सभी स्तरों की समस्याओं का विश्लेषण किया जा सकता है।

ईस्टन का सिद्धान्त दो अर्थों में सामान्य है प्रथम, ईस्टन इस विचार को स्वीकार नहीं करता है कि राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समस्याओं के विश्लेषण के लिए अलग-अलग सिद्धान्त होने चाहिए। 

एक ही विद्वान के द्वारा दोनों स्तरों की समस्याओं का विश्लेषण किया जा सकता है। द्वितीय, ईस्टन का यह मत है कि राजनीतिशास्त्र का मुख्य कार्य उन सामान्य समस्याओं का विश्लेषण करना है जो सभी राजनीतिक तन्त्रों में समान रूप में पायी जाती हैं।

राजनीतिक व्यवस्था क्या है ?

ईस्टन के अनुसार - राजनीतिक व्यवस्था संस्थाओं एवं प्रक्रियाओं का एक जटिल समूह है जो समाज के भीतर अधिकारिक मूल्यों का विनियोजन करता है। राजनीतिक व्यवस्था अन्तः क्रियाओं का एक समूह है जिसके अन्तर्गत माँगों को प्रदा या निर्गत में बदला जाता है।

हम राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन इसलिए करते हैं क्योंकि उनके अधिकारपूर्ण निर्णयों के परिणामों का समाज के लिए बहुत महत्त्व है। इन परिणामों को 'प्रदा' कहा जाता है। 

किसी भी व्यवस्था को जीवित रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें 'आदा' होता रहे। अदा के बिना कोई व्यवस्था कार्य नहीं कर सकती और 'प्रदा' के बिना उसके कार्यों को समझा-पहचाना नहीं जा सकता। 

अदा कार्य या निवेश प्रकार्य 

अदा (निवेश) का अभिप्राय माँग तथा समर्थन से है। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था के सामने पर्यावरण से कुछ माँगें रखी जाती हैं। इन माँगों के पीछे माँग रखने वालों का समर्थन होता है जो राजनीतिक व्यवस्था में निर्णय लेने वालों का ध्यान उन माँगों की ओर आकर्षित करता है। 

इसके साथ-ही-साथ समर्थन राजनीतिक तन्त्र को विभिन्न प्रकार की माँगों से निपटने की शक्ति भी प्रदान करता है क्योंकि राजनीतिक तन्त्र का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि उसे जनता का कितना समर्थन प्राप्त है। यह समर्थन उसकी माँगों की पूर्ति की क्षमता पर निर्भर करता है। 

माँगें हमें यह समझने में सहायता करती हैं कि किस तरह पर्यावरण सम्पूर्ण राजनीतिक तन्त्र पर अपना प्रभाव डालता है क्योंकि माँगों का जन्म सामाजिक पर्यावरण में होता है। 

माँगों की वैधता तन्त्र की क्षमता तथा स्थायित्व को समझने में सहायता करती है। प्रमुख अदा (निवेश) कार्य चार प्रकार के हैं- राजनीतिक समाजीकरण एवं भर्ती, हित-स्वरूपीकरण, हित-समूहीकरण तथा राजनीतिक संचार। 

माँग मत की अभिव्यक्ति है जिसके द्वारा किसी वस्तु विशेष के प्राधिकारिक आबंटन के लिए, उन लोगों से जो इसको करने के लिए उत्तरदायी हैं, कहा जाता है कि ऐसा होना चाहिए या नहीं होना चाहिए। माँगें कई प्रकार की हो सकती हैं-संकीर्ण, विशिष्ट तथा सामान्य माँगें स्पष्ट भी हो सकती है और अस्पष्ट भी। 

माँगें वैयक्तिक स्वार्थ और जनहित दोनों से सम्बन्धित हो सकती हैं। माँगों की अपनी एक निर्दिष्ट दिशा होती है। उनका बहाव सदैव सत्ता की ओर होता है। माँगें सुझाव के रूप में भी हो सकती हैं और निर्देश के रूप में भी।

समर्थन 

राजनीतिक व्यवस्था कुछ कार्य करती है। कार्य करने के लिए समर्थन का होना बहुत ही आवश्यक है। समर्थन के बिना कार्य नहीं किये जा सकते। समर्थन एक महत्त्वपूर्ण 'आदा' (निवेश) है जिसके होने या न होने से महत्त्वपूर्ण परिणाम निकलते हैं। 

समर्थन के बिना माँगों का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता। यह एक ऐसा बल है जो अधिकारियों का ध्यान माँगों की ओर आकर्षित करता है। समर्थन एक ऐसी कड़ी है जो राजनीतिक व्यवस्था को पर्यावरण से जोड़ती है।

यदि अधिकारियों को व्यवस्था में समर्थन प्राप्त नहीं है तो माँगों का प्रदा (निर्गत) के रूप में विधायन करना सम्भव नहीं हो पायेगा। बिना समर्थन के साधन में स्थिरता नहीं आ पाती।

प्रदा कार्य या निर्गत प्रकार्य 

प्रदा (निर्गत) वे उत्पादित वस्तुएँ हैं जो अदा (निवेश) के रूपान्तरण के बाद प्राप्त होती हैं। अदा को समर्थन द्वारा सूत्रबद्ध करके तन्त्र के सामने निर्णय लेने के लिए रखा जाता है। राजनीतिक व्यवस्था विभिन्न प्रकार की अदाओं पर निर्णय करती है। प्रदा व्यक्तियों द्वारा रखी गयी माँगों पर राजनीतिक व्यवस्था का निर्णय है। 

पुनर्निवेशन 

प्रदा का उद्देश्य सदस्यों की आवश्यकताओं को पूरा करना होता है। तन्त्र की प्रदा से सदस्यों की आवश्यकताएँ पूरी हुईं या नहीं, जनता की इस सम्बन्ध में क्या प्रतिक्रिया है। इस सम्बन्ध में जो रचनाएँ अधिकारीगणों के पास आती हैं उन्हें 'पुनर्निवेशन' कहते हैं। 

राजनीतिक व्यवस्था के भीतर सम्पादित होने वाले सभी कार्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य पुनर्निवेशन चक्र का है, क्योंकि इसके द्वारा सम्पादित कार्य की प्रक्रिया से राजनीतिक कार्यों का चक्र संचालित होता रहता है।

 पर्यावरण 

राजनीतिक व्यवस्था सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में अन्य उपव्यवस्थाओं (आर्थिक, र्मक) की तरह एक उप-पद्धति की भूमिका अदा करती है। इसके पर्यावरण से आंशिक रूप से इसकी सहयोगिनी उप-पद्धतियों का बोध होता है जिन्हें आन्तरिक सामाजिक पर्यावरण की संज्ञा दी गयी है। 

आन्तरिक सामाजिक पर्यावरण को देखने से यह स्पष्ट होता है कि राजनीतिक व्यवस्था वातावरण, जैविक तत्त्व तथा समाज की पद्धतियों द्वारा प्रभावित होती है।

डेविड ईस्टन की राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा की आलोचना 

ईस्टन का 'राजनीतिक व्यवस्था' का सामान्य सिद्धान्त संरचनात्मक प्रकार्यात्मक विश्लेषण की भाँति अगतिशील नहीं कहा जा सकता। पुनर्निवेशन जैसी धारणाओं को शामिल कर ईस्टन ने इसे गतिशील सिद्धान्त के रूप में पेश किया है। 

राजनीतिक परिवर्तन और विकास को समझने में इस सिद्धान्त से बड़ी सहायता मिलती है। किसी खास राजनीतिक व्यवस्था के साथ अपने को आबद्ध करने से बचाकर तुलनात्मक विश्लेषण को इस सिद्धान्त ने नयी अन्तर्दृष्टि प्रदान की है। 

औरन यंग के शब्दों में - यह सिद्धान्त राजनीतिशास्त्रियों द्वारा राजनीतिक विश्लेषण के लिए विकसित सभी क्रमबद्ध सिद्धान्तों में सर्वाधिक अन्तर्वेशित सिद्धान्त है।

ईस्टन के राजनीतिक सिद्धान्त की कटु आलोचना भी हुई है। पॉल क्रेस के शब्दों में - ईस्टन का सिद्धान्त राजनीति का सारहीन दर्शन है।" ग्वीशियानी के अनुसार, “यह सिद्धान्त यथास्थिति को पुष्ट करता है।

लिप्सन ने ईस्टन के सिद्धान्त को 'गतिशील तत्त्वों की अवहेलना करने वाली यांत्रिक व्याख्या' कहकर निन्दित किया है। ईस्टन के सिद्धान्त की निम्नलिखित तर्कों के आधार पर आलोचना की जाती है। 

(1) यथास्थितिवाद-ईस्टन के विश्लेषण पर यथास्थितिवाद को समर्थित करने का आरोप लगाया जाता है, क्योंकि उसका विश्लेषण क्रान्तिकारी एवं व्यापक परिवर्तनों पर ध्यान नहीं देता।

(2) व्यक्ति अथवा मानव तत्त्व की उपेक्षा-ईस्टन ने 'प्रक्रिया' तथा अन्तःक्रिया पर विशेष ध्यान दिया है तथा व्यक्तियों पर ध्यान ही केन्द्रित नहीं किया है। उसने इस तथ्य की व्याख्या नहीं की है कि जो व्यक्ति व्यवस्था का निर्माण करते हैं उन पर व्यवस्था का क्या प्रभाव पड़ता है। 

(3) राजनीतिक तत्त्वों की उपेक्षा-ईस्टन का सिद्धान्त वास्तव में राजनीतिक व्यवस्था की इतनी व्यापक कल्पना करता है कि बहुत से ऐसे तत्त्वों को राजनीतिक मानना कठिन हो जाता है जो वास्तव में राजनीतिक हैं। 

उदाहरण के लिए-आमण्ड ने प्रभावक गुटों तथा अन्य समूहों को जितना सटीक रूप प्रदान किया है, ईस्टन के विश्लेषण में उन्हें उतना महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता है। ऐसा लगता है कि ईस्टन अपनी व्यापकता की खोज में इन्हें भूल गया है। 

(4) बौद्धिक व्यायाम-ईस्टन का सिद्धान्त एक बौद्धिक व्यायाम है। वह एक बौद्धिक संरचना है जिसे सामाजिक स्थिति की वास्तविकता से निकाला गया है।

फिर भी ईस्टन का सिद्धान्त राजनीतिशास्त्र की अमूल्य धरोहर है। इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ हैं- 

विशेषताएँ 

(1) यह विश्लेषण का एक सामान्य सिद्धान्त है।

(2) ईस्टन किसी व्यवस्था का विश्लेषण नहीं करता, वरन् सभी व्यवस्थाओं में पायी जाने वाली सामान्य समस्याओं का विश्लेषण करता है।

( 3 ) वह संरचनाओं का विश्लेषण न करके प्रक्रियाओं का विश्लेषण करता है। 

(4) वह अन्तःक्रियाओं के विश्लेषण पर अधिक जोर देता है।

(5) उसका व्यवस्था सम्बन्धी विचार परम्परागत सामाजिक विज्ञानों से प्रभावित न होकर संचार विज्ञानों से प्रभावित है।

डॉ. एस. पी. वर्मा ने ईस्टन के राजनीतिक व्यवस्था विश्लेषण उपागम की दो विशेषताओं का उल्लेख किया है। प्रथम, इस विश्लेषण-पद्धति में सन्तुलन दृष्टिकोण से आगे तक जाकर व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों और गत्यात्मकताओं पर ध्यान दिया गया है। उसकी व्यवस्था सम्बन्धी व्याख्या में परिवर्तन और स्वामित्व दोनों की बात कही गयी है। 

वह व्यवस्था को एक ऐसी निरन्तरता मानता है। जिसमें और पर्यावरण में बराबर आदान-प्रदान होता रहता है तथा इसमें व्यवस्था की अनुकूलन क्षमता बढ़ती रहती है। 

द्वितीय, इसके द्वारा प्रस्थापित प्रत्ययों, प्रविधियों और अवधारणाओं के माध्यम से तुलनात्मक राजनीति में राजनीतिक व्यवस्था का तुलनात्मक अवलोकन सम्भव है।

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