धर्म क्या है - dharm kya hai

आदिकाल से ही प्रत्येक समाज में धर्म किसी-न-किसी रूप में विद्यमान रहा है। रिलीजन का शाब्दिक अर्थ है पवित्रता। इसकी व्युत्पत्ति लैटिन के ‘Religion' शब्द से हुई है। जिसका अर्थ पवित्रता, साधुता या धर्मनिष्ठता से है। धर्म अनैतिक शक्ति में विश्वास का नाम है। 

धर्म क्या है

धर्म के अन्तर्गत व्यक्ति किसी अलौकिक या पारलौकिक शक्ति में विश्वास करता है और यह शक्ति मानव शक्ति से आवश्यक रूप से श्रेष्ठ होती है और यह धारणा मानकर चलता है कि इस विश्वास का सम्पूर्ण संचालन इसी शक्ति या सत्ता के द्वारा होता है।

(1) फेयरचाइल्ड के अनुसार - धर्म वह सामाजिक संस्था है। जो अलौकिक शक्ति अथवा शक्तियों और उनसे मनुष्यों के सम्बन्ध के विचार के चारों ओर बनी हुई है। किसी विशेष संस्कृति में यह विचार एक विशेष प्रतिमान अथवा प्रतिमानों में नियमित हो जाता है। ऐसा प्रतिमान किसी विशेष समूह का धर्म कहलाया जाने लगता है। 

 (2) एडवर्ड टायलर के अनुसार - धर्म आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास है।

हिन्दू समाज में धर्म की अवधारणा

हिन्दू सामाजिक संरचना में धर्म का एक विशिष्ट स्थान है। हिन्दू समाज में धर्म को जीवन का एक अविभाज्य अंग माना गया है। हिन्दू समाज में प्रत्येक क्रिया को धर्म की कसौटी पर कसा गया है

इसे यों भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति द्वारा की गई क्रिया धर्म से सम्बन्धित है। हिन्दू समाज में धर्म को सर्वोपरि स्थान पर माना गया है। हिन्दू समाज में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सफर में धर्म के नियन्त्रणों, निर्देशों व आदेशों को स्वीकार करना पड़ता है। 

धर्म व्यक्ति के सबसे सच्चे मित्रों में से समझा जाता है। हिन्दू समाज के अस्तित्व को बनाये रखने में धर्म की भूमिका महत्वपूर्ण है। हिन्दू धर्म जीवन के सभी पक्षों से सम्बन्धित है। अतएव प्रत्येक व्यक्ति धर्म के बारे में इतना अधिक जागरूक है।

सामान्यतया धर्म का अर्थ होता है - धारण करना। हिन्दू समाज में धर्म की मान्यता इस प्रकार है 'धारणात धर्ममाहुः' अर्थात् धारण करने के कारण ही किसी वस्तु को धर्म कहा जाता है। बोसांके ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा कि “जहाँ हम धर्मपरायणता, अनुशक्ति तथा भक्ति मिलती है, वहीं धर्म को प्राथमिक रूप प्राप्त होता जाता है।" इस प्रकार उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि हिन्दू समाज में धर्म अपनी विशिष्ट पहचान रखता है।

धर्म के विविध स्वरूप

हिन्दू धर्म के तीन प्रमुख स्वरूप माने गये हैं जो इस प्रकार हैं- (1) सामान्य धर्म, (2) विशिष्ट धर्म और (3) आपद्धर्म। यहाँ हम इन तीनों पर ही विचार करेंगे। 

(1) सामान्य धर्म - सामान्य धर्म को मानव धर्म भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत वे नैतिक नियम आते हैं जिनके अनुसार आचरण करना प्रत्येक व्यक्ति का परम दायित्व है। इस धर्म का लक्ष्य मानव मात्र में सद्गुणों का विकास और उसकी श्रेष्ठता को जाग्रत करना है। 

यह वह धर्म है जो प्रत्येक के लिए अनुसरणीय है। चाहे बालक हो या वृद्ध, स्त्री हो या पुरुष, गरीब हो या अमीर, सवर्ण हो या अवर्ण, राजा हो या प्रजा, सबके लिए सामान्य धर्म का पालन करना आवश्यक कर्तव्य है। श्रीमद्भागवत में सामान्य धर्म के ये तीस लक्षण बतलाये गये हैं। 

सत्य, दया, तपस्या, पवित्रता, कष्ट सहने की क्षमता, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, सभी के लिए समान दृष्टि, सेवा, उदासीनता, मौन, आत्म चिन्तन, सभी प्राणियों में अपने आराध्य को देखना और उन्हें अन्न देना, महापुरुषों का संग, ईश्वर का गुण - गान, ईश्वर - चिन्तन, ईश्वर सेवा, पूजा और यज्ञों का निर्वाह, ईश्वर के प्रति दास्य - भाव, ईश्वर वन्दना, सखा- भाव, ईश्वर को आत्म-समर्पण धर्म के ये लक्षण सामान्यतः सभी संस्कृतियों में पाये जाते हैं। 

ये ऐसे लक्षण हैं जो व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास में योग देते हैं जो व्यक्ति को दायित्व निर्वाह की ओर अग्रसर करते हैं तथा आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। 

मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षणों पर प्रकाश डालते हुए बतलाया गया है। धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्। 

ये दस लक्षण हैं -

(1) धृति अर्थात् अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना। 

(2) क्षमा अर्थात् शक्तिशाली होते हुए भी क्षमाशील होना, उदार कार्य करना, दूसरों को क्षमा कर देना।  

(3) काम एवं लोभ पर नियन्त्रण अर्थात् शारीरिक वासनाओं पर संयम रखना। 

(4) अस्तेय अर्थात् सोये हुए, पागल या अविवेकी व्यक्ति से विविध तरीकों द्वारा कपट करके कोई वस्तु न लेना।  

(5) शुचिता अर्थात् पवित्रता अपने मन, जीवात्मा और बुद्धि को पवित्र रखना। 

(6) इन्द्रिय-निग्रह अर्थात् इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना।  

(7) धी का तात्पर्य बुद्धि के समुचित विकास से है, किसी वस्तु के गुण-दोष की विवेचना शक्ति से है।  

(8) विद्या वह है जो व्यक्ति को काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि क्षुद्र वृत्तियों से मुक्त करती है और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष पुरुषार्थों को समझाकर तदनुरूप आचरण योग्य बनाती है। 

 (9) सत्य, 

(10) अक्रोध अर्थात् क्रोध न करना।

सामान्य धर्म के उपर्युक्त लक्षण मानव मात्र के विकास में योग देते हैं। इन गुणों को अपने आप में विकसित करने की प्रत्येक मानव से अपेक्षा की जाती है । 

(2) विशिष्ट धर्म - विशिष्ट धर्म को 'स्वधर्म' भी कहा गया है। विशिष्ट धर्म के अन्तर्गत वे कर्तव्य आते हैं जिनका समय, परिस्थिति और स्थान विशेष को ध्यान में रखते हुए पालन करना व्यक्ति के लिए आवश्यक है। विशिष्ट धर्म के अन्तर्गत ब्राह्मण व शूद्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, माता-पिता और पुत्र सभी के लिए अलग-अलग कर्तव्यों के निर्वाह की बात कही गई है।

धर्म, विशिष्ट धर्म के अन्तर्गत वर्ण धर्म, आश्रम धर्म, कुल धर्म, राज धर्म, युग धर्म, मित्र गुरु धर्म आदि आते हैं। इन सभी का हम यहाँ संक्षेप में उल्लेख करेंगे।

(1) आश्रम धर्म - हिन्दू शास्त्रकारों ने व्यक्ति के जीवन को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है जिन्हें ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम कहा गया है। ब्रह्मचारी गुरु के आश्रम में सादा जीवन व्यतीत करते हुए विद्याध्ययन, अपने व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास तथा मानवोचित गुणों से अपने को विभूषित करता था। 

धर्म, अर्थ और काम की पूर्ति गृहस्थ के परम कर्तव्य थे। वह पंच महायज्ञों के द्वारा अन्य लोगों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करता था और सन्तानोत्पत्ति के द्वारा समाज की निरन्तरता में योग देता था। वानप्रस्थी निष्काम भाव से धर्म-संचय और मानव कल्याण के लिए अपने आपको लगा देता था। 

वह सम्पत्ति, परिवार और संसार का मोह त्याग कर जंगल में कुटिया बनाकर रहता था तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार अन्य आश्रमों के लोगों का मार्ग दर्शन करता था। संन्यासी का धर्म संसार का पूर्णतया त्याग करके अपने आपको परम सत्य की खोज में लगाना, ईश्वर में लीन करना और मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होना था।

(2) वर्ण धर्म - वर्ण - धर्म के अन्तर्गत चारों वर्णों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - प्रत्येक के अलग-अलग कर्तव्य बतलाये गये हैं। ब्राह्मण का धर्म अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ और धार्मिक कार्यों की व्यवस्था करना आदि हैं।  

क्षत्रिय का जीवन व सम्पत्ति की रक्षा, युद्ध और प्रशासन है। वैश्य का कृषि, उद्योग एवं व्यवसाय से धनोपार्जन और विभिन्न वर्गों की आवश्यकताओं की पूर्ति और शूद्र का उपर्युक्त तीनों वर्गों की मन, वचन व कर्म से सेवा करना है।

(3) कुल धर्म - कुल धर्म का लक्ष्य पारिवारिक संगठन को बनाये रखना, कुल परम्पराओं की रक्षा और विभिन्न संस्कारों को पूर्ण करना है। परिवार के सदस्य के रूप में व्यक्ति के अन्य सदस्यों के प्रति कुछ कर्तव्य होते हैं। 

पति का पत्नी के प्रति, पत्नी का पति के प्रति, माता-पिता का सन्तान के प्रति और सन्तान का माता-पिता के प्रति, भाई का भाई के प्रति कुछ कर्तव्य, कुछ धर्म होता है। परिवार में प्रत्येक सदस्य से उसकी विशिष्ट प्रस्थिति और आयु के अनुसार व्यवहार करने की आशा की जाती है।

(4) राज धर्म - राज धर्म के अन्तर्गत राजा या शासक के प्रजा के प्रति कुछ कर्तव्य आते हैं जिनका पालन करना उसके लिए जनहित की दृष्टि से आवश्यक है। राजा का धर्म है कि वह राजोचित व्यवहारों का पालन करे अर्थात् उसे दृढ़-प्रतिज्ञ होना चाहिए।  

अपने कर्मचारियों के पोषण की समुचित व्यवस्था, योद्धाओं का आदर-सत्कार करना एवं उद्देश्य प्राप्ति के लिए कुटिल नीति का भी प्रयोग कर लेना चाहिए।

(5) युग धर्म - युग धर्म को काल के धर्म के नाम से भी पुकारते हैं। हिन्दू शास्त्रकार इस तथ्य से परिचित थे कि समय परिवर्तन के साथ-साथ शक्ति के कर्तव्यों में परिवर्तन आना भी आवश्यक है। जो धर्म स्थिर हो जाता है, जिसमें गति नहीं रहती है।  

वह मनुष्य के व्यवहारों को अधिक समय तक प्रभावित नहीं कर पाता और विघटित होने लगता है। मनुस्मृति, पाराशर स्मृति और पद्मपुराण में युग धर्म की चर्चा की गयी है। अलग-अलग व्यक्ति के अलग-अलग कर्तव्य बताये गये हैं। हर युग में परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार नैतिक संहिताओं में परिवर्तन लाना आवश्यक होता है।

(6) मित्र धर्म - मित्र धर्म के अन्तर्गत एक मित्र के दूसरे मित्र के प्रति कर्तव्य आते हैं, जो दोनों पक्षों के लिए समान रूप से मान्य होते हैं । मित्र और मित्र में आयु, धन और पद के आधार पर किसी प्रकार का कोई भेद नहीं किया जाता। 

एक मित्र का अपने मित्र के प्रति यह कर्तव्य है कि वह सुख-दुःख में उसका साथ दे। कर्तव्य का पालन करने के लिए उसे प्रेरित करे; मन, कर्म और वचन से उसकी रक्षा करे और आवश्यकता पड़ने पर उसके लिए सब प्रकार का त्याग करने के लिए तत्पर रहे। 

(7) गुरु धर्म - हिन्दू समाज में गुरु को बहुत ऊँचा स्थान प्रदान किया गया है, परन्तु साथ ही उसके कुछ कर्तव्य (धर्म) भी बतलाये गये हैं। उसे सदैव अपने शिष्यों की हित कामना, लोभ एवं दम्भ से दूर रहना तथा अहिंसा और त्याग भावना से ज्ञान का प्रसार करना चाहिए।

धर्म का समाजशास्त्रीय महत्व

सामाजिक जीवन में धर्म का महत्व अति प्राचीनकाल से चला आ रहा है। भारतीय सामाजिक जीवन सदैव धार्मिकता की कील पर घूमता रहा है। हिन्दू समाज में धर्म का महत्व केवल विश्वासों से ही सम्बन्धित नहीं है।  बल्कि वह एक उपयोगी और व्यावहारिक धर्म है। यहाँ हम हिन्दू समाज में धर्म के महत्व का उल्लेख संक्षेप में कर रहे हैं -

1. सामाजिक संगठन में सहायक - धर्म हमारे समाज के धार्मिक संगठन में सहायक रहा है। हिन्दू धर्म ने समस्त सदस्यों के कर्तव्यों का निर्धारण करके उन्हें एक विशिष्ट सामाजिक स्थिति प्रदान करने के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है। 

परिणाम यह है कि हमारे समाज में पद हेतु होने वाले संघर्षों की मात्रा बहुत कम रही है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति 'स्वधर्म' की सीमाओं में रहकर अपने कर्तव्यों के पालन का प्रयास करता था। धर्म ने ही पाप, पुण्य, मोक्ष, कर्म की भावना एवं धारणा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को नैतिक जीवन व्यतीत करने का प्रोत्साहन दिया।  

परिणामस्वरूप स्वस्थ सामाजिक सम्बन्धों का विकास तो हुआ ही, साथ ही परिवार भी एक संगठित इकाई के रूप में कार्य करने लगे। यदि समाज में सभी व्यक्ति अपने अधिकारों का दावा करने लगे तो समाज का संगठन नष्ट हो जायेगा। हिन्दू धर्म ने त्याग, सहानुभूति और सामूहिकता के गुणों को प्रोत्साहन देकर सामाजिक संगठन में योगदान दिया। 

2. व्यक्तित्व के विकास में सहायक - भारतीय समाज में प्रत्येक व्यक्ति कुछ उद्देश्यों; यथा - मोक्ष, ईश्वरीय महानता, समृद्धि और सुख-सम्पत्ति के लिए धार्मिक नियमों के अनुसार आचरण करता है। उसके परिणामस्वरूप वह बुराइयों से बचता है तथा मानवीय गुणों का विकास होता है। 

धर्म प्रत्येक स्थिति में व्यक्ति को प्रेरणा प्रदान करता है। इन साधनों की प्राप्ति न होने पर व्यक्ति में जो निराशा एवं आत्महीनता आ जाती है, उसे दूर करने का आधार धर्म ही है। धर्म व्यक्ति के जीवन के महत्व को स्पष्ट करता है और उसे पवित्र भावनाओं की ओर अग्रसर करता है। इन सबके परिणामस्वरूप उसके व्यक्तित्व का विकास होता है।

3. अनौपचारिक नियन्त्रण का साधन - धर्म व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करने पर और सामाजिक व्यवस्था के प्रति व्यक्तियों की निष्ठा बनाये रखने का सर्वोत्तम साधन है। कानून और न्यायालय द्वारा जो नियन्त्रण स्थापित होता है वह औपचारिक होता है। 

बहुधा यह देखा जाता है कि व्यक्ति मात्र मानवीय गुणों का उल्लंघन करते हैं। परन्तु धार्मिक नियमों की पूजा ईश्वरीय दण्ड का जो भय है उसके कारण उनकी नहीं करते। इस प्रकार धर्म व्यक्ति को आत्म-नियन्त्रण की ओर प्रेरित करता है। 

धर्म सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख आधार व्यक्तियों में भावात्मक एकता का होना है। इस भावनात्मक एकता को स्थापित करने का धर्म एक महत्वपूर्ण साधन है।

4. संस्कृति की रक्षा - सभी समाज में संस्कृति की रक्षा करने में धर्म ने अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान दिया है, परन्तु धर्म ने अपने व्यावहारिक और त्याग स्वरूप के कारण भारतीय संस्कृति को हजारों वर्षों तक स्थायी बनाये रखा है। संसार की अनेक संस्कृतियाँ और सभ्यताएँ विकसित होकर उजड़ गयीं।  

परन्तु वैदिक संस्कृति दृढ़ नहीं हो सकी । कारण यह है कि हिन्दू धर्म ने व्यक्तियों के मध्य श्रम विभाजन की सुन्दर व्यवस्था कर पुरुषार्थों, कर्मों और सभी परिस्थितियों से अनुकूलन करने की क्षमता उत्पन्न करके व्यवसाय एवं धर्म का प्रतिपादन किया और वैदिक सभ्यता को स्थायी रूप प्रदान किया।

5. सामान्य कल्याण में सहायक - धर्म सामान्य कालान्तर में भी सहायक सिद्ध होता है। वह व्यक्तिवादिता को प्रोत्साहन न देकर सामान्य-कल्याण में वृद्धि का प्रयास करता है। भारतीय समाज में बन्धुत्व विकास, पारस्परिक सहायता, सहयोग और त्याग के जो गुण हैं, वह हिन्दू धर्म के फलस्वरूप ही हैं। 

धर्म व्यक्ति के आत्म-कल्याण और त्याग की प्रेरणा देता है एवं उसमें सामान्य कल्याण की भावना विकसित करता है। भौतिकता के वर्तमान युग में यदि कहीं निःस्वार्थ सेवा, सन्तोष और सद्भाव के गुण हैं तो वे भारतीय समाज ही हैं। भारतीय समाज में इन गुणों का विकास हिन्दू धर्म द्वारा ही किया गया है।

कुछ पश्चिमी विचारक हिन्दू धर्म पर यह दोष लगाते हैं कि उससे व्यक्ति निकम्मा बन जाता है। परन्तु यह दोष हमारे धर्म से उत्पन्न होने वाली रूढ़ियों से है।

6. कर्म का स्रोत - हिन्दू धर्म केवल एक विश्वास नहीं है, बल्कि वह कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए एक दृढ़ व्यवस्था है। इस धर्म ने प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों के प्रति अपने देश, काल व परिस्थितियों के अनुसार दायित्वों का निर्वाह करने का प्रोत्साहन दिया है। 

गीता में जो निष्काम कर्म का आदेश दिया गया है उसका सम्बन्ध वैराग्य या अपने दायित्वों के प्रति उदासीनता से नहीं है। बल्कि दायित्व को पूर्ण करने के बाद भी उसके परिणामों के प्रति तटस्थ रहना है। हिन्दू धर्म केवल निष्काम कर्म की व्यवस्था करता है। इस कर्मवाद की भावना के फलस्वरूप हमारे समाज में मानसिक संस्कारों की समस्या उत्पन्न नहीं हुई।

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