गाँव क्या है - gaon kya hai

गाँव शब्द सुनने में जितना सरल है। उसे सही अर्थ में परिभाषित करना उतना ही कठिन है। आज जबकि गाँव और शहर का पारस्परिक सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन घनिष्ठ होता जा रहा है। गाँव क्या है ?' इसका उत्तर और भी कठिन प्रतीत होता है। इसलिए कुछ विद्वानों ने इस प्रश्न के उत्तर में केवल गाँव या ग्रामीण जीवन का एक सामान्य रूपरेखा मात्र प्रस्तुत की है।

उदाहरणार्थ श्री पीक ने ग्रामीण समुदाय की परिभाषा करते हुए लिखा है कि ग्रामीण समुदाय परस्पर सम्बन्धित अथवा असम्बन्धित व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो कि एक परिवार से आकार में बड़ा होता है और जिसके अन्तर्गत पास-पास बने अनेक मकान तथा खेत होते हैं और साथ ऐसे अनेक चरागाह या बेकार जमीन होती है।  जिस पर कि वहाँ के निवासी पशुओं को चराते हैं। एक निश्चित सीमा तक यह गाँव या जमीन हमारी है यह भावना भी वहाँ के लोगों में स्पष्ट होती है।

गाँव क्या है ? भारतीय गाँव की सामाजिक संरचना की व्याख्या करिये।

सिम्स ने लिखा है कि गाँव नाम का प्रयोग सामान्यतः किसानों की बस्तियों से किया जाता है। जिन वृहत् क्षेत्रों में एक समूह के लगभग सभी महत्वपूर्ण हितों की सन्तुष्टि की जाती है उनको ग्रामीण समुदाय मान लेने के लिए समाजशास्त्रियों की प्रतिबद्धता बढ़ती जा रही है।

मेरिल एण्ड एलड्रिज  ने अपनी कृति 'Culture and Society' में लिखा है कि ग्रामीण समुदाय के अन्तर्गत संस्थाओं और ऐसे व्यक्तियों का समावेश होता है जो एक छोटे से केन्द्र के चारों ओर संगठित होते हैं तथा सामान्य और प्राथमिक हितों द्वारा आपस में बँधे रहते हैं।

सेण्डरसन ने लिखा है कि एक ग्राम समुदाय बिखरे हुए कृषि गृहों, जंगल या गाँव में रहने वाले व्यक्तियों से बना होता है जो वहाँ अपनी सामूहिक क्रियाओं को करते हैं। इसके अतिरिक्त यह एक प्रकार की समिति होती है।  जिसमें स्थानीय क्षेत्र के लोगों की सामाजिक अन्तः क्रियाएँ और संस्थाएँ होती हैं।

डॉ. ए. आर. देसाई के अनुसार - ग्राम मानव के सामूहिक निवास की प्रथम-व्यवस्था और कृषि व्यवस्था के विकास का उत्पादक है।

डॉ. ए. पी. श्रीवास्तव का कहना है कि ग्रामीण समुदाय का अर्थ एक निश्चित भू-भाग में निवास करने वाले किसी ऐसे छोटे अथवा बड़े समूह से होता है। जिसमें जनसंख्या की समरूपता, प्रकृति से सम्बद्धता, सरलता और सामुदायिक भावना के साथ-साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक समानता की प्रधानता होती है। यह एक भारतीय ग्रामीण समुदाय के सम्बन्ध में कहा जा सकता है। 

भारतीय गाँवों की सामाजिक संरचना

भारतीय गाँवों की सामाजिक संरचना का अध्ययन अनेक विद्वानों ने किया है जिनमें दुबे, श्रीनिवास, मैकिम मैरियट, मिल्टन, सिंगर, रैडफील्ड, मजूमदार, बी. आर. चौहान आदि प्रमुख हैं। हमें भारत में अनेक प्रकार के गाँव देखने को मिलेंगे। 

कई गाँव ऐसे हैं जहाँ केवल एक ही जाति अथवा जनजाति निवास करती है तो कई गाँवों में अनेक जातियाँ एवं जनजातियाँ साथ-साथ निवास करती हैं। जातियों एवं जनजातियों की विभिन्न एवं सह- उपस्थिति ग्रामीण सामाजिक संरचना को प्रभावित करती है। 

जिस गाँव में एक ही जाति अथवा जनजाति रहती है उस गाँव की अपेक्षा बहुजाति एवं जनजातियों के साथ-साथ निवास करने वाले गाँव की सामाजिक संरचना जटिल होगी। वहाँ अन्तर्जातीय सम्बन्धों की व्यवस्था एवं जजमानी प्रथा देखने को मिलेगी। 

इसी प्रकार से गाँव में जनसंख्या की कमी अथवा अधिकता, नगर से दूरी, गाँव की भौतिक बसावट आदि भी गाँव की सामाजिक संरचना को प्रभावित करते हैं। भारत में प्रादेशिक आधार पर ग्रामीण सामाजिक संरचना में भिन्नता पायी जाती है। 

उत्तर भारत के गाँव मध्य एवं दक्षिण भारत के गाँवों से अनेक अर्थों में भिन्नता लिए हुए हैं। फिर भी सभी गाँव की कुछ ऐसी सामान्य विशेषताएँ हैं जो सभी भारतीय गाँवों में पायी जाती हैं और उनके आधार पर भारतीय ग्रामों की सामाजिक संरचना की विवेचना की जा सकती है।

भारतीय गाँवों की सामाजिक संरचना की प्रकृति को समझने के लिए गाँवों के आन्तरिक सम्बन्धों, समूहों, गाँव को समुदायों में समुदाय के रूप में समझना होगा तथा ग्रामों की सामाजिक संरचना की स्थायी इकाइयों का अध्ययन करना होगा। 

प्रत्येक गाँव को सम्पूर्ण भारतीय समुदाय के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। जहाँ एक गाँव अपनी अनेक स्थानीय आवश्यकताओं; जैसे-धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक आदि की पूर्ति ग्राम स्तर पर पूरी करता है। 

वहीं वह अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सम्पूर्ण भारत पर भी निर्भर है। डॉ. दुबे का विचार है कि प्रत्येक भारतीय गाँव का एक इतिहास होता है। मूल्यों और विचारों की एक व्यवस्था होती है। अतः प्रत्येक गाँव को अन्ततः ग्रामीण संगठन के सन्दर्भ में ही देखा जाना चाहिए। 

वे कहते हैं कि भारतीय ग्रामीण संरचना को समझने के लिए लघु स्तर पर अनेक हिस्सों में गाँवों का अध्ययन करके हम गाँवों के विभिन्न पक्षों एवं विशेषताओं की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं तथा उनके आधार पर भारतीय गाँव के बारे में सामान्यीकरण प्रस्तुत कर सकते हैं। 

इस प्रकार के अनेक अध्ययनों के अभाव में भारतीय गाँवों की सामाजिक संरचना का स्पष्ट चित्र अंकित करना कठिन है। दुबे एवं अन्य विद्वानों ने भारतीय ग्रामों की सामाजिक संरचना को दो दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया है। 

  • भारतीय ग्राम एक विशिष्ट पूर्ण पृथक् इकाई के रूप में
  • भारतीय ग्राम बड़े समुदाय में एक छोटी सम्बन्धित इकाई के रूप में

मैकिम मैरियट ने भी उत्तर प्रदेश के गाँव किशनगढ़ी का इन दोनों ही दृष्टिकोणों से अध्ययन किया है। भारतीय गाँव की सामाजिक संरचना में दुबे नातेदारी और जाति तथा भौगोलिक सीमा के सम्बन्धों को प्रमुख मानते हैं। ग्राम की सामाजिक संरचना के प्रमुख अंगों परिवार, जाति, राजनैतिक संगठन, धर्म, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, सामाजिक मूल्य एवं प्रतिमानों, आदि का हम यहाँ उल्लेख करेंगे -

(1) परिवार, विवाह एवं नातेदारी – ग्राम की सामाजिक संरचना की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति है। व्यक्ति से बड़ी इकाई क्रमशः रिवार, नातेदारी समूह, वंश समूह, उपजाति और वर्ण हैं। परिवार सामाजिक संरचना एवं साथ ही भारतीय ग्रामीण सामाजिक संरचना की भी इकाई है। 

ग्रामीण परिवारों में अधिकांशतः विस्तृत एवं संयुक्त परिवार देखने को मिलते हैं। ये परिवार मुख्य रूप से पितृसत्तात्मक एवं पुरुष-प्रधान होते हैं। इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है। ग्रामीण परिवारों की कई विशेषताएँ हैं। 

जैसे परिवार में मुखिया का कठोर नियन्त्रण होता है। तीन या चार पीढ़ियों के सदस्य एक ही स्थान पर निवास करते हैं। उनका भोजन, पूजन एवं सम्पत्ति सामूहिक होता है। परस्पर सहयोग, पितृ पूजा एवं परम्पराओं का आचरण ऐसे परिवारों में देखा जा सकता है। ग्रामीण परिवार उत्पादन एवं उपभोग की इकाई होते हैं।

गाँवों में विवाह दो व्यक्तियों को नहीं वरन् दो परिवारों को जोड़ने वाली कड़ी माना जाता है। विवाह का दायरा उपजाति तक ही सीमित होता है। गाँव में विवाह एक अनिवार्य संस्था के रूप में माना जाता है। ग्रामीण विवाह अधिकांशतः अल्पायु में ही सम्पन्न होते हैं। 

उच्च जातियों में विधवाओं के पुनर्विवाह नहीं होते। जबकि निम्न जातियों में इसकी छूट है। सगोत्र विवाहों पर प्रतिबन्ध होता है। उत्तर भारत के गाँवों में न केवल अपने ही गाँव में विवाह करना मना होता है वरन् गाँव की सीमा से लगे गाँवों में भी विवाह करना उचित नहीं माना जाता। इसके विपरीत दक्षिण भारत के गाँवों में अधिकतर विवाह गाँव में ही सम्पन्न होते हैं। इस नाते वहाँ विवाह की दृष्टि से गाँव आत्मनिर्भर हैं।

परिवार और विवाह का विस्तार नातेदारी समूह को जन्म देता है। व्यक्ति अपने रक्त एवं विवाह सम्बन्धियों से सम्बन्धित होता है। रक्त सम्बन्धियों में वंश सम्बन्धियों को गिना जाता है। विवाह में कुछ प्रकार के नातेदारों से विवाह को अधिमान्यता दी जाती है। 

जैसे दक्षिणी भारत में ममेरे फुफेरे भाई-बहिनों का विवाह, तो कुछ रिश्तेदारों के साथ विवाह करने पर निषेध होता है। कठिनाई के दिनों में एक व्यक्ति अपने रिश्तेदारों से सहायता और सहानुभूति की अपेक्षा रखता है निकट सम्बन्धी सामाजिक नियन्त्रण का कार्य भी करते हैं। गाँव में एक व्यक्ति अपने परिवार एवं नातेदारी सम्बन्धों के आधार पर जाना जाता है ।

(2) जाति - ग्रामीण सामाजिक संरचना का दूसरा मूल आधार जाति है। जाति का निर्धारण जन्म से होता है। प्रत्येक जाति का एक परम्परात्मक व्यवसाय होता है। एक व्यक्ति अपनी जाति में ही विवाह करता है। जाति अन्य जातियों के साथ खान-पान के नियम भी तय करती है और अपने सदस्यों पर नियन्त्रण रखती है। 

जाति ही गाँव में व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति निर्धारित करती है एवं जातीय संस्कृति का अपने सदस्यों में संचरण करती है। गाँव में सामाजिक संस्तरण का मुख्य आधार जाति ही है। विभिन्न जातियाँ परस्पर आर्थिक सम्बन्धों, कर्तव्यों एवं दायित्वों से बंधी होती है। 

जातियों के इस सम्बन्ध को जजमानी प्रथा कहते हैं। प्रत्येक जाति की एक जाति पंचायत होती है जो अपने सदस्यों के व्यवहार पर नियन्त्रण रखती है तथा जातीय नियमों का उल्लंघन करने वाले को दण्ड देती है। 

जातियों की समग्रता गाँव की उदग्र एकता का निर्माण करती है। किन्तु एक जाति एक गाँव तक ही सीमित नहीं होती वरन् दूसरे गाँव में भी फैली होती है और वह क्षैतिज एकता को उत्पन्न करती है।

(3) ग्राम पंचायत- गाँव में ग्राम पंचायत सत्ता और शक्ति का केन्द्र होती है तथा समुदाय की सामाजिक संरचना को संगठित करती है। गाँव पंचायत प्रारम्भ से ही प्रशासन की इकाई रही है। गाँव पंचायतों पर परिवार, जाति, वर्ग, वंश आदि का प्रभाव होता है। 

ग्राम पंचायतें अन्तर्वैयक्तिक एवं अन्तर्जातीय सम्बन्धों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जाति पंचायत गाँव पंचायतों के कार्य संचालन में योग देती है। परम्परात्मक गाँव पंचायतों के स्थान पर वर्तमान में पंचायती राज के द्वारा नयी पंचायतों की व्यवस्था की गयी है जो अधिक प्रजातन्त्रीय प्रणाली पर आधारित है। 

गाँव में इस नयी व्यवस्था ने ग्रामीण शक्ति संरचना, नेतृत्व, गुटबन्दी तथा दलीय प्रणाली के नये आयामों को जन्म दिया है। ग्राम पंचायतें गाँव में अनेक प्रशासकीय, सामाजिक एवं राजनैतिक कार्य करती हैं। गाँव की सफाई, रोशनी, शिक्षा, संघर्षों का निपटारा, चरागाह, भूमि की सुरक्षा, विकास एवं न्यायिक कार्य आदि ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्र हैं। 

पंचायती राज में ग्राम स्तर पर पंचायत, खण्ड स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद् की स्थापना की गयी है।

(4) आर्थिक संस्थाएँ - ग्रामीण आर्थिक संस्थाएँ भी ग्रामीण सामाजिक संरचना का भाग हैं। गाँव की अर्थव्यवस्था जाति व्यवस्था पर आधारित है। यहाँ अधिकांश लोग कृषि के द्वारा अपना जीवन-यापन करते हैं। गाँव के लोगों का अपनी जमीन से घनिष्ठ लगाव होता है और जमीन के स्वामित्व के आधार पर व्यक्ति का मूल्यांकन किया जाता है। 

कृषि के साथ-साथ पशुपालन तथा प्रत्येक जाति द्वारा अपना परम्परात्मक व्यवसाय भी किया जाता है। एक जाति दूसरी जाति की सेवा करती है। जजमानी व्यवस्था ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आधारशिला रही है। दुबे, वाइजर, सिंह एवं ईश्वरन आदि विद्वानों ने ग्रामीण जजमानी प्रथा का अध्ययन किया है। दुबे जजमानी व्यवस्था के मुख्य चार कार्य मानते हैं -

  • कृषि की क्रियाओं से सम्बन्धित व्यवसायों की सेवाएँ प्रदान करना। 
  • सामाजिक एवं धार्मिक जीवन से सम्बन्धित कृषि व अन्य व्यावसायिक जातियों की सेवाएँ प्रदान करना।
  • कुछ व्यावसायिक सेवाएँ जातियों को परम्परागत सेवाओं के बदले में प्रदान करना।
  • व्यावसायिक सेवाएँ, नकद भुगतान की आशा से प्रदान करना।

जजमानी प्रथा के द्वारा एक जाति दूसरी जाति को जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसर पर सेवाएँ प्रदान करती हैं तथा उनकी आवश्यकताओं को पूर्ति करती है। वह बदले में सेवा प्राप्त करने वाली जाति से पुनः सेवा प्राप्त कर सकती है।  

वस्तुओं में अथवा नकद भुगतान प्राप्त कर सकती है। वर्तमान समय में जजमानी प्रथा को भूमि सुधार, भू-आन्दोलन, मुद्रा अर्थव्यवस्था एवं औद्योगीकरण आदि ने प्रभावित किया है। इस व्यवस्था ने गाँवों को प्राचीन समय में आत्म-निर्भरता प्रदान की थी। किन्तु वर्तमान में गाँव राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के अंग बन गये हैं।

(5) धर्म - भारतीय ग्राम धर्म-प्रधान हैं। देश की विशालता के अनुसार यहाँ विभिन्न प्रकार के धर्म, मत तथा सम्प्रदाय प्रचलित हैं; जैसे- शैव, वैष्णव, दादू पन्थ, कबीर पन्थ, नानक पन्थ, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों के लोगों का साथ-साथ निवास एवं परस्पर सहयोग धार्मिक सहिष्णुता का सूचक है। हरकोर्ट बटलर कहते हैं कि जहाँ यूरोपीय लोग धर्म निरपेक्ष हैं, वहीं भारतीय धार्मिक हैं।

गाँव में अनेक प्रकार के देवी-देवताओं को माना जाता है। जैसे राम, कृष्ण, हनुमान, तेजाजी, भेरूजी, पावूजी, शीतला माता, अम्बा माता आदि । गाँव में मन्दिर, देवरे, शिवालय आदि सभी धार्मिक स्थान देखने को मिलेंगे। ग्रामीण धर्म की अनेक विशेषताएँ हैं। जैसे -

  • धर्म पर परिवार का प्रभाव पाया जाता है और पितरों तथा पारिवारिक देवी-देवताओं पूजा की जाती है। की
  • प्राकृतिक वस्तुओं; जैसे- पहाड़, नदी, जल, चन्द्रमा, सूर्य, पेड़-पौधों आदि में अलौकिक शक्ति के निवास की कल्पना की गयी है।
  • धर्म से सम्बन्धित अनेक निषेधाज्ञाएँ पायी जाती हैं। 
  • धर्म से सम्बन्धित अनेक अन्धविश्वासों, जादू-टोने आदि का प्रचलन पाया जाता है।
  • भूत-प्रेत और उनसे सम्बन्धित झाड़-फूंक, तन्त्र-मन्त्र में विश्वास पाया जाता है।
  • जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त अनेक दैनिक कार्यों का धार्मिक क्रियाओं के साथ प्रारम्भ और समापन होता है।

संस्कार और उत्सव भी ग्रामीण सामाजिक संरचना के लक्षण हैं। धार्मिक संस्कारों के मानने के दौरान लोगों में परस्पर सहयोग, समानता और एकीकरण के भाव पैदा होते हैं। 

होली, दीपावली, रक्षाबन्धन, दशहरा, जन्माष्टमी आदि त्योहार और पर्व गाँव के सभी छोटे-बड़े व्यक्ति साथ-साथ मनाते हैं। धर्म से सम्बन्धित अनेक लघु एवं दीर्घ परम्पराएँ पायी जाती हैं। धर्म ने ग्रामीण लोगों को बहुत कुछ मात्रा में भाग्यवादी बना दिया है।

(6) शैक्षणिक संस्थाएँ - ग्रामों में औपचारिक शिक्षण संस्थाएँ सीमित मात्रा में पायी जाती हैं। किन्तु अनौपचारिक रूप से ग्रामीण लोगों का शिक्षण एवं प्रशिक्षण जाति द्वारा होता रहा है। एक व्यक्ति अपने परम्परागत जातीय व्यवसाय का प्रशिक्षण अपने पुरखों से प्राप्त करता है। परिवार ही व्यापार, कृषि एवं दस्तकारी का ज्ञान अपने सदस्यों को प्रदान करता है। 

कृषक, लुहार, सुनार, जाटव, धोबी, नाई, ढोली, पुजारी अपने व्यावसायिक ज्ञान को अपनी सन्तानों को सिखाते रहे हैं। परिवार द्वारा मनाये जाने वाले त्यौहारों, उत्सवों एवं पर्वों द्वारा व्यक्ति को धार्मिक प्रशिक्षण मिलता है। गाँवों की आधुनिक शिक्षा की आवश्यकता की पूर्ति के लिए शिक्षण संस्थाएँ खोली जा रही हैं। 

प्रौढ़ शिक्षण का कार्य भी सामुदायिक विकास योजना के अन्तर्गत प्रारम्भ किया गया। कृषि एवं उद्योगों के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी पंचायती राज और सामुदायिक विकास योजना के द्वारा की गयी ।

(7) प्रतिमान, मूल्य और परिवर्तन - ग्रामीण सामाजिक संरचना का सम्बन्ध ग्रामीण आदर्शों, मूल्यों तथा बाह्य प्रभाव से भी सामाजिक मूल्य, आदर्श भी मानव व्यवहार को तय करते हैं। ग्रामीण सामाजिक संरचना और ग्रामों ओ के आन्तरिक प्रशासन एवं संगठन को नेतृत्व ने भी प्रभावित किया है। 

ग्रामों की सामाजिक संरचना के उल्लेख के दौरान गाँवों में होने वाले नवीन सामाजिक परिवर्तनों का भी उल्लेख किया जाना चाहिए। वर्तमान में ग्रामोत्थान की अनेक योजनाएँ प्रारम्भ की गयी हैं। 

सामुदायिक विकास योजनाओं, समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, जर्मींदारी उन्मूलन अधिनियम, पंचवर्षीय योजनाओं, पंचायती राज आदि के प्रभाव के कारण परम्परागत प्राचीन ग्रामीण सामाजिक संरचना में अनेक परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहे हैं। 

वर्तमान समय में ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित आदर्शों एवं मूल्यों में भी कुछ परिवर्तन आये हैं। ग्रामीण जीवन के कई क्षेत्रों में आज आधुनिकीकरण का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई पड़ने लगा है। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि परिवार, विवाह, नातेदारी, जाति, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं शैक्षणिक संस्थाएँ, सामाजिक प्रतिमान एवं मूल्य, गाँव की सामाजिक इस संरचना के निर्माण में योग देते हैं। दुबे कहते हैं कि “गाँव सामाजिक संरचना की एक इकाई के नाते नातेदारी एवं जाति की सीमाओं को लाँघकर अनेक असम्बन्धित परिवारों को एक एकीकृत बहुजाति समुदायों में बाँधता है।” एक

Related Posts