हीगल के द्वन्द्ववादी सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए

प्रो. सेबाइन का विचार है कि हीगल की राजनीतिक विचारधारा का महत्त्व दो बिन्दुओं पर केन्द्रित है और वे हैं - द्वन्द्वात्मक प्रणाली तथा राष्ट्रीय राज्य का आदर्श स्वरूप।

हीगल के अनुसार मानवीय सभ्यता की प्रगति या विकास कभी भी एक सीधी रेखा के समान नहीं होता। जिस प्रकार प्रचण्ड तूफान में थपेड़े खाता हुआ एक जहाज अपना मार्ग बनाता है, उसी प्रकार से मानव सभ्यता भी अनेक टेड़-मेढ़े रास्तों से होती हुई आगे बढ़ती है। 

हीगल के द्वन्द्ववादी सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। 

राज्य एक जड़ वस्तु न होकर विकसित संस्था है, अतः इसका अध्ययन विकासवादी दृष्टिकोण के आधार पर ही किया जाना चाहिए। विकास की इस प्रक्रिया में निम्नकोटि की वस्तुएँ उच्चकोटि की वस्तुओं में विकसित होकर पूर्णता प्राप्त करती हैं और उनकी निम्नता नष्ट न होकर उच्चता ग्रहण कर लेती है। 

विकसित होने के पश्चात् कोई भी वस्तु वह नहीं रहती जो पहले थी, वरन् वह कुछ आगे बढ़ जाती है । इसी विकासवादी प्रक्रिया को हीगल ने 'द्वन्द्वात्मक पद्धति का नाम दिया है।

सर्वप्रथम यूनानी लोगों ने अपने विचार-विमर्श में द्वन्द्वात्मक प्रणाली को अपनाय था। इस प्रणाली के आधार पर वे आपसी कथोपकथन, तर्क और प्रति तर्क द्वारा सत्य को प्रमाणित करते एवं नवीन सत्य की खोज करते थे । 

हीगल द्वन्द्व की इस प्रणाली को विचारों के क्षेत्र में लागू करते हुए कहता है कि सर्वप्रथम प्रत्येक वस्तु का एक मौलिक रूप ‘वाद’ होता है, विकासवाद के अनुसार वह बढ़ता और इसका विकसित रूप कालान्तर में उसके मौलिक रूप का बिल्कुल विपरीत हो जाता है, इस विपरीत रूप को ‘प्रतिवाद’  कहते हैं। 

ज्यों-ज्यों समय आगे बढ़ता है, विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार यह मौलिक रूप तथा विपरीत रूप आपस में मिलते हैं और इन दोनों के मेल से वस्तु का नया समन्वित रूप 'समवाद'  बन जाता है। यह समन्वित रूप थोड़े दिनों में फिर मौलिक रूप ग्रहण कर लेता है और इसी प्रक्रिया की निरन्तर आवृत्ति होती रहती है ।

इसी द्वन्द्वात्मक प्रणाली के आधार पर हीगल समाज तथा राज्य के विकास का अध्ययन करता है। वह मानता है कि यूनानी राज्य 'वाद' थे, धर्म राज्य उसके 'प्रतिवाद' और राष्ट्रीय राज्य उनका एक 'समवाद' होगा। 

'कला', 'धर्म' तथा 'दर्शन' को भी वह इस प्रकार वाद, प्रतिवाद तथा समवाद मानता है। हीगल के अनुसार द्वन्द्व की इस पद्धति से ही विश्व के सभी विचार विकसित होते हैं ।

द्वन्द्वात्मक पद्धति की विशेषताएँ (महत्त्व)

हीगल द्वारा प्रतिपादित द्वन्द्वात्मक पद्धति को पूर्णतया समझने के लिए उसकी विशेषताओं का अध्ययन आवश्यक है। इस पद्धति की प्रथम विशेषता यह है कि यह स्वतः प्रेरित और स्वतः संचालित स्थिति है और इसी आधार पर वह निरन्तर प्रगतिगाम है । द्वितीय विशेषता द्वन्द्वात्मक पद्धति प्रगति के व्यवस्थित विचार से सम्बन्धित है । 

'मानव पतन' की ईसाई धर्म की मान्यता के विरुद्ध हीगल द्वारा मानव प्रगति के विचार का प्रतिपादन किया गया है। इस सम्बन्ध में उसका विचार था कि मानव प्रगति को निर्धारित करने वाला तत्त्व विश्वात्मा का विवेक है। 

यह विवेकपूर्ण विश्वात्मा अपने विकास के लिए विभिन्न अवस्थाओं को धारण करती है और लक्ष्य सिद्धि तक उसे निरन्तर आगे बढ़ाती है। यह व्यवस्थित मानव प्रगति द्वन्द्वात्मक पद्धति के माध्यम से ही सम्भव है।

तृतीय विशेषता हीगल की यह मान्यता है कि प्रगति या विकास दो परस्पर विरोधी वस्तुओं या शक्तियों में द्वन्द्व अथवा संघर्ष का परिणाम है। इस प्रकार संघर्ष ही विकास का माध्यम है। संघर्ष की प्रक्रिया ही पहले वाद, फिर प्रतिवाद तथा उसके उपरान्त समवाद को जन्म देती है, जिसमें दोनों के गुण विद्यमान होते हैं और जो वाद तथा प्रतिवाद से उच्च स्थिति का प्रतीक है।

चतुर्थ विशेषता हीगल की यह मान्यता है कि संघर्ष की इस समस्त प्रक्रिया में 'विचार' को ही प्रमुख स्थिति प्राप्त होती है। विचार ही पदार्थ की स्थिति को नियन्त्रित और निर्धारित करता है। इसी आधार पर कुछ लेखकों ने हीगल के द्वन्द्ववाद को 'आध्यात्मिक द्वन्द्ववाद' का नाम दिया है।

द्वन्द्ववाद पद्धति के उपर्युक्त अध्ययन से हमें ज्ञात होता है कि हीगल के अनुसार सामाजिक प्रगति विरोधी तत्त्वों के माध्यम से होती है। ये विरोधी तत्त्व आपस में टकराते हैं और उनके टकराव से एक नये विचार का जन्म होता है जिसमें सहयोगी और विरोधी, दोनों ही प्रकार के तत्त्वों का सम्मिश्रण होता है और वह उनसे बढ़कर स्थिति में होता है। 

इस तरह प्रगति की यह प्रक्रिया आदर्शों की प्राप्ति तक बराबर चलती रहती है और सामाजिक विकास की गति निरन्तर नये लक्ष्यों की ओर बढ़ती है। इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए राइट का कथन है कि, “द्वन्द्ववाद विशुद्ध तर्क की अत्यन्त निराकार धारणा से प्रारम्भ होता है और इसकी समाप्ति विचार के अत्यन्त साकार रूप-अपनी पूर्ण व्यापकता तथा साकारता के साथ निरपेक्ष बुद्धि के दर्शन के रूप में होती है।” 

हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति के गुण 

(1) हीगल का द्वन्द्ववाद, मानव सभ्यता के विकास की एक नई धारणा उपस्थित करता है। हीगल के अनुसार मानव सभ्यता का विकास वाद, प्रतिवाद और संश्लेषण की प्रक्रिया का स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम है, न ही कोई आकस्मिक घटना या मानव बुद्धि का निश्चित कार्य ।

(2) हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति क्रान्ति और पुनरुद्धार की प्रतीक है। इस पद्धति के अन्तर्गत समाज की वर्तमान शक्तियाँ पुरानी संस्थाओं को नष्ट कर देती हैं, साथ ही राष्ट्र की सृजनात्मक शक्तियाँ स्थिरता बनाये रखती हैं।

(3) हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति न केवल दर्शन और इतिहास के विकास पर लागू होती है वरन् ऐसी प्रत्येक वस्तु पर भी जिसमें प्रगतिशील परिवर्तन और विकास की सम्भावनायें हैं। यह पद्धति सामाजिक शास्त्रों के लिए बहुत उपयोगी है।

(4) हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति को कार्ल मार्क्स ने अपनाकर मार्क्सवाद को वैज्ञानिक श्रेष्ठता दिलायी। मार्क्स ने यद्यपि इस पद्धति को आध्यात्मिक आधार न देकर आर्थिक आधार दिया, परन्तु इस पद्धति की तर्क पद्धति को ज्यों का त्यों रखा।

( 5 ) हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति ने विज्ञान और दर्शन में समन्वय स्थापित किया है। डॉयल के शब्दों में, "हीगल ने अपनी द्वन्द्वात्मक पद्धति द्वारा दर्शन एवं विज्ञान की पृथक्ता का अन्त कर दिया। उसने दर्शन का विज्ञान से सम्बन्ध स्थापित करके दर्शन को पुनः बल प्रदान किया।”

(6) राइट  ने कहा है कि, “हीगल के द्वन्द्ववाद का प्रारम्भ विशुद्ध तर्क की सर्वाधिक अमूर्त धारणा से होता है, जिसका केवल नाममात्र के लिए अस्तित्व होता है। द्वन्द्ववाद का अन्त, विचार के सर्वाधिक मूर्तरूप में होता है, जो अपनी पूर्ण व्यापकता एवं यथार्थता में निरपेक्ष बुद्धि का दर्शन होता है । " 

हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति के दोष 

( 1 ) हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति को लागू करने में कुछ कठिनाइयाँ हैं, जैसे

(i) वाद, प्रतिवाद और संश्लेषण को एक-दूसरे के साथ सम्बद्ध के अतिरिक्त और किसी प्रकार नहीं जाना जा सकता है, 

(ii) धर्म, दर्शन, कानून और इतिहास में द्वन्द्ववाद की प्रक्रिया के अतिरिक्त बाह्य वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है, 

(iii) प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों के सन्दर्भ में भी इस पद्धति को लागू करने में कठिनाई पैदा होती है।

( 2 ) हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति का उद्देश्य 'विचार के नियमों'  का विशेषकर 'तार्किक विरोध' के नियम का संशोधन करना था। इसका अर्थ यह हुआ कि तर्कशास्त्र का निर्माण इस आधार पर होना चाहिए कि एक ही प्रस्थापना  एक ही समय में सही भी हो सकती है और गलत भी। 

परन्तु जैसा कि सेबाइन कहता है कि हीगल के पश्चात् किसी भी दार्शनिक ने इस 'प्रस्थापना को पूरी गम्भीरता से ग्रहण नहीं किया है।

(3) हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति का निष्कर्ष है कि वह बुद्धि एवं इच्छा को एक कर देती है। इसका अर्थ यह हुआ कि यह पद्धति 'आवेग का तर्कशास्त्र' अर्थात् विज्ञान एवं काव्य का समन्वय है। सच यही है कि यह पद्धति तर्कशास्त्र की अपेक्षा नीतिशास्त्र के अधिक निकट है।

( 4 ) हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति के बारे में कहा गया है कि वह सापेक्षवाद  को निरपेक्षवाद  के साथ संयुक्त करती है। प्रत्येक स्थिति में निरपेक्ष पर समस्त बोझ और बल रहता है, परन्तु अन्त में वह केवल अल्पकालिक सिद्ध होता है। जब तक निरपेक्ष रहता है, तब तक वह अपने इसी रूप में रहता है।  परन्तु अन्त में जब 'विश्वात्मा' का विकास होता है, तब उसकी पराजय होती है। इस प्रकार हीगल की पद्धति न्याय को केवल एक ही कसौटी प्रदान करती है - सफलता, जोकि सदैव ठीक नहीं है ।

(5) हीगल की पद्धति बहुत ही अस्पष्ट है। हीगल के अनुसार सभी परिवर्तन ‘विचार' की प्रेरणा के कारण होते हैं, परन्तु यह सदैव ही सच नहीं है। न्यायाधीश होम्स ने कानून के विषय में कहा है कि उसमें तर्क की अपेक्षा अनुभव का अधिक महत्त्व होता है। सेबाइन कहता है कि होम्स का यह कथन सामाजिक विकास की सभी शाखाओं के बारे में लागू होता है।

अन्ततः सेबाइन का कथन उल्लेखनीय है कि द्वन्द्वात्मक पद्धति की सिद्धि यह थी कि उसने ऐतिहासिक निर्णयों और नैतिक निर्णयों को तार्किक आधार प्रदान किया।ऐतिहासिक और नैतिक निर्णयों को संयुक्त करने के प्रयास में द्वन्द्वात्मक पद्धति ने दोनों के अर्थ को स्पष्ट करने के स्थान पर उलझा दिया है।”

द्वन्द्वात्मक पद्धति की आलोचना

यद्यपि बौद्धिक प्रक्रियाओं को समझने की दृष्टि से हीगल की द्वन्द्वात्मक पद्धति को बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है, लेकिन इसकी विभिन्न दृष्टिकोणों से आलोचना भी की गयी है, जो निम्नलिखित प्रकार से है।

प्रथम, हीगल ने इस पद्धति को बहुत ही मनमाने ढंग से अपनाया है और खींचतान करके इसे ऐसे तथ्यों पर भी लागू करने की चेष्टा की है जिन पर इसे सफलतापूर्वक लागू नहीं किया जा सकता। 

उदाहरण के लिए, वह सम्पूर्ण विश्व इतिहास को तीन युगों में विभाजित करता है - पूर्वी युग, यूनानी तथा रोमन युग और जर्मन युग इन तीन युगों के अतिरिक्त वह विश्व इतिहास में अन्य किसी युग को महत्त्वपूर्ण नहीं मानता। 

इतिहास की दृष्टि से यह स्थिति सत्य से कोसों दूर, भ्रान्तिपूर्ण और दूषित मनोवृत्ति की परिचायक है। इस प्रकार यह पद्धति हमें वास्तविकताओं का ज्ञान कराने के बजाय विभिन्न भ्रान्तियों के जाल में उलझा देती है।

द्वितीय, इस पद्धति के द्वारा विभिन्न वस्तुओं के बीच विरोध की निराधार और अनावश्यक कल्पना की गयी है। हीगल जहाँ कहीं भी अस्पष्ट रूप से विरोध के दर्शन करता है, वहाँ तुरन्त द्वन्द्वात्मक विरोध की कल्पना करके वाद, प्रतिवाद और समवाद के त्रिकोण की स्थापना कर देता है। 

उदाहरण के लिए, हीगल अपनी पुस्तक 'Spirit of Philosophy' में यह प्रतिपादित करता है कि कला, धर्म और दर्शन क्रमशः वाद, प्रतिवाद और समवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं। किन्तु यह नहीं बताता और न ही यह बता पाना सम्भव है कि कला और धर्म परस्पर विरोधी कैसे हैं और उनमें समन्वय से दर्शन कैसे उत्पन्न होता है ?

तृतीय, इस पद्धति में वैज्ञानिकता का नितान्त अभाव है। इस पद्धति को अपनाते हुए मनमाने रूप से वाद, प्रतिवाद और समवाद की स्थितियाँ खड़ी करके किसी भी अच्छी व्यवस्था को बुरी और बुरी व्यवस्था को अच्छी सिद्ध किया जा सकता है। 

उदाहरण के लिए, इस पद्धति का प्रयोग करके स्वयं हीगल ने प्रशिया के निरंकुश राजतन्त्र को विश्व की सबसे श्रेष्ठ व्यवस्था सिद्ध किया था। इस पद्धति की अवैज्ञानिकता इस बात से भी स्पष्ट है कि इस पद्धति को अपनाकर हीगल और मार्क्स ने राज्य के सम्बन्ध में परस्पर नितान्त विरोधी धारणाएँ व्यक्त कीं। 

इस पद्धति की अवैज्ञानिकता को लक्ष्य करते हुए वेपर लिखते हैं कि, “हीगल की यह पद्धति सिर्फ नाममात्र के लिए ही वैज्ञानिक है क्योंकि इसका विकास विज्ञान के बगीचे में नहीं, वरन् प्रशिया के शासन की दासता के कूड़े में हुआ । "

इस पद्धति के विभिन्न दोषों को देखकर निष्कर्ष रूप में वेपर आगे लिखते हैं, " जिस प्रकार 18वीं सदी में प्राकृतिक कानून का सिद्धान्त इसलिए लोकप्रिय था कि इससे सब मनुष्य अपनी कल्पना के अनुसार पहले ही स्वीकार किये गये न्याय सम्बन्धी सिद्धान्तों को सिद्ध कर सकते थे,। 

उसी प्रकार 19वीं और 20वीं सदी में द्वन्द्वात्मक पद्धति ने विचारकों को इस बात की सुविधा प्रदान की कि वे इसके आधार पर राज्य के सम्बन्ध में मनचाहे सिद्धान्त निकाल सके।" कैटलिन जैसे व्यक्तियों ने तो इसका 'मनोरंजक बौद्धिक अभ्यास'  कहकर उपहास किया है। अतः कुल मिलाकर इस पद्धति के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि विभिन्न घटनाओं और विकास क्रमों की व्याख्या करने वाले सिद्धान्त के रूप में यह बहुत भ्रामक है ।

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